Read this article in Hindi to learn about the causes of conflict between the sons of Shah Jahan towards the end of his rule in the medieval period.

शाहजहाँ के काल के अंतिम कुछ वर्ष उसके बेटों के बीच उत्तराधिकार के भयानक युद्ध से प्रभावित रहे । मुसलमानों में या तैमूरियों में भी उत्तराधिकार का कोई सुस्पष्ट नियम नहीं था । शासक द्वारा उत्तराधिकारी के नामांकन के अधिकार को कुछ मुस्लिम राजनीतिक विचारकों ने स्वीकार किया है ।

पर सल्तनत काल में भारत में इसका व्यवहार नहीं हो सका । न ही राज्य को खंडों में बाँटने की तैमूरी परंपरा सफल रही । भारत में कभी उसका व्यवहार भी नहीं हुआ । उत्तराधिकार के प्रश्न पर हिंदू परंपराएँ भी बहुत स्पष्ट नहीं थीं । अकबर के समकालीन तुलसीदास के अनुसार एक शासक को अपने बेटों में से किसी को भी टीका देने का अधिकार था ।

पर राजपूतों में ऐसे अनेक दृष्टांत हैं, जिनमें ऐसे नामांकन को दूसरे भाइयों ने स्वीकार नहीं किया । मसलन गद्‌दी पर अपना अधिकार जमाने से पहले साँगा को अपने भाइयों से एक तीखी लड़ाई लड़नी पड़ी थी । 1657 के अंतिम दिनों में शाहजहाँ दिल्ली में बीमार पड़ा और कुछ समय तक उसके बचने की आशा कम ही रही । पर वह सँभल गया और दारा की देखभाल के कारण धीरे-धीरे फिर उसकी सेहत ठीक होने लगी ।

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इस बीच हर तरह की अफवाहें उड़ती रहीं । कहा गया कि शाहजहाँ तो मर चुका है और दारा अपना मतलब पूरा करने के लिए सच्चाई छिपा रहा है । कुछ समय बाद शाहजहाँ धीरे-धीरे आगरा की ओर बढ़ा । इस बीच या तो शाहजादों को (बंगाल में शुजा गुजरात में मुराद और दकन में औरंगजेब को) विश्वास दिला दिया गया कि ये अफवाहें सच हैं या उन्होंने इन्हें सच मान लिया और उत्तराधिकार के अपरिहार्य युद्ध की वे तैयारी करने लगे ।

शाहजहाँ को बेटों के बीच टकराव टालने की चिंता थी, क्योंकि टकराव का मतलब साम्राज्य का विनाश होता और वह अपनी मौत को पास आते देख रहा था । इसलिए उसने दारा को अपना उत्तराधिकारी (वली- अहद) बनाने का फैसला किया । उसने दारा का मनसब 40,000 जात से बढ़ाकर अभूतपूर्व 60,000 कर दिया ।

दारा को तख्त के बगल में आसन दिया गया और तमाम अमीरों को आदेश था कि वे दारा को अपना भावी सम्राट मानकर उसकी आज्ञाओं का पालन करें । मगर शाहजहाँ की आशाओं के विपरीत उत्तराधिकार को आसान बनाने की बजाए इन कार्रवाइयों ने दूसरे शाहजादों को दारा के प्रति शाहजहाँ के पक्षपात का भरोसा दिला दिया । इससे सत्ता के लिए प्रयास करने का उनका संकल्प और दृढ़ हुआ ।

औरंगजेब को विजय दिलानेवाली घटनाओं के विस्तार में जाना हमारे लिए आवश्यक नहीं है । औरंगजेब की सफलता के अनेक कारण थे । परस्पर विरोधी सलाहें मिलना और विरोधियों की शक्ति को कम करके आँकना दारा की हार के दो प्रमुख कारण थे ।

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अपने बेटों की फौजी तैयारियों और राजधानी की ओर कूच करने के इरादों के बारे में सुनकर शाहजहाँ ने दारा के बेटे सुलेमान शिकोह के नेतृत्व में एक सेना पूरब की ओर भेजी । इसकी सहायता मिर्जा राजा जयसिंह कर रहा था । मकसद शुजा से निबटना था जिसने अपने को बादशाह घोषित कर दिया था । जोधपुर के राजा जसवंत सिंह के नेतृत्व में एक और सेना मालवा भेजी गई ।

मालवा पहुँचने पर जसवंत को पता चला कि उसका सामना औरंगजेब और मुराद की मिली-जुली सेना से था । ये दोनों शाहजादे टकराव पर आमादा थे और उन्होंने जसवंत से किनारे रहने को कहा । जसंवत चाहता तो पीछे हट जाता पर इसे कायरतापूर्ण समझकर उसने जमे रहकर लड़ने का फैसला किया हालाकि स्थिति निश्चित ही उसके प्रतिकूल थी । धरमाट में औरंगजेब की विजय (15 अप्रैल 1658) ने उसके समर्थकों का हौसला बढ़ाया और उसकी प्रतिष्ठा बड़ी जबकि दारा और उसके समर्थकों का मनोबल टूटा ।

इस बीच दारा ने एक संजीदा गलती की । अपनी मजबूत स्थिति पर आवश्यकता से अधिक भरोसा करके उसने अपने कुछ बेहतरीन दस्ते पूर्वी अभियान पर भेज दिए थे । इस तरह उसने राजधानी आगरा को असुरक्षित छोड़ दिया । सुलेमान शिकोह के नेतृत्व में सेना पूरब की ओर बड़ी और उसने अच्छी सफलता प्राप्त की ।

उसने (फरवरी 1658 में) बनारस के पास शुजा को घेरकर उसे हराया । फिर उसने बिहार में भी उसका पीछा किया मानो आगरा का प्रश्न पहले ही हल किया जा चुका हो । धरमाट वाली हार के बाद इन सेनाओं को जल्द आगरा पहुँचने का फरमान भेजा गया । जल्दबाजी में एक संधि (7 मई 1658) करके सुलेमान शिकोह ने पूर्वी बिहार में स्थित मुंगेर के पास से खेमा उखाड़कर आगरा की ओर कूच किया ।

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पर औरंगजेब से भिड़ने के लिए समय पर आगरा पहुँच सकना उसके लिए शायद ही सभव था । धरमाट के बाद दारा ने सहयोगी जुटाने के जी-तोड़ प्रयास किए । उसने बार-बार जसवंत सिंह को पत्र लिखे, जो वापस जोधपुर जा चुका था । उदयपुर के राणा से भी संपर्क किया गया । जसवंत सिंह धीरे-धीरे चलकर अजमेर के पास पुष्कर तक आए ।

दारा के दिए धन से एक सेना खड़ी कर लेने के बाद वह वहीं राणा के आ मिलने की प्रतीक्षा करने लगा । लेकिन राणा को औरंगजेब पहले ही अपनी ओर कर चुका था । उसने उसे 7000 का मनसब देने का वादा किया था और वे परगने लौटाने का भी जिन्हें 1654 में चित्तौड़ को नए सिरे से किलाबंद करने के बारे में उठे विवाद के बाद शाहजहाँ और दारा ने उससे छीन लिए थे ।

औरंगजेब ने राणा को धार्मिक स्वतंत्रता देने का तथा ‘राणा साँगा की बराबरी की प्रतिष्ठा देने’ का वादा भी किया । इस तरह दारा महत्वपूर्ण राजपूत राजाओं को अपनी ओर लाने में नाकाम रहा ।

सामूगढ़ की लड़ाई (29 मई 1658) बुनियादी तौर पर कुशल सिपहसालारी की लड़ाई थी, क्योंकि दोनों पक्ष सख्या में लगभग बराबर थे (हर पक्ष लगभग 50,000 या 60,000 का था) | इस बारे में औरंगजेब से दारा का कोई मुकाबला ही नहीं था ।

दारा जिन हाड़ा राजपूतों और बारहा के सैयदों पर भरोसा कर रहा था, वे जल्दबाजी में भरती की गई शेष सेना की कमजोरी की भरपाई शायद ही कर सकते थे । औरंगजेब की सेनाएँ युद्ध में तपी हुई थीं और उनका नेतृत्व कुशल था । औरगंजेब ने बराबर यही दिखावा किया कि अपने बीमार बाप को देखना और उसे ‘धर्मद्रोही’ दारा के चुंगल से छुड़ाना, उसके आगरा जाने का एकमात्र उद्‌देश्य है ।

पर औरंगजेब और दारा का युद्ध एक ओर धार्मिक कट्‌टरता और दूसरी ओर धार्मिक उदारता का युद्ध नहीं था । दोनों प्रतिद्वंद्वियों के समर्थन में हिंदू-मुस्लिम अमीर दोनों ही बराबर-बराबर बेटे हुए थे । हम प्रमुख राजपूत राजाओं का रवैया देखे हैं । बहुत-से दूसरे टकरावों की तरह इस टकराव में भी अमीरों के रुख उनके निजी स्वार्थो और शाहजादों से उनके संबंधों पर निर्भर थे ।

दारा के हारने और भागने के बाद शाहजहाँ आगरा के किले में घिर गया । किले की जल-आपूर्ति बंद करके औरंगजेब ने शाहजहाँ को समर्पण करने पर मजबूर कर दिया । शाहजहाँ को किले के हरम में बंद कर दिया गया और सख्ती से उसकी निगरानी की जाने लगी हालांकि उसके साथ दुर्व्यवहार नहीं हुआ ।

वहाँ आठ लंबे बरस उसने गुजारे, जहाँ उसकी प्रिय बेटी जहाँआरा ने उसकी अच्छी देखभाल की, जो अपनी इच्छा से किले में बनी रही । सार्वजनिक जीवन में उसकी वापसी शाहजहाँ की मृत्यु के बाद ही हुई । औरंगजेब ने उसे पूरा सम्मान दिया तथा उसे फिर से साम्राज्य की अग्रणी महिला का स्थान दिलाया । उसने उसकी सालाना पेंशन भी 12 लाख से बढ़ाकर 17 लाख रुपए कर दी ।

मुराद के साथ औरंगजेब के समझौते के अनुसार दोनों के बीच साम्राज्य का विभाजन होना था । औरंगजेब का साम्राज्य को बाँटने का कोई इरादा नहीं था । इसलिए उसने धोखे से मुराद की कैद करके ग्वालियर जैल में डाल दिया । दो साल बाद उसे मार डाला गया ।

सामूगढ़ की लड़ाई हारने के बाद दारा लाहौर भाग गया और उसके आमपास के क्षत्रों पर नियंत्रण रखने की योजना बनाने लगा । पर एक भारी सेना लेकर औरंगजेब जल्द ही उसके पास तक पहुँच गया । दारा का साहस जाता रहा । बिना लड़े लाहौर छोड़कर वह सिंध चला गया । इस तरह उसकी किस्मत लगभग तय हो गई ।

हालांकि यह गृहयुद्ध दो साल से अधिक समय तक खिंचा, पर इसके परिणाम को लेकर शायद ही कोई संदेह रहा हो । दारा का सिंध से गुजरात जाना फिर मारवाड़ के राजा जसवंत सिंह के निमंत्रण पर अजमेर पहुँचना और फिर जसवंत सिंह की धोखेबाजी ये सब बातें सुज्ञात हैं । अजमेर के पास देवराई की लड़ाई (मार्च 1659) औरंगजेब के साथ दारा की आखिरी बड़ी लड़ाई थी ।

दारा चाहता तो भागकर ईरान जा सकता था, पर उसने अफगानिस्तान में फिर से भाग्य आजमाना चाहा । रास्ते में बोलन दर्रे में एक धोखेबाज अफगान सरदार ने उसे कैद कर लिया और उसके भयानक दुश्मन के हवाले कर दिया । काजियों के एक दल ने फैसला सुनाया कि ‘दीन और शरीअत की हिफाजत के लिए और राज्य संबंधी कारणों से भी तथा सार्वजनिक शांति नष्ट करने वाला होने के कारण’ दारा को जीने की इजाजत नहीं दी जा सकती ।

औरगंजेब ने अपने राजनीतिक उद्‌देश्यों के लिए आड़ के तौर पर जिस तरह धर्म का इस्तेमाल किया यह उसी की एक मिसाल था । दारा के मारे जाने के दो साल बाद उसके बेटे सुलेमान शिकोह को, जिसने गढ़वाल के राजा के यहाँ शरण ली थी एक हमले का खतरा पैदा होने पर औरंगजेब के हवाले कर दिया गया । उसका भी हाल अपने बाप जैसा ही हुआ ।

उससे पहले औरंगजेब शुजा को इलाहाबाद के पास खजुवा में (दिसंबर 1658 में) हरा चुका था । उसके खिलाफ मुहिम जारी रखने का काम मीर जुमला को सौंपा गया जो बराबर अपना दबाव बढ़ाता गया जब तक कि शुजा (अप्रैल 1660 में) भारत छोड़कर अरकान नहीं चला गया । जल्द ही, विद्रोह भड़काने के आरोप में अरकानियों के हाथों उसकी और उसके परिवारवालों की निर्मम मृत्यु हुई ।

इस गृहयुद्ध ने, जिसने साम्राज्य को दो साल से अधिक समय तक अस्त-व्यस्त रखा दिखा दिया कि गद्‌दी के दावेदार न तो शासक के नामांकन को स्वीकार करते थे न साम्राज्य के विभाजन को । सैन्यबल उत्तराधिकार का एकमात्र निर्णायक बन गया तथा गृहयुद्ध लगातार अधिकाधिक विनाशकारी होते गए ।

अपनी गद्‌दी को सुरक्षित बना लेने के बाद औरंगजेब ने भाइयों के बीच जानलेवा युद्ध की निर्मम मुगल प्रथा को एक सीमा तक नरम बनाने की कोशिश की । जहाँआरा बेगम के कहने पर दारा का बेटा सिपिहर शिकोह को 1673 में कैद से रिहा कर दिया गया, उसे एक मनसब दिया गया और औरंगजेब की एक बेटी से उसका विवाह कर दिया गया ।

मुराद के बेटे इज्जतबख्श को भी रिहा करके मनसब दिया गया और औरंगजेब की एक और बेटी से उसका विवाह कर दिया गया । इससे पहले 1669 में औरंगजेब के तीसरे बेटे मुहम्मद आजम से दारा की बेटी जानी बेगम को व्याहा गया था जिसकी देखभाल जहाँआरा बेगम ने अपनी बेटी की तरह की थी । औरंगजेब के परिवार तथा उसके हारे हुए भाइयों के बच्चों और पोते-पोतियों के बीच और भी अनेक विवाह हुए । इस तरह औरंगजेब और उसके हारे हुए भाइयों के परिवार तीसरी पीढ़ी में एक हो गए ।

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