Read this article in Hindi to learn about:- 1. अल्पविकसित अर्थव्यवस्था  की आशय व परिभाषाएँ (Meaning and Definitions of Underdeveloped Country) 2. अल्पविकसित देशों की मापदण्डों (Criterions for Underdeveloped Countries) 3. Features 4. अर्द्धविकास एवं कुविकास (Underdevelopment and Maldevelopment).

अल्पविकसित अर्थव्यवस्था  की आशय व परिभाषाएँ (Meaning and Definitions of Underdeveloped Country):

अधिकांश निर्धन देशों को अल्पविकसित की संज्ञा दी जाती है, इनमें अधिकांश औपनिवेशिक उत्पीड़न के शिकार रहे । द्वितीय विश्व युद्ध से पूर्व इन्हें अल्पविकसित के स्थान पर पिछड़ा देश कहा जाता रहा । वस्तुत: पिछड़ा देश एक स्थैतिक दशा को अभिव्यक्त करता है, जबकि अल्पविकसित शब्द प्रावैगिक दशा की सूचना देता है ।

पिछड़े देश से अभिप्राय वस्तुत: निर्धन देशों से है, जबकि अल्पविकसित देश अपनी स्वतन्त्र राजनीतिक इकाई को बनाए रखते हुए निर्धनता को दूर करने का प्रयास करता है । अल्पविकसित शब्द को स्वतन्त्रता प्राप्त करने के उपरान्त की अवधि के रूप में दर्शाया जाता है क्योंकि प्राय: यह देश राजनीतिक रूप से स्वतन्त्र अस्तित्व रखते हैं ।

आर्थिक दृष्टि से उन देशों को अल्पविकसित कहा जाता है जो एक या अन्य कारणों से अपने आर्थिक संसाधनों का पूर्ण विकास नहीं कर पाए हैं जिसके फलस्वरूप इन देशों के निवासियों का जीवन-स्तर आर्थिक दृष्टि से समृद्ध देशों के निवासियों के सापेक्ष निम्न रहता है ।

अल्पविकसित देशों की मापदण्डों (Criterions for Underdeveloped Countries):

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अल्पविकसित देशों की परिभाषाएँ सामान्य रूप से निम्न मापदण्डों से सम्बन्धित हैं:

1. प्रति व्यक्ति निम्न आय का मापदण्ड:

यूनाइटेड नेशन्स के विशेषज्ञों के अनुसार एक अल्पविकसित देश वह है जहाँ प्रति त्यवित आय यू.एस.ए, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया एवं पश्चिमी यूरोप की प्रति व्यक्ति आय की तुलना में काफी कम है इस अर्थ में अल्पविकसित देश एक निर्धन देश है ।

अल्पविकास से अभिप्राय एक ऐसी दुर्बल स्थिति से है जिसमें प्रति व्यक्ति आय के न्यून होने से औसत उपभोग कम होता है । इन देशों में प्राय: ऐसे संसाधन होते हैं जिनका या तो उपभोग नहीं किया जाता या अर्द्ध उपयोग होता है । वस्तुत: इन संसाधनों का समुचित विद्रोहन कर विद्यमान जनसंख्या की आवश्यक्ता पूर्ति की जा सकती है तथा उसे एक उच्च जीवन-स्तर प्रदान किया जाता है ।

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ऐसे देशों में प्रति व्यक्ति आय अल्प होती है लेकिन इसमें हमेशा सुधार की संभावना विद्यमान होती है । इस कारण इन देशों को विकासशील देश की संज्ञा दी जाती है ।

प्रो. सेमुअलसन ने अपनी पुस्तक Economics में अल्पविकसित देश उसे कहा है जिसकी प्रति व्यक्ति आय कनाडा, संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन, प्रान्त व पश्चिमी यूरोप की तुलना में कम हो उनके अनुसार अल्पविकसित राष्ट्र वह है जिनमें आय के स्तर में सुधार की पर्याप्त क्षमता विद्यमान होती है ।’

बायर एवं यामी के अनुसार- अल्पविकसित देशों से अभिप्राय ऐसे क्षेत्रों से है जहाँ वास्तविक आय एवं जनसंख्या पर प्रति व्यक्ति पूँजी का स्तर उत्तरी अमेरिका, पश्चिमी यूरोप व ऑस्ट्रेलिया के सापेक्ष अल्प है ।

अल्प विकसित के स्थान पर निर्धन देश का प्रयोग करते हुए प्रो. मेयर एवं बाल्डविन ने भी वास्तविक प्रति व्यक्ति आय को उचित मापदण्ड माना ।

ADVERTISEMENTS:

प्रो. बेंजामिन हिगिन्स ने स्पष्ट किया कि मात्र निम्न प्रति व्यक्ति आय के मापदण्ड को स्वीकार्य करने से तात्पर्य अन्य मापदण्डों व तत्त्वों की अवहेलना करना है । मात्र इस तकनीकी दृष्टि से विचार करने पर अल्पविकसित होने का सभ्यता, संस्कृति या आध्यात्मिक मूल्यों की दृष्टि से कोई अर्थ नहीं होता ।

प्रो.एच.मिर का मत था कि प्रति व्यक्ति आय का कम होना अल्पविकास का मात्र एक पक्ष है । प्रति व्यक्ति आय पर आधारित इन परिभाषाओं को सबसे बड़ा दोष है कि यह साधनों के अल्प विकास के बारे में कोई जानकारी नहीं देतीं ।

प्रति व्यक्ति आय मापदण्ड की सीमाएँ निम्न बिंदुओं से स्पष्ट होती है:

i. प्रति व्यक्ति आय का स्तर किसी देश के आर्थिक विकास का एकमात्र सूचक नहीं, संभव है कि प्रति व्यक्ति आय अधिक होते हुए भी कोई देश अल्पविकसित बना रहे । यह तभी संभव है कि देश में प्रति व्यक्ति आय कम हो पर वह विकसित हो ।

ii. किसी देश की राष्ट्रीय आय का मापन एक कठिन कार्य है । अल्पविकसित देशों में अमौद्रिक क्षेत्र का सापेक्षिक रूप से अधिक होना एवं राष्ट्रीय आय के समकों के उपलब्ध न होने के कारण गणना संबंधी दोष उत्पन्न होते हैं ।

iii. भिन्न देशों में राष्ट्रीय आय के मापन की भिन्न-भिन्न विधियाँ प्रचलित हैं । अत: राष्ट्रीय आय के आकड़ों का तुलनात्मक अध्ययन प्राय: दोषपूर्ण होता है ।

iv. प्रति व्यक्ति आय का मापदण्ड उपभोग को निम्न स्तर, अवरूद्ध विकास एवं विकास संभावना के कारणों को ध्यान में नहीं रखता ।

v. यह ध्यान रखना आवश्यक है कि समय के साथ-साथ विकसित देशों की आय में भी वृद्धि होगी, ऐसे में अल्पविकसित देशों की प्रति व्यक्ति आय कभी भी विकसित देशों के बराबर नहीं हो पाएगी ।

उपर्युक्त सीमाओं के कारण प्रो. जैकोब वाइनर ने अपने ग्रन्थ International Trade and Economic Development (1953) में प्रति व्यक्ति आय के साथ रहन-सहन के स्तर में वृद्धि के मापदण्ड को उपयुक्त माना । वाइनर के अनुसार- अल्प विकसित देश ऐसे देश है जो अधिक पूँजी या अधिक श्रम या अधिक उपलब्ध प्राकृतिक साधनों या इन सब को प्रयोग करने की बेहतर उपलब्ध संभावनाएँ रखते है जिससे विद्यमान जनसंख्या को एक उच्च जीवन-स्तर प्रदान किया जाना संभव बने ।

2. निर्धनता का मापदण्ड:

प्रो. यूजीन स्टेनले ने निर्धनता के मापदण्ड को ध्यान में रखते हुए स्पष्ट किया कि एक देश जहां जन निर्धनता के लक्षण दिखाई देते हैं, जो दीर्घकालिक हों तथा किसी अस्थायी दुर्भाग्य से उत्पन्न न होकर उत्पादन की परम्परागत विधि व सामाजिक संगठन से उत्पन्न हो ।

इससे अभिप्राय है कि निर्धनता पूर्णत: प्राकृतिक संसाधनों की दुर्बलता का कारण नहीं है व इसे उन विधियों का उपयोग कर न्यून किया जा सकता है जो अन्य देशों में प्रमाणिक मान ली गयी है । यह परिभाषा निर्धनता, उत्पादन की परम्परागत विधि एवं दोषपूर्ण सामाजिक संगठन के बिंदुओं को ध्यान में रखती है, लेकिन इसमें प्रति व्यक्ति आय के न्यून होने के मापदण्ड को महत्व नहीं दिया गया है ।

बुचानन एवं एलिस के अनुसार- एक आर्थिक रूप से अल्प विकसित देश वह है जहाँ औसत रूप से निवासियों का उपभोग स्तर एवं भौतिक कल्याण विकसित देश के सापेक्ष कम है । निर्धनता एक सापेक्षिक शब्द है किसी देश को अल्पविकसित देश की संज्ञा देने से अभिप्राय है कि उसकी वर्तमान आर्थिक दशा में, जिसका प्रभाव औसत उपभोग एवं भौतिक स्तर के आधार पर प्राप्त होता है को जात एवं समझे हुए साधनों की सहायता से सुधारा जा सकता है ।

निर्धनता के मापदण्ड पर रोजेन्सटीन रोडान (1943), सिंगर (1953), सीटोवस्की (1954), मावर्स फ्लेमिंग (1955) द्वारा भी विचार किया गया । नर्क्से ने निर्धनता के दुश्चक्र का विचार प्रस्तुत किया तो नेल्सन ने निम्न स्तर संतुलन पाश की व्याख्या की ।

वस्तुत: निर्धनता का विषम चक्र प्रति व्यक्ति न्यून आय के मापदण्ड पर आधारित है । यह आय के कम होने का कारण पूँजी की कमी बताता है, आय के कम होने से बचत की क्षमता कम होती है जिससे विनियोग भी कम होता है तथा पूँजी का अभाव उत्पन्न होता है ।

3. पूँजी के अभाव का मापदम्ड:

पूँजी के अभाव के मापदण्ड का आधार लेते हुए प्रो. आस्कर लांगे ने अपनी पुस्तक Essays on Economic Planning में अल्पविकसित अर्थव्यवस्था को ऐसी अर्थव्यवस्था के द्वारा निरूपित किया जहाँ उपलब्ध पूँजी वस्तुओं का स्टाक इतना पर्याप्त नहीं होता कि वह उपलब्ध श्रमशक्ति को उत्पादन की आधुनिक तकनीक के आधार पर रोजगार दे पाए ।

मैकलायड का कथन है कि अल्पविकसित देश वह देश या क्षेत्र है, जहाँ उत्पादन के अन्य साधनों की तुलना में पूँजी व उपक्रमशीलता का अनुपात सापेक्षिक रूप से अल्प होता है । किन्तु इन देशों में अतिरिक्त पूँजी के लाभपूर्ण विनियोग की अच्छी संभावनाएँ विद्यमान होती हैं ।

रागनर नर्क्से के अनुसार अल्पविकसित देश वह हैं जो विकसित देशों के सापेक्ष अपनी जनसंख्या व प्राकृतिक साधनों की तुलना में कम पूँजी से सम्पन्न होते है ।

उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि पूँजी की कमी अल्पविकसित या विकास का कारण है परन्तु विकास की एकमात्र शर्त नहीं है । यदि कम पूँजी को अल्प विकास का निर्धारक मान लिया जाये तो अन्य सामाजिक आर्थिक घटक उपेक्षित रह जाते हैं । नर्क्से ने स्वयं कहा है- “आर्थिक विकास मानवीय गुणों सामाजिक अभिस्सइचयीं राजनीतिक दशा व ऐतिहासिक घटनाओं से निकट का संबंध रखता है प्रगति के लिए पूँजी आवक है परन्तु एक समर्थ दशा नहीं ।

4. उपर्युक्त मुख्य मापदण्डों के अतिरिक्त निम्न प्रवृतियों के आधार पर एक देश को अल्प विकास से संबंधित किया जाता है:

i. कृषि क्षेत्र द्वारा प्राप्त राष्ट्रीय आय का प्रतिशत:

एक देश की राष्ट्रीय आय का अधिक अंश यदि कृषि से प्राप्त हो रहा है तो वह अर्द्धविकसित देश होगा । इससे अभिप्राय यह है कि सकल उत्पादन में औद्योगिक उत्पादन न्यून ही रहता है ।

ii. भूमि क्षेत्र जनसंख्या अनुपात:

यदि किसी देश में भूमि क्षेत्र के सापेक्ष जनसंख्या का अनुपात अधिक है तो उस देश में अल्प विकास की प्रवृतियाँ विद्यमान होती है । यह मापदण्ड इस कारण उचित नहीं जाना जाता, क्योंकि भारत, पाकिस्तान व दक्षिणी पूर्वी एशिया के देशों में भूमि जनसंख्या अनुपात उच्च दिखाई देता है तो अफ्रीका व लेटिन अमेरिका के कई देशों में कम ।

iii. तकनीकी पिछड़ापन:

जे.आर. हिक्स के अनुसार- एक अर्द्धविकसित देश की मुख्य प्रवृति उसका तकनीकी पिछड़ापन है । कैलसों फरटाडो के अनुसार- उन क्षेत्रों में जहाँ उत्पादकता पहले से ज्ञात तकनीकों के अपनाने से बढ़ी या बढ़ सकती है, अल्प विकास के विभिन्न स्तरों वाले क्षेत्र कहे जाएँगे ।

iv. सकल राष्ट्रीय उत्पाद में व्यापार का प्रतिशत:

एक देश के सकल राष्ट्रीय उत्पाद में व्यापार का प्रतिशत जितना अधिक होगा तो यह प्रवृति आत्मनिर्भरता के कम अंश को सूचित करेगी । अल्पविकसित देशों में सामान्यत प्राथमिक उत्पादों का निर्यात एवं निर्मित वस्तुओं का आयात किया जाता है ।

v. उपभोग एवं भौतिक कल्याण का न्यून स्तर:

वाल्टर क्राज के अनुसार- एक अर्द्धविकसित देश में विकसित देशों के सापेक्ष उपभोग एवं जीवन निर्वाह का स्तर न्यून होता है ।

vi. कुल प्रति व्यक्ति ऊर्जा उपभोग:

कम विकसित देशों में प्रति व्यक्ति ऊर्जा उपभोग का स्तर न्यून होता है । जैसे-जैसे विकास की प्रक्रिया गतिशील होगी घरेलू उपभोग में ऊर्जा का अधिक प्रयोग होगा ।

vii. कुल उपभोग की गयी कैलोरी में स्टार्च का प्रतिशत:

भोजन में कैलोरी के प्रति व्यक्ति अधिक उपभोग व स्टार्च का न्यून प्रतिशत सापेक्षिक रूप से समृद्ध समाज को सूचित करता है ।

viii. स्कूल नामांकन अनुपात

ix. जीवन प्रत्याशा

x. शिशु मृत्यु दर

xi. प्रति चिकित्सक रोगियों की संख्या:

स्कूल नामांकन, शहरीकरण एवं जीवन प्रत्याशा विकास से धनात्मक रूप से संबंधित है वहीं शिशु मृत्यु दर एवं प्रति चिकित्सक मरीजों की अधिक संख्या विकास से ऋणात्मक रूप से संबंधित है ।

अर्द्धविकास के विविध मापदण्डों का अवलोकन करते हुए हबर्ट फेंकल ने कहा कि विकास का निश्चित माप संभव नहीं है, यह एक नियमित व क्रमिक प्रक्रिया है । अत: अर्द्धविकास के लझण भी हर देश में भिन्न होंगे व आर्थिक दशाओं में विविधता पायी जाएगी ।

अर्द्धविकसित क्षेत्र- मुख्य विशेषताएँ (Features of Underdeveloped Countries):

प्रो. हार्वे लीबिन्सटीन के विचार (Basic Characteristics of Underdeveloped Areas-Views of Prof. Harvey Leibinstein)

प्रो. हार्वे लीबिन्सटीन ने अपनी पुस्तक Economic Backwardness and Economic Growth (1957, P. 40-41) में अर्द्धविकसित क्षेत्र की मुख्य विशेषताओं को निम्न प्रकार क्रमबद्ध किया ।

1. आर्थिक विशेषताएँ:

(अ) सामान्य:

(i) जनसंख्या में कृषि का उच्च अनुपात (70 से 90 प्रतिशत तक) ।

(ii) कृषि क्षेत्र में निरपेक्ष रूप से अति जनसंख्या का विद्यमान होना तथा छद्‌म बेकारी की प्रवृतियाँ, कृषि के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में रोजगार के अवसरों का अभाव ।

(iii) प्रति व्यक्ति पूँजी का अल्प अनुपात ।

(iv) प्रति व्यक्ति आय का न्यून स्तर जिससे जनसंख्या जीवन निर्वाह स्तर पर कार्यरत रहती है ।

(v) जनसंख्या के काफी भाग द्वारा अति न्यून या शून्य बचतें किया जाना । बचतें सामान्यत भूमिपति वर्ग द्वारा की जाती हैं जो उद्योग या वाणिज्य में विनियोग करने की प्रवृति नहीं रखते ।

(vi) कृषि वानिकी व खनन क्षेत्र में जनशक्ति का अधिकांश भाग रोजगार प्राप्त करता है ।

(vii) खाद्यान्नों एवं प्राथमिक कच्चे माल का अधिक उत्पादन तथा सापेक्षिक रूप से प्रोटीन युक्त खाद्यान्नों का अल्प उत्पादन ।

(viii) खाद्यान्न व अन्य जीवन निर्वाह आवश्यकताओं पर व्यय का अधिक अनुपात ।

(ix) खाद्य पदार्थों व कच्चे संसाधनों का आयात ।

(x) प्रति व्यक्ति व्यापार का निम्न परिमाण ।

(xi) दुर्बल साख सुविधाएँ एवं बाजार सुविधाओं का अभाव ।

(xii) दुर्बल आवास व्यवस्था ।

(ब) कृषि की आधारभूत विशेषताएँ:

(1) भूमि पर पूंजी की न्यून मात्राओं का लगाया जाना, इसके साथ ही भूमि जोत का आकार लघु होने के कारण पूंजी का अनार्थिक प्रयोग ।

(2) कृषि तकनीकों का स्तर निम्न होना तथा प्रयोग किए जा रहे यंत्र उपकरणों की सीमितता ।

(3) घरेलू बाजार में परम्परागत व पिछडी तकनीक व विधियों का प्रयोग जिससे विपणन हेतु अतिरेक सीमित रहता है ।

(4) जनसंख्या के भूमि पर दबाव के बढ़ने के कारण भूमि जोत के उपविभाजन व विखण्डन से भूमि उत्पादकता का कम होना ।

2. जनांकिकीय विशेषताएँ:

(i) उच्च जनन दरें जो सामान्यत: 40 प्रति हजार होती हैं ।

(ii) उच्च मृत्यु दरें तथा जीवन के समय जन्म की निम्न प्रत्याशा ।

(iii) पोषण के स्तर का न्यून होना ।

(iv) स्वास्थ्य सफाई व स्वच्छता का अभाव ।

(v) ग्रामीण क्षेत्रों में जनाधिवठय ।

3. सांस्कृतिक व राजनीतिक विशेषताएँ:

(i) अशिक्षा का उच्च स्तर ।

(ii) बाल श्रम की प्रवृतियाँ ।

(iii) मष्य वर्ग का दुर्बल होना या इसका अभाव ।

(iv) महिलाओं का हीन स्तर ।

(v) जनसंख्या का बहुल भाग परम्पराओं से प्रभावित ।

4. तकनीकी एवं अन्य घटक:

(i) प्रति एकड़ न्यून उपज ।

(ii) प्रशिक्षण सुविधाओं की कमी एवं पूर्ण अभाव ।

(iii) संवाद वहन व यातायात के साधनों का अभाव ।

(iv) तकनीक का न्यून स्तर ।

इस प्रकार प्रो. लीबिन्सटीन द्वारा वर्णित विशेषताएँ तीन रूपों में विभक्त की जा सकती हैं:

1. सांख्यिकीय तथ्यों के आधार पर वर्णित,

2. सामान्य अनुभवों पर आधारित, एवं

3. व्याख्या से प्राप्त निष्कर्ष ।

रोजगार, उत्पादन आय एवं उपभोग, प्रति व्यक्ति पूँजी की मात्रा, प्रति व्यक्ति आय, जन्म एवं मृत्यु दरें, साक्षरता, प्रति एकड़ उपज इत्यादि आवश्यक रूप से सांख्यिकीय प्रकृति रखती है । यह संभव हो सकता है कि कुछ देशों में इनसे संबंधित पर्याप्त समंक उपलब्ध न हों ।

दूसरी ओर जब लीबिन्सटीन दुर्बल साख एवं बाजार सुविधाओं तथा आवासों की हीन दशा या तकनीक के न्यून स्तर एवं पुरातन विधियों के साथ समुचित यातायात सुविधाओं के अभाव की बात करते है तब वह अनुभव पर आधारित व्याख्या प्रस्तुत करते हैं । तीसरी ओर कृषि में छदम बेकारी, पूँजी के अनार्थिक प्रयोग, प्रोटीन युक्त भोजन का अभाव जैसे निष्कर्ष विभिन्न अध्ययनों का निचोड़ है ।

अर्द्धविकास एवं कुविकास (Underdevelopment and Maldevelopment):

अक्टूबर 1972 में मैकनमारा ने विश्व बैंक के अध्यक्ष की हैसियत से विकास की समस्याओं पर विचार करते हुए कहा कि- “अधिकांश विकासशील देशों में विकास की दशा अस्वीकार्य दिख रही है ।” यह अस्वीकृत इस कारण नहीं है कि कोई प्रगति नहीं हुई है । वस्तुत: प्रगति तो हुई है । सकल राष्ट्रीय उत्पाद के रूप में मापी गयी कुल आर्थिक वृद्धि विकासशील देशों में पहले विकास दशक में उपयोगी रही है लेकिन ऐसे आर्थिक उपाय भले ही वह उपयोगी रहे हों यह नहीं बतलाते हैं कि विकासशील देशों में जनसामान्य के साथ क्या बीत रही है ।

आज लाखों करोड़ों व्यक्ति न केवल निर्बल हैं बल्कि वह रोज-रोज के उन अभावों को झेल रहे है जिनसे मानवीय गौरव व प्रतिष्ठा इस सीमा तक कलंकित हो रही है जिन्हें कोई भी आकड़ा सम्यक रूप से वर्णित नहीं कर सकता । राष्ट्रीय आय में होने वाली वृद्धि निर्धनों तक नहीं पहुँच पाती है । जिसका कारण यह है कि आय के वितरण में व्यापक विषमताएँ विद्यमान हैं ।यह भी ध्यान रखना आवश्यक है कि निर्धनता एवं अर्द्धरोजगार व बेरोजगारी के, मध्य गहन संबंध विद्यमान है ।

प्रसिद्ध अर्थशास्त्री मोंटेक सिंह अहलूवालिया के अनुसार- 1950 व 1960 के दशक में होने वाली तीव्र आर्थिक वृद्धि के बावजूद विश्व की एक तिहाई से अधिक जनसंख्या भूख और कुपोषण से पीड़ित है । इसके साथ ही उनके आवास व रहन-सहन की दशा अपर्याप्त व शोचनीय है । जनसमूह को स्वास्थ्य सुविधाएँ, उपलब्ध नहीं हैं उनमें अशिक्षा का उच्च अंश दिखायी देता है ।

विकास की प्रक्रिया में दिखायी देने वाली मुख्य समस्या “बहुलता के बीच निर्धनता” है । यह समस्या 1950 के दशक में भी दिखायी दी थी, जबकि कई देशों में सामाजिक सुरक्षा व गरीबी या निर्धनता उन्मूलन कार्यक्रम तेजी के साथ चलाए गए थे । 1960 के दशक में विकास की समस्याओं का अध्ययन करने के उपरान्त पीयरसन ने अपनी पुस्तक The Crisis of Development (1970, P.9) में लिखा कि वृद्धि को अपने वास्तविक एवं चिर स्थायी अर्थ में अवश्य ही जन समूह के जीवन की गुणवत्ता एवं विशिष्टता में सुधार से संबंधित होना चाहिए तथा विकास का उद्देश्य पूर्ण रोजगार एवं आय के अधिक समान वितरण को सम्मिलित करेगा ।

निर्धनता का प्रश्न आय वितरण का केवल एक पक्ष है । सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है आर्थिक कल्याण एक राष्ट्र का आर्थिक विकास मात्र आर्थिक वृद्धि को ही समाहित नहीं करता बल्कि उसके आर्थिक कल्याण में होने वाले सुधार के सभी पक्षों को ध्यान में रखता है ।

यह ध्यान रखना आवश्यक है कि आर्थिक कल्याण देश के कुल कल्याण का मात्र एक हिस्सा है । कुल कल्याण कई अभौतिक पक्षों से भी संबंधित है जिसे मुद्रा के पैमाने से मापा जाना आवश्यक नहीं है । विकास के संदर्भ में केन्द्रीय प्रश्न यह है कि क्या आर्थिक वृद्धि तथा सम्पत्ति एवं आय का समान वितरण संतुष्ट करने वाले एवं पूरक लक्ष्य हैं या आपस में विवाद करने वाले लक्ष । निर्धनता की समस्या एवं न्यायपूर्ण वितरण आपस में अन्तर्संबन्धित लेकिन पृथक समस्याएँ है ।

एक देश में सम्पत्ति एवं आय का समान वितरण संभव होने के बावजूद वह निर्धनता की रेखा से नीचे निवास कर सकता है । सम्भव है कि एक देश में आय का वितरण असमान हो लेकिन वहाँ कोई व्यक्ति भूख से पीडित न हो । कुविकास की एक अन्य प्रवृति बेरोजगारी या संसाधनों का अर्द्धउपयोग है ।

उन्नीसवीं शताब्दी में होने वाली वृद्धि प्रतिसार या मंदी की प्रवृतियों को सूचित करता था जिसके अधीन कुछ श्रमिक बेरोजगार थे तथा पूंजी उपकरणों का अर्द्धउपयोग हो रहा था । उन्नीसवीं शताब्दी में बेरोजगारी की प्रवृति चक्रीय थी तथा यह सहन करने योग्य सीमाओं के भीतर थी पर यह स्थिति तब विस्फोटक बन गयी जब 1930 के दशक की मंदी एक भयानक खतरे के रूप में उभरी ।

इस अवधि में आर्थिक वृद्धि ऋणात्मक हो गयी तथा समूची अर्थव्यवस्थाएँ अस्त-व्यस्त हो गयी । आर्थिक संक्रांति को दूर करने के लिए कींज ने रोजगार का सामान्य सिद्धान्त प्रस्तुत किया तथा यह प्रस्तावित किया कि पूर्ण रोजगार एवं आर्थिक वृद्धि को प्राप्त करने के लिए सरकार को समर्थ मांग में वृद्धि वा उपाय अपनाना चाहिये ।

कीर्ज के अनुसार- रोजगार एवं वृद्धि अर्न्तसंबंचित है, जबकि परम्परागत विश्लेषण के अनुसार बेरोजगारी उच्च उत्पादकता एवं वृद्धि को उत्साहित करती है । मार्क्स का विचार था कि बेरोजगारों की एक सेना का अस्तित्व पूँजीवाद में आर्थिक विस्तार हेतु आवश्यक है । इन दोनों ही विचारों को कींज ने अस्वीकृत कर दिया था ।

द्वितीय विश्व युद्ध के उपरांत गैर साम्यवादी देशों विशेष रूप से विकासशील देशों में बेरोजगारी एक कठिन समस्या बन गयी थी । डेविड टर्नहाम ने The Employment Problems in Less Developed Countries में लिखा था कि 1960 के दशक तक कई विकासशील देशों में शहरी बेरोजगारी की समस्या उत्पन्न हो गयी थी तथा इसके साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों में छद्‌म बेरोजगारी, छुपी बेरोजगारी व अर्द्धबेरोजगारी की समस्याएँ दिखायी देने लगी थीं । इस प्रकार की बेरोजगारी की प्रवृतियाँ दीर्ध, स्थायी एवं सरंचनात्मक हो गयी थीं ।

1950 एवं 1960 के दशक में समूचे विश्व में दीर्घ एवं नियमित आर्थिक वृद्धि के बावजूद बेरोजगारी विद्यमान थी तथा कृषि प्रधान अर्थव्यवस्थाओं में अर्द्धरोजगार बहुत अधिक फैल गया था यहाँ तक कि अमेरिका में भी बेरोजगारी की दरें 3.5 से 5.5 प्रतिशत तक विद्यमान थी । 1970 एवं 1980 के दशक में भी बेरोजगारी की समस्या विश्व में अधिकांश देशों में बढ़ती रही ।

कुविकास की एक अन्य प्रवृति मुद्रा प्रसार है । कई विकासशील देशों ने 1950 व 1960 के दशक में मुद्रा प्रसारिक दबावों का अनुभव किया । 1970 के दशक में मुद्रा प्रसार न केवल उच्च व विश्वव्यापी था बल्कि दीर्षस्थायी व संरचनात्मक प्रवृति का था । मुद्रा प्रसार की उच्च दर आर्थिक वृद्धि की मुख्य बाधा बनती है विशेषत: उन स्थितियों में जब मुद्रा प्रसार आर्थिक अवरुद्धता के साथ जुड़ा हो । इसे Stagflation कहा गया जो एक दीर्घकालीन प्रवृत्ति के रूप मैं 1970 के दशक में पहचाना गया ।

मुद्रा प्रसार का एक आधाभूत कारण यह है कि एक देश अपनी सामर्थ्य से अधिक उपभोग करता है । यह बात वृद्धि की सीमाओं के प्रश्न से गहन रूप से संबंधित है । आर्थिक विकास के साहित्य में वृद्धि की सीमाओं का प्रश्न सर्वप्रथम 1972 में उठा जब डोनीला एच. मीडोज, डेरनिल एल. मीडोज, जोरगन रेंडर्स एवं विलियम डबल्यू बेहरीन्स ने क्लब ऑफ रोम के लिए The Limits of Growth – A Report for the Club of Rome’s Project on the Predicament of Mankind, New York, 1972 रिपोर्ट प्रस्तुत की ।

1974 में क्लब ऑफ रोम के लिए मिहाजलो मेसरोविक एवं एडवार्ड पेस्टल ने दूसरी रिपोर्ट प्रस्तुत की । इस रिपोर्ट में वृद्धि की सीमाओं के बारे में निराशाजनक मान्यताएँ ली गयी थीं जिनको ध्यान में रखते हुए विकासशील देशों के विकास प्रयासों के बारे में सुस्पष्ट विश्लेषण किया जाना संभव न था ।

अत: वृद्धि की सीमाओं के विचार को अमान्य ठहराते हुए अर्थशास्त्रियों ने स्पष्ट किया कि आवश्यक संस्थागत परिवर्तनों के साथ नयी तकनीकी क्रांति मानवता को आर्थिक वृद्धि की एक उच्च दर प्रदान करने में समर्थ है, जबकि सभी पक्षों का उचित अध्ययन किया जाये तथा इसे प्रभावपूर्ण नियोजन के साथ संबंधित किया जाये ।

उन्नीसवीं शताब्दी में आर्थिक वृद्धि से संबंधित व्याख्या मुख्यत: प्रत्यक्ष लागतों एवं प्रत्यक्ष लाभों पर आधारित थी । बीसवीं शताब्दी में यह पक्ष अपर्याप्त माना गया तथा समाज एवं मानवीय पर्यावरण पर पड़े प्रभाव को लागत-लाभ व्याख्या का भाग माना गया । सामाजिक लागतों एवं सामाजिक लाभों पर अधिक ध्यान दिया गया तथा मानव पर्यावरण के ह्रास को दूर करने, इसे सुधारने एवं परिस्थितिकी संतुलन को बनाए रखने के प्रयास किये गये ।

1972 में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रमों UNEP (United Nations Environment Programmes) की शुरूआत की गयी । आर्थिक वृद्धि की समस्याओं से संबंधित करते हुए विश्व अर्थव्यवस्था के भविष्य पर वैसिली लियोन्टीफ ने 1977 में रिपोर्ट प्रस्तुत की ।

1990 के दशक में निर्धनता से मुक्ति पाने के प्रयासों पर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर चेतना फैली । कोपेनगन में सामाजिक विकास के विश्व अधिवेशन में 185 सरकारों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया । इस अधिवेशन में यह स्वीकार किया गया कि मानव जाति के विकास हेतु निर्धनता की समस्या का निराकरण अपरिहार्य है । इसके लिए व्यक्ति केन्द्रित विकास पर अवलंबित रहना आवश्यक है ।

इसके साथ ही अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर निर्धनता से मुक्ति प्राप्त करने को संयुवत राष्ट्र विकास कार्यक्रमों में सामाजिक विकास के कार्यक्रमों के क्रियान्वयन को बल दिया गया । 1997 की मानव विकास रिपोर्ट में निरपेक्ष निर्धनता के निराकारण एवं 1998 की मानव विकास रिपोर्ट में धारणीय मानव विकास को ध्यान में रखते हुए उपभोग एवं मानव विकास को प्राथमिकता प्रदान की गई ।

मानव जीवन के तीन मुख्य प्रभाव बताए गए जिनमें पहला जीवन की दीर्घ अवधि न होना दूसरा ज्ञान की कमी और तीसरा बेहतर जीवन स्तर न होना । भारत में मानव गरीबी के अन्तर्गत- (i) जीवन की दीर्घ अवधि का न होना (P1) के अधीन वर्ष 2000-05 में 40 वर्ष तक की आयु में न पहुँचने वाले व्यक्तियों का प्रतिशत 16.6, (ii) शिक्षा व ज्ञान के क्षेत्र में अभाव (P2) अर्थात् वयस्क अशिक्षा दर वर्ष 2003 में 39.0 प्रतिशत एवं (iii) बेहतर जीवन स्तर का अभाव (P3) के अन्तर्गत (a) वर्ष 2002 में जनसंख्या का वह प्रतिशत जिसे पीने के लिए शुद्ध जल उपलब्ध न था । 4 एवं (b) 1995-2003 की अवधि में कम वजन वाले 5 वर्ष से छोटे बच्चों का प्रतिशत 47 था । इस प्रकार मानव निर्धनता सूचकांक 31.3 था । मानव विकास रिपोर्ट 2005 में 103 विकासशील देशों के सूचकांक थे जिनमें भारत की दशा 58वें स्तर पर थी । निरपेक्ष सार में भारत का निर्धनता सूचकांक 31.3 प्रतिशत था जो एक हीन दशा का परिचायक है ।

यू.एन.डी.पी. द्वारा मानव निर्धनता सूचकांक निर्धारित करने का निम्न समीकरण दिया गया ।