भारतीय अर्थव्यवस्था और बैंक राष्ट्रीयकरण | Read this article in Hindi to learn about the operational pressures in Indian economy before and after bank nationalization.

भारत में पश्चिमी ढंग की बैंक व्यवस्था का प्रारम्भ उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में हुआ । पहला संयुक्त स्कंध बैंक, जिसका नाम बैंक ऑफ हिन्दुस्तान था, कोलकाता में चालू किया गया । इसके प्रबन्धकर्ता यूरोपियन थे, किन्तु ये प्रयोग सफल नहीं रहा तथा बैंक का दिवाला निकल गया ।

तदुपरान्त, सरकार के वित्तीय सहयोग के साथ बैंक ऑफ बंगाल (1806) बैंक ऑफ बम्बई (1840) और बैंक ऑफ मद्रास (1843) चालू किए गए । इन बैंकों को प्रेसीडेंसी बैंक कहा गया । शुद्ध रूप से पहला भारतीय व्यापारिक बैंक अवध कामर्शियल बैंक (1881) में स्थापित हुआ ।

इसके बाद सन् 1894 में पंजाब नेशनल बैंक और 1901 में पीपुल्स बैंक स्थापित किए गए । 1905 में स्वदेशी आन्दोलन ने भारतीय बैंकों के आरम्भ को बहुत प्रोत्साहन दिया, किन्तु वास्तविकता यह है कि स्वतंत्रता के समय तक बैंकिंग व्यवस्था ठीक नहीं थी ।

ADVERTISEMENTS:

देश में उस समय तक निजी क्षेत्र में 430 छोटे बैंक स्थापित हो चुके थे, किन्तु उनका प्रबन्ध स्वार्थी लोगों के हाथों में था । फलतः सन् 1949 में व्यापारिक बैंकिंग नियमन अधिनियम पारित कर भारतीय रिजर्व बैंक को व्यापारिक बैंकों पर नियंत्रण के विस्तृत अधिकार दिए गए ।

भारत के व्यापारिक बैंकों ने स्वाधीनता के पश्चात् दो दशकों तक अपनी क्रियाओं के माध्यम से देश को कोई दिशा प्रदान नहीं की जिससे यह प्रकट हो कि बैंक राष्ट्र के आर्थिक विकास में अपनी भूमिका सुनिश्चित करना चाहते हैं । व्यापारिक बैंकों के कार्य एवं नीतियों परम्परावादी रही तथा लाभ की मनोवृत्ति ने सामाजिक हितों के सदैव गौण रखा ।

सन् 1949 से 1969 की अवधि में उद्योगों को दिये जाने वाले दीर्घावधि ऋणों में तेजी से विस्तार रखा । यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि जन-साधारण की जमा राशि का उपयोग केवल उद्योगपतियों के द्वारा अपने लाभों में वृद्धि करने में किया जाने लगा ।

सन् 1951 में जहाँ कुल कणों में उद्योगों का भाग 34 प्रतिशत था, बढ़कर सन् 1968 में 68 प्रतिशत से अधिक हो गया । इसके विपरीत व्यापारिक क्रियाओं के लिए दिए जाने वाले ऋणों का प्रतिशत इस अवधि में 36 से घटकर केवल 19 रह गया । इस अवधि में कृषि और उससे सम्बन्धित क्रियाएँ, लघु उद्योग एवं फुटकर व्यापार पूर्णतः उपेक्षित रहे ।

राष्ट्रीयकरण से पूर्व विवादित दबावों की क्रियाएं (Operation of Conflicting Pressure before Nationalization):

ADVERTISEMENTS:

पूँजीवादी आर्थिक प्रणाली में व्यापारिक बैंक अन्य व्यावसायिक फर्मों के समान ही निजी लाभ को ध्यान में रखकर अपनी क्रियाओं का संचालन करते हैं । उनके सामने कोई सामाजिक उद्देश्य न होने के कारण वे प्रायः उन उद्योगों एवं व्यवसायों को ज्यादा ऋण देते हैं जिनमें उनके प्रबन्धकों के हित होते हैं ।

इसका परिणाम यह होता है कि जहाँ एकाधिकार में प्रोत्साहन मिलता है, वहीं आर्थिक शक्ति का केन्द्रीयकरण बढ़ता है । स्वतंत्रता के समय व्यापारिक बैंकों की भी मोटे रूप में यही स्थिति थी ।

देश के समग्र आर्थिक विकास हेतु सन् 1951 से आर्थिक नियोजन को अपनाया गया । आर्थिक विकस से सम्बन्धित विभिन्न कार्यक्रमों के संचालन के लिए वित्त की आपूर्ति महत्वपूर्ण होती है । फलतः वित्तीय उपलब्धता के आकलन एवं साख व्यवस्था की स्थिति को जानने के उद्देश्य से ए.डी.गोरवाला की अध्यक्षता में अखिल भारतीय ग्रामीण साख सर्वेक्षण समिति गठित की गई ।

इस समिति ने सन् 1954 में अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत किया । अपने प्रतिवेदन में व्यापारिक बैंकों द्वारा प्रदत्त साख व्यवस्था को समिति के मतानुसार व्यापारिक बैंक देश की ग्रामीण साख व्यवस्था में अपनी कोई सन्तोषजनक भूमिका नहीं निभा रहे है ।

ADVERTISEMENTS:

अपना लाभ प्राप्त करने की मनोवृत्ति शहरों की ओर प्रवृत्त करना, कृषि क्षेत्र में जोखिम विनियोजन के प्रति अरुचि आदि कुछ ऐसे विवादित दबाव (Conflicting Pressure) गोरवाला समिति द्वारा प्रकट किए गये जो सरकार के लिए विचारणीय विषय के रूप में उभरकर आए ।

गोरवाला समिति ने यह सुझाव दिया कि बैंकिंग क्रियाओं के इन विवादित दबावों पर अंकुश लगाने के लिये बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर सरकार को उनकी नीति का निर्माण एवं संचालन का कार्य अपने हाथ में लेना चाहिए ।

समिति ने तत्कालीन सबसे बड़े व्यापारिक बैंक इम्पीरियल बैंक ऑफ इण्डिया को राष्ट्रीयकृत कर भारतीय स्टेट बैंक के रूप में परिवर्तित करने का सुझाव दिया । साथ ही बड़े रियायती बैंकों को इसके सहयोग बैंकों के रूप में राष्ट्रीयकृत करने की सिफारिश भी की ।

समिति की सिफरिशों के आधार पर सन् 1955 में भारतीय स्टेट बैंक तथा 1958 में स्टेट बैंक के सात सहायक बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर सरकार ने उन्हें अपने नियंत्रण में लिया ।

योजनाकाल में जहाँ एक ओर विकस जनित दबावों ने जन्म लिया जिससे जन-आकांक्षाओं में वृद्धि हुई, वहीं दूसरी ओर निजी क्षेत्र की व्यापारिक बैंक की सामाजिक उत्थान के क्षेत्र में नकारात्मक भूमिका ने अर्थव्यवस्था में एक विवादित दबाव उत्पन्न किया ।

इसी प्रकार जहाँ एक ओर भारतीय स्टेट बैंक राष्ट्रीयकृत बैंक के रूप में अपनी सफलता के सोपान तय कर रहा था, वही दूसरी ओर निजी क्षेत्र के व्यापारिक बैंक देश की सामाजिक आवश्यकताओं को अनदेखा कर विपरीत दिशा में चल रहे थे । वित्तीय क्षेत्र में इस विवादित स्वरूप को दिशा देने के लिये सरकार ने बैंकों पर सामाजिक नियंत्रण की नीति लागू की ।

किन्तु बैंकों पर सामाजिक नियंत्रण की नीति से भी सामाजिक क्षेत्र के उत्थान का उद्देश्य प्राप्त नहीं हुआ । फलतः विवादित दबावों में क्रमशः वृद्धि होती रही जिससे सरकार को लगा कि बैंकिंग व्यवस्था में जो दोष है उन्हें दूर करने के लिए बैंकों के राष्ट्रीयकरण के अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं है ।

अतः 19 जुलाई, 1969 में उन 14 व्यापारिक बैंकों के राष्ट्रीयकरण कर दिया गया जिनके पास 50 करोड़ रुपये से अधिक की शशि थी । इस प्रकार सरकर ने क्रियात्मक विवादित दबाव की समस्या में हल कर भारतीय अर्थव्यवस्था को एक नई दिशा दी । राष्ट्रीयकरण से पूर्व बैंकिंग क्षेत्र में विद्यमान दबावों को निम्न तथ्यों के द्वारा समझा जा सकता है ।

1. आर्थिक शक्ति के केन्द्रीयकरण से जनित दबाव:

राष्ट्रीयकरण से पूर्व सभी बड़े व्यापारिक बैंक थोड़े से सम्पन्न औद्योगिक घरानों के स्वामित्व एवं नियंत्रण में थे । इन सभी बैंकों की कुल मिलाकर प्रदत्त पूँजी लगभग 100 करोड़ रुपये की थी, परन्तु इनके पास 5,000 करोड़ रुपये की जमा राशि अपने उपयोगार्थ उपलब्ध थी ।

यह जमा पूंजी सही अर्थों में राष्ट्रीय पूँजी थी जिसे देश के करोड़ों व्यक्तियों ने अपनी आय में से थोड़ी-थोड़ी बचाकर बैंकों में जमा किया था । इस जमा राशि के उपयोग की वस्तुस्थिति यह थी कि सभी व्यापारिक बैंकों द्वारा कूल 9 लाख खातों के माध्यम से 2432 करोड़ रुपये के ऋण दिये गये थे, जिनमें से 1800 करोड़ रुपये के ऋण मात्र 4000 खातेदारों को प्रदान किए गए ।

गहराई से विश्लेषण करने पर यह तथ्य भी सामने आते हैं कि 1400 करोड़ रुपये का ऋण मात्र 572 खातेदारों को प्रदान किया गया था और ये खातेदार देश के केवल 5 औद्योगिक घरानों से सम्बन्धित थे ।

अतः स्पष्ट है कि राष्ट्रीयकरण से पूर्व व्यापारिक बैंक राष्ट्रीय एवं सामाजिक हितों की अनदेखी कर कुछ सीमित लोगों को ही जन-साधारण की जमाओं से संकलित राशि उपलब्ध कराकर आर्थिक शक्ति के केन्द्रीयकरण को प्रोत्साहित कर रहे थे । निश्चित ही अर्थव्यवस्था में बढ़ रहे विवादित दबावों का यह एक महत्वपूर्ण मुद्दा था ।

2. संचालकों द्वारा बैंकों के साधनों का दुरुपयोग:

राष्ट्रीयकरण से पहले निजी क्षेत्र के व्यापारिक बैंकों के संचालक-मण्डल में ऐसे व्यक्ति होते थे जिनका सम्बन्ध अनेक कम्पनियों से होता था । ये बड़े उद्योगपति अपनी स्थिति का लाभ उठाकर उन कम्पनियों को भारी ऋण देते थे जिनमें इनके हित होते थे ।

व्यापारिक बैंकों के लगभग 49 प्रतिशत अंश मात्र 3 प्रतिशत अंशधारियों द्वारा खरीदे गए थे । इनमें से 36 प्रतिशत अंश मात्र एक प्रतिशत अंशधारियों के अधिकतर में थे । इस प्रकार सभी महत्वपूर्ण बैंकों पर कुछ ही लोगों का आधिपत्य था ।

फलस्वरूप ये लोग सभी बैंकों में संचालक मण्डल में मताधिकार के आधार पर अपनी पूरी दखल रखते थे तथा संसाधनों का अपनी इच्छानुसार उपयोग करते थे । यह स्थिति भारी असन्तोष का कारण थी और इसने बैंकों के राष्ट्रीयकरण को आवश्यक बना दिया ।

3. कृषि कार्य के लिए ऋण न देना:

राष्ट्रीयकरण से पहले भारतीय बैंक में ने कृषि वित्त व्यवस्था में भाग लेना आवश्यक नहीं समझा । 1966-67 में अनुसूचित बैंकों ने कृषि कार्य के लिए छः करोड़ रुपये के ऋण तथा अग्रिम प्रदान किए जो इस वर्ष में दिए जाने वाले ऋण तथा अग्रिमों के मात्र 0.2 प्रतिशत थे ।

व्यापारिक बैंक में द्वारा इस नीति के पक्ष में यह तर्क दिया जाता था कि कृषि के लिए ऋण देना सहकारी बैंकों का कार्य है, परन्तु सत्य यह है कि व्यापारिक बैंकों ने केवल बड़े उद्योगों और वाणिज्य में दिलचस्पी दिखाई थी । भारतीय बैंकर पश्चिमी देशों के बैंकिंग सिद्धान्तों के पालन की हामी भरते थे ।

देश का मुख्य व्यवसाय कृषि होने के बावजूद कृषि कार्य के लिए साख नहीं देते थे । राष्ट्रीयकरण के बाद व्यापारिक बैंकों की साख नीति में परिवर्तन हुआ और ये बैंक ग्रामीण क्षेत्र में शाखाओं की स्थापना करने के साथ-साथ कृषि कार्य के लिए ऋण देने लगे ।

4. बैंकों की छोटी इकाइयों के प्रति भेदभाव की नीति:

राष्ट्रीयकरण से पहले भारतीय व्यापारिक बैंकों की साख नीति भेदभाव पर आधारित थी । बैंकों ने साधारणतया उन्हीं कंपनियों को ऋण देने में दिलचस्पी दिखाई जिनमें बड़े-बड़े एकाधिकारी उद्योग गृहों (Monopoly House) से सम्बन्धित व्यक्तियों के हित थे ।

इस प्रकार दो-तीन लाख रुपये की है सियत वाले उद्योगपतियों के हितों की उपेक्षा कई गई । इस प्रकार के उद्योगपति जब उचित प्रतिभूतियाँ भी देने में समर्थ होते थे तो भी उन्हें प्रायः ऋण मिलने में कठिनाई होती थी ।

5. असन्तुलित शाखा विस्तार:

राष्ट्रीयकरण से पूर्व व्यापारिक बैंक जहाँ एक ओर कुछ पूंजीपतियों के नियंत्रण में थे और लाभकारी निवेश के माध्यम से निजी अंशधारियों में लाभ पहुंचा रहे थे, वही दूसरी ओर इनकी शाखा विस्तार नीति भी अत्यधिक दोषपूर्ण थी । इन बैंकों की शाखाएँ महानगरों, बड़े शहरों एवं औद्योगिक दृष्टि से उन्नत स्थानों तक ही सीमित थी । अर्थ-शहरी क्षेत्रों एवं ग्रामीण अंचलों को बैंकिंग सुविधाओं का लाभ नहीं था जिससे काफी लम्बे समय तक ग्रामीण बचतों को संकलित करना सम्भव नहीं हो सका ।

1969 से पूर्व यदि प्रति शाखा से लाभान्वित होने वाली जनसंख्या का अध्ययन किया जाए तो स्पष्ट होगा कि प्रति शाखा के पीछे औसतन लगभग 66 हजार की जनसंख्या थी, अर्थात् एक बैंक शाखा 66 हजार से अधिक लोगों में बैंकिंग सुविधा प्रदान करती थी ।

यही नहीं, क्षेत्रीय विषमताओं का विश्लेषण करने से यह तथ्य सामने आता है कि प्रति एक बैंक शाखा के पीछे उड़ीसा में 2, 19, 440 व्यक्ति, असम में 1, 97, 635 व्यक्ति, जम्मू-कश्मीर में 1, 31, 885 व्यक्ति, मध्यप्रदेश में 1, 21, 440 व्यक्ति एवं उत्तर प्रदेश में 1, 21, 440 व्यक्ति थे ।

स्पष्ट है कि देश के अनेक राज्य एवं क्षेत्र बैंक (शाखाओं) सुविधाओं से विहीन थे । ऐसी स्थिति में बैंकिंग सुविधाओं के विस्तार के प्रति जन-आक्रोश एवं दबावों का होना स्वाभाविक था ।

6. सामाजिक उत्थान की उपेक्षा:

स्वाधीनता के पश्चात् देश की प्रमुख समस्याओं में गरीब एवं कमजोर वर्ग का विकस करना प्रमुख समस्या रही है । बैंक जैसी वित्तीय संस्था से यह अपेक्षा रखी जाती है कि वह सामाजिक उत्थान में सहभागी बने । गरीब एवं कमजोर वर्ग के विकास के लिये उनकी ऋण आवश्यकताएँ पूरी से, किन्तु व्यापारिक बैंकों ने इस सामाजिक उत्थान के उद्देश्य की पूरी तरह अवहेलना की है ।

ये बैंक किसी भी कीमत पर गरीब, कमजोर वर्ग, प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्रों में धन विनियोजित नहीं करना चाहते थे । फलस्वरूप सामाजिक उत्थान जनित दबाव उत्पन्न हुआ ।

एक ओर ये बैंक जहाँ सामाजिक उत्थान में सहभागिता नहीं कर रहे थे वहीं दूसरी ओर अपने कोषों का उपयोग सट्टेबाजी, जमाखोरी एवं मुनाफाखोरी इत्यादि व्यावसायिक प्रवृत्तियों के लिये कर रहे थे । फलस्वरूप सरकार के लिए व्यापारिक बैंकों पर नियन्त्रण लगाकर उन्हें जन-साधारण के लिए उपयोगी बनाना आवश्यक हो गया था ।

इस प्रकार बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पूर्व 50 एवं 60 के दशक में सम्पूर्ण बैंकिंग व्यवस्था राष्ट्रहित, आर्थिक विकास तया सामाजिक नियन्त्रण के दबाव से ग्रसित रही । जहाँ एक ओर सरकर बैंकों को सामाजिक उत्तरदायित्व के दायरे में लाये जाने का प्रयास करती रही, वहीं व्यापारिक बैंक अपने सिद्धान्तों को व्यावसायिक स्वरूप के आधार पर इससे बचते रहे ।

फलस्वरूप दो दशक तक यह बैंकिंग व्यवस्था विवादित दबावों के अन्तर्गत रही । अन्ततोगत्वा व्यापारिक बैंकों पर नियन्त्रण स्थापित करने हेतु 14 बड़े व्यापारिक बैंकों का 1969 में राष्ट्रीयकरण किया गया । राष्ट्रीयकरण के पश्चात् बैंकिंग संरचना में तीव्र गति से परिवर्तन हुए ।

राष्ट्रीयकृत बैंकों का ग्रामीण एवं अर्द्ध शहरी, क्षेत्रों में शाखा विस्तार हुआ । फलस्वरूप बैंकों के राष्ट्रीयकरण के लाभ दृष्टिगत हुए और सन् 1980 में 6 और बड़े व्यापारिक बैंक राष्ट्रीयकृत किये गए । इस प्रकार कुल 92 प्रतिशत बैंकिंग व्यवसाय सरकर के अधिकार में आ गया ।

राष्ट्रीयकरण के पश्चात् बैंकिंग क्रियाओं में जो परिवर्तन हुए उससे नए क्रियात्मक दबाव उत्पन्न हुए । परिणामस्वरूप 90 के दशक में पुनः बैंकों की निजीकरण की नीति अपनाई गई ।

 

राष्ट्रीयकरण के पश्चात् बैंकों की क्रियाओं में विवादित दबाव (Operation of Conflicting Pressure after Bank Nationalization):

राष्ट्रीयकरण के बाद व्यापारिक बैंकों को अनेक क्षेत्रों में भारी सफलता मिली और शाखाओं के विस्तार से सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में भी बैंकिंग सुविधाएं फैल गई । गरीब वर्ग को प्राप्त साख सुविधाओं से बैंक अपने-अपने सामाजिक उद्देश्यों की प्राप्ति में भी सफल रही, किन्तु इन सब उपलब्धियों के बाद भी कुछ क्षेत्रों में यह अनुभव किया जा रहा है कि राष्ट्रीयकृत बैंक अपने उद्देश्यों में सफल नहीं हुए हैं ।

आलोचकों का मानना है कि बैंकिंग सेवाओं में राष्ट्रीयकरण के बाद ग्राहक सेवा की गुणवत्ता में कमी, कर्मचारियों की नौकरी की अति सुरक्षा के कारण कर्तव्य के प्रति लापरवाही, गलत निर्णय, दिन-प्रतिदिन होने वाले घोटाले, औद्योगिक विवाद, कर्मचारी संघ की अनुचित माँगे आदि के कारण बैंकिंग क्षेत्र में नए दबाव उत्पन्न हुए हैं ।

अन्य क्षेत्रों के समान ही बैंकिंग में भी भ्रष्टाचार की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिला है । इन कारणों से अनेक व्यापारिक बैंक लाभ अर्जन के स्थान पर हानि में चल रहे हैं ।

संक्षेप में, राष्ट्रीयकरण के पश्चात् उत्पन्न प्रमुख क्रियात्मक दबाव निम्न प्रकार हैं:

1. साख संरचना में वांछित परिवर्तन का अभाव:

व्यापारिक बैंकों के राष्ट्रीयकरण का मुख्य उद्देश्य देश में साख व्यवस्था को सुदृढ़ करना था, किन्तु साख विस्तार एवं उसकी व्यवस्था में राष्ट्रीयकरण के बाद भी कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ है । इसका मुख्य कारण बैंक अधिकारियों एवं कर्मचारियों का सरकार की नवीन अपेक्षाओं के अनुरूप स्वयं को न बदल पाना एक मुख्य कारण रहा है ।

सरकार ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण तो कर दिया, किन्तु बैंक के अधिकारियों एवं कर्मचारियों को देश के आर्थिक विकास के मूल ध्येय एवं समस्याओं से अवगत कराने हेतु समुचित प्रशिक्षण प्रदान नहीं किया । यही कारण है कि बैंक कर्मियों की कार्यप्रणाली राष्ट्रीयकरण के पूर्व जैसी ही रही और साख व्यवस्था में कोई उल्लेखनीय परिवर्तन दिखाई नहीं दिया । फलतः सरकार के समक्ष साख के विस्तार एवं उसके वितरण सम्बन्धी दबाव पुन उत्पन्न हुआ है ।

2. नियोजन हेतु अपर्याप्त वित्तीयन:

राष्ट्रीयकरण के समय व्यापारिक बैंकों से यह अपेक्षा रखी गई थी कि देश की पंचवर्षीय योजनाओं के लक्ष्यों की प्राप्ति में पर्याप्त वित्तीय व्यवस्था करेंगे । सरकार एवं योजना आयोग ने इन बैंकों के भरोसे आर्थिक विकास एवं सामाजिक कल्याण के व्यापक कार्यक्रमों को पंचवर्षीय योजनाओं में सम्मिलित किया, किन्तु व्यापारिक बैंक आशा के विपरीत इन कार्यक्रमों के क्रियान्वयन हेतु पर्याप्त मात्रा में वित्तीय सुविधाएं उपलब्ध नहीं करा पाये । देश में बैंकिंग नेटवर्क के बढने के बावजूद जमा राशि में सन्तोषजनक वृद्धि नहीं हुई । फलतः अर्थव्यवस्था में कोषों की कमी जनित दबाव उत्पन्न हुआ ।

3. बैंक शाखाओं का असन्तुलित विकास:

राष्ट्रीयकरण के 45 वर्षों के बाद भी बैंक शाखाओं का सन्तुलित विकास नहीं हो सका है । अभी तक भारत के लगभग 40 हजार ग्रामों में राष्ट्रीयकृत बैंक की शाखाएँ खोली गयी हैं, किन्तु अभी भी देश में लगभग 5 लाख गाँव ऐसे हैं जहाँ प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से बैंक सुविधाएं अभी नहीं पहुँचती हैं ।

हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, केरल, पंजाब, गुजरात, तमिलनाडु, महाराष्ट्र आदि ऐसे राज्य हैं जहाँ पर बैंक शाखाओं का तुलनात्मक केन्द्रीयकरण है और वहाँ 20000 से कम जनसंख्या पर एक बैंक कार्यालय है । इसके विपरीत मणिपुर, जम्मू कश्मीर, असम, उत्तरप्रदेश, राजस्थान, बिहार एवं उडीसा ऐसे राज्य हैं जहाँ 25 हजार से भी अधिक जनसंख्या पर एक बैंक कार्यालय है । स्पष्ट है कि राष्ट्रीयकरण के बाद भी क्षेत्रीय विषमताओं को समाप्त करना संभव नहीं हुआ है ।

4. प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्रों को दिये गये ऋणों में क्षेत्रीय विषमताएं:

बैंकों के राष्ट्रीयकरण का एक उद्देश्य यह भा था प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्रों को अधिकाधिक मात्रा (लगभग 40 प्रतिशत) में ऋण उपलब्ध कराएँ जाएँ । उपलब्ध आँकडों के अनुसार इस दिशा में भी संतोषजनक प्रगति नहीं हो सकी है ।

सन् 1969 में प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्रों को कुल ऋणों का केवल 14.9 प्रतिशत भाग प्राप्त हुआ था, जो मार्च 2006 में बढ़कर 33.8 प्रतिशत हो गया था, किन्तु इसके पश्चात् इस प्रतिशत निरन्तर कमी होती गई है । वर्ष 2010 में यह प्रतिशत 31.2 था, जो घटकर वर्ष 2012 में 29.5 प्रतिशत और वर्ष 2013 में 28.8 प्रतिशत हो गया है ।

इसके साथ ही प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्र को प्राप्त ऋणों म स्तर सभी राज्यों में बराबर नहीं है । जहाँ बिहार, हरियाणा, मणिपुर एवं उत्तरप्रदेश ऐसे राज्य हैं जहां कुल ऋणों का 6० प्रतिशत से अधिक भाग प्राथमिकता क्षेत्र को प्राप्त हुआ है, वही महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ एवं उत्तराखंड ऐसे राज्य है जहाँ वाणिज्यिक बैंकों ने कुल ऋणों का 30 प्रतिशत से भी कम भाग प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्रों को प्रदान किया ।

प्राथमिकता क्षेत्र को सभी राज्यों में समान रूप से ऋण सुविधाएँ उपलब्ध नहीं है । जहाँ कुछ राज्यों में सरकर द्वारा निर्धारित प्रतिशत से भी अधिक मात्रा में इन क्षेत्रों में ऋण प्राप्त होते हैं, वहीं अन्य क्षेत्रों या राज्यों में इन्हें निर्धारित प्रतिशत से कम ऋण प्राप्त होते हैं ।

जिन राज्यों में प्राथमिकता वाले क्षेत्रों को कम मात्रा में ऋण प्राप्त होते हैं, वहां पर विवादित दबावों का पैदा होना स्वाभाविक है ।

यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि बैंक राष्ट्रीयकरण के फौरन बाद तो तीव्र गति से प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्रों को ऋण प्राप्त हुए परन्तु बाद में प्रगति की गति धीमी पड़ गयी । इसका मुख्य करण इस क्षेत्र से ऋणों की वसूली तुलनात्मक कम रही है और परिणामस्वरूप बैंकों की लाभदायकता पर बुरा प्रभाव पड़ा है ।

5. घटती ग्राहक सेवा से उत्पन्न दबाव:

प्रायः यह देखा गया है कि बैंक राष्ट्रीयकरण के पश्चात बैंकों में ग्राहक सेवा की तत्परता में कमी आई है । बैंक अधिकारी एवं कर्मचारी ग्राहकों के प्रति सेवाएँ देने में अधिक चुस्ती एवं फुर्ती से कम नहीं करते हैं । बैंकों के काउन्टर पर कार्य निष्पादन में शिथिलता म बैंकिंग कार्यप्रणाली पर बुरा प्रभाव पड़ा है और राष्ट्रीयकृत बैंकों के प्रति जनता का आकर्षण कम हुआ है । संक्षेप में, विस्तृत बैंकिंग नेटवर्क के उपरान्त भी शिथिल ग्राहक सेवाओं के कारण बैंकिंग संरचना में नवीन क्रियात्मक दबाव उत्पन्न हुआ है ।

6. बैंकों की लाभदायकता में कमी:

भारत में विभिन्न प्रकार के बैंकों की लाभदायकता की तुलना से यह स्पष्ट होता है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की लाभदायकता बहुत कम है । सार्वजनिक क्षेत्र के कुछ बैंक तो घाटे में चल रहे है । बैंकों की लाभदायकता के कम होने के अनेक कारण हैं ।

कुछ लोगों का कहना है कि इन बैंकों द्वारा सामाजिक दायित्वों के निर्वहन के कारण यह हानि हो रही है । कुछ अन्य लोगों का मत है कि अनार्थिक शाखा विस्तार, कर्मचारियों की भारी भर्ती, मजदूर संघीय क्रियाएँ निम्न उत्पादकता और भारी वेतन-बिल आदि बैंकों की कम लाभदायकता के मुख्य कारण हैं ।

इनके साथ ही राजनीतिक एवं प्रशासनिक हस्तक्षेप और उनका बैंकों की कार्यप्रणाली पर नियंत्रण, घटिया अर्थ-संस्कृति, उपभोक्ताओं सेवाओं के प्रति सामान्य उदासीनता और मजदूर संघीय क्रियाएँ जो बैंक प्रणाली को समय-समय पर बर्बाद कर देती है आदि भी बैंकों की लाभदायकता को प्रभावित करते है ।

इस प्रकार बैंकों की कम लाभदायकता से भी वर्तमान बैंकिंग कार्यप्रणाली विवादों के घेरे में है और इस समस्या के निदान हेतु समय-समय पर अनेक समितियों का गठन किया गया है, किन्तु वस्तुस्थिति में कोई विशेष परिवर्तन दृष्टिगत नहीं हुआ है ।

7. बैंकिंग सिद्धांतों में सन्तुलन सम्बन्धी दबाव:

बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पश्चात् बैंकिंग क्षेत्र में मूलभूत बैंकिंग सिद्धांतों यथा- तरलता, सुरक्षा तथा लाभदायकता में सन्तुलन सम्बन्धी दबाव उत्पन्न हुआ है । व्यावसायिक मनोवृत्ति के अनुसार बैंकों को लाभदायकता पर ध्यान देना चाहिये, किन्तु सामाजिक उत्तरदायित्वों को पूरा करने हेतु लाभदायकता को त्याग कर कमजोर वर्ग की सहायता करना बैंक के लिये आवश्यक है ।

रिजर्व बैंक के नियमों के परिपालन में अधिक धनराशि तरल मेष के रूप में रखना आवश्यक हो गया है । प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्रों में दिये गए ऋण सुरक्षित नहीं होते । फलस्वरूप बैंकिंग के सामान्य सिद्धांत तरलता, लाभदायकता व सुरक्षा में समन्वय सम्बन्धी दबाव उत्पन्न हुए हैं । सष्ट्रीयकृत बैंकों के समक्ष सदैव इन तीनों सिद्धान्तों में सन्तुलन का दबाव बना हुआ है ।

8. कर्मचारी संघ का प्रभुत्व:

देश के अन्य सार्वजनिक क्षेत्र के समान राष्ट्रीयकरण के पश्चात् बैंकिंग क्षेत्र में भी कर्मचारी संघ अधिक सक्रिय हो गए है तथा वे अपनी एकता के बल पर अचित अनुचित मांगें मनवाकर एक विशेष प्रकार का दबाव उत्पन्न करने लगे हैं । बैंकों की हड़ताल एवं अन्य आन्दोलनों के कारण बैंकिंग कार्यप्रणाली में बाधा उत्पन्न होती रहती है । वेतन भत्तों में सुविधा में वृद्धि के कारण बैंक की क्रियात्मक लागत बढी । इस प्रकार बैंकों में संचालन सम्बन्धी दबाव उत्पन्न हुआ ।

9. भ्रष्टाचार एवं राजनैतिक दबाव:

प्रतिभूति घोटाले (1992) ने देश की बैंकिंग प्रणाली की कमजोरियों की ओर सभी का ध्यान आकर्षित किया है । इसमें 40000 करोड़ रुपये से भी अधिक की हेरा- फेरी शेयर दलालों एवं बैंक अधिकारियों की सांठ-गांठ के द्वारा हुई है । इसके साथ ही बैंक में के राष्ट्रीयकरण के पश्चात् सरकारी बैंक होने के नाते जन प्रतिनिधियों एवं राजनीतिज्ञों के हस्तक्षेप का दबाव उत्पन्न हुआ है ।

ऋण स्वीकृति, ऋण मेलों का आयोजन आदि के लिये राजनीतिज्ञों द्वारा बैंक अधिकरियों पर दबाव डाला जाता है । ऋण माफी आदि राजनीतिक निर्णय भी बैंकिंग व्यवस्था में दबाव उत्पन्न करते हैं । राजनैतिक हस्तक्षेप के कारण बैंकों में भ्रष्टाचार की प्रवृत्ति भी उत्पन्न हुई । फलस्वरूप एक स्वच्छ बैंकिंग क्षेत्र पर भी भ्रष्टाचार की उंगलियाँ उठने लगी है ।

10. उदारीकरण जनित दबाव:

सन् 1991 के बाद अपनाई गई उदारीकृत अर्थव्यवस्था का गहरा प्रभाव राष्ट्रीयकृत बैंकों पर पड़ा है । अन्तर्राष्ट्रीय मानदण्डों पर बैंकिंग क्रियाओं को संचालित करना बैंकों के लिये आवश्यक हो गया है । उदारीकरण के कारण एक ओर जहाँ बैंकों को अन्तर्राष्ट्रीय बैंकिंग के क्षेत्र में कदम रखना पड़ा है वही दूसरी ओर सरकारी आदेशों के अनुसार लाभदायकता त्याग कर सामाजिक उत्तरदायित्व भी निभाने पड़ रहे है ।

उदारीकृत अर्थव्यवस्था की माँग के आधार पर नवोन्मेसी निजी क्षेत्रीय बैंकों का प्रादुर्भाव हुआ है और फलस्वरूप राष्ट्रीयकृत बैंकों में इनसे कठोर प्रतिस्पर्धा करनी पड़ रही है इस प्रकार बैंकिंग व्यवस्था उदारीकृत जनित दबाव से ग्रसित हो रही है ।

11. अनुपयोज्य आस्तियों का बढ़ता दबाव:

राष्ट्रीयकरण के फलस्वरूप बैंकों की साख नीति सरकार एवं रिजर्व बैंक द्वारा निर्धारित की जाने लगी है । फलस्वरूप ऋण वसूली के प्रतिशत में निरन्तर गिरावट आती गई है । आज सभी राष्ट्रीयकृत बैंक अनुपयोज्य आस्तियों (NPA) के दबाव से ग्रसित है । सभी बैंक अनुपयोज्य आस्तियों के दबाव को कम करने के प्रयास में है । इस दबाव के कारण बैंकों की लाभदायकता भी कम हो रही है ।

उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि बैंकों का राष्ट्रीयकरण कोई रामबाण औषधि की तरह अर्थव्यवस्था में सुखद परिणाम नहीं दे सका है । जिस प्रकार राष्ट्रीयकरण के पूर्व बैंकिंग क्षेत्र विभिन्न क्रियात्मक दबावों से ग्रसित था वहीं राष्ट्रीयकरण के पश्चात् कई नवीन दबाव उत्पन्न हो गए ।

राष्ट्रीयकृत बैंकिंग व्यवस्था के सम्बन्ध में यह विवादित दबाव उत्पन्न हो रहा है कि क्या सरकारी क्षेत्र में बैंकिंग व्यवस्था को जारी रखा जाए ? क्या राष्ट्रीयकृत बैंक वैश्वीकृत बाजार व्यवस्था के अनुरूप कार्य निष्पादन कर पाएंगे? इस प्रकार राष्ट्रीयकरण से पूर्व तथा राष्ट्रीयकरण के पश्चात् बैंक क्रियात्मक दबावों से ग्रसित है । इन दबावों के फलस्वरूप बैंकिंग व्यवस्था प्रभावित हो रही है ।

Home››Banking››Nationalization››