Read this article in Hindi to learn about the organisation of trade and commerce during Mughal rule in India.

भारत का व्यापारी वर्ग बहुसंख्य, पूरे देश में फैले हुए, सुसंगठित और बेहद पेशेवर था । अगर कुछ लंबी दूरी के अंतर्क्षेत्रीय व्यापार में सिद्धहस्त थे तो कुछ स्थानीय खुदरा व्यापार में । पहले वालों को सेठ, बोहरा या मोदी तथा दूसरे वालों को व्यापारी या बनिक कहा जाता था ।

वस्तुओं के खुदरा व्यापार करने के अलावा बंनिक गाँवों और कस्बों में अपने गुमाश्ते भी बिठाते थे, जिनकी सहायता से वे अनाजों और नकदी फसलों को खरीदते थे । बंजारे नाम से ऐसे व्यापारियों की एक और श्रेणी थी जो थोक माल को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने में सिद्धहस्त थी ।

बंजारे लंबी दूरियाँ तय करते थे और कभी-कभी तो हजारों बैलों पर अनाज, दालें, घी, नमक आदि लादकर चलते थे । कपड़े रेशम आदि अधिक कीमती वस्तुओं को ऊँटों या खच्चरों या गाड़ियों पर लादा जाता था । लेकिन नदियों के रास्ते नावों पर भारी मालों की ढुलाई सस्ती पड़ती थी । जलमार्गों के रास्ते नावों पर यातायात और समुद्र तटों के किनारे-किनारे व्यापार आज की अपेक्षा अधिक विकसित थे ।

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खाद्य पदार्थो और अनेक प्रकार के कपड़ों का व्यापार इस काल के अंतर्क्षेत्रीय व्यापार की सबसे महत्वपूर्ण वस्तुएँ थीं । बंगाल शक्कर और चावल का तथा मलमल और रेशम के वस्त्रों का भी निर्यात करता था । कोरोमंडल तट कपड़ा-उत्पादन का केंद्र बन चुका था तथा वह गुजरात के साथ भारी व्यापार करता था-तट के किनारे-किनारे भी और दकन पार करके भी ।

गुजरात विदेशी मालों का प्रवेश-बिंदु था । वह उत्तर भारत को बारीक कपड़े और रेशम (पटोला) भेजता था । बुरहानपुर और आगरा उत्तर भारत में व्यापार के दो प्रमुख केंद्र थे । वहाँ बंगाल से अनाज और रेशम तथा मलाबार से काली मिर्च भी पहुँचती थी । उत्तर भारत विलासिता की वस्तुओं का आयात करता था और नील व अनाजों का निर्यात करता था ।

हस्तशिल्प उत्पादन का एक और केंद्र लाहौर था । वह कश्मीर में बनी विलासिता की वस्तुओं-शालों, कालीनों आदि-का वितरण-केंद्र भी था । पंजाब और सिंध के माल सिंधु नदी के रास्ते बाहर भेजे जाते थे । लाहौर का एक ओर काबुल और कंदहार के साथ और दूसरी ओर दिल्ली और आगरा के साथ घनिष्ठ व्यापारिक संबंध था ।

इस तरह भारत का अंतर्क्षेत्रीय व्यापार सिर्फ विलासिता की वस्तुओं को लेकर नहीं था । इन मालों की आवाजाही एक पेचीदा तत्र के जरिए होती थी जो थोक व्यापारियों को सौदागरों से, फिर नीचे की ओर गुमाश्तों (एजेंटों) और कमीशनखोरों (दलालों) के जरिए क्षेत्रीय और स्थानीय स्तर से जोड़ती थी ।

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सत्रहवीं सदी में जो डच और अंग्रेज व्यापारी गुजरात आए उन्होंने भारतीय व्यापारियों को सक्रिय और जागरूक पाया । अंदरूनी खबरों के लिए जमकर मुकाबला चलता था और देश के किसी भाग में वस्तुओं की जब माँग पैदा होती थी तो उसे तेजी से पूरा किया जाता था ।

मालों के यातायात को एक ऐसी वित्तीय व्यवस्था के विकास से भी बढ़ावा मिला जिसके कारण देश के एक से दूसरे भाग में मुद्रा का आसानी से भेजा जाना संभव था । यह काम हुंडियों के जरिए किया जाता था । हुंडी एक साखपत्र होती थी जिसकी एक विशेष अवधि बीतने पर बट्‌टा काटकर अदायगी की जाती थी ।

हुंडिय: में प्राय: बीमा भी शामिल होता था जो मालों के मूल्य मंजिल, यातायात के साधन, (स्थल, नदी या समुद्र) आदि के आधार पर अलग-अलग दरों से वसूल किया जाता था । जो सर्राफ मुद्रा के विनिमय में सिद्धहस्त थे, वे ही हुंडियों का कारोबार भी करते थे । इस प्रक्रिया में वे निजी बैंकों की तरह भी काम करते थे; वे अमीरों की जमाराशियाँ रखते और उसे उधार पर चलाते थे ।

हुंडियों के द्वारा वे साख (क्रेडिट) पैदा करते थे, जो परिचलन में मुद्रा की कमी को पूरा करता था क्योंकि सौदागर अपनी मंजिल पर माल बेचने के बाद अपनी हुंडी को भुना सकता था । इस तरह मुद्रा की आवाजाही में, जो हमेशा जोखिम से भरी होती थी, कमी आई ।

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वीरजी वोहरा जैसे धनी व्यापारियों ने भारत के विभिन्न भागों में तथा पश्चिम व दक्षिण-पूर्व एशिया में भी अपनी कोठियाँ कायम कर लीं । तब हुंडियों की व्यवस्था और भी अच्छी हो गई । भारत का व्यापारी समुदाय किसी एक जाति या धर्म का नहीं था । गुजराती सौदागरों में हिंदू, जैन और मुस्लिम, जो अधिकतर बोहरे थे, शामिल थे ।

राजस्थान में ओसवालों, माहेश्वरियों और अग्रवालों को मारवाड़ी कहा जाने लगा । पश्चिम एशिया से स्थलीय व्यापार मुलतानियों, अफगानों और खत्रियों के हाथों में था । अठारहवीं सदी में मारवाड़ी महाराष्ट्र और बंगाल तक फैल गए । कोरोमंडल तट के चेट्‌टी (शेट्‌टी) और मलाबार के मुस्लिम व्यापारी, भारतीय और अरब दोनों, दक्षिण भारत के सबसे महत्वपूर्ण व्यापारी समुदाय थे ।

भारत के व्यापारी समुदाय में, विशेषकर बंदरगाही नगरों में, कुछ सबसे धनी व्यापारी भी थे जिनकी धन और शक्ति की तुलना यूरोप के सौदागर राजाओं से की जा सकती थी । उदाहरण के लिए सूरत के व्यापार पर अनेक दशकों तक वीरजी वोहरा का वर्चस्व रहा । उसके पास जहाजों का एक भारी बेड़ा था और उसे अपने समय के सबसे धनी लोगों में गिना जाता था ।

1718 में अपनी मृत्यु के पश्चात अब्दुल गफूर बोहरा अपने पीछे 55 लाख रुपए नकद और माल-असबाब तथा 17 समुद्रगामी जहाजों का एक बेड़ा छोड़ गया था । इसी तरह कोरोमंडल तट के मलय चेट्‌टी, काशी वीरन्ना और सुचां रामा चेट्‌टी बेहद धनी समझे जाते थे तथा भारत और विदेशों में उनके लंबे-चौड़े कारोबार थे ।

आगरा, दिल्ली, बालासोर (उड़ीसा) और बंगाल में भी अनेक धनी सौदागर थे । इनमें से कुछ सौदागर तो तड़क-भड़क का जीवन जीते थे और चाल-ढाल में अमीरों की नकल करते थे ।

यूरोपीय यात्रियों ने ऐसे फैलावदार और मजबूत मकानों का उल्लेख किया है जिनमें दिल्ली और आगरा के धनी सौदागर रहते थे । लेकिन मामूली व्यापारी अपनी दुकानों के ऊपर बने मकानों में रहते थे । फ्रांसीसी यात्री बर्नियर कहता है कि व्यापारी अपने को गरीब जताते रहते थे, क्योंकि उन्हें इस बात का डर था कि उनको ‘भींगा स्पंज’ मानकर उनकी दौलत निचोड़ ली जाएगी ।

यह बात पूरी तरह सच नहीं लगती । शेरशाह के समय से ही बादशाहों ने व्यापारियों की संपत्ति की रक्षा के लिए अनेक कानून बनाए थे । शेरशाह के कानून जगतप्रसिद्ध हैं । जहाँगीर के कानूनों की एक धारा यह थी कि ‘यदि किसी व्यक्ति, चाहे वह काफिर हो या मुसलमान, की मृत्यु हो जाए तो उसकी संपत्ति और माल-असबाब उसके उत्तराधिकारियों के लिए सुरक्षित रखा जाए और कोई उन्हें हाथ न लगाए । अगर उसका कोई वारिस न हो तो उस संपत्ति की रक्षा के लिए निरीक्षक और अलग से संरक्षक नियुक्त किए जाएँ ताकि उसे वैध ढंग से खर्च किया जा सके जैसे मस्जिदों और सरायों का निर्माण टूटे पुलों की मरम्मत और तालाबों कुँओं की खुदाई पर ।’

लेकिन स्थानीय अधिकारी अपनी शक्ति का दुरुपयोग व्यापारियों को परेशान करने के लिए भी कर सकते थे । व्यापारियों की संपत्ति, कुछ परेशानियों के बावजूद, आम तौर पर सुरक्षित रहती थी । यातायात के साधन सस्ते और उनकी आवश्यकताओं के लिए पर्याप्त थे ।

कुछ यूरोपीय यात्रियों की शिकायतों के बावजूद सड़कों पर संतोषजनक सुरक्षा थी और बीमे की व्यवस्था थी । प्रमुख राजमार्गो पर 5-5 कोस की दूरी पर सरायों के साथ यात्रा उस काल के यूरोप जितनी ही सुगम थी । फिर भी व्यापार और व्यापारियों की सामाजिक स्थिति हीन ही रही ।

राजनीतिक प्रक्रियाओं पर व्यापारियों का कितना प्रभाव था यह विवाद का विषय है । जहाँ तक उनके हितों का सवाल है भारतीय व्यापारी राजनीतिक क्षेत्रों में प्रभाव से वंचित नहीं थे । हर सौदागर समुदाय का अपना अगुवा अर्थात नगरसेठ होता था जो उनकी तरफ से स्थानीय अधिकारियों से बातें कर सकता था । अपनी बात मनवाने के लिए अहमदाबाद में और अन्यत्र भी व्यापारियों की हड़तालों के उदाहरण मिलते हैं ।

हमने व्यापार में मुगल शाही खानदान के सदस्यों और मीर जुमला जैसे प्रमुख अमीरों की भागीदारी की बात भी कही है । इस तरह देश और व्यापारी वर्गो के कारोबार और व्यापारिक हितों के संरक्षण के प्रति मुगल शासक वर्ग लापरवाह नहीं था हालांकि उनके व्यावसायिक हितों को बढ़ावा देने में वह उस तरह सक्रिय न था, जिस तरह ब्रिटेन, फ्रांस और हालैंड जैसे कुछ यूरोपीय राज्य थे ।

भारत में सत्रहवीं सदी में व्यापार और वाणिज्य का प्रसार अनेक कारणों से हुआ । मुगल शासन मे देश का राजनीतिक एकीकरण तथा एक विशाल क्षेत्र में कानून- व्यवस्था की स्थापना इसका एक महत्वपूर्ण कारण था । मुगलों ने सड़को और सरायों पर ध्यान दिया जिससे संचार आसान हुआ ।

वस्तुओं पर एक समान कर लगाया गया जिसे साम्राज्य में प्रवेश के स्थान पर वसूला जाता था । राहदारी (चुंगी) को गैरकानूनी करार दिया गया हालांकि कुछ स्थानीय राजा इसे वसूल करते रहे । मुगलों ने देशभर में फैली टकसालों में उच्च शुद्धता वाले चाँदी के सिक्के ढलवाए । कोई भी व्यापारी अपनी चाँदी लेकर टकसाल में जा सकता था और बट्‌टा (कटौती) देकर सिक्के ढलवा सकता था । मुगल रुपया देश-विदेश में प्रामाणिक मुद्रा बन गया और इम तरह भारतीय व्यापार को इससे बढ़ावा मिला ।

कुछ मुगल नीतियों ने अर्थव्यवस्था के व्यवसायीकरण में अर्थात एक मौद्रिक अर्थव्यवस्था के विकास में भी सहायता पहुँचाई । स्थायी सेना को और अनेक प्रशासनकर्मियों को भी (लेकिन अमीरों को नहीं) वेतन नकद दिए जाते थे । जब्ती व्यवस्था में मालगुजारी का हिसाब लगाकर उसे नकद में माँगा जाता था ।

जब किसानों को आकलन की दूसरी विधियों को मसलन बंटाईदारों को चुनने की छूट दी जाती थी तब भी राज्य के भाग को आम तौर पर अनाज के व्यापारियों की सहायता से गाँवों में ही बेच दिया जाता था । अनुमान लगाया है कि लगभग 20 प्रतिशत ग्रामीण उत्पादन बाजार में आता था जो एक उच्च अनुपात है ।

ग्रामीण अनाज मंडियों के विकास के कारण छोटे कस्बों का उदय हुआ । अमीरों के यहाँ विलासिता की हर प्रकार की वस्तुओं की माँग के कारण हस्तशिल्प उत्पादन का प्रसार हुआ और नगरों का विकास भी । देश में सोलहवीं सदी में अनेक बड़े नगर विकसित हो चुके थे ।

राल्फ फिच के अनुसार आगरा और फतेहपुर सीकरी लंदन से भी बड़े थे जो उन दिनों यूरोप के सबसे बड़े नगरों में एक था । अकबर के दरबार में आने वाले जेसुइट पादरी मोंसरेत ने लिखा है कि लाहौर यूरोप या एशिया के किसी भी नगर से पीछे नहीं था ।

हाल के एक अध्ययन से स्पष्ट है कि सत्रहवीं सदी में आगरा फैलकर दो गुना हो गया । बर्नियर जिसकी रचना सत्रहवीं सदी के मध्य की है कहता है कि दिल्ली पेरिस से कम नहीं था और आगरा दिल्ली से बड़ा था । इस काल में पश्चिम में अहमदनगर और बुरहानपुर उत्तर-पश्चिम में मुलतान तथा पूरब में पटना राजमहल और ढाका बढ्‌कर बड़े-बड़े नगर बन गए ।

अहमदाबाद लंदन और उसके उपनगरों जितना बड़ा था तथा पटना की आबादी दो लाख थी जो उन दिनों के हिसाब से एक बड़ी संख्या थी । ये नगर प्रशासन के केंद्र ही नहीं थे बल्कि व्यापार और विनिर्माण के केंद्रों के रूप में भी विकसित हुए ।

मुगलों की ग्रामीण उत्पादन का एक बड़ा भाग वसूल करने और उसे मुद्रा में बदलने की क्षमता ने तथा अमीरों के हाथों में उसके संकेंद्रण ने सभी प्रकार की विलासिता की वस्तुओं की माँग को बढ़ावा दिया । इनमें मकानों सरायों और बावलियों आदि के लिए निर्माण सामग्री भी शामिल थी ।

हथियारों-सभी प्रकार की बंदूकों, तोपों, ढालों आदि-और जहाजों के निर्माण में वृद्धि सरकार के सीधे हस्तक्षेप के परिणामों के दो प्रमुख उदाहरण हैं । सचल तोपों समेत सभी प्रकार की तोपों के उत्पादन में अकबर और औरंगजेब दोनों की गहरी दिलचस्पी थी और उन्होंने तोपों के सुधार के लिए कदम भी उठाए ।

भारतीय इस्पात की तलवारों की माँग भारत से बाहर भी थी । 1651 में शाहजहाँ ने समुद्रगामी जहाजों के निर्माण का एक कार्यक्रम शुरू किया तथा पश्चिम एशिया की यात्रा के लिए 4 से 6 जहाज बनाए गए ।

अगले साल 6 जहाज समुद्र में उतारे गए । यह धनी व्यापारियों और अमीर वर्ग के जहाज-निर्माण कार्यक्रम का ही एक अंग था । फलस्वरूप भारतीय गोदियाँ जल्द ही यूरोपीय तर्ज पर जहाज बनाने की स्थिति में आ गईं तथा पश्चिमी एशिया के लिए माल भाडों में कमी आई ।

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