भारतीय कृषक पर निबंध! Here is an essay on ‘Indian Farmers’ in Hindi language.

महात्मा गाँधी कहते थे- ”भारत का हृदय गाँवों में बसता है, गाँवों की उन्नति से ही भारत की उन्नति सम्भव है । गाँवों में ही सेवा और परिश्रम के अवतार कृषक रहते हैं ।” और वास्तविकता भी यही है कि कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की धुरी है ।

देश की कुल श्रम-शक्ति का लगभग 51% भाग कृषि एवं इससे सम्बन्धित उद्योग-धन्धों से अपनी आजीविका चलाता है । ब्रिटिशकाल में भारतीय कृषक अंग्रेजों एवं जमींदारों के जुल्म से परेशान एवं बेहाल थे ।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद उनकी स्थिति में काफी सुधार हुआ, किन्तु जिस तरह कृषकों के शहरों की ओर पलायन एवं उनकी आत्महत्या की खबरें सुनने को मिलती हैं, उससे यह स्पष्ट होता है कि उनकी स्थिति में आज भी अपेक्षित सुधार नहीं हो सका है ।

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स्थिति इतनी विकट हो चुकी है कि कृषक अपने बच्चों को आज कृषक नहीं बनाना चाहते । कवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा लिखी गई ये पंक्तियाँ आज भी प्रासंगिक हैं-

”सौ में पचासी जन यहाँ निर्वाह कृषि पर कर रहे,

पाकर करोड़ों अर्द्ध भोजन सर्द आहें भर रहे ।

जब पेट की ही पड़ रही, फिर और की क्या बात है,

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‘होती नहीं है भक्ति भूखे’ उक्ति यह विख्यात है ।”

विश्व के महान् विचारक सिसरो ने भी कहा है- ”किसान मेहनत करके पेड़ लगाते हैं पर स्वयं उन्हें ही उनके फल नसीब नहीं हो पाते ।” नि:सन्देह खून-पसीना एक कर दिन-रात खेतों में मेहनत करने वाले कृषकों का जीवन अत्यन्त कठोर व संघर्षपूर्ण है ।

अधिकतर भारतीय कृषक निरन्तर घटते भू-क्षेत्र के कारण गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन कर रहे हैं । दिन-रात खेतों में परिश्रम करने के बाद भी उन्हें तन ढकने के लिए समुचित कपड़ा नसीब नहीं होता । जाड़ा हो या गर्मी, धूप हो या बरसात उन्हें दिन-रात बस खेतों में ही परिश्रम करना पड़ता है ।

इसके बावजूद उन्हें फसलों से उचित आय नहीं प्राप्त हो पाती । बड़े-बड़े व्यापारी कृषकों से सस्ते मूल्य पर खरीदे गए खाद्यान्न, सब्जी एवं फलों को बाजारों में ऊँची दरों पर बेच देते हैं । इस तरह, कृषकों का श्रम लाभ किसी और को मिल जाता है और वे अपनी किस्मत को कोसते हैं ।

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किसानों की ऐसी दयनीय स्थिति का एक कारण यह भी है कि भारतीय कृषि मानसून पर निर्भर है और मानसून की अनिश्चितता के कारण प्रायः कृषकों को कई प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है । समय पर सिंचाई नहीं होने के कारण भी उन्हें आशानुरूप फसल की प्राप्ति नहीं हो पाती ।

ऊपर से आवश्यक उपयोगी वस्तुओं कीं कीमतों में वृद्धि के कारण कृषकों की स्थिति और भी दयनीय हो गई है तथा उनके सामने दो वक्त की रोटी की समस्या खड़ी हो गई है ।

कृषि में श्रमिकों की आवश्यकता सालभर नहीं होती, इसलिए साल के लगभग तीन-चार महीने कृषकों को खाली बैठना पड़ता है । इस कारण भी कृषकों के गाँवों से शहरों की ओर पलायन में वृद्धि हुई है ।

देश के विकास में कृषकों के योगदान को देखते हुए कृषकों और कृषि-क्षेत्र के लिए कार्य योजना का सुझाव देने हेतु वर्ष 2004 में डॉ. एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता में ‘राष्ट्रीय कृषक आयोग’ का गठन किया गया ।

वर्ष 2006 में आयोग द्वारा जारी की गई रिपोर्ट में कृषकों के लिए एक विस्तृत नीति के निर्धारण की संस्तुति की गई । इसमें कहा गया कि सरकार को सभी कृषिगत उपजों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करना चाहिए तथा यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि कृषकों को विशेषतः वर्षा आधारित कृषि वाले क्षेत्रों में न्यूनतम समर्थन मूल्य उचित समय पर प्राप्त हो सके ।

राष्ट्रीय कृषक आयोग की संस्तुति पर भारत सरकार ने राष्ट्रीय कृषक नीति, 2007 की घोषणा की । इसमें कृषकों के कल्याण एवं कृषि के विकास के लिए कई बातों पर जोर दिया गया है । इसमें कही गई बातें इस प्रकार हैं- सभी कृषिगत उपजों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य सुनिश्चित किया जाए ।

मूल्यों में उतार-चढ़ाव से कृषकों की सुरक्षा हेतु मार्केट रिस्क स्टेबलाइजेशन फण्ड की स्थापना की जाए । सूखे एवं वर्षा सम्बन्धी जोखिमों से बचाव हेतु एग्रीकल्चर रिस्क फण्ड स्थापित किया जाए । सभी राज्यों में राज्यस्तरीय किसान आयोग का गठन किया जाए ।

कृषकों के लिए बीमा योजना का विस्तार किया जाए । कृषि सम्बन्धी मामलों में स्थानीय पंचायतों के अधिकारों में वृद्धि की जाए । राज्य सरकारों द्वारा कृषि हेतु अधिक संसाधनों का आवण्टन किया जाए ।

प्रायः यह देखा जाता था कि कृषकों को फसलों, खेती के तरीकों एवं आधुनिक कृषि उपकरणों के सम्बन्ध में उचित जानकारी उपलब्ध नहीं होने के कारण खेती से उन्हें उचित लाभ नहीं मिल पाता था ।

इसलिए कृषकों को कृषि सम्बन्धी बातों की जानकारी उपलब्ध करवाने हेतु वर्ष 2004 में किसान कॉल सेण्टर की शुरूआत की गई । इसके अतिरिक्त, कृषि सम्बन्धी कार्यक्रमों का प्रसारण करने वाले ‘कृषि चैनल’ की भी शुरूआत की गई है ।

केन्द्र सरकार ने राष्ट्रीय ग्रामीण विकास बैंक के जरिए देश के ग्रामीण क्षेत्रों में ‘रूरल नॉलेज सेण्टर्स’ की भी स्थापना की है । इन केन्द्रों में आधुनिक सूचना प्रौद्योगिकी व दूरसंचार तकनीक का उपयोग किसानों को वांछित जानकारियाँ उपलब्ध कराने के लिए किया जाता है ।

कृषकों को वर्ष के कई महीने खाली बैठना पड़ता है, क्योंकि सालभर उनके पास काम नहीं होता । इसलिए ग्रामीण लोगों को गाँव में ही रोजगार उपलब्ध करवाने के उद्देश्य से राष्ट्रीय रोजगार गारण्टी अधिनियम के अन्तर्गत, 2006 में राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना का शुभारम्भ किया गया ।

2 अक्टूबर, 2009 से राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी अधिनियम (NREGA) का नाम बदलकर महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी अधिनियम (MNREGA) कर दिया गया है ।

यह अधिनियम ग्रामीण क्षेत्रों के प्रत्येक परिवार के एक वयस्क सदस्य को वर्ष में कम-से-कम 100 दिन के रोजगार की गारण्टी देता है । इस अधिनियम में इस बात को भी सुनिश्चित किया गया है कि इसके अन्तर्गत 33% लाभ महिलाओं को मिले ।

इस योजना से पहले भी ग्रामीण क्षेत्र के लोगों को रोजगार प्रदान करने के लिए कई योजनाएँ प्रारम्भ की गई थी किन्तु उनमें भ्रष्टाचार के मामले अत्यधिक उजागर हुए । अत: इससे बचने के लिए रोजगार के इच्छुक व्यक्ति का रोजगार-कार्ड बनाने का प्रावधान किया गया है ।

ग्राम पंचायत जो रोजगार-कार्ड जारी करती है, उस पर उसकी पूरी जानकारी के साथ-साथ उसका फोटो भी लगा होता है । पंजीकरण कराने के 15 दिनों के भीतर रोजगार न मिलने पर निर्धारित दर से सरकार द्वारा बेरोजगारी भत्ता प्रदान किया जाता है ।

रोजगार के इच्छुक व्यक्ति को रोजगार पाँच किलोमीटर के दायरे के भीतर उपलब्ध कराया जाता है । यदि कार्यस्थल पाँच किलोमीटर के दायरे से बाहर हो, तो उसके बदले अतिरिक्त भत्ता देने का भी प्रावधान है ।

कानून द्वारा रोजगार की गारण्टी मिलने के बाद न केवल ग्रामीण विकास को गीत मिली है, बल्कि ग्रामीणों का शहर की ओर पलायन भी कम हुआ है । कृषकों को समय-समय पर धन की आवश्यकता पड़ती है ।

साहूकार से लिए गए ऋण पर उन्हें अत्यधिक ब्याज देना पढ़ता है । कृषकों की इस आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए, उन्हें साहूकारों के शोषण से बचाने के लिए वर्ष 1998 में ‘किसान क्रेडिट कार्ड’ योजना की भी शुरूआत की गई ।

इस योजना के फलस्वरूप कृषकों के लिए वाणिज्यिक बैंकों, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों तथा सहकारी बैंकों से ऋण प्राप्त करना सरल हो गया है । कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ है, इसलिए अर्थव्यवस्था में सुधार एवं देश की प्रगति के लिए किसानों की प्रगति आवश्यक है ।

इस सन्दर्भ में प्रो. गुलर की कही बात महत्वपूर्ण है- ”भारत की दीर्घकालीन आर्थिक विकास की लढ़ाई कृषक द्वारा जीती या हारी जाएगी ।” केन्द्र एवं राज्य सरकार द्वारा प्रारम्भ की गई विभिन्न प्रकार की योजनाओं एवं नई कृषि नीति के फलस्वरूप कृषकों की स्थिति में सुधार हुआ है, किन्तु अभी तक इसमें सन्तोषजनक सफलता प्राप्त नहीं हो सकी है ।

आशा है विभिन्न प्रकार के सरकारी प्रयासों एवं योजनाओं के कारण आने बाले वर्षों में कृषक समृद्ध होकर भारतीय अर्थव्यवस्था को सही अर्थों में प्रगति की राह पर अग्रसर कर सकेंगे । और तभी डॉ. रामकुमार वर्मा की ये पंक्तियाँ सार्थक सिद्ध होंगी-

“सोने चाँदी से नहीं किन्तु तुमने

मिट्टी से किया प्यार,

हे ग्राम देवता नमस्कार ।”

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