ग्रीनहाउस प्रभाव पर निबंध | Essay on the Greenhouse Effect in Hindi!

Here is an essay on the ‘Greenhouse Effect’ especially written for school and college students in Hindi language.

‘ग्रीनहाउस प्रभाव’ शब्द की उत्पति एक ऐसी परिघटना से हुई है जो पौधधर (ग्रीन हाउस) में होती है क्या आपने कभी पौधघर देखा है ? यह एक छोटा ग्लास का घर जैसा होता है जिसका उपयोग खासकर शीत ऋतु में पौधों को उगाने के लिए किया जाता है ।

ग्लास पैनल प्रकाश को अंदर तो आने देता है लेकिन ताप को बाहर नहीं निकलने देता । इसलिए पौधघर ठीक उसी तरह गर्म हो जाता है जैसा कि कुछ घंटों के लिए धूप में पार्वफ कर दी गई कार का भीतरी भाग गर्म हो जाता है ।

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ग्रीनहाउस प्रभाव प्राकृतिक रूप से होने वाली परिघटना है जिस के कारण पृथ्वी की सतह और वायुमंडल गर्म हो जाता है आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि यदि ग्रीनहाउस प्रभाव नहीं होता तो आज पृथ्वी की सतह का औसत तापमान 15 डिग्री सेटीग्रेड रहने के बजाय ठंडा होकर-18 (शून्य से नीचे) डिग्री सेंटीग्रेड रहता ।

ग्रीनहाउस प्रभाव को समझने के लिए यह जानना जरूरी है कि सबसे बाहरी वायुमंडल में पहुँचने वाली सूर्य की ऊर्जा का क्या होता है । पृथ्वी की ओर आने वाले सौर विकिरण का लगभग एक चौथाई भाग बादलों और गैसों से परावर्तित (रिफ्रलेक्ट) हो जाता है और दूसरा चौथाई भाग वायुमंडलीय गैसों द्वारा अवशोषित हो जाता है । लगभग आधा आगत (इनकमिंग) सौर विकिरण पृथ्वी की सतह पर पडता है और उसे गर्म करता है इसका (इंप्रफारेड रेडिएशन) कुछ भाग परावर्तित होकर लौट जाता है ।

पृथ्वी की सतह अंतरिक्ष में अवरक्त विकिरण के रूप में उफष्मा (हीट) उत्सर्जित करती है । लेकिन इसका केवल बहुत छोटा भाग (टाइनी प्रैफक्शन) ही अंतरिक्ष में जाता है क्योंकि इसका अधिकांश भाग वायुमंडलीय गैसों (यानी कार्बन डाइऑक्साइड, मेंथेन, जलवाष्प, नाइट्रस ऑक्साइड और क्लोरोपपालुरो कार्बनों) के द्वारा अवशोषित हो जाता है ।

इन गैसों के अणु (मॉलिक्यूल्स) उफष्मा ऊर्जा (हीट इनर्जी) विकिरित करते हैं और इसका अधिकतर भाग पृथ्वी की सतह पर पुन आ जाता है और इसे पिफर से गर्म करता है । यह चक्र अनेकों बार होता रहता है । इस प्रकार पृथ्वी की सतह और निम्नतर वायुमंडल गर्म होता रहता है । ऊपर वर्णित गैसों को आमतौर पर ग्रीनहाउस गैस कहा जाता है क्योंकि इन के कारण ही ग्रीनहाउस प्रभाव पडते हैं ।

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ग्रीनहाउस गैसों के स्तर में वृद्धि के कारण पृथ्वी की सतह का ताप काफी बढ जाता है जिस के कारण विश्वव्यापी उष्णता होती है गत शताब्दी में पृथ्वी के तापमान में 0.6 डिग्री सेंटीग्रेड वृद्धि हुई है इसमें से अधिकतर वृद्धि पिछले तीन दशकों में ही हुई है एक सुझाव के अनुसार सन् 2100 तक विश्व का तापमान 1.4-5.8 डिग्री सेंटीग्रेड बढ सकता है । वैज्ञानिकों का मानना है कि तापमान में इस वृद्धि से पर्यावरण में हानिकारक परिवर्तन होते हैं जिस के परिणामस्वरूप जलवायु-परिवर्तन (जैसे कि E1 तीनों प्रभाव) होते हैं ।

इस के फलस्वरूप ध्रुवीय टिम टोपियों और अन्य जगहों, जैसे हिमालय की हिम चोटियों का पिघलना बढ जाता है । कई वर्षों बाद इससे समुद्र-तल का स्तर बढेगा जो कई समुद्रतटीय क्षेत्रों को जलमग्न कर देगा । वैश्विक उष्णता से होने वाले परिवर्तनों का कुल परिदृश्य अभी भी सक्रिय अनुसंधान का विषय है ।

हम लोग विश्वव्यापी उष्णता को किस प्रकार नियंत्रित कर सकते हैं ? इसका उपाय है ? जीवाश्म ईंधन के प्रयोग को कम करना, ऊर्जा दक्षता में सुधार करना, वनोन्तमूलन को कम करना तथा वृक्षारोपण और मनुष्य की बढती हुई जनसंख्या को कम करना वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय प्रयास भी किए जा रहे हैं ।

समतापमण्डल में ओज़ोन अवक्षया:

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आपने ‘खराब’ ओजान के बारे में पढा है जो निम्नतर वायुमंडल (क्षोभमंडल/ ट्रॉपोस्फीयर) में बनता है और जिससे पौधों और प्राणियों को नुकसान पहुँचा है । वायुमंडल में ‘अच्छा’ ओजोन भी होता है जो इस के ऊपरी भाग यानी समतापमंडल (स्ट्रैटोस्फीयर) में पाया जाता है ।

यह सूर्य से निकलने वाले पराबैंगनी विकिरण (अल्ट्रावायलेट रेडिएशन) को अवशोषित करने वाले कवच का काम करता है । सजीवों के डीएनए और प्रोटीन खास कर पराबैंगनी (यू वी) किरणों को अवशोषित करते हैं और इसकी उच्च ऊर्जा इन अणुओं के रासायनिक आबंध (केमिकल बाण्डस) को भंग करते हैं ।

इस प्रकार पराबैंगनी किरणें सजीवों के लिए बेहद आण्विक ऑक्सीजन पर पराबैंगनी किरणों की क्रिया के फलस्वरूप ओजोन गैस सतत् बनती रहती है और समतापमंडल में इसका आण्विक ऑक्सीजन में निम्नीकरण डिग्रडेशन) भी होता रहता है । समतापमंडल में ओजोन के उत्पादन और अवक्षय निम्नीकरण में संतुलन होना चाहिए हाल में, क्लोरोफ्रलुरोकार्बन (सी एफ सी/CFCs) के द्वारा ओजोन निम्नीकरण बढ जाने से इसका संतुलन बिगड गया है ।

वायुमंडल के निचले भाग में उत्सर्जित CFCs ऊपर की ओर उठता है और यह समतापमंडल में पहुँचता है । समतापमंडल में पराबैंगनी किरणें उस पर कार्य करती है जिस के कारण परमाणु का मोचन (रिलीज) होता है । C1 के कारण ओजोन का निम्नीकरण होता है जिन के कारण आण्विक ऑक्सीजन का मोचन होता है ।

इस अभिक्रिया में परमाणु ओजोन छिद्र एन्टार्कटिका के ऊपर वह क्षेत्रा है जो बैंगनी रंग से दर्शाया गया है जबकि ओजोन स्तर सबसे पतला है । ओजोन की मोटाई डॉबसन यूनिट में दर्शाया गया है । एन्टार्कटिका के ऊपर ओजोन छिद्र प्रतिवर्ष अगस्त के उत्तरार्ध और अक्टूबर के प्रारंभ में बनता है । साभार: नासा (NASA) हानिकारक हैं ।

वायुमंडल का उपभोग नहीं होता है क्योंकि यह सिर्फ उत्प्रेरक का कार्य के निचले भाग से लेकर शिखर तक वे वायु स्तंभ करता है । (कॉलम) में ओजोन की मोटाई डॉबसन यूनिट (डीयू) में मापी जाती है । इसलिए समतापमंडल में जो भी क्लोरोफ्रलुरोकार्बन जुडते जाते हैं उनका ओजोन स्तर पर स्थायी और सतत् प्रभाव पडता है । यद्यपि समतापमंडल में ओजोन का अवक्षय विस्तृत रूप से होता रहता है लेकिन यह अवक्षय ऐंटार्वपाटिक क्षेत्रों में खासकर विशेषरूप से अधिक होता है ।

इस के फलस्वरूप यही काफी बडे क्षेत्रों में ओजोन की परत काफी पतली हो गई है जिसे सामान्यता ओजोन छिद्र (ओजोन होल) कहा जाता है । पराबैंगनी -बी (यूपी-बी) की अपेक्षा छोटे तरंगदैर्ध्य (वेवलैंथ) युक्त पराबैंगनी (यूवी) विकिरण पृथ्वी के वायुमंडल द्वारा लगभग पूरा का पूरा अवशोषित हो जाता है बशर्ते कि ओजोन सार ज्यों का त्यों रहे ।

लेकिन यूवी-बी डी एन ए को क्षतिग्रस्त करता है और उत्परिवर्तन हो सकता है । इस के कारण त्वचा में बुढापे के लक्षण दिखते है, इसकी कोशिकाएं क्षतिग्रस्त हो जाती हैं और विविध प्रकार के त्वचा केंसर हो सकते हैं । हमारे आँख का स्वच्छमडल (कॉर्निया) यूवी-बी विकिरण का अवशोषण करता है ।

इसकी उच्च मात्रा के कारण कॉर्निया का शोथ हो जाता है । जिसे हिम अंधता (स्नो-ल्माइंडनेश) मोतियाबिंद आदि कहा जाता है । इस के उद्‌भासन से स्थायी रूप से क्षतिग्रस्त हो सकता है । ओजोन अवक्षय के हानिकर प्रभाव को देखते हुए सन् 1987 में मॉट्रियल (कनाडा) में एक अतर्रराष्ट्रीय संधि पर हस्ताक्षर हुए जिसे मॉट्रियल प्रोटोकॉल कहा जाता है । यह संधि 1989 से प्रभावी हुई ।

ओजोन अवक्षयकारी पदार्थों के उत्सर्जन पर नियंत्रण के लिए बाद में और कई अधिक प्रयास किए गए तथा और प्रोटोकॉल में विकसित और विकासशील देशों के लिए अलग-अलग निश्चित दिशा निर्देश जोडे गए जिससे कि सी.एफ.सी. और अन्य ओजोन अवक्षयकारी रसायनों के उत्सर्जनों को कम किया जाए ।

संसाधन के अनुचित प्रयोग और अनुचित अनुरक्षण द्वारा निम्नीकरण:

प्राकृतिक संसाधनों का निम्नीकरण न केवल प्रदूषकों की क्रिया के कारण होता है बल्कि संसाधनों के उपयोग करने के जो अनुचित तरीके हैं उन के कारण भी होता है ।

(I) मृदा अपरदन और मरुस्थलीकरण:

सबसे ऊपरी मृदा के उर्वर होने में सैकडों वर्ष लग जाते हैं लेकिन मनुष्य के क्रियाकलापों जैसे अधिक खेती करने, अबाधित चराई, वनोन्मूलन और सिंचाई के घटिया तरीकों के कारण यह शीर्ष स्तर काफी आसानी से हटाया जा सकता है जिस के कारण शुष्क भूमि-खंड बन जाते हैं ।

कालांतर में जब ये भूमि-खंड आपस में जुड जाते हैं तो मरुस्थल (डेजर्ट) का निर्माण होता है पूरे विश्व में यह माना जाता है कि मरुरथलीकरण, खासकर बढते हुए नगरीकरण (शहरीकरण) के कारण, आजकल एक मुख्य समस्या है ।

(II) जलाक्रांति और मृदा लवणता:

जल के उचित निकास के बिना सिचाई के कारण मृदा में जलाक्रांति (वाटर लॉगिग) होती है । फसल को प्रभावित करने के साथ-साथ इससे मृदा की सतह पर लवण आ जाता है तब यह लवण भूमि की सतह पर एक पर्पटी (क्रस्ट) के रूप में जमा हो जाता है या पौधों की जडों पर एकत्रित होने लगता है । लवण की बढी हुई मात्रा फसल की वृद्धि के लिए नुकसानदेह है और कृषि के लिए बेहद हानिकर है जलाक्रांति और लवणता कुछ ऐसी समस्याएँ हैं जो हरित क्रांति के कारण आई हैं ।

वनोन्मूलन:

वन प्रदेश का वन-रहित क्षेत्रों में रूपांतरण करना वनोन्मूलन कहा जाता है । एक आकलन के अनुसार शीतोष्ण क्षेत्रा में केवल एक प्रतिशत वन नष्ट हुए हैं, जबकि उष्णकटिबांध में लगभग 40 प्रतिशत वन नष्ट हो गए हैं । भारत में खासकर निर्वनीकरण की वर्तमान स्थिति काफी दयनीय है ।

20 वीं सदी के प्रारंभ में भारत के कुल क्षेत्राफल के लगभग 30 प्रतिशत भाग में जंगल थे सदी के अंत तक यह घटकर 19.4 प्रतिशत रह गया भारत की राष्ट्रीय वन नीति (1988) में सिफारिश की गई है कि मैदानी इलाकों में 33 प्रतिशत जंगल क्षेत्रा होने चाहिए और पर्वतीय क्षेत्रों में 67 प्रतिशत जंगल क्षेत्रा होने चाहिए ।

वनोन्मूलन किस प्रकार होता है ? इस के लिए कोई एक कारण नहीं है बल्कि मनुष्य के कई कार्य वनोन्मूलन यानी वनों के उन्मूलन में सहायक होते हैं । वनोन्मूलन का एक मुख्य कारण है कि वन प्रदेश को कृषि भूमि में बदला जा रहा है जिससे कि मनुष्य की बढती हुई जनसंख्या के लिए भोजन उपलब्ध हो सके ।

वृक्ष, इमारती लकडी (टिंबर), काष्ठ-ईधन, पशु-फार्म और अन्य कई उद्देश्यों के लिए काटे जाते हैं । काटो और जलाओ वृफषि (स्लैश एवं बर्न कृषि) (एग्रिकल्चर) जिसे आमतौर पर भारत के उत्तर पूर्वी राज्यों में झूम खेती (कल्टिवेशन) कहा जाता है, के कारण भी वनोन्मूलन हो रहा है ।

काटो एवं जलाओ कृषि में कृषक जंगल के वृक्षों को काट देते हैं और पादप-अवशेष को जला देते है । राख का प्रयोग उर्वरक के रूप में तथा उस भूमि का प्रयोग खेती के लिए या पशु चरागाह के रूप में किया जाता है । खेती के बाद उस भूमि को कई वर्षों तक वैसे ही खाली छोड दिया जाता है ताकि पुन:उर्वर हो जाए । कृषक फिर अन्य क्षेत्रों में जाकर इसी प्रक्रिया को दोहराता है ।

वनोन्मूलन के परिणाम क्या-क्या हैं ? इस के मुख्य प्रभावों में से एक है कि वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की सांद्रता बढ जाती है क्योंकि वृक्ष जो अपने जैवभार (बायोमास) में काफी अधिक कार्बन धारण कर सकते थे वनोन्मूलन के कारण नष्ट हो रहे है ।

वनोन्मूलन के कारण आवास नष्ट होने से जैव-विविधता (बायोडाइवर्सिटी) में कमी होती है । इस के कारण जलीय चव्रफ (हाइड्रोलॉजिकल साइकल) बिगड जाता है, मृदा का अपरदन होता है और चरम मामलों में इसका मरुस्थलीकरण (डेजर्टिफि केशन) यानी मरुभूमि में परिवर्तित हो सकता है ।

पुनर्वनीकरण (रीफॉरेस्टेशन) वह प्रव्रिफया है जिसमें वन को फिर से लगाया जाता है जो पहले कभी मौजूद था और बाद में उसे नष्ट कर दिया गया । निर्वनीकृत क्षेत्रा में पुनर्वनीकरण प्राकृतिक रूप से भी हो सकता है । फिर भी, वृक्ष रोपण कर इस कार्य में तेजी ला सकते हैं । ऐसा करते समय उस क्षेत्रा में पहले से मौजूद जैव विविधता का भी उचित ध्यान रखा जाता है ।

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