भारतीय अर्थव्यवस्था पर निबंध | Essay on Indian Economy in Hindi.

Essay # 1. भारतीय अर्थव्यवस्था का ढांचा (Structure of Indian Economy):

इस समय भारतीय अर्थव्यवस्था को एक द्वैतवादी अर्थव्यवस्था स्वीकार किया जाता है जहां आधुनिक अर्थव्यवस्था के साथ-साथ प्राथमिक एवं परम्परागत अर्थव्यवस्था के लक्षण पाये जाते हैं ।

द्वैतवाद, अल्प विकसित अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण लक्षण है । अत: द्वैतवाद के अन्तर्गत, दो क्षेत्र अर्थात् आधुनिक अथवा उन्नत क्षेत्र और परम्परागत अथवा पिछड़ा हुआ क्षेत्र साथ-साथ कार्य करते हैं ।

मुख्यता द्वैतवाद दो प्रकार का हो सकता है अर्थात् प्रौद्योगिक द्वैतवाद और सामाजिक द्वैतवाद । बैन्जमिन हिग्गनक (Benjamin Higgins) ने अपनी पुस्तक “Economic Development” में प्रौद्योगिक द्वैतवाद के सम्बन्ध में लिखा है कि यह विकसित क्षेत्र एवं परम्परागत क्षेत्र में विभिन्न उत्पादन फलनों के प्रयोग की ओर संकेत करता है ।

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इस द्वैतवाद के अन्तर्गत उन्नत क्षेत्र पूंजी गहन होता है तथा पिछड़ा हुआ क्षेत्र श्रम गहन । इसी प्रकार सामाजिक द्वैतवाद के सम्बन्ध में जे. एच. बोक (J.H. Bocke) ने अपनी पुस्तक ‘Economies and Economic Policy of Dual Society’ में दो भिन्न स्तरों की ओर संकेत किया है अर्थात् समाज में ऊपर का स्तर और नीचे का स्तर ।

बोके का सामाजिक द्वैतवाद देश में ही एक विदेशी सामाजिक प्रणाली का स्थानीय सामाजिक प्रणाली की उपस्थिति और संघर्ष दर्शाता है । भारत में सामाजिक द्वैतवाद और परिणामित संघर्ष नहीं है ।

परन्तु भारत के आर्थिक ढांचे में प्रौद्योगिक द्वैतवाद उपस्थित है । इस प्रकार, के द्वैतवाद में- ”उत्पादक रोजगार के अवसर सीमित हैं, यह प्रभावपूर्ण मांग के अभाव के कारण नहीं है, परन्तु दोनों क्षेत्रों में साधनों और प्रौद्योगिक बाधाओं के कारण है ।”

भारत जैसे अल्प-विकसित देश में अर्थव्यवस्था का प्रतिनिधित्व परम्परागत ग्रामीण क्षेत्र, किसान और कृषि द्वारा किया जाता है जिसके मुख्य लक्षण हैं, छोटे कुटीर उद्योग और दस्तकारी है जोकि मुख्यता उत्पादन की श्रम गहन तकनीकें अपनाते हैं ।

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इसके विपरीत, अर्थव्यवस्था एक उन्नत आधुनिक क्षेत्र का समर्थन कर रही है जिसमें बड़े स्तर के उद्योग, खनन उद्योग, बागान, ऊर्जा प्लांट आदि सम्मिलित हैं जिन्हें स्थिर तकनीकी गुणांकों, कारकों की प्रतिस्थापन क्षमता की निम्न मात्रा और उत्पादन की पूंजी गहन तकनीकों द्वारा अंगीकृत किया जाता है ।

पुन: भारत जनसंख्या की बढ़ती हुयी प्राकृतिक वृद्धि दर के परिणामस्वरूप जनसंख्या विस्फोट की एक विशेष स्थिति का सामना कर रहा है तथा स्थिर तकनीकी गुणांकों के कारण औद्योगिक क्षेत्र में रोजगार के अवसरों की वृद्धि भी धीमी गति से हो रही है ।

औद्योगिक क्षेत्र में श्रम समावेशन की निम्न दर के कारण अधिक-से-अधिक श्रमिक कृषि क्षेत्र में इसके विविध तकनीकी गुणांकों के कारण, व्यस्त किये जा रहे हैं । कृषि क्षेत्र में श्रम शक्ति के बढ़ते हुये समावेशन के कारण श्रम का भूमि और पूंजी दोनों से अनुपात बढ़ जाता है ।

इसके अतिरिक्त, श्रम का बढ़ता हुआ समावेशन कृषि क्षेत्र में छुपे हुये रोजगार को जन्म दे रहा है । श्रम की इस अतिरिक्त पूर्ति के कारण, श्रम उत्पादकता, प्रौद्योगिकी के स्तर, यन्त्रीकरण की गति कृषि क्षेत्र में नीची रहती है ।

ADVERTISEMENTS:

भारतीय श्रम बाजार में प्रौद्योगिक द्वैतवाद की एक अन्य विशेषता विद्यमान है जहां श्रम संघों की बढ़ती हुई गतिविधियों और श्रम बाजार में सरकार के सीधे हस्ताक्षेप के कारण संगठित औद्योगिक श्रमिकों के बीच कृत्रिम रूप में उच्च वेतन दर विद्यमान है परन्तु दूसरी ओर, असंगठित ग्रामीण क्षेत्र में वेतनों का स्तर नीचा रहता है । उपरोक्त विशेषताओं के आधार पर भारतीय अर्थव्यवस्था को एक द्वैतवादी अर्थव्यवस्था स्वीकार किया जाता है ।

Essay # 2. भारतीय अर्थव्यवस्था का विकास (Development of Indian Economy):

आर्थिक आयोजन को अपनाने के समय से भारतीय अर्थव्यवस्था विभिन्न क्षेत्रों में सराहनीय प्रगति कर रही है । तीव्र आर्थिक विकास के लक्ष्य की प्राप्ति के लिये भारत सरकार ने उस समय के प्रधानमन्त्री पण्डित जवाहर लाल नेहरु के नेतृत्व में सफलतापूर्वक आर्थिक नियोजन का मार्ग अपनाया, अब तक भारत 12 पंचवर्षीय योजनाएं पूरी कर चुका ।

इन पंचवर्षीय योजनाओं के कार्यान्वयन के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था ने भूतकाल की तुलना में बहुत उन्नति की । अत: भारतीय अर्थव्यवस्था एक स्थिर अर्थव्यवस्था नहीं है बल्कि इसने सभी क्षेत्रों में अपनी गतिविधियों का आधुनिकीकरण किया ।

इसलिये, अब तक प्राप्त विकास के स्तर को ध्यान में रखते हुये भारतीय अर्थव्यवस्था को नियोजित विकासशील अर्थव्यवस्था का नाम दिया जा सकता है ।

एक विकासशील अर्थव्यवस्था के रूप में भारतीय अर्थव्यवस्था के निम्नलिखित मौलिक लक्षण हैं:

1. राष्ट्रीय आय (National Income):

भारत की राष्ट्रीय आय धीमी परन्तु सुस्थिर गति से बढ़ रही है । यह देखा जा सकता है कि 1993-94 की कीमतों पर राष्ट्रीय आय सन् 1950-51 में 1,32,367 करोड़ रुपयों से बढ़ कर 2004-05 में 1266005 करोड़ रुपयों तक बढ़ गई जिसका अर्थ है 54 वर्षों की अवधि में 956.4 प्रतिशत वृद्धि दर ।

इसके अतिरिक्त चालू कीमतों पर राष्ट्रीय आय सन् 1950-51 में 9142 करोड़ रुपयों से बढ़ कर 2006-07 में 3325817 करोड़ हो गई, जो 56 वर्षों में 364 गुणा वृद्धि दर्शाती है । पुन: स्थिर कीमतों (1993-94) प्रति व्यक्ति आय के अंक जोकि सन् 1950-51 में 3687 रुपये थे बढ़ कर सन् 2001-02 में 10306 रुपये हो गये जो पिछले 51 वर्षों में 279.5 प्रतिशत वृद्धि दर्शाती है ।

सन् 2006-07 में 1999-2000 कीमतों पर 22553 रुपये थी जबकि 1999-2000 में यह 15881 रु. थी । 7 वर्षों में वृद्धि दर 42.0 प्रतिशत थी । इस प्रकार वर्तमान मूल्यों पर सन् 1950-51 में 255 रुपयों से बढ़ कर 2006-07 में 26642 रुपये हो गई जोकि उसी अवधि में 116 गुणा वृद्धि दर दर्शाती है ।

2. राष्ट्रीय आय की संरचना (Composition of National Income):

राष्ट्रीय आय का क्षेत्रीय योगदान, किसी अर्थव्यवस्था द्वारा प्राप्त विकास की मात्रा का महत्त्वपूर्ण संकेतक है । प्राथमिक क्षेत्र जिसमें कृषि, वन, मत्स्य क्षेत्र और खनन आदि सम्मिलित हैं का सकल घरेलू उत्पाद में सन् 1950-51 में योगदान 564 प्रतिशत था, सन् 1970-71 में घट कर 45.8 प्रतिशत रह गया तथा सन् 2006-07 में 20.5 प्रतिशत तक घट गया ।

प्राथमिक क्षेत्र का योगदान सन् 1950-51 में 48.06 प्रतिशत से घट कर सन् 2006-07 में 24.6 प्रतिशत रह गया । परन्तु द्वितीयक क्षेत्र का सकल घरेलू उत्पाद में योगदान जोकि 1950-51 में 15 प्रतिशत था, 1970-71 में 22.3 प्रतिशत और 2006-07 में 24.0 प्रतिशत तक बढ़ गया ।

इसी प्रकार तृतीयक क्षेत्र का, राष्ट्रीय आय में योगदान 1950-51 के 28.5 प्रतिशत से बढ़ कर सन् 1980-81 में 31.8 प्रतिशत और 2006-07 में 54.7 तक बढ़ गया । यह बढ़ोतरी विकासशील अर्थव्यवस्था का महत्त्वपूर्ण चिन्ह है ।

3. पूंजी निर्माण (Capital Formation):

देश में आर्थिक विकास के गतिवर्द्धन में पूंजी निर्माण एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है । आयोजन के आरम्भण से भारत में सकल घरेलू बचतों पर दृष्टि डालना रुचिकर होगा । आयोजन के पहले चार दशकों के दौरान, कुल घरेलू बचतों के दर में पर्याप्त वृद्धि हुई है ।

सी. एस. ओ. के अनुमान दर्शाते हैं कि सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत के रूप में (चालू कीमतों पर) सकल घरेलू बचतों की दर जोकि 1950-51 में केवल 10.4 प्रतिशत था, प्रथम, दूसरी और तीसरी योजना के अन्त तक क्रमश: 10.5%, 11.9% और 12.7% तक बढ़ गयी ।

चौथी योजना के अन्त में यह दर 18.4% तक पहुंच गयी । पांचवीं योजना के अन्त में 23.2% थी और छठी योजना के अन्त में फिसल कर 18.2% रह गयी । सातवीं पंचवर्षीय योजना के अन्त में यह पुन: 22.4 प्रतिशत तक बढ़ गयी ओर आठवीं योजना के अन्त में 26.1 प्रतिशत पर पहुंच गयी ।

इसी प्रकार सकल घरेलू पूंजी निर्माण की दर (अर्थात् निवेश की दर) । आयोजन के पिछले पांच दशकों के दौरान पर्याप्त रूप में बड़ी है । सकल घरेलू पूंजी निर्माण की दर जो पहली योजना के अन्त में केवल 10.6 प्रतिशत थी दूसरी, तीसरी और चौथी योजना के अन्त में क्रमश: 13.5, 15.1 और 19.1 प्रतिशत तक बढ़ गयी ।

छठी से दसवीं योजना काल के दौरान निवेश की वही दर 19.7 प्रतिशत से 36.01 प्रतिशत हो गयी । इस प्रकार यह देखा गया है कि पूंजी निर्माण की दर स्थिरतापूर्वक निरन्तरता से बढ़ रही है जोकि विकासशील अर्थव्यवस्था का एक संकेतक है ।

4. कृषि विकास (Agricultural Development):

आयोजन के पांच दशकों के दौरान कृषि क्षेत्र ने पर्याप्त विकास किया है । इसके अतिरिक्त, समग्र आर्थिक वृद्धि के सम्बन्ध में कृषि को एक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है क्योंकि यह आहार, कच्चा माल और निर्यात की मूर्तियों में पर्याप्त योगदान कर रही है ।

कृषि उत्पादन कई गुना बढ़ा है । खाद्य अनाजों का कुल उत्पादन जोकि सन् 1950-51 में 55 मिलियन टन था सन् 2006-07 में 216.0 मिलियन टन तक बढ़ गया । भारत में मुख्य फसलों का प्रति हैक्टेयर उत्पादन जोकि 1949-50 में 5.5 क्विंटल था 1964-65 में 7.6 क्विंटल और 2006-07 में 19.3 क्विंटल तक बढ़ गया ।

ईख के उत्पादन ने 1950-51 में 50 मिलियन टन से बढ़ कर 2006-07 में 345 मिलियन टन के अंक प्राप्त कर लिये हैं । कपास और पटसन् का उत्पादन क्रमश: 1950-51 में 50 लाख और 25 लाख गट्टों से बढ़ कर 2006-07 में क्रमश: 101 लाख और 116 लाख गट्ठे हो गया ।

अत: यह देखा गया है कि कृषि क्षेत्र के आधुनिकीकरण से भारत में विभिन्न कृषि फसलों के उत्पादन में पर्याप्त वृद्धि हुई है । यह वृद्धि रासायनिक खादों, उच्च उत्पादन वाले बीजों और उत्पादन की सुधरी हुई तकनीकों का परिणाम है । देश में कुल सिंचाई क्षमता का भी विकास हुआ है ।

सन् 1950-51 में जो 23 मिलियन हैक्टेयर थी 2006-07 में बढ़ कर 102.3 मिलियन हो गई । इन सब विकासों के फलस्वरूप प्रति व्यक्ति अनाजों और दालों की उपलब्धता में वृद्धि हुई, 1951 में 395 ग्राम प्रतिदिन से बढ़ कर 512 ग्राम प्रतिदिन हो गई ।

इस प्रकार देश में आयोजन के कार्यान्वयन से कृषि क्षेत्र ने बहुत उन्नति की है । यद्यपि यह विकास देश के कुछ विशेष क्षेत्रों तक सीमित रहा । इससे स्पष्ट है कि कृषि क्षेत्र में और अधिक विकास की पर्याप्त सम्भावनाएं हैं ।

5. कृषि में आधुनिकीकरण और संरचनात्मक परिवर्तन (Modernization and Structural Change in Agriculture):

आयोजन के युग के आरम्भ में कृषि की पुरानी तकनीकें, कालातीत काश्तकारी प्रणाली और उत्पादन बढ़ाने के लिये संरचना का अभाव, कृषि की उन्नति में कठिन बाधाएँ थी ।

स्वतन्त्र भारत में, योजना निर्माताओं के प्रयत्नों से जमींदारी और अन्य मध्यवर्ती भूमि की काश्तकारी अवधि की प्रथा लगभग समाप्त हो चुकी है । काश्तकारों को स्वामित्व के अधिकार सौंपने के लिये सभी प्रांतों में वैधानिक उपाय 1981-82 में आरम्भ किये गये ।

अतिरिक्त भूमि का वितरण 1982-83 में लगभग पूरा हो गया, भूमि रिकार्ड के संकलन और अधतन के सन् 1985 तक स्थिति अनुसार पूरा होने की सम्भावना थी और सभी प्रांतों में दस वर्षों के भीतर चकबन्दी समाप्त करने के लिये कार्य आरम्भ किया जायेगा ।

उन्नत बीजों तथा सिंचाई व्यवस्था के विस्तार के कारण कृषि की तकनीकों में परिवर्तन हुआ है । कृषि क्षेत्र में, सामग्रिक आगतों की पूर्ति के अतिरिक्त, अनेक प्रकार की सेवाएं जैसे फसल बीमा का विस्तार, विपणन आदि ने कृषि के महत्व को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है ।

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् ने कृषि और अर्थव्यवस्था के अन्य सम्बन्धित क्षेत्रों में अनुसंधान संवर्धन और विकास गतिविधियों के प्रवर्तन एवं समन्वय में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है ।

6. औद्योगिक विकास (Industrial Development):

देश के औद्योगिक क्षेत्र ने शानदार सफलता प्राप्त की है । योजना काल के दौरान औद्योगिक उत्पादन में महत्वपूर्ण वृद्धि हुई है । औद्योगिक उत्पादन सूचनांक (आधार = 1993-94), 1950-51 में 7.9 प्रतिशत से बढ़ कर 1970-71 में 28.1 प्रतिशत, 1990-91 में 91.6 प्रतिशत और 2006-07 में 247.1 प्रतिशत हो गया ।

1951 से 1965 तक 15 वर्षों की अवधि में भारतीय उद्योगों ने लगभग 8 प्रतिशत की स्थिर वृद्धि का अनुभव किया । औद्योगिक वृद्धि की दूसरी अवधि (1965-80) में औद्योगिक उत्पादन की वार्षिक मिश्रित वृद्धि दर 1965 से 1976 तक के सम्पूर्ण काल में 4.1 तक तीव्रतापूर्वक घट गयी और 1979-80 में वृद्धि दर ऋणात्मक (-) 1.6 प्रतिशत तक घट गयी ।

औद्योगिक वृद्धि की तीसरी स्थिति में (1981-91) वृद्धि दर में सुधार देखने को मिला और सातवीं योजना के दौरान 8.5 प्रतिशत वृद्धि दर की प्राप्ति हुई । औद्योगिक वृद्धि की चतुर्थ स्थिति में (1991-92 से 2006-07) देश ने औद्योगिक अवनति का कटु अनुभव किया ।

आठवीं योजना के पहले भाग में देश ने ऋणात्मक औद्योगिक वृद्धि का अनुभव किया । (-) 0.10 प्रतिशत 1991-92 में तथा फिर 1996-97 में 7.1 प्रतिशत और 2006-07 में 5.3 प्रतिशत । तैयार इस्पात के उत्पादन के सन्दर्भ में यह 1950-51 में 1.04 मिलियन टन से बढ़ कर 2006-07 में 31.10 मिलियन टन हो गया ।

सीमेंट का कुल उत्पादन जो 1950-51 में 2.7 मिलियन टन था । 2006-07 में बढ़ कर 154.7 मिलियन टन हो गया । पैट्रोलियम परिशोधन उत्पादों की मात्रा जो 1950-51 में 0.2 मिलियन टन थी सन् 2006-07 में 1353 मिलियन टन तक बढ़ गई ।

सूती वस्त्रों का उत्पादन जो सन् 1950-51 में 4215 मिलियन वर्ग मीटर था 2006-07 में बढ़ कर 26238 मिलियन वर्ग मीटर हो गया । यांत्रिक उपकरणों के उत्पादन में 600 गुणा वृद्धि हुई । विद्युत उत्पादन जोकि 1950-51 में 5.1 बिलियन KWh था 2006-07 तक 622.0 बिलियन KWh तक बढ़ गया । इस प्रकार, औद्योगिक क्षेत्र ने पर्याप्त उन्नति प्राप्त की तथा यह अपने ढांचे में विविधता लाने में सफल हुआ ।

7. औद्योगिक संगठन में परिवर्तन (Changes in Industrial Organisation):

औद्योगिक संगठन में भी पर्याप्त विकास हुआ है । उद्योग में सार्वजनिक क्षेत्र के निवेश ने पर्याप्त भाग प्राप्त कर लिया है और औद्योगिक बदलाव को कायम रखा है । चालू कीमतों पर सकल घरेलू उत्पाद (NDP) में सार्वजनिक क्षेत्र का भाग जोकि 1950-51 में 7.5 प्रतिशत था 1990-91 में बढ़ कर 24 प्रतिशत हो गया ।

पुन: सकल घरेलू उत्पाद में सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों का भाग 1950-51 में 3.5 प्रतिशत से बढ़ कर 1990-91 में 14.4 प्रतिशत हो गया । सकल घरेलू, पूंजी निर्माण में सार्वजनिक क्षेत्र का योगदान जो पहली योजना में 3.5 प्रतिशत था । सातवीं योजना 12.1 प्रतिशत तक बढ़ गया ।

रोजगार सृजन की दिशा में सार्वजनिक क्षेत्र का योगदान 1971 में 11 मिलियन लोगों से बढ़कर 1992 में 19.2 मिलियन हो गया जो इस काल में 75 प्रतिशत की वृद्धि दर्शाता है, जोकि देश में सृजित कुल रोजगार का 7.13 प्रतिशत था ।

उद्योग के मूल्य सम्बर्द्धन में सार्वजनिक क्षेत्र का भाग (अर्थात खनन, निर्माण, विद्युत, निर्माण, जलपूर्ति और गैस) भी 1960-61 में 6.9 प्रतिशत से बढ़ कर 2006-07 में 49.1 प्रतिशत हो गया । इसी समय निजी क्षेत्र और संयुक्त क्षेत्र के औद्योगिक संगठनों में और इनकी विविध गतिविधियों में भी पर्याप्त वृद्धि हुई ।

8. संरचनात्मक सुविधाओं का विस्तार (Expansion of Infrastructural Facilities):

संरचनात्मक सुविधाओं का भी पर्याप्त विस्तार हुआ है । इन सुविधाओं में सम्मिलित हैं- यातायात और संचार सुविधाओं में विकास, उत्पादन, सिंचाई सुविधाएं आदि । रेल मार्ग और सड़क मार्गों का देश की समग्र व्यवस्था पर प्रभुत्व है ।

भारतीय रेल मार्ग जिनकी लम्बाई एशिया में सबसे बड़ी और विश्व में दूसरे क्रम पर है, समग्र सड़क मार्गों में भी पर्याप्त विस्तार प्राप्त किया है । 1950-51 में इनकी लम्बाई 53600 किलोमीटर थी बढ़ कर 2006-07 में 63300 किलोमीटर हो गई ।

राष्ट्रीय राजमार्गों की कुल लम्बाई 1950-51 में 4 लाख किलोमीटर थी बढ़ कर 2003-04 में 27.1 लाख किलोमीटर हो गई, अब यह 34500 किलोमीटर है । हमारे देश में लगभग 64 प्रतिशत गांवों के लिये ग्रामीण सड़कों का जाल है ।

हमारे विदेशी व्यापार में, माल की ढलाई में भारतीय जहाजों का जोकि 1950-51 में 0.2 मिलियन जी. आर. टी. था 1996-97 में 7.3 जी. आर टी. तक बढ़ गया । दिसम्बर 2000, के अन्त तक जहाजों के बेड़े की संख्या 616 जहाज थी जिसकी क्षमता 617 मिलियन जी. आर. टी. थी ।

वायु यातायात सुविधा का भी महत्वपूर्ण विकास हुआ है । 1990-91 में आई. ए. ए. आई. हवाई अड्डों द्वारा 177.23 लाख यात्रियों को वायु मार्गों द्वारा यात्रा की सुविधा उपलब्ध की गई जबकि 2006-07 में ऐसे यात्रियों की संख्या 511.1 लाख तक बढ़ गई और माल की ढुलाई की मात्रा जोकि 1950-51 में 377.33 हजार टन थी 2006-07 में 656.74 हजार टन तक बढ़ गयी ।

9. वित्तीय संस्थाओं का विकास (Development of Financial Institutions):

आयोजन युग के दौरान देश ने बैंकिग, गैर वित्तीय संस्थाओं और बीमा क्षेत्र में बहुत उन्नति की है । देश के व्यापारिक बैंकों ने, 1969 में इनके राष्ट्रीयकरण के पश्चात् बहुत उन्नति की है । अनुसूचित व्यापारिक बैंकों में समग्र साख जून, 1969 में 3599 करोड़ रुपयों से बढ़ कर सन् 1997 में 2,82,237 करोड़ रुपये हो गई ।

व्यापारिक बैंकों की शाखाओं की संख्या 1969 में 8,262 से बढ़ कर 2006 में 74886 करोड़ रुपये हो गई । कुल बैंक साख में प्राथमिकता वाले क्षेत्रों का भाग जैसे कृषि, लघु उद्योगों और यातायात में, 1969 में 12 प्रतिशत से बढ़ कर दिसम्बर 2000 में 46.7 प्रतिशत हो गया ।

बीमा संस्थाओं ने भी अपनी संरचना का विस्तार किया और जीवन एवं सामान्य बीमा की सुविधा उपलब्ध की । सरकार ने भी विविध प्रकार की वित्तीय तथा अन्य संस्थाओं की स्थापना की जो कृषि और उद्योग के लिये कच्चे माल की पूर्ति, विपणन, भण्डारण, शोध प्रौद्योगिकी एवं संरचना में सहायता करेंगी ।

10. मानवीय साधनों का विकास (Development of Human Resources):

मानवीय संसाधनों के विकास के सम्बन्ध में भारत ने सामान्य सफलता प्राप्त की है । मानवीय विकास के मुख्य संघटकों में शिक्षा, स्वास्थ्य सम्भाल, जलपूर्ति, स्वच्छता, सामाजिक सुरक्षा की पर्याप्त व्यवस्था के लिये सामाजिक संरचना का विस्तार सम्मिलित है ।

प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था में भारत विश्व का दूसरा सबसे बड़ा देश है, जहां 1996-97 में 6 से 14 वर्ष के आयु वर्ग के 151.5 मिलियन बच्चे प्रवेश प्राप्त कर चुके थे । यह संख्या इस आयु वर्ग के 81 प्रतिशत बच्चों को प्रच्छन्नता प्रदान करती है ।

प्राइमरी स्कूली की संख्या में भी पर्याप्त वृद्धि हुई है तथा इनकी संख्या 1950-51 में 2.10 लाख थी जो 1996-97 में 5.98 लाख तक बढ़ गई । दिसम्बर 1996 में सम्पूर्ण साक्षरता अभियान के अन्तर्गत 417 जिले पूर्ण अथवा आंशिक रूप में प्रच्छन्न हो चुके थे ।

जिला, प्राइमरी शिक्षा कार्यक्रम (DPEP) जो 1994 में आरम्भ किया गया था । देश में ग्यारहां प्रांतों के 59 जिलों में कार्य कर रहा था । भरत वर्ष 2000 तक “सबके लिये स्वास्थ्य” (Health for All) प्राप्त करने के लिये वचनबद्ध है क्योंकि यह 1978 की “अल्मा-अता डैक्लेरेशन” का हस्ताक्षर है ।

डॉक्टरों की कुल संख्या जो 1951 में 61840 थी 1994-95 में बढ़ कर 4,10,875 हो गई अर्थात् 6.6 गुणा बढ़ गई और नसों की संख्या 31 गुणा बढ़ गयी । अस्पतालों की संख्या 1951 में 2,694 से बढ़ कर 1994-95 में 13,692 हो गयी अर्थात् 5 गुणा बढ़ गई ।

मैडीकल कालेजों की संख्या सन् 1951 में 28 से बढ़ कर 2000-01 में 149 तक बढ़ गई । अस्पतालों में बिस्तरों की कुल संख्या 1951 में 1.17 लाख से बढ़ कर सन् 2001 में 9.21 लाख तक पहुँच गयी जो 6.9 गुणा थी ।

इसके परिणामस्वरूप भारत में जन्म पर जीवन प्रत्याशा जो 1951-61 में 41.2 वर्ष थी धीरे-धीरे बढ़ते हुये 2000-01 तक 67 वर्ष तक बढ़ गई । शिशु मर्त्यता दर जो 1951 में 146 प्रति हजार थी सन् 2000-01 तक घट कर 74 प्रति हजार रह गया ।

इसके अतिरिक्त सुरक्षित पीने के जल की सुविधाएं जो सन् 1985 में ग्रामीण और शहरी जनसंख्या के, क्रमश: 56.3 और 72.9 प्रतिशत भाग को उपलब्ध थी 2000-01 में क्रमश: 82.0 और 86.9 प्रतिशत भाग को प्राप्त हो गयी ।

इसके अतिरिक्त मार्च 2000 तक स्वच्छता सम्बन्धी उपलब्ध करने का व्यापक कार्यक्रम आरम्भ किया गया । इस कार्यक्रम के अन्तर्गत लगभग 7.64 प्रतिशत ग्रामीण जनसंख्या और 50 प्रतिशत शहरी जनसंख्या को यह सुविधा प्राप्त हुईं ।

11. निर्यात (Exports):

भारत में स्वतन्त्रता के पश्चात् निर्यात की मात्राओं में भी पर्याप्त वृद्धि हुई है । समग्र निर्यातों का मूल्य जोकि 1950-51 में केवल 947 करोड़ रुपये था सन् 1996-97 में 1,17,525 रुपयों तक बढ़ गया । औद्योगिक क्षेत्र की वृद्धि और क्रमिक विविधीकरण के साथ भारत ने विभिन्न प्रकार के गैर-परम्परागत उत्पादों का निर्यात आरम्भ कर दिया ।

तदानुसार, पटसन्, चाय और सूती कपड़े के कुल निर्यात से कुल कमाई जो 1950-51 में 60 प्रतिशत थी 1970-71 में 31 प्रतिशत तक घट गई तथा पुन: 2006-07 में 11.2 प्रतिशत रह गई । परन्तु समग्र भारतीय निर्यात में यन्त्रों और इंजीनियरी वस्तुओं का धीरे-धीरे बढ़ गया । यह सन् 1960-61 में 2.1 प्रतिशत से बढ़ कर 1970-71 में 12.9 प्रतिशत तथा पुन: 2006-07 में 13.7 प्रतिशत हो गया ।

12. रोजगार का सृजन (Employment Generation):

अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों के क्रमिक विकास से देश में, लोगों के लिये रोजगार का सृजन आरम्भ हो गया । पहली, दूसरी और तीसरी योजना में रोजगार का सृजन क्रमश: 70 लाख, 100 लाख और 145 लाख था । चौथी, पांचवीं, छठी और सातवीं योजना के दौरान रचित रोजगार की मात्रा क्रमश: 190 लाख, 154 लाख, 468 लाख और 403.6 लाख थी ।

नवम् योजना के दौरान रणनीति के जारी रहने से 1997 से 2002 तक के समय में 47.5 मिलियन अतिरिक्त रोजगार अवसरों के सृजन की सम्भावना है । अत: वर्तमान रोजगार युक्ति द्वारा 2002 तक खुले बेरोजगार के विगत समग्र शेष एवं पर्याप्त अर्द्ध बेरोजगारी के समाप्त होने की सम्भावना है ।

13. निर्धनता (Poverty):

हाल ही के वर्षों में भारत में निर्धनता कम हो रही है । योजना आयोग द्वारा निर्धनता सम्बन्धी लगाये गये अनुमान दर्शाते हैं कि निर्धनता रेखा से नीचे कुल जनसंख्या का अनुपात जो 1972-73 में 54.1 प्रतिशत था 1987-88 में 37.4 प्रतिशत तक कम हो गया और पुन: 2000-01 तक 24.4 प्रतिशत रह गया । नि:सन्देह यह देश की एक बड़ी उपलब्धि है ।

Essay # 3. भारतीय अर्थव्यवस्था-एक मिश्रित अर्थव्यवस्था (Indian Economy-A Mixed Economy):

एक मिश्रित अर्थव्यवस्था में निजी और सार्वजनिक क्षेत्र साथ-साथ चलते हैं । अर्थव्यवस्था के कुछ सामाजिक रूप से महत्वपूर्ण क्षेत्रों में सरकार आर्थिक गतिविधि का निर्देशन करती है तथा शेष को कीमत यन्त्र के भरोसे छोड़ दिया जाता है । सामाजिक उद्देश्यों की प्राप्ति में सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र परस्पर सहयोग करते हैं ।

निजी क्षेत्र को आर्थिक वृद्धि का एक महत्वपूर्ण उपकरण समझा जाता है । देश की स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत का आर्थिक विकास दो लक्ष्यों द्वारा मार्ग दर्शित है ताकि प्रजातान्त्रिक साधनों का तीव्र विस्तार हो और अर्थव्यवस्था प्रौद्योगिक रूप में उन्नत हो और सामाजिक व्यवस्था न्याय पर आधारित हो तथा देश के प्रत्येक नागरिक को समान अवसर प्राप्त हों ।

अत: निम्नलिखित तर्क इस बात को स्पष्ट करते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था एक मिश्रित अर्थव्यवस्था है:

1. नियोजित विकास (Planned Development):

देश की स्वतन्त्रता के समय देश का औद्योगिक आधार बहुत दुर्बल था । जनसंख्या के बढ़ते हुये दबाव की पृष्ठभूमि में आर्थिक स्थायित्व के लम्बे समय तथा उसके पश्चात द्वितीय विश्व युद्ध ने भारतीय अर्थव्यवस्था को और भी दुर्बल बना दिया ।

देश के विभाजन ने लाखों लोगों को बेघर कर दिया और आर्थिक जीवन को अव्यवस्थित कर दिया । स्वतन्त्रता का वादा तभी पूरा सकता है जब देश की आर्थिक नींव सुदृढ़ हो । संविधान ने सबको नागरिकता के समान अधिकार और अन्य मौलिक अधिकार उपलब्ध किये ।

अधिक स्वतन्त्रता के लिये संविधान में राज्य के नीति निर्देशक सिद्धान्त भी उपलब्ध किये गये । अत: आवश्यक था कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था का पुनर्निर्माण किया जाये, औद्योगिक एवं वैज्ञानिक उन्नति की नींव रखी जाये, शिक्षा एवं अन्य सामाजिक सेवाओं का विस्तार किया जाये ।

फलत: सन् 1951 से राष्ट्रीय स्तर पर आयोजन का मार्ग अपनाया गया जिसमें आर्थिक और सामाजिक जीवन के सभी पहलू सम्मिलित थे । आयोजन क्रमबद्ध उन्नति का एक घोषणा-पत्र है ।

यह वृद्धि के उच्च दर की प्राप्ति के साधनों, आर्थिक और सामाजिक जीवन की संस्थाओं के पुनर्निर्माण और राष्ट्रीय विकास के कार्यों में लोगों की ऊर्जा के प्रयोग को सम्भव बनाता है । आयोजन ने सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्रों दोनों में वृद्धि के विस्तृत अवसर उपलब्ध किये हैं क्योंकि दोनों एक दूसरे के पूरक हैं ।

2. योजना के उद्देश्य (Plan Objectives):

अप्रैल, 1951 से पहली पंचवर्षीय योजना के आरम्भ से भारत ने आयोजित विकास का आरम्भ किया । प्रथम योजना के अनुसार आयोजन का केन्द्रीय प्रयोजन “विकास की एक ऐसी प्रक्रिया का आरम्भण था जो लोगों के जीवन सार को ऊंचा उठाये तथा उन्हें समृद्ध एवं विविध प्रकार के जीवन के अवसर प्रदान करें ।”

मोटे तौर पर भारत में आयोजन के मौलिक लक्ष्यों को चार शीर्षों के अन्तर्गत एकत्रित किया जा सकता है- वृद्धि, आधुनिकीकरण, आत्म निर्भरता और सामाजिक न्याय । आयोजन की प्रक्रिया निरन्तर चल रही है और अब तक हमने दस पंचवर्षीय योजनाएं पूरी कर ली हैं ।

नि:सन्देह, भिन्न-भिन्न योजनाओं के लक्ष्य एवं रणनीतियां भिन्न-भिन्न थीं परन्तु फिर भी सभी उद्देश्य हमारी परम्पराओं के अनुकूल हैं । आजकल हम अपनी ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना 2007-2012 से गुजर रहे हैं । आठवीं योजना ने मुख्यता ”मानव विकास” पर ध्यान केन्द्रित किया ।

समस्त सार्वजनिक कार्यवाही, जिसमें आयोजन एवं विकास रणनीति भी सम्मिलित है का अन्तिम लक्ष्य नि:सन्देह मानव विकास ही है । परन्तु, यह अन्तिम लक्ष्य अर्थव्यवस्था की वास्तविक स्थितियों और लोगों के बोध अनुसार बदलता रहता है ।

नवम् योजना के लक्ष्य जो सरकार के “साझे न्यूनतम कार्यक्रम” से उत्पन्न हुये और ‘आधारभूत न्यूनतम सेवाओं’ पर विभिन्न प्रांतों के मुख्य मंत्रियों के सम्मेलन में गहन विचार-विमर्श के पश्चात् सामने आये निम्नलिखित हैं:

1. पर्याप्त उत्पादक रोजगार की रचना और निर्धनता की समाप्ति के लिये कृषि एवं ग्रामीण विकास को वरीयता देना ।

2. सुस्थिर कीमतों द्वारा अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर को तीव्र करना ।

3. सभी के लिये विशेषतया समाज के दुर्बल वर्गों के लिये पोषक सुरक्षा सुनिश्चित करना ।

4. न्यूनतम आधारभूत सेवाएं उपलब्ध करना जैसे सुरक्षित पीने का जल, प्रारम्भिक स्वास्थ्य संभाल सुविधाएं, सार्वभौम प्राइमरी शिक्षा, आश्रय, एक समयबद्ध ढंग से सबके लिये संयोजन ।

5. जनसंख्या की वृद्धि दर पर नियन्त्रण ।

6. विकास प्रक्रिया की पर्यावरणीय संभाल को सामाजिक सहयोग की गतिशीलता और सभी स्थितियों में लोगों की भागीदारी द्वारा सुनिश्चित करना ।

7. सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन और विकास के अभिकर्त्ताओं के रूप में स्त्रियों और सामाजिक रूप से सुविधाहीन वर्गों जैसे अनुसूचित जातियों, जनजातियों, अन्य पिछड़ी श्रेणियों और अल्पसंख्यकों का सशक्तिकरण ।

8. लोगों की सहभागी संस्थाओं जैसे पंचायती राज संस्थाएं, सहकारी संस्थाएं और स्व-सहायता वर्गों को प्रोत्साहन तथा विकास ।

9. आत्म-निर्भरता के निर्माण हेतु प्रयत्नों का दृढ़ीकरण ।

उपरोक्त उद्देश्य जो ”समानता सहित वृद्धि” की प्राप्ति की इच्छा रखते हैं उन्हें राज्य नीति के चार महत्वपूर्ण पहलुओं के सन्दर्भ में देखने की आवश्यकता है ।

वे हैं:

(क) नागरिकों के जीवन की गुणवत्ता,

(ख) उत्पादक रोजगार का सृजन,

(ग) क्षेत्रीय सन्तुलन और

(घ) आत्मनिर्भरता ।

3. सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका (Role of Public Sector):

सार्वजनिक क्षेत्र ने देश के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है । इसने राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर को तीव्र करने तथा आय और धन की असमानताओं को कम करने में सहायता की है । क्रमिक योजनाओं के दौरान सार्वजनिक क्षेत्र में व्यय के वितरण में परिवर्तन, विकास के भिन्न शीर्षों पर दिये गये बल में परिवर्तन को प्रतिबिम्बित करते हैं ।

भारत में सार्वजनिक क्षेत्र का सबसे विशेष लक्षण यह है कि इसने संरचना के विकास में अनेक उपलब्धियां प्राप्त की हैं । इसने आधारभूत एवं भारी उद्योगों की स्थापना से उद्योगीकरण की गति को बढ़ाया है तथा देश के विभिन्न पिछड़े क्षेत्रों में उद्योग के विस्तार में सहायता की है ।

सार्वजनिक क्षेत्र विदेशी व्यापार सहित व्यापार और विपणन क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है । सार्वजनिक क्षेत्र को सातवीं पंचवर्षीय योजना में अन्य योजनाओं की तुलना में अधिक महत्व दिया गया है ।

सन् 1991-92 में, सार्वजनिक क्षेत्र की कुल इकाइयों की संख्या 232 थी जिनमें निवेश की राशि 3,03,400 करोड़ थी जबकि 1950-51 में केवल 5 इकाइयां थी तथा कुल निवेश केवल 29 करोड़ रुपये था । जुलाई 1991 में भारत सकार ने नई औद्योगिक नीति की घोषणा की । इसने सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों की कार्यप्रणाली को सुधारने का निर्णय लिया ।

सार्वजनिक क्षेत्र के सम्बन्ध में नीति का वर्णन नीचे किया गया है:

(i) नई औद्योगिक नीति में, केवल छ: उद्योगों को सार्वजनिक क्षेत्र के लिये आरक्षित रखा गया जबकि पहली नीतियों में 17 उद्योग थे ।

(ii) बीमार सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों पर वही नीति लागू होगी जो निजी उद्योगों पर होती है ।

(iii) सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमी को अधिक दक्ष बनाया जायेगा । इसके प्रबन्धकों को अधिक स्वायत्तता प्राप्त होगी तथा उन्हें परिणामों के लिये उत्तरदायी बनाया जायेगा ।

(iv) सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमी के अंश का विनिवेश किया जायेगा ।

4. निजी क्षेत्र (Private Sector):

सार्वजनिक क्षेत्र के साथ निजी क्षेत्र का भी उचित ध्यान रखा गया है । इसमें न केवल व्यवस्थित उद्योग सम्मिलित हैं बल्कि कृषि, लघु उद्योग, व्यापार तथा गृह निर्माण और अन्य क्षेत्रों में निर्माण गतिविधियां भी सम्मिलित हैं । कृषि में निजी क्षेत्र का भाग हमारी राष्ट्रीय आय के 1/3 भाग से थोड़ा अधिक था ।

यह हमारी श्रम शक्ति के 3/4 भाग को रोजगार उपलब्ध करता है । इसलिये, एक मिश्रित अर्थव्यवस्था में, सरकार की औद्योगिक नीति ने निजी क्षेत्र की महत्त्वपूर्ण भूमिका को स्वीकार किया तथा गतिविधियों के नियमन के लिये संस्थाओं के एक विस्तृत नेटवर्क की स्थापना की ।

निजी औद्योगिक निवेश को नियन्त्रित करने के लिये उद्योग विकास और नियमन अधिनियम की व्यवस्था की गई । अन्य उपाय है एकाधिकार और प्रतिबन्धक व्यापार प्रथाओं का अधिनियम 1969 (Restrictive Trade Practices Act 1969) ।

इन उपायों पर समय-समय पर विचार किया गया और आवश्यक परिवर्तन किये गये । कृषि उत्पादों के लिये समर्थन मूल्य योजनायें, विशेषकर अर्थव्यवस्था के लघु क्षेत्र के लिये कच्चे माल, विपणन तथा तकनीकी सुविधायें आदि की योजनायें हैं ।

विविधीकृत औद्योगिक अर्थव्यवस्था की तीव्रतापूर्वक बदलती हुई आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुये सरकार ने औद्योगिक नीति और विधियों को उदार बनाने के लिये हाल ही में उपायों की एक श्रृंखला की घोषणा की है ।

उद्योगों का (विकास और नियमन) अधिनियम जिसका प्रयोग मुख्यता नियामक भूमिका के लिये किया जाता था अब इसकी प्राथमिकता पुन: विकास पहलू की ओर हो गयी है । 1991 की औद्योगिक नीति और आर्थिक सुधारों के आरम्भण से सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र की ओर नीति को संशोधित किया गया है । नई नीति ने वर्ष में कम लाभ अथवा हानि दर्शाने वाले सार्वजनिक क्षेत्रों का भार कम करने के लिये बहुत सी व्यवस्थाएं की हैं ।

अत: आर्थिक उदारीकरण की वृद्धि के साथ, निजी क्षेत्र की भागीदारी के लिये अधिक-से-अधिक क्षेत्र खोला जा रहा है । तदानुसार, निजी क्षेत्र में औद्योगिक क्षेत्र ने घरेलू एवं विदेशी कम्पनियों के सहयोग से उच्च संवेग प्राप्त किया है ।

तथापि, उच्च निजी क्षेत्र की बड़े स्तर की 150 कम्पनियों ने 1991-92 में 73800 करोड़ रुपयों की पूंजी का रिकार्ड प्रयोग किया गया जबकि इसकी तुलना में 1990-91 में यह राशि 57825 करोड़ रुपये थी जोकि मात्र एक वर्ष में 27.6 प्रतिशत की वृद्धि दर्शाती है । इसी प्रकार इन कम्पनियों की 2000-01 में कुल बिक्री की राशि 96278 करोड़ थी जबकि इसकी तुलना में 1990-91 में यह राशि 63279 करोड़ रुपये थी जोकि 20.4 प्रतिशत की वृद्धि दर्शाती है ।

5. सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र में सम्बन्ध (Relation between Public and Private Sector):

अर्थव्यवस्था के तीव्र विस्तार के साथ सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र दोनों में वृद्धि के विस्तृत अवसर उत्पन्न होते हैं । दूसरी पंचवर्षीय योजना ने स्पष्ट किया है कि इन दोनों क्षेत्रों को समस्वर होकर कार्य करना होगा । समग्र रूप में, योजना दोनों क्षेत्रों के साथ सन्तुलित विकास के आधार पर सफल हो सकती है ।

विस्तार का सम्पूर्ण गति पर सार्वजनिक निवेश का बहुत प्रभाव होता है । वास्तव में, निजी क्षेत्र में विकास के लिये बुनियादी ढांचे और मूल उद्योगों में सार्वजनिक निवेश का उच्च स्तर एक पूर्वापेक्षा है ।

निजी क्षेत्र के अन्तर्गत मुक्त उद्यमों के साथ विस्तृत सार्वजनिक क्षेत्र के सहास्तित्व ने अर्थव्यवस्था को एक मिश्रित अर्थव्यवस्था में परिवर्तित कर दिया है । 1948 और 1956 की औद्योगिक नीतियों ने भी ऐसे अस्तित्व की व्यवस्था की है ।

फलत: कुछ महत्त्वपूर्ण मूलभूत और मूल उद्योग सार्वजनिक क्षेत्र के अन्तर्गत चलाये जाते हैं जबकि बड़ी संख्या में उद्योगों का प्रबन्ध निजी क्षेत्र द्वारा किया जाता है ।

अत: बहुत से निजी उद्यम उन आदेशों पर निर्भर करते हैं जो सार्वजनिक गतिविधि और उसकी वृद्धि से प्राप्त होते हैं और लाभप्रदता स्पष्ट रूप में सार्वजनिक क्षेत्र में निवेश के विस्तार पर निर्भर करती है ।

6. बाजार तन्त्र की भूमिका (Role of Market Mechanism):

भारत में बाजारतन्त्र एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है । विभिन्न वस्तुओं की कीमतें बाजार शक्तियों और भविष्य की प्रत्याशाओं आदि द्वारा निर्धारित की जाती है । परन्तु भारत में बाजार तन्त्र राज्य के नियन्त्रण से पूर्णतया मुक्ता नहीं है ।

उद्योग (विकास और नियमन) अधिनियम 1951 ने देश की औद्योगिक गतिविधि के नियन्त्रण के लिये एक नियामक प्रणाली की व्यवस्था की है । इसके अतिरिक्त बाजार निर्णयों को प्रभावित करने के लिये भारत सरकार ने कुछ नियन्त्रणात्मक और प्रोत्साहनात्मक उपाय आरम्भ किये हैं ।

इनमें सम्मिलित हैं- बजटीय उपाय, आयात नियन्त्रण, आवश्यक वस्तुओं को तर्कसंगत कीमतों पर वितरित करने के लिये उचित कीमत दुकानों की स्थापना, न्यूनतम समर्थन कीमतों पर सरकार द्वारा कृषि वस्तुओं की खरीद आदि ।

7. आर्थिक असमानताओं को कम करना (Reduction of Economic Inequalities):

आर्थिक असमानताएं पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का एक विशेष लक्षण हैं । आय और धन के वितरण में बड़े स्तर की असमानताएं आर्थिक रूप में हानिकारक, सामाजिक रूप में अन्यायपूर्ण और राजनैतिक रूप में अवांछनीय है । अत्याधिक असमानताएं सामाजिक कल्याण को कम करती है तथा वर्ग संघर्षों को जन्म देती हैं ।

भारत में मिश्रित अर्थव्यवस्था होने के कारण आय और धन के वितरण में आर्थिक असमानताओं को कम करने के लिये विभिन्न पग उठाये गये है । इस दिशा में, सरकार ने आयकर, पूंजी लाभों पर कर, सम्पत्ति कर, मृत्यु शुल्क, उपहार कर आदि द्वारा प्रगतिशील दरों पर प्रत्यक्ष कर लगाये हैं ।

पुन: समाज के निर्धन वर्गों को आवश्यक सहायता उपलब्ध करने के लिये सरकार ने विभिन्न कल्याण उपाय आरम्भ किये हैं जैसे नि:शुल्क चिकित्सा सुविधाएं, नि:शुल्क शिक्षा, वृद्धावस्था पेंशन, विधवा पेंशन तथा देश के शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में अन्य निर्धनता उन्मूलन कार्यक्रम ।

परन्तु इन सब उपायों के बावजूद भारत में मिश्रित अर्थव्यवस्था के ढांचे ने असमानताओं को बढ़ाया है । अत: हम देखते हैं कि मिश्रित अर्थव्यवस्था के महत्त्वपूर्ण लक्षण भारतीय अर्थव्यवस्था तथा विश्व के अन्य विकासशील देशों में एक जैसे हैं ।

भारतीय अर्थव्यवस्था के मिश्रित आर्थिक ढांचे ने आर्थिक वृद्धि की सामान्य दर तथा बचतों और पूंजी निर्माण का उच्च दर प्राप्त करने की क्षमता प्रमाणित की है । अत: भारत ने स्वतन्त्रता के पश्चात् मिश्रित आर्थिक ढांचे को अपना कर उचित पग उठाया है ।

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