ओजोन परत रिक्तीकरण पर निबंध | Essay on Ozone Layer Depletion in Hindi!

आज यह निर्विवाद रूप से सत्य है कि कोई भी प्राणी बिना वायु के जीवित नहीं रह सकता । वायु का वह अवयव जो हमें जीवित रखता है, ऑक्सीजन गैस है । इसीलिए इसे प्राणवायु भी कहा जाता है । जब मरीज सामान्यत: साँस लेने में असमर्थ हो जाता है तो उसे ऑक्सीजन के बल पर ही जीवित रखने का प्रयास किया जाता है ।

इस प्रकार हम ऑक्सीजन को जीवनदायिनी शक्ति अर्थात् अमृत भी कह सकते हैं । भूमि और जल की भाँति वायु-आवरण भी हमारी पृथ्वी का अभिन्न अंग है । पृथ्वी के चारों ओर लिपटा वायु-आवरण उसी के साथ घूमता रहता है ।

इस प्रकार पृथ्वी के बाहरी भाग के तीन मुख्य मंडल हैं:

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1. भूमि,

2. जल एवं

3. वायु ।

इन्हें पृथ्वी के तीन परिमंडल कहते हैं । पृथ्वी वाले भाग को स्थलमंडल, पानी वाले भाग को जलमंडल तथा इसके वायु-आवरण को वायुमंडल कहते हैं । स्थलमंडल की औसत मोटाई 60 किलोमीटर है । यह विभिन्न शैलों से मिलकर बना है ।

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जलमंडल की रचना समुद्रों, झीलों, नदियों एवं अन्य जल-समूहों से पृथ्वी पर हुई है । वायुमंडल में ऑक्सीजन की प्रचुरता से पृथ्वी पर जमीन की उत्पत्ति और वृद्धि हो सकी है । यद्यपि वायुमंडल पृथ्वी के पृष्ठ 1600 कि. मी. से भी अधिक दूरी तक विस्तृत है ।

किंतु इसके संपूर्ण द्रव्यमान का 99% पृथ्वी से केवल 32 कि. मी. दूरी के अंतर्गत है । पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के कारण वायुमंडल पृथ्वी में लगा रहता है । भू-पृष्ठ के समीप वायुमंडल का घनत्व अधिकतम होता है । ऊंचाई के साथ-साथ घनत्व घटता जाता है ।

वायुमंडल में चार विभिन्न परतें हैं । सबसे निचली परत को क्षोभमंडल कहते हैं । मौसम की अधिकांश घटनाएँ क्षोभमंडल में ही घटित होती हैं । इस परत में ऊंचाई के साथ प्रति 165 मीटर पर एक अंश सेल्सियस की औसत दर से वायु का तापमान घटता जाता है ।

क्षोभमंडल की सीमा विषुवत्-वृत्त के ऊपर 18-20 कि. मी. की ऊँचाई तक तथा ध्रुवों के ऊपर लगभग 8-12 कि. मी. तक है । क्षोभमंडल के बाद समतापमंडल का क्षेत्र है, जिसमें तापमान स्थिर अथवा एक समान रहता है और इसके उपरांत ऊंचाई के साथ धीरे-धीरे बढ़ता है ।

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इस क्षेत्र में तापमान बढ़ने का कारण सौर पराबैंगनी विकिरणों का ओजोन (O3) द्वारा अवशोषण है । समतापमंडल में वायु बहुत शुष्क होती है तथा क्षोभमंडल से बादल एवं संनयन-धाराएँ साधारणतया इसमें सरलता से प्रवेश नहीं कर पातीं ।

शांतमंडल क्षोभमंडल को समतापमंडल से अलग करता है । समतापमंडल में ओजोन से परिपूर्ण एक ओजोन परत है, जिसको ओजोन मंडल कहते हैं । ओजोन मंडल भू-पृष्ठ से 20-25 कि. मी. की ऊँचाई पर सर्वाधिक है और 75 कि. मी. तक ओजोन प्राय: नगण्य हो जाती है ।

भू-पृष्ठ से लगभग 10 कि. मी. की ऊंचाई पर भी ओजोन अल्पमात्रा में प्राप्य है । जब सौर पराबैंगनी विकिरणों वायुमंडलीय ऑक्सीजन के साथ क्रिया करती हैं तो ऑक्सीजन का प्रकाश-विघटन होता है और फलस्वरूप ओजोन की उत्पत्ति होती है ।

इस प्रकार भू-पृष्ठ से 20-25 कि. मी. ऊँचाई पर ओजोन की सघनता 1012-1013 अणु प्रति घन सेंटीमीटर पाई जाती है । यही ओजोन मंडल है । ओजोन स्वयं भी पराबैंगनी विकिरणों का अवशोषण कर प्राणिजगत् की इन घातक विकिरणों से रक्षा करती है ।

यदि समतापमंडल में ओजोन की परत न हो तो सूर्य अपनी गर्मी से जीव-जंतुओं को निर्दयतापूर्वक भून दे । अब आप जान गए होंगे कि हमारे जीवन में ओजोन का कितना महत्व है । किंतु यह भी एक तथ्य है कि यही प्राणवायु (ऑक्सीजन गैस) अपने एक ओर परमाणु से मिलकर ओजोन गैस बनाती है, जिसकी अल्पमात्रा ही प्राण हरने के लिए काफी होती है ।

वास्तव में, वायु के दस लाख भागों में ओजोन का एक भाग ही प्राण हरने के लिए पर्याप्त है । इस प्रकार ऑक्सीजन का यह रूप विष का कार्य करता है । परंतु आपको यह जानकर प्रसन्नता होगी कि यही ओजोन समतापमंडल में एक छतरी बनाती है जो जैवमंडल के लिए ओजोन रक्षा कवच का कार्य करती है ।

अत: ओजोन गैस ऑक्सीजन का ही रूप है, जिसमें दो के स्थान पर तीन परमाणु होते हैं:

O2 + O → O3

इसी कारण इसमें पराबैंगनी प्रकाश को अवशोषित करने की क्षमता आ जाती है जो ऑक्सीजन में नहीं होती । क्षोभमंडल में जब साधारण ऑक्सीजन पर सूर्य की पराबैंगनी किरणें पड़ती हैं तो इसका एक परमाणु साधारण ऑक्सीजन के दो परमाणुओं से मिल जाता है और ओजोन अणु का जन्म होता है ।

वास्तव में, ऑक्सीजन और ओजोन का मिश्रण ही सारी पराबैंगनी किरणों को सोखने में समर्थ होता है । ये ओजोन पराबैंगनी किरणें प्रकाश को सोखकर गर्म हो जाती हैं, जिससे समतापमंडल में गर्म परतें बन जाती हैं और क्षोभमंडल में मौजूद ऑक्सीजन विघटित होने से बच जाती है ।

ओजोन परत, जिसमें गैस एवं ऑक्सीजन गैस के दो परमाणु होते हैं, दोनों गैसों में से किसी एक की भी कमी होगी तो समस्त पराबैंगनी किरणें अवशोषित नहीं की जा सकेंगी क्योंकि 250 नैनोमीटर से कम लंबाई की पराबैंगनी किरणों को ही ऑक्सीजन गैस सोखती है और अपने दो परमाणुओं में विभाजित हो जाती है ।

ये परमाणु ऑक्सीजन के अन्य अणुओं से मिलकर ओजोन गैस बनाते हैं । इस प्रकार ऑक्सीजन गैस ओजोन के निर्माण में कच्चे माल का कार्य करती है । चिंतनीय तथ्य तो यह है कि पृथ्वी के पास के वायुमंडल में इस गैस की बढ़ती उपस्थिति के लिए मनुष्य के क्रिया-कलाप ही उत्तरदायी हैं ।

स्वचालित वाहनों के इंजनों तथा बिजलीघरों के स्टीम बॉयलरों में एक गैस पैदा होती है- नाइट्रिक ऑक्साइड । यह गैस उन औद्योगिक प्रक्रियाओं में भी उत्पन्न होती है जो अत्यंत ऊँचे ताप पर संपन्न की जाती हैं । स्वचालित वाहनों के दूषित धुएँ में भी यह विद्यमान होती है ।

इसी धुएँ में हाइड्रोकार्बन वर्ग के भी गैसीय रसायन उपस्थित होते हैं । नाइट्रिक ऑक्साइड तथा इन गैसों का मिश्रण सूर्य की रश्मियों की सहायता से वातावरण की ऑक्सीजन को ओजोन में परिवर्तित कर देता है । उच्च वोल्टता वाले विद्युत उपकरण जैसे ट्रांसफॉर्मर आदि तो ऑक्सीजन को सीधे ही ओजोन में बदल देते हैं । स्पष्ट है कि बढ़ती आधुनिकता ही ऑक्सीजन के इस प्रदूषक रूप की जननी है ।

ओजोन एक सक्रिय गैस है जो धुआँ, काजल कणों एवं वायु में विद्यमान अन्य कार्बनिक पदार्थों से शीघ्र ही क्रिया कर जाती है । मोटरों, ताप-बिजलीघरों रेलगाड़ियों, उद्योगों तथा वायुयानों से निकली कार्बन डाइऑक्साइड एवं कार्बन मोनोक्साइड के द्वारा प्रदूषित पर्यावरण का अर्थ होगा ओजोन की मात्रा में कमी ।

इस प्रकार ओजोन मंडल का प्रदूषण स्वाभाविक है । वैज्ञानिकों ने पता लगाया कि पृथ्वी से ऊपर 15 से 50 किलोमीटर के बीच वायुमंडल में ओजोन की एक परत है जो सूर्य तथा अन्य अंतरिक्षीय पिंडों से आने वाली पराबैंगनी किरणों का अवशोषण कर लेती तथा साथ ही पृथ्वी से जाने वाली अवरक्त किरणों को रोक लेती है ।

इस प्रकार यह दो तरह से हमारी रक्षा करती है- एक तो पराबैंगनी से होने वाले नुकसान से बचा लेती है और दूसरी तरफ पृथ्वी की गर्मी को बरकरार रखती है । 250 नैनोमीटर से अधिक लंबाई की पराबैंगनी किरणों को ओजोन गैस सोखती है और ऑक्सीजन गैस के एक अणु तथा एक परमाणु में विभाजित हो जाती है ।

यह नया परमाणु ओजोन के एक और अणु को ऑक्सीजन गैस में बदल देता है । इस प्रकार ओजोन ऑक्सीजन में परिवर्तित होती रहती है । अंतत: इन दोनों परिवर्तनों में एक साम्य स्थापित हो जाता है अर्थात् जितनी ऑक्सीजन ओजोन में बदलती है, उतनी ही ओजोन ऑक्सीजन में बदल जाती है ।

इस प्रकार इन अभिक्रियाओं के फलस्वरूप समस्त पराबैंगनी किरणें जोन परत द्वारा अवशोषित कर ली जाती हैं । पराबैंगनी किरणों की सीमा 320 नैनोमीटर तक है । इससे अधिक लंबाई की किरणें दृश्य, अवरक्त आदि क्षेत्रों में आती हैं जिनके लिए ओजोन परत पूर्णतः पारदर्शी होती है ।

सामान्यतया धारणा यह है कि ओजोन परत के पूर्व जीवन केवल जल के अंदर ही था, पृथ्वी पर नहीं । धीरे-धीरे ऑक्सीजन समुद्र में उत्पन्न होकर वायुमंडल में मिलती गई और प्रकाश-रासायनिक क्रिया द्वारा ओजोन में बदलती गई ।

फिर एक समय ऐसा आया कि ओजोन परत इतनी सक्षम हो गई कि वह समस्त पराबैंगनी विकिरणों को सोखने लगी । इसके बाद पृथ्वी पर भी जीवन पनपने लगा । प्रकृति ने विविध प्रकार के जीव-जंतु उत्पन्न किए । अनेक प्रकार की वनस्पतियाँ पैदा कीं । यह सब करते हुए प्रकृति से एक बहुत बड़ी भूल हो गई ।

प्रकृति ने मनुष्य नामक प्राणी पैदा किया और साथ ही दूसरी भूल यह थी कि मनुष्य को उत्कृष्ट कोटि का मस्तिष्क दे दिया, जिससे मनुष्य स्वयं तो परेशान हुआ ही, उसने अन्य जीवों को भी परेशान किया और अपने लिए सुख-सुविधाएं जुटाने में ऐसे कार्य कर गया, जिनसे उसका अपना जीवन भी खतरे में पड़ गया ।

उसे अपने दो पैरों से चलना और थोड़ी देर में गंतव्य तक पहुँचना शोभा नहीं दिया । अत: उसने तीव्र से तीव्रतर चलने वाले यान, विमान बनाए । युद्ध जीतने के लिए जेट विमान तक बना डाले । जब इससे भी संतोष नहीं हुआ तो सुपरसॉनिक (पराध्वनि) विमान बनाने की योजना तक पहुंच गया । वास्तव में, इन विमानों के इंजन अत्यधिक गर्मी उत्पन्न करते हैं और इतनी ऊंचाई पर उड़ते हैं कि इनके द्वारा बने नाइट्रोजन ऑक्साइड ओजोन को खाने लगते हैं ।

परिणामस्वरूप ओजोन की चादर (परत) झीनी होने लगती है । सौभाग्य से इस बात का पता वैज्ञानिकों को शीघ्र ही चल गया और सुपरसॉनिक ट्रांसपोर्ट के बेड़े नहीं बनाए गए । किंतु ऐसा तो है नहीं कि मनुष्य केवल एक दिशा में सोचता हो । उसका मस्तिष्क तो संभावनाएँ खोजता रहता है ।

महात्मा गांधी ने कहा भी है- “Mind is a Restless Bird, the more it Eats, the more it Wants.” अर्थात् ‘मन एक असंतुष्ट चिड़िया है, जितना अधिक वह खाती है, उतना ही अधिक और चाहती है ।’  जब ऊँचे आकाश में तेज गति से चलने का उसे मना कर दिया गया तो उसने अपने घर को स्वर्ग बनाने की ठान ली । ठंडा पानी पीने, खाने की चीजों को सड़ने से बचाने तथा कुछ अन्य आनंद उठाने के लिए उसने फ्रिज बनाया ।

संपूर्ण घर को, कार्यालय को मनोनुकूल ताप पर रखने के लिए उसने एयरकंडीशनर खोज डाला । कहते हैं, ये क्लोरीन, फ्लोरीन तथा कार्बन के यौगिक होते हैं । ये बहुत ही निष्क्रिय तथा विषहीन होते हैं । अत: जीवन को इनसे कोई खतरा नहीं होता ।

वैज्ञानिक जनसामान्य की तरह शांत और संतोषी नहीं हो सकता । वह नई-नई तकनीकें खोजता है, उन्हें उपभोक्ता तक पहुँचाने में सहायता करता है; फिर भी निश्चित होकर नहीं बैठ पाता, क्योंकि उसको मालूम है कि अच्छी से अच्छी तकनीक के भी इतर प्रभाव होते हैं, जो भयावह भी हो सकते हैं । इसलिए क्लोरोफ्लोरोकार्बन उत्पादन के पश्चात् उसे यह चिंता सदैव सताती रही है कि यह देखना अत्यावश्यक है कि इनके इतर प्रभाव कैसे पड़ते हैं ।

सन् 1972 में रोलैंड नामक अमेरिकन वैज्ञानिक को पता चला कि उत्तरी और दक्षिणी गोलार्द्धों के वायुमंडल में क्लोरोफ्लोरोकार्बन के कण पाए गए हैं और कुछ प्रयोगों तथा अन्वेषण के आधार पर यह आभास हुआ कि क्लोरोफ्लोरोकार्बन ओजोन परत को अंटार्कटिका के ऊपर झीनी कर रहे हैं ।

वास्तव में, अंटार्कटिका हमारी पृथ्वी का दक्षिणी ध्रुव है जहाँ पर पूरे साल बर्फ जमी रहती है । अत: वहीं के वायुमंडल में प्रदूषण की आशंका कम होनी चाहिए । परंतु यह आशंका गलत सिद्ध हुई और वहाँ के वायुमंडल में क्लोरीफ्लोरोकार्बनों के अणु प्राप्त होने की संभावना प्रबल होती गई । क्लोरोफ्लोरोकार्बन अणु निष्क्रिय ही नहीं अपितु बहुत स्थायी भी होते हैं, सैकड़ों वर्षों तक वायुमंडल में उपस्थित रह सकते हैं ।

क्षोभमंडल में पहुंचने के बाद इनको संपूर्ण वायुमंडल में मिलने में मात्र दो वर्ष लगते हैं । अंटार्कटिका के ऊपर वातावरण में पराबैंगनी किरणों से क्रिया करके ये परमाणविक क्लोरीन-मुक्त करते हैं जो ओजोन को ऑक्सीजन में परिवर्तित कर देती है और ओजोन ओढ़नी झीनी होने लगती है ।

इन्होंने इतनी अधिक क्लोरीन मुक्त की, कि उसके द्वारा विनष्ट ओजोन की क्षतिपूर्ति, ऑक्सीजन का ओजोन में परिवर्तन नहीं कर पाया और वैज्ञानिकों ने ओजोन चादर में छेद होने की घोषणा कर दी । जबसे दक्षिणी ध्रुव क्षेत्र के ऊपर उच्च वायुमंडल में ओजोन गैस की परत में हुए छिद्र का पता चला है, मौसम वैज्ञानिक पृथ्वी के पर्यावरण को लेकर चिंतित हो गए हैं ।

ओजोन की यह परत पृथ्वी का सुरक्षा-कवच है । सूर्य रश्मियों के साथ आने वाले पराबैंगनी प्रकाश का 99 प्रतिशत भाग ओजोन द्वारा अवशोषित हो जाता है । अभी तो ओजोन परत के क्षीण होने की जानकारी केवल दक्षिणी ध्रुव में ही मिली है ।

5 अक्तूबर, 1987 को उपग्रह द्वारा लिए गए दक्षिणी ध्रुव के चित्र में यह छिद्र स्पष्ट दिखाई देता है । यदि आबादी वाले क्षेत्रों में भी ओजोन का क्षय होने लगे तो हमें इसके गंभीर परिणाम भुगतने पड़ेंगे । ओजोन के क्षरित होने का पता सर्वप्रथम ब्रिटिश वैज्ञानिकों ने सन् 1983 में लगाया था ।

उन्होंने खोज की थी कि अंटार्कटिका के उच्च वायुमंडल या समतापमंडल में प्रतिवर्ष वसंत ऋतु में ओजोन की मात्रा में भारी कमी हो जाती है और नवंबर के अंत तक धीरे-धीरे यह मात्रा बढ़ने लगती है । उनका अनुमान था कि संभवतया दक्षिणी ध्रुव के असामान्य मौसम के कारण ऐसा होता है, किंतु अब वैज्ञानिकों ने क्लोरोफ्लोरोकार्बन नाम के कुछ रसायनों को इस क्षति के लिए उत्तरदायी ठहराया है ।

यह सर्वविदित है कि पृथ्वी चारों ओर वायुमंडल से ढकी हुई है जो कि गैसों के समुद्र की तरह है । पृथ्वी की सतह से 16 किलोमीटर तक के क्षेत्र को क्षोभमंडल और उससे आगे 50 कि. मी. तक के क्षेत्र को समतापमंडल कहा जाता है ।

क्षोभमंडल में ये कार्बनिक रसायन टूटते नहीं, लेकिन जब वायु के तेज बहाव से समतापमंडल में पहुँच जाते हैं तो वहाँ पराबैंगनी प्रकाश में ये सुगमता से विघटित हो जाते हैं । इनसे क्लोरीन परमाणु टूटकर ओजोन पर चोट करते हैं जिससे ऑक्सीजन छिटककर अलग हो जाती है और क्लोरीन मोनोक्साइड बनता है ।

यह क्लोरीन मोनोक्साइड फिर से मुक्त ऑक्सीजन परमाणु के साथ मिलकर ऑक्सीजन और एक क्लोरीन परमाणु बना देता है । इसी तरह यह क्रम चलता रहता है । वैज्ञानिक रोलैंड के अनुसार एक क्लोरीन परमाणु टूटने से वायुमंडल में ओजोन के एक लाख अणु गायब हो जाते हैं ।

रोलैंड और उनके सहयोगी मारियो मोलिना ने सन् 1974 में ही यह चेतावनी दी थी कि क्लोरोफ्लोरोकार्बन ओजोन का क्षय कर रहे हैं, जिससे त्वचा-कैंसर के रोगियों पर भी इसके दुष्प्रभाव होंगे । सन् 1978 में अमेरिका ने स्प्रे करने वाले डिब्बों में इन रसायनों के प्रयोग पर प्रतिबंध लगा दिया, परंतु यूरोप और शेष विश्व में इन रसायनों का निरंतर प्रयोग होता रहा जिससे यह समस्या सुलझ नहीं सकी ।

मार्च 1988 में राष्ट्रीय वैमानिकी एवं अंतरिक्ष अधिकरण (NASA) के नेतृत्व में अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिकों के एक दल ने सन् 1969 से अब तक किए गए ओजोन संबंधी अध्ययन का जो विवरण प्रस्तुत किया है, वह हमारे जैवमंडल के लिए खतरे की घंटी है ।

यह रिपोर्ट उस आसन्न संकट की और संकेत करती है जो ओजोन कवच को जर्जर कर रहा है । अमेरिका के सभी राज्यों, कनाडा, पश्चिमी यूरोप, रूस, चीन तथा जापान के ऊपर यह जीवनरक्षक ओढ़नी लगभग 3 प्रतिशत झीनी हुई है । अलास्का तथा स्कैंडीनेविया पर यह 6 प्रतिशत झीनी हो गई है ।

वास्तव में, ओजोन परत के एक प्रतिशत झीना होने पर त्वचा-कैंसर में 5 प्रतिशत और त्वचा एवं आँख के ट्‌यूमर में 2 प्रतिशत की वृद्धि हो जाती है । इसके अतिरिक्त पराबैंगनी विकिरणों की मार फसलों को भी चौपट कर देती है ।

इसी कारण संयुक्त राष्ट्र के 24 देशों ने मिलकर कनाडा के मॉन्ट्रियल शहर में सितंबर, 1987 में एक प्रस्ताव पास किया, जिसके अनुसार विश्व-भर के देशों को ऐसे कदम उठाने चाहिए, जिससे वायुमंडल के प्रदूषण को और ओजोन परत के क्षरण को रोका जा सके ।

इसके लिए सन् 1986 के स्तर के आगे क्लोरोफ्लोरोकार्बन का उत्पादन बंद होना चाहिए । सन् 1994 तक विकसित देश उत्पादन में 20% कमी करेंगे तथा सन् 2000 तक 30% और कमी करेंगे अर्थात् सन् 2000 तक इनका उत्पादन आधा रह जाएगा ।

वर्तमान में अमेरिका 30%, यूरोप के देश 48%, जापान और रूस 10-10% तथा समस्त विकासशील देश 2% क्लोरोफ्लोरोकार्बन उत्पन्न करते हैं । विकासशील देशों को भी अगले दशक से इनका उत्पादन कम करना होगा ।

वातावरण में किए जाने वाले परमाणु बम परीक्षणों से भी ओजोन परत में छिद्र हो सकता है । विस्फोट के पश्चात् उत्पन्न नारकीय आग के गोले से बहुत अधिक ऊँचाई पर अत्यधिक मात्रा में नाइट्रिक ऑक्साइड बनती है और ओजोन के अणुओं को नष्ट करती है ।

कल्पना की जा सकती है कि परमाणु युद्ध में ओजोन पराबैंगनी विकिरणों की तीव्र बौछार से दूभर हो जाएगा । कहना मुश्किल है कि भाग्यवान वे होंगे जो इस परमाणु युद्ध में बच जाएँगे अथवा वे जो चिरनिद्रा में विलीन हो जाएँगे ?

ओज़ोन की प्रकृति शिव-शंभु की प्रकृति समान है । समतापमंडल में उसकी उपस्थिति शिवजी के कल्याणकारी रूप को प्रकट करती है जबकि पृथ्वी के पास के वायुमंडल में वह उनके तीसरे नेत्र की भूमिका निभा सकती है । अर्थात् ओजोन की अत्यधिक ऊँचाई पर उपस्थिति कल्याणकारी है तो इसकी धरातल के समीप उपस्थिति प्रलयंकारी है । अत: ममतालु प्रकृति ने इस गैस को धरातल से काफी ऊपर-ऊपर ही रखा है ।

पृथ्वी के निकट पहुंचते-पहुंचते सूर्य-रश्मियों की शक्ति इतनी घट जाती है कि वे ऑक्सीजन से ओजोन के प्रत्यक्ष उत्पादन में अक्षम हो जाती हैं । परंतु प्रगति के नाम पर प्रकृति की इस व्यवस्था को मनुष्य ही बिगाड़ रहा है ।

दूसरी ओर, उसके क्रिया-कलाप समतापमंडल के ओजोन-संतुलन से भी छेडछाड़ कर रहे हैं । परिणाम क्या हो सकता है- यह अकल्पनीय नहीं है । सन् 1982 में भारत सरकार ने प्रोफेसर एस. जैड. कासिम के निर्देशन में भारतीय वैज्ञानिकों का एक दल दक्षिणी ध्रुव क्षेत्र में अनुसंधान करने के लिए भेजा था ।

तब से अब तक आठ अभियान दल अंटार्कटिका गए हैं, जिसमें राष्ट्रीय भौतिक प्रयोगशाला, नई दिल्ली के भी वैज्ञानिक सम्मिलित थे । अन्य अनुसंधानों के अतिरिक्त इन वैज्ञानिक अभियानों का एक उद्देश्य यह भी था कि इस क्षेत्र के ऊपर ओजोन की परत क्षीण क्यों हो रही है, इसका पता लगाया जाए ।

उल्लेखनीय है कि सन् 1985 में ओजोन की मात्रा में 40 प्रतिशत की कमी पाई गई थी जो सन् 1987 में बढ़कर 50 प्रतिशत हो गई । आठवाँ भारतीय अभियान दल दिसंबर, 1988 में राष्ट्रीय भौतिक प्रयोगशाला नई दिल्ली के युवा वैज्ञानिक डॉ. अभिनव सेनगुप्ता के निर्देशन में पहुँचा ।

इसका मुख्य कार्य दक्षिण गंगोत्री से 70 किलोमीटर दूर मैत्रेयी (द 70°45.6′ पू. 11° 44.3′) पर स्थायी अनुसंधान केंद्र की स्थापना करना था, क्योंकि यह स्थान हिमाच्छादित नही रहता । इसके अतिरिक्त-

(1) भूविज्ञान,

(2) भू-भौतिकी,

(3) मौसमविज्ञान एवं उच्च वायुमंडलीय भौतिकी,

(4) ओजोन में कमी,

(5) सागर विज्ञान,

(6) भू-चुंबकत्व और

(7) वायु, जल, शैल, मृदा आदि के नमूने एकत्र करना आदि कार्य थे ।

सौ सदस्यों वाला यह वैज्ञानिक दल 29 नवंबर, 1988 को गोवा से प्रस्थित हुआ और 26 मार्च, 1989 को वापस आया । इस अवधि में राष्ट्रीय भौतिक प्रयोगशाला, नई दिल्ली के डॉ. सेनगुप्ता तथा श्री प्रभातकुमार गुप्ता ने स्पैक्ट्रो-रेडियोमीटर की सहायता से मैत्रेयी स्थान पर प्रत्येक आधा घंटा के अंतराल में दोपहर को 290, 300 तथा 310 नैनोमीटर पर पराबैंगनी विकिरण का मापन किया ।

इस प्रयोग द्वारा वहाँ विद्यमान संपूर्ण ओजोन की मात्रा का पता लगाना संभव हो गया । इसके अतिरिक्त सौर-फोटोमीटर द्वारा 368, 500, 675 तथा 778 नैनोमीटर तरंगदैर्ध्य पर सौर विकिरण मापन से वायुमंडलीय धुँधलापन का पता लगाया ।

अंटार्कटिका वायुमंडल में ग्रीन-हाउस गैसों का पता लगाने के लिए स्टेनलेस स्टील पात्रों में वहाँ की हवा का नमुना एकत्र किया, जिसका विश्लेषण गैस क्रोमेटोग्रफी द्वारा मीथेन, कार्बन डाइऑक्साइड, नाइट्रस ऑक्साइड तथा फ्रीऑन आदि गैसों के लिए किया गया ।

मैत्रेयी से लौटते हुए मार्ग में सल्फर एवं नाइट्रोजन के ऑक्साइड वायुधुंध का पता लगाने के लिए 71 नमूने एकत्र किए । वर्ष-भर अध्ययन करने के लिए आठवें अभियान दल के 42 सदस्य अंटार्कटिका पर ही रहे ।