आधुनिक युग में बैंकों का महत्व | Read this article in Hindi to learn about the importance of banks in India during the modern age.

भारत में बैंकिंग प्रणाली अति प्राचीनकाल से प्रचलित है भले ही उसका स्वरूप आधुनिक बैंकिंग-व्यवस्था से सर्वथा भिन्न रहा हो । ऋग्वेद तथा अथर्ववेद में भी ऋण लेने-देने के अनेक सन्दर्भ मिलते हैं ।

आधुनिक बैंकिंग प्रणाली का जन्म 18वीं शताब्दी में कलकत्ता एवं बम्बई में स्थापित एजेन्सी-गृहों (Agency House) के रूप में हुआ । ये एजेन्सी गृह बैंकिंग कार्य के साथ-साथ अन्य कार्य भी करते थे । सन् 1809 में बैंक ऑफ बंगाल की स्थापना हुई किन्तु इसे सफलता नहीं मिली ।

1865 में स्थापित इलाहाबाद बैंक आज भी कार्य कर रहा है । 1895 में पंजाब नेशनल बैंक बना । सन् 1620 में इम्पीरियल बैंक ऑफ इण्डिया एक्ट के अन्तर्गत बम्बई, मद्रास तथा कलकत्ता के तीन प्रेसीडेन्सी बैंकों से मिलाकर इम्पीरियल बैंक ऑफ इण्डिया की स्थापना की गई । अप्रैल 1935 से केन्द्रीय-बैंकिंग कार्यों को करने हेतु रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया की स्थापना हुई ।

ADVERTISEMENTS:

स्वतंत्रता के पश्चात् 1949 में रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया का राष्ट्रीयकरण कर लिया गया । ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकिंग सुविधाओं का व्यापक विस्तार करने तथा लघु एवं कुटीर उद्योगों, कृषि तथा निर्यात व्यापार के अर्थ-प्रबन्धन में सक्रिय सहयोग देने के उद्देश्य से 1 जुलाई, 1955 को स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया की स्थापना की गई ।

सन् 1949 में भारतीय बैंकिंग अधिनियम पास किया गया, जिसका नाम बदलकर 1965 में बैंकिंग नियमन अधिनियम कर दिया गया । 1 फरवरी, 1969 से भारत में व्यापारिक बैंकों पर सामाजिक नियन्त्रण (Social Control) को लागू किया गया ।

इस योजना को सफल होने के लिए पर्याप्त अवसर दिये बिना ही 19 जुलाई, 1969 से 14 प्रमुख व्यापारिक बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया । राष्ट्रीयकरण की दूसरी किश्त के रूप में 15 अप्रैल, 1980 को 6 और व्यापारिक बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया ।

स्वतन्त्रता के पश्चात् कृषि साख बड़े उद्योगों लघु एवं कुटीर उद्योगों तथा विदेशी व्यापार के अर्थ- प्रबन्धन हेतु अनेक विशिष्ट संस्थाओं की स्थापना का कृषि, उद्योगों एवं विदेशी व्यापार के लिए संस्थागत वित्त (Institutional Finance) की व्यवस्था की गई है ।

ADVERTISEMENTS:

ऐसी विशिष्ट संस्थाओं में प्रमुख हैं, भारत का औद्योगिक विकास बैंक (IDBI), औद्योगिक वित्त निगम (IFC), राज्य वित्त निगम (SFCs) औद्योगिक साख एवं विनियोग निगम (ICICI), यूनिट ट्रस्ट (UTI) एवं ग्रामीण विकस का राष्ट्रीय बैंक (NABARD), भूमि विकस बैंक (LDB), राज्य भूमि विकास बैंक (SLDB), क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक (RRB), भारत का निर्यात-आयात बैंक (EXIM Bank), राष्ट्रीय आवास बैंक, औद्योगिक पुनर्निमाण बैंक (IRCI) भारत का लघु उद्योग विकास बैंक आदि । इस प्रकार विकास बैंकिंग (Developmental Banking) आधुनिक बैंकिंग व्यवस्था का महत्वपूर्ण आयाम बन गया है ।

स्वतन्त्रता के पश्चात बैंकों के सामाजिक दायित्व (Social Responsibility) अधिक महत्व दिया जाने लगा है । बैंकिंग नीतियों एवं कार्यक्रमों को देश की आर्थिक-सामाजिक प्राथमिकताओं से संबद्ध किया गया है तथा अग्रणी बैंक (Lead Bank) योजना, प्राथमिकता क्षेत्रों को ऋण (Priority Sector Lending) तथा प्रधानमंत्री जनधन योजना एवं गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों जैसे कार्यक्रमों में बैंकों की भागीदारी महत्वपूर्ण होती जा रही है । संक्षेप में, यह कहा जा सकता है कि बैंकिंग व्यवसाय की सामाजिक प्रतिबद्धता बढ़ाकर उसे जनोन्मुखी (People Oriented) बनाया जा रहा है ।

अल्पविकसित एवं अर्ध-विकसित देशों में तीव्र आर्थिक विकस के लिए बैंकिंग सुविधाओं का विस्तार होना एक आवश्यक शर्त है । कारण यह है कि बैंकिंग संस्थाएँ आर्थिक क्रियाओं के संचालन के लिए कोष या मुद्रा उपलब्ध करती है । उपभोग, उत्पादन, विनियम, वितरण एवं राजस्व सभी में मुद्रा क महत्वपूर्ण स्थान है ।

यही कारण है कि प्रो.मार्शल ने लिखा है – ”मुद्रा वह बुरी है जिसके चारों ओर अर्थ-विज्ञान चक्कर लगाता है ।”

ADVERTISEMENTS:

अर्थव्यवस्था में विनियोगकर्ताओं तथा वित्त की आवश्यकता वाले लोगों के मध्य सेतु के रूप में जो तंत्र कार्य करता है उसे बैंकिंग प्रणाली कहा जाता है । इसके अन्तर्गत बचत, विनियोग, संसाधनों का आवंटन, वित्तीय संसाधन विकास आदि तत्व सम्मिलित रहते है ।

इस प्रकार बैंकिंग प्रणाली के माध्यम से बचत एवं विनियोग को गतिमान कर आर्थिक विकास के लक्ष्य प्राप्त किये जाते हैं । देश में विनियोगों के माध्यम से पूँजी निर्माण की गति बढ़ाई जा सकती है, फलस्वरूप उत्पादन में वृद्धि होती है, उत्पादन में वृद्धि के करण आय में वृद्धि होती है, आय वृद्धि से पुन विनियोग में वृद्धि होती है और नवीन विनियोग-नवीन आय का सृजन करता है ।

इस प्रकार कोष के इस चक्राकर प्रवाह से अर्थव्यवस्था को विकास की ओर प्रवृत्त किया जाता है । दूसरे शब्दों में, बैंकिंग संस्थाओं के माध्यम से आर्थिक विकस के लक्ष्य प्राप्त किये जा सकते है ।

आर्थिक विकस के फलस्वरूप पूँजी निर्माण होता है, नए-नए उद्योगों का विकस होता है, उद्यमियों को लाभ प्राप्त होता है, समाज के हर वर्ग के लिए आय एवं रोजगार में वृद्धि होती है, फलस्वरूप बचत की मात्रा बढती है । सुदृढ़ वित्तीय प्रणाली के करण बैंकिंग आदत का विकास होता है, फलस्वरूप सम्पूर्ण बचत विनियोग में परिवर्तित होती है ।

यह विनियोग आर्थिक अभाव वाली इकाइयों की वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं, परिणामस्वरूप आय सृजन मई दर बढने लगती है । आय में वृद्धि बैंकिंग प्रणाली के फलस्वरूप विनियोग की जनक होती है । नवीन विनियोग अर्थव्यवस्था में पूँजी निर्माण की गति बढाते हैं । अतएव उत्पादन वृद्धि दर भी बढने लगती है और आय एवं रोजगार में वृद्धि होती है तथा आर्थिक विकास के लक्ष्य को प्राप्त किया जाता है ।

Home››Banking››Banks››