वाणिज्यिक बैंकों पर निबंध: अर्थ और महत्व | Essay on Commercial Banks: Meaning and Importance in Hindi language!

Essay # 1. वाणिज्यिक बैंक का अर्थ (Meaning of Commercial Banks):

‘बैंक’ शब्द से आशय एवं इनके विभिन्न प्रकार से सम्बन्धित विस्तृत विवरण पूर्व अध्याय में दिया जा चुका है । प्रस्तुत अध्याय में व्यापारिक बैंकों के कार्यों का विस्तार से अध्ययन किया गया है । सामान्यतः व्यापारिक बैंकों से आशय उन बैंकों से है, जो भारतीय कम्पनी अधिनियम के अनुसार लाभ के उद्देश्य से साख का क्रय-विक्रय करते हैं ।

आक्सफोर्ड शब्द कोष के अनुसार – ”व्यापारिक बैंक वह संस्था है जो ग्राहकों के आदेश पर उनके धन को सुरक्षित रखती है ।”

प्रो. क्राउथर के शब्दों में- ”व्यापारिक बैंक वह संस्था है जो अपनी स्वयं की तथा जनता की साख का व्यापार करती है ।”

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उपर्युक्त परिभाषाओं में आक्सफोर्ड शब्दकोष की परिभाषा उचित नहीं है । इसमें उस संस्था को ही व्यापारिक बैंक माना गया है जो रुपये जमा करती है । वर्तमान में व्यापारिक बैंक रुपये जमा करने के साथ-साथ साख का निर्माण एवं वितरण करती है ।

क्राउथर की परिभाषा में जमा स्वीकार करने, ऋण देने एवं साख निर्माण करने का उल्लेख है । अतः क्राउथर की परिभाषा श्रेष्ठ है ।

भारत में व्यापारिक बैंक से आशय उन बैंकों से है जिनकी स्थापना भारतीय कम्पनी अधिनियम के अन्तर्गत की गई है । इसी कारण इन्हें मिश्रित पूंजी वाले बैंक भी कहा जाता है । स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया, यद्यपि व्यापारिक बैंकों के अधिकांश कार्य करता है, तथापि उसे मिश्रित पूँजी वाला बैंक (व्यापारिक बैंक) नहीं कहा जाता, क्योंकि इसकी स्थापना भारतीय कम्पनी अधिनियम के अन्तर्गत नहीं की गई, वरन् पृथक से स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया अधिनियम के अन्तर्गत न गई है ।

इसी प्रकार, रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया एक व्यापारिक बैंक नहीं है, क्योंकि इसकी स्थापना भी एक पृथक अधिनियम के अन्तर्गत हुई है । इसी प्रकार विदेशी विनिमय बैंकों को भी व्यापारिक बैंकों में सम्मिलित नहीं किया जाता, क्योंकि ये बैंक मुख्यतः विदेशी व्यापार का ही अर्थ प्रबन्धन करते हैं ।

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इस प्रकार भारत में बैंकिंग का स्वरूप निम्न प्रकार है:

(a) व्यापारिक बैंक:

भारतीय कम्पनी अधिनियम के अन्तर्गत निर्मित बैंक आते हैं:

(i) राष्ट्रीयकृत व्यापारिक बैंक,

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(ii) क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक,

(iii) सहकारी बैंक,

(iv) अन्य भारतीय अनुसूचित एवं गैर अनुसूचित बैंक ।

(b) भारतीय स्टेट बैंक और उसके सहायक बैंक:

इसकी स्थापना पृथक से अधिनियम के द्वारा हुई है ।

(c) रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया:

पृथक अधिनियम के द्वारा केन्द्रीय बैंक के रूप में स्थापित ।

(d) विदेशी बैंक:

इन्हें विशेष स्थिति प्राप्त है ।

(e) देशी बैंकर्स, महाजन साहूकार आदि:

इसे असंगठित क्षेत्र कहा जाता है ।

रिजर्व बैंक के अनुसार:

उपर्युक्त (a) श्रेणी में रखे गये व्यापारिक बैंकों को भी दो वर्गों में बाँटा जाता है:

(i) अनुसूचित बैंक और

(ii) गैर-अनुसूचित बैंक ।

(i) अनुसूचित बैंक:

जिन बैंकों का नाम रिजर्व बैंक ने अपनी द्वितीय अनुसूची (Second Schedule) में दर्ज कर रखा है, उन्हें अनुसूचित बैंक कहा जाता है । इन बैंकों पर रिजर्व बैंक का विशेष नियंत्रण रहता है ।

(ii) गैर-अनुसूचित बैंक:

जिन बैंकों का नाम रिजर्व बैंक ने अपनी दूसरी अनुसूची में दर्ज नहीं किया है, उन्हें गैर-अनुसूचित बैंक कहा जाता है ।

स्वामित्व के आधार पर:

स्वामित्व के आधार पर भी व्यापारिक बैंकों में दो भागों में बाँटा जा सकता है:

(a) सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक, और

(b) निजी क्षेत्र के बैंक ।

(a) सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक:

सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक में स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया और उसकी सहायक बैंक, 20 राष्ट्रीयकृत बैंक, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक, सहकारी बैंक आदि ।

(b) निजी क्षेत्र के बैंक:

निजी क्षेत्र में भी पिछले कुछ वर्षों में अनेक बैंकों को भी स्वीकृति प्रदान की गई है । विदेशी बैंकों को भी इसी श्रेणी में रखा जाता है । यहाँ यह उल्लेखनीय है कि नरसिंहम समिति (1993) के सुझावों के बाद देश में उदार नीति में अपनाया गया है तथा निजी बैंकों में निर्धारित नियमों के अन्तर्गत मान्यता दी गई है ।

 

Essay # 2. व्यापारिक बैंकों का आर्थिक विकास में महत्व (Importance of Commercial Banks in Developing Economy):

व्यापारिक बैंक आधुनिक अर्थव्यवस्थाओं के विकास में प्रगतिशील भूमिका का निर्वाह करते हैं । यदि 18वीं व 19वीं सदियों में व्यापारिक बैंकिंग का विकास न होता तो यूरोप में औद्योगिक क्रान्ति का जन्म न हुआ होता । यह भी सत्य है कि बिना सुदृढ़ व्यापारिक बैंकिंग के विकास के अर्क-विकसित देश विकसित देशों की पंक्ति में बैठने का साहस नहीं कर सकते हैं, क्योंकि यदि औद्योगिक विकास के लिये पूँजी का उपयोग आवश्यक है तो बिना वित्तीय संस्थाओं के अस्तित्व के पूंजी का उपयोग सम्भव न होगा ।

साथ ही उत्पादित माल को बेचने के लिये बाजारों के अस्तित्व के बिना औद्योगिक विकास असम्भव होगा एवं व्यापारिक बैंकों की सेवाओं के अभाव में बाजारों का विकास भी असम्भव होगा ।

आर्थिक विकास में व्यापारिक बैंकों का महत्व इस प्रकार बताया जा सकता है:

(1) बैंक व्यापार और उद्योगों के लिये महत्वपूर्ण है:

विगत दो सौ वर्षों में हुई आर्थिक प्रगति विस्तृत व्यापार और औद्योगीकरण पर आधारित है, जो कि मुद्रा के उपयोग के बिना जन्म नहीं ले सकती थीं । किन्तु यहाँ मुद्रा का अर्थ केवल सिक्के या करेन्सी नोट ही नहीं है, क्योंकि वे तो मुद्रा की पूर्ति की कुल मात्रा का केवल एक छोटा-सा अंश ही होते हैं ।

आजकल तो बैंक जमा मुद्रा का एक महत्वपूर्ण स्रोत है, क्योंकि विभिन्न देशों में बड़े पैमाने पर होने वाले व्यापार को बैंकों व बैंक ड्राफ़्टों की प्रणाली के अभाव में सम्पादित करना असम्भव है ।

सारे बड़े सौदों में भुगतान करेन्सी में नहीं किये जाते अपितु चैकों और ड्राफ्टों द्वारा किये जाते हैं । विभिन्न देशों के बीच व्यापार के लिये वित्त-व्यवस्था विनिमय बिलों द्वारा की जाती है और इन बिलों को बैंक खरीद लेते है । बैंक-चैकों, बैंक-ड्राफ्टों व विनिमय-बिलों के अभाव में आन्तरिक व अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का विकास होना असम्भव था और बाजारों के विस्तार के अभाव में वर्तमान विशिष्टीकरण व औद्योगिक विकास भी जन्म नहीं ले सकता था ।

(2) बैंक सही उद्योगों को प्रोत्साहित करते हैं:

अल्पकालीन व दीर्घकालीन ऋण प्रदान करके बैंक उद्योगों को निधियों प्रदान करते हैं, जिससे कि वे मजदूर व उत्पादन के अन्य साधनों की व्यवस्था कर सकें । इस प्रकार बैंक न केवल औद्योगीकरण में मदद करते हैं अपितु समाज द्वारा आर्थिक विकास के चुनाव में भी योग देते हैं ।

यह इसलिये क्योंकि वे उन्हीं उद्यमकर्ताओं को अधिक पसन्द करते हैं, जिनके माल की आम जनता में भारी माँग होती है । साथ ही, बैंक-ऋणों से उत्पादकों को अपनी उत्पादन क्षमता बढाने, नयी रीतियां अपनाने तथा अधिक अच्छी मशीनें लगाने, कार्य संचालन की परिस्थितियाँ सुधारने में मदद मिलती है और आमतौर पर उत्पादन व राष्ट्रीय आय में वृद्धि में सहायता मिलती है ।

एक और अन्य तरीका जिसके द्वारा बैंक उत्पादन बढाते हैं व राष्ट्रीय आय में वृद्धि करते है, यह है कि वे उन क्षेत्रों से, जहाँ पूँजी की अधिक आवश्यकता न हो, अतिरिक्त पूँजी को उन प्रदेशों में स्थानान्तरित कर देते हैं, जहाँ पर उसका अधिक कुशलतापूर्वक उपयोग हो और उसका इस्तेमाल किया जा सकता हो ।

विभिन्न प्रदेशों में निधियों के इस वितरण का परिणाम यह होता है कि पिछड़े हुए प्रदेश खुल जाते हैं और उनके आर्थिक विकास का रास्ता तैयार हो जाता है ।

(3) बैंक साख निर्माण एवं व्यवसाय-विस्तार में सहायक होते हैं:

बैंक साख में उतार-चढाव आर्थिक गतिविधियों के स्तर पर महत्वपूर्ण प्रभाव रखता है । बैंक उधारों का विस्तार, उद्यमकर्ताओं को अधिक धन प्रदान करता है और इस प्रकार अधिक निवेशों को प्रोत्साहित करता है । पूर्ण नियोजन की स्थिति में बैंक उधारों का विस्तार स्फीतिक दबाव पैदा करता है, किन्तु बेकारी की स्थिति में यह देश में उत्पादन बढाता है ।

दूसरी ओर, बैंक उधारों में कमी, उत्पादन, रोजगार, बिक्री व मूल्यों में कमी कर देता है । एक अर्द्ध- विकसित अर्थव्यवस्था की दृष्टि से बैंक उधारों में विस्तार करता है और उद्योगों को अधिक धन प्रदान करता है तथा आर्थिक विकास का कारण बनता है ।

(4) ऋणों के मौद्रीकरण की सुविधा प्रदान करता है:

एक बहुत महत्वपूर्ण सेवा, जो कि बैंक करता है, यह है कि वह दूसरों के ऋणों के बदले में चालू जमाओं का निर्माण करता है । व्यापारिक बैंक दूसरे के ऋणों को (अल्पकालीन व दीर्घकालीन ऋण-पत्रों को) खरीदते हैं, जो कि आमतौर पर मुद्रा के रूप में स्वीकार योग्य नहीं होते, क्योंकि या तो ऋणी बाजार में प्रतिष्ठित नहीं होते और या उनमें ऋण दीर्घकाल के पश्चात ही चुकाये जाते हैं ।

इनके बदले में बैंक चालू जमाये जारी करता है, जो कि आमतौर पर मुद्रा के रूप में स्वीकार की जाती हैं । इन विनिमय व्ययों के द्वारा बैंक ऋणी क मौद्रीकरण कर देते हैं । आजकल बैंकों का महत्व इस तथ्य से स्पष्ट है कि न केवल मुद्रा का लेन-देन ही करते हैं, परन्तु इसका निर्माण भी करते हैं ।

बैंक मुद्रा व्यापार और उद्योग के प्रोत्साहन के लिए काम में लायी जाती है और वास्तव में बैंक व्यापार और उद्योग की सहायता करने कई प्रक्रिया में ही साख का निर्माण करने में समर्थ होते हैं, इसलिये यह ठीक ही कहा गया है कि वे केवल बैंक मुद्रा की समस्त मात्रा में निर्धारित करने की शक्ति ही नहीं रखते अपितु मुद्रा के उपयोगों को भी प्रभावित करते हैं ।

(5) बैंक पूँजी निर्माण को प्रोत्साहन देते हैं:

व्यापारिक बैंक बचत की सुविधायें प्रदान करते हैं । इस प्रकार लोगों में बचत और परिश्रम की आदतों को बढ़ावा देते हैं । वे समाज की निष्क्रिय पूँजी को अपनी जमाओं द्वारा गतिशील बनाते है और उसे उत्पादक कार्यों के लिए सुलभ कराते हैं ।

आर्थिक विकास, आर्थिक स्रोतों के उपभोग से पूँजी निर्माण में विवर्त्तन की प्रक्रिया पर निर्भर होता है, इसलिए बचत और निवेश की ऊँची दर वास्तविक पूँजी निर्माण को सम्भव बनाती है । इसमें बैंक का सहयोग व बैंक का कार्य बहुमूल्य होता है, किन्तु बीमा कम्पनियों जैसी अन्य संस्थायें भी हैं, जो समाज की बचतों को उत्पादक कार्यों में गतिशील बनाने में सहायता करती है ।

(6) बैंक ब्याज की दरों को प्रभावित करते हैं:

बैंक एक अन्य प्रकार से भी आर्थिक गतिविधियों को प्रभावित करते हैं । वे मुद्रा बाजार में ब्याज की दरों को निधियों की पूर्ति द्वारा प्रभावित करते हैं । वे ऋण दिये जाने वाली निधियों की मात्रा में कमी या वृद्धि करके व्याज की दरों को प्रभावित करते हैं ।

साथ ही, वे लोगों की कम या अधिक बैंक मुद्रा रखने की इच्छा को प्रभावित करते है और इस प्रकार भी वे ब्याज की दरों को प्रभावित कर सकते हैं, जैसे ब्याज की निम्न दर के साथ अपनायी गयी सस्ती मुद्रा नीति आर्थिक गतिविधियों को प्रोत्साहित करती हैं, यदि अन्य पतिस्थतियाँ अनुकूल हों ।

(7) विकासशील देशों में बैंकों का कार्य:

भारत जैसे विकासशील देश में बैंक सुविधायें बहुत अपर्याप्त हैं । गाँवों व शहरों में रहने वाले असंख्य लोगों को बैंकों की सुविधायें सुलभ नहीं हैं, जिसके परिणामस्वरूप उनकी समस्त बचतें पूर्ण उपयोग में नहीं आतीं । ऐसे क्षेत्रों में बैंक खोलने से व बैंक सुविधाओं के विकास से बचतें गतिशील होती हैं और जब वे उद्यमकर्ताओं के हाथ में आती हैं, तो वे उत्पादक हो जाती है ।

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