ओजोन परत विलोपन के कारण | Read this article in Hindi to learn about the seven main causes of ozone layer depletion. The causes are:- 1. प्राकृतिक समतापमंडल 2. रासायनिक पक्ष 3. पराध्वनिक वायुयान 4. हैलोकार्बन 5. उर्वरक and a Few Others.

भू-ओजोन प्रदूषण अथवा ओजोन की मात्रा में कमी निम्न विभिन्न स्रोतों के कारण होती है:

1. प्राकृतिक समतापमंडल:

इस मंडल में ओज़ोन की सघनता सर्वाधिक है । ताप उत्क्रमण ट्रैप में किसी प्रदूषण का जीवनकाल अधिक होने के कारण कृत्रिम रूप से मानव द्वारा उत्पादित क्लोरोफ्लोरोमीथेन, नाइट्रोजनयुक्त उर्वरक ओर पराध्वनिक वायुयानों द्वारा निकाली नाइट्रिक ऑक्साइड तथा क्लोरीन आदि गैसों से यह मंडल प्रदूषित होकर ओजोन मंडल को प्रभावित करता है ।

इस ओजोन मात्रा की कमी को निम्न विधियों द्वारा पाया जा सकता है:

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(क) भूस्थित मापन,

(ख) स्वस्थाने मापन,

(ग) वायुयानों, गुब्बारों तथा राकेट से सुदूर मापन,

(ध) अंतरिक्ष से सुदूर मापन ।

2. रासायनिक पक्ष:

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भू-ओजोन प्रदूषण के लिए क्लोरीन, नाइट्रिक ऑक्साइड, परमाणु विस्फोट, सूर्य अथवा आकाशगंगीय कॉस्मिक किरणों से निकले क्षुब्ध कण, नाइट्रोजनयुक्त उर्वरकों से उत्पादित नाइट्रिक ऑक्साइड, ज्वालामुखी-उद्‌भेदन से निकले क्लोरीन जैसे उत्प्रेरक उत्तरदायी हैं ।

उत्प्रेरक-चक्र की रासायनिक किया इस प्रकार है:

NO + O3 → NO2 + O2

NO2 + O → NO + O2

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O + O3 → 2O2

3. पराध्वनिक वायुयान:

पराध्वनिक जेट वायुयानों द्वारा ओजोन मंडल प्रदूषित होता है । इन वायुयानों में उच्च ज्वाला-तापमान पर दहन-प्रक्रिया के समय नाइट्रिक ऑक्साइड निकलती है, जिसके फलस्वरूप ओज़ोन की मात्रा में कमी हो जाती है । गैस-तापमान जितना अधिक होगा उतना ही नाइट्रिक ऑक्साइड का उत्पादन भी अधिक होगा ।

4. हैलोकार्बन:

समतापमंडलीय ओजोन की मात्रा में कमी उद्योगों में उपयोगी फ्लोरोक्लोरोमीथेन के कारण होती है । इस घातक रसायन का उपयोग ऐरोविलय छिड़काव, रेफ्रिजरेटर एवं वातानुकूलकों के लिए प्रयुक्त तरल तथा ठोस प्लास्टिक फोम के निर्माण में प्रयुक्त उत्प्रेरकों में होता है ।

कार्बन डाइऑक्साइड की तरह फ्लोरोक्लोरोमीथेन भी अवरक्त विकिरणों को आत्मसात् एवं विसर्जित करती है और परिणामस्वरूप वायुमंडल का तापमान बढ़ जाता है । यह बढ़ोतरी 50 वर्षों में 0.5° से. की दर से है, किंतु जलवायु परिवर्तन में इसका प्रभाव अत्यधिक है ।

5. उर्वरक:

नाइट्रोजन वाले उर्वरक जो उद्योगों में तैयार किए जाते है, ओजोन पर्यावरण प्रदूषण के लिए अत्यधिक उत्तरदायी है । हमारे देश में खाद्य पदार्थों क उत्पादन हेतु यह उर्वरक बहुत ही आवश्यक हैं, अत: ओजोन प्रदूषण का होना स्वाभाविक है ।

6 सौर प्रोटॉन:

ओजोन मंडल में ओजोन की मात्रा कम करने वाले मानव-निर्मित स्रोतों से कहीं अधिक प्राकृतिक स्रोत भी हैं । ये स्रोत इतने शक्तिशाली हैं कि इन पर नियंत्रण करना असंभव है । सूर्य के तेज प्रकाश के पश्चात् जब मंदाकिनीय कॉस्मिक किरणें तथा सौर प्रोटोन विसर्जित होते हैं तो ये प्रोटोन समतापमंडल तथा मध्यमंडल में प्रवेश कर वायुमंडल में विद्यमान नाइट्रोजन का विखंडन कर देते हैं । इस प्रकार ऑक्सीजन एवं ओजोन के साथ श्रृंखला-प्रतिक्रिया के द्वारा नाइट्रिक ऑक्साइड बनकर ओजोन मंडल को प्रदूषित करते रहते हैं ।

7. ज्वालामुखी उद्भेदन:

ओजोन की मात्रा कम करने वाला अन्य शक्तिशाली स्रोत ज्वालामुखी उद्भेद है । अधिकतर 50 कि. मी. की ऊँचाई तक उद्भेदन बादल समतापमंडल में प्रवेश करता है ।

इस प्रकार का उद्भेदन वायुमंडल को दो तरह से प्रभावित करता है:

1. क्षोभमंडल में यह उद्भेद वायुधुंध की परत प्रदान करता है और फलस्वरूप सौर विकिरण का पारेषण कम होने से वायुमंडल शीतल हो जाता है और

2. समतापमंडल में क्लोरीन की मात्रा अधिक पहुँचने के कारणवश ओजोन प्रायः समाप्त हो जाती है ।

भू-ओजोन प्रदूषण से जैविक, पारिस्थितिक तथा जलवायु संबंधी परिणामों में परिवर्तन हो जाता है । ओजोन की कमी के फलस्वरूप पृथ्वी पर सूर्य की पराबैंगनी विकिरणें अधिक पहुंचने लगती है । अधिक विकिरणों के कारण त्वचा कैंसर, ऊतक वर्धन, ऐल्ब्यूमेन एवं स्कंदन का रुक जाना, पौधों में प्रकाश संश्लेषण दर में परिवर्तन, भूमंडल के तापमान एवं वर्षा की दशाओं में परिवर्तन आदि आ जाता है ।

इस प्रकार अंधी, तूफान तथा बवंडर आने की आशंका बनी रहती है । इनके अतिरिक्त ओजोन प्रदूषण अथवा इसकी मात्रा में कमी के फलस्वरूप मानव त्वचा पर प्रभाव भी आनुवंशिक लक्षणों, रंजकता, आयु, लिंग, स्थान परिधान तथा रहन-सहन आदि अनेक कारकों पर निर्भर करता है ।

काले मनुष्यों की अपेक्षा गोरों में, मादा की अपेक्षा नर में तथा उत्तरी अक्षांश की अपेक्षा दक्षिणी अक्षांश पर इन विकिरणों का प्रभाव अधिक पड़ता है । ओजोन में कमी के खतरे से तो वैज्ञानिक जूझ ही रहे हैं, किंतु वे एक और समस्या से भी चिंतित हैं ।

वायुमंडल में होने वाले रासायनिक परिवर्तनों से पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है । इसे ‘ग्रीनहाउस इफेक्ट’ कहते हैं । यह न केवल ओजोन की समस्या से अधिक गंभीर खतरा है, बल्कि इसे नियंत्रित करना भी अधिक कठिन है । वैसे ‘ग्रीनहाउस इफेक्ट’ एक स्वाभाविक प्रक्रिया है ।

जब सूर्य की किरणें पृथ्वी पर पड़ती हैं तो पृथ्वी इन्हें अवरक्त (इन्फ्रारेड) किरणों के रूप में लौटा देती है । कुछ किरणों को क्षोभमंडल में मौजूद कार्बन डाइऑक्साइड एवं अन्य गैसें रोक लेती हैं तथा शेष किरणें वापस लौट जाती हैं । कार्बन डाइऑक्साइड द्वारा रोकी किरणों से पृथ्वी गर्म हो जाती है और यहाँ जीवन फूलता-फलता है, वरना पृथ्वी का औसत तापमान 18° सैल्सियस होता, जो कि अब 15 डिग्री सैल्सियस है ।

वैज्ञानिकों का अनुमान है कि सन् 2050 तक पृथ्वी के औसत तापमान में 16.7 डिग्री सैल्सियस से लेकर 13.3 डिग्री सैल्सियस तक की वृद्धि हो सकती है । इससे अगले 50 वर्षों में पृथ्वी के मौसम में अभूतपूर्व परिवर्तन होंगे । रेगिस्तान और उपजाऊ क्षेत्र अपने-अपने स्थल से खिसककर कहीं और पहुंच जाएंगे । उष्ण कटिबंधीय तूफानों के वेग में वृद्धि होगी और समुद्रतल ऊंचा हो जाएगा क्योंकि तापमान बढ़ने से समुद्र के जल का विस्तार भी बढ़ेगा ।

इसके फलस्वरूप पूर्वी और खाड़ी के समुद्री तलों पर बाढ़ भी आ सकती है । हो सकता है, कनाडा में कृषि-क्रांति हो जाए और वह सोवियत संघ से अधिक उपजाऊ हो जाए । मध्य पश्चिम क्षेत्र में धूलि के अतिरिक्त कुछ न बचे और लोगों को रोजी-रोटी की तलाश में उत्तरी क्षेत्र की ओर जाना पड़े । इस प्रकार अत्यंत खतरे हैं । जिनके लिए तत्काल प्रभावशाली कदम न उठाए गए तो निकट भविष्य में अनिष्ट होने के अतिरिक्त कुछ नहीं बचेगा ।