शारीरिक प्रदूषण पर निबंध | Essay on Body Pollution in Hindi!

शरीर प्रदूषण का एक सबसे विनाशकारी उप-उत्पाद है- मुक्त धातुकण । शरीर में प्राकृतिक रूप से इनका निर्माण होता है, लेकिन कम मात्रा में । जब शरीर प्रदूषण के परिणामस्वरूप इनकी मात्रा बढ जाती है, तब ये समस्या पैदा करते हैं ।

इन मुक्त धातुकणों को शरीर के विद्रोही अणुओं के रूप में देखे जा सकते हैं- ये अति क्रियाशील हैं और आमतौर पर जोडी में पाए जाने वाले अणु के बजाए इनमें एक ही अणु होता है । अपने अस्तित्व की लडाई में ये शरीर की स्वस्थ कोशिकाओं को खोजते हैं और अपने लिए आवश्यक अतिरिक्त अणु इस कोशिका से चुरा लेते हैं ।

यह छोटी-सी चोरी स्वस्थ कोशिकाओं को स्थाई रूप से क्षतिग्रस्त कर देती है । शरीर बडी संख्या में मुक्त धातुकण उत्पादित करता है, तो यह क्रिया एक श्रृंखला के रूप में घटित होने लगती है, जिसके कारण इनकी संख्या तेजी से बढ़ने लगती है । यह एक खतरनाक चक्र है ।

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ठीक जिस तरह कार में ऑक्सीकरण से जंग लग जाती है, उसी तरह शरीर भी मुक्त धातुकणों के ऑक्सीकरण के प्रभावों से जंग खाता है । जैसे जंग के कुछ धब्बे धीरे-धीरे कार में छेद बना देते हैं, वैसे ही जो ‘जंग’ मुक्त धातुकणों से पैदा होती है, शरीर प्रणाली को समय के साथ कमजोर करती जाती है । फलस्वरूप संक्रमण और बीमारियों का खतरा बढ जाता है ।

कई बीमारियों जैसे- कैन्सर, गठिया मधुमेह, मोतियाबिन्द और हृदय रोगों का एक मुख्य कारण मुक्त धातुकण होते हैं । साथ ही यह भी स्पष्ट है कि ये न केवल रोग पैदा करते हैं, बल्कि वृद्ध होने की प्रक्रिया को भी तेज कर देते हैं ।

शरीर प्रदूषण के कई स्रोत मुक्त धातुकणों के उत्पादन का कारण होते हैं । मानव जितनी बार साँस लेते हैं, उतनी बार सैकडों रसायन शरीर में प्रवेश करते हैं । ये घरेलू एयर फ्रेशनर एवं एग्जॉस्ट, सिगरेट के धुएँ या ओद्योगिक प्रदूषण द्वारा आपके शरीर में जाने पर मुक्त धातुकण पैदा करते हैं ।

जितनी बार मानव भोजन लेते हैं उतनी बार उस भोजन में मौजूद रसायन तथा कीटनाशक की प्रतिक्रिया में मुक्त धातुकण पैदा होते हैं । क्लोरीन और भारी धातुएँ जैसे पारा, सीसा तथा कैडमियम, जो अक्सर पीने के पानी के कई स्रोतों में उपस्थित रहती हैं, मुक्त धातुकणों के उत्पादन का कारण बन सकती हैं ।

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शरीर प्रदूषण मानव स्वास्थ्य पर किस तरह असर डालता है, मुक्त धातुकणों की अधिकता उसका सिर्फ एक उदाहरण है । पर्यावरण का लगातार प्रदूषित होना, शरीर के सभी भागों और मानव स्वास्थ्य के हर पहलू पर बुरा असर डालता है ।

इसलिए यह कोई अचंभे की बात नहीं है कि पुरानी बीमारियाँ फिर से लौट कर आ रही हैं और जो बीमारियाँ लंबे समय से बनी हुई हैं, वे लगातार बढती ही जा रही हैं । और यह बताने की जरूरत भी नहीं है कि इस वजह से कई नई बीमारियों का सामना भी करना पड रहा है । पिछले केवल पचास सालों में ही पर्यावरण में चारों ओर फैल चुके लगभग पचास हजार कृत्रिम रसायनों से जूझने के लिए अब हम मजबूर हैं ।

रोग-प्रतिरोधक प्रणाली (Anti-Immune System):

इस तनाव भरे जीवन में मानव शरीर की रोग-प्रतिरोधक प्रणाली असरदार तरीके से काम नहीं कर पा रही है और इसका शायद हमें अंदाजा कभी नहीं होता । 1970 में जब एड्‌स रोग सामने आया, तब रोग प्रतिरोधक प्रणाली की जटिलताओं व परस्पर प्रभाव का गहनता से परीक्षण किया गया और समझा गया ।

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आसान शब्दों में कहें, तो यह शरीर के लिए रोगों से लड़ने वाली एक रक्षक सेना है । यह सेना अंगों, कोशिकाओं और संचार उपकरणों से बनी है, जो बडी कुशलता से दुश्मन को खोज कर उसे नष्ट कर देते है ।

मुख्य सिपाही, जिन्हें श्वेत रक्त कोशिकाओं के नाम से जानते हैं, प्रतिदिन विषाणुओं, जीवाणुओं और दूसरे बाहरी हमलावरों के विरुद्ध जंग लड़ते हैं । ये सिपाही लगातार संघर्षरत रहते हैं – अंगों और शरीर की रक्षा करते हैं, रोगों के विरुद्ध लड़ते हैं और शरीर को स्वस्थ बनाए रखते हैं ।

जी हाँ, एक वास्तविक सेना की तरह, जब सिपाही पर काम का बहुत दबाव हो और वह थक जाए, तब वह दुश्मन के विरुद्ध लडने के काबिल नहीं रह जाता । इसी तरह जब रोग-प्रतिरोधक प्रणाली पर जरूरत से ज्यादा दबाव पडता है और वह शरीर प्रदूषण, खराब पोषण या तनाव के कारण कमजोर हो जाती है, तो शरीर को बाहरी हमलावरों से नहीं बचा पाती ।

कभी-कभी इस भ्रम व थकान की स्थिति में हमारी ही रोग-प्रतिरोधक प्रणाली, जो शरीर की रक्षा करती है शरीर पर ही धावा बोल देती है । स्व-प्रतिरक्षित रोग की वजह यही होती है, जैसे मल्टीपल स्किलरॉसिस, चर्मयक्ष्मा तथा संधिवात गठिया आदि ।

एक समय था, मानव सर्दी-झुकाम और लू से आसानी से निपट लेते थे । यदि इन रोगों से लड़ने की क्षमता कम हो गई है और ये कम अंतराल में बार-बार हो रहे हैं, तो यह आपकी रोग-प्रतिरोधक प्रणाली पर अधिक भार का पहला संकेत है ।

दवा की दुकान पर मिलने वाली एक गोली खाने से इसके लक्षण खत्म हो सकते हैं, परंतु यह आपकी रोग-प्रतिरोधक क्षमता को वापस दुरुस्त नहीं करती, बल्कि यह शरीर प्रदूषण का एक और स्रोत बन जाती है । स्वस्थ रोग-प्रतिरोधक प्रणाली के साथ वायरस के संपर्क में आने के बावजूद भी बीमार नहीं पड़ते । इसके कमजोर होते ही जिस भी संक्रमण के संपर्क में आते हैं, उससे लडने के लिए असमर्थ होते हैं ।

शरीर प्रदूषण के स्रोत, जैसे सूर्य की पराबैंगनी किरणें, कीटनाशक, धुआँ, रसायन जैसे डायऑक्सिन तथा पी.सी.बी., और तो और पीने का दूषित पानी भी आपकी रोग-प्रतिरोधक प्रणाली पर घातक असर डालता है । जाहिर है कि शरीर को सबसे ज्यादा क्षति तब पहुँचती है, जब आपकी रोग-प्रतिरोधक प्रणाली क्षमता से ज्यादा काम कर रही हो और शरीर प्रदूषण तथा खराब पोषण के घातक आक्रमण के कारण अशक्त हो । प्रतिरोधकता से संबंधित परिस्थितियाँ, जैसे- एलर्जी, दमा, दीर्घकालिक थकान और गठिया की चौंका देने वाली बढोत्तरी के साक्षी हैं ।

शरीर प्रदूषण स्वास्थ्य के हर पहलू पर असर डालता है और शरीर की हर प्रणाली पर तनाव डालकर समय से पहले ही बुजुर्ग बना देता है । शरीर प्रदूषण, दुर्भाग्यवश, एकदम सच है और इससे बचा नहीं जा सकता, लेकिन यह आपके स्वास्थ्य पर कैसे और कितना असर डालता है, इस पर काफी नियंत्रण रख सकते हैं ।

मानव स्वास्थ्य की जिम्मेदारी स्वयं लें । जब बात जीवन बचाने के उपायों और चिकित्सीय अभियांत्रिकी के साहस पूर्ण कार्यों, जैसे- घुटने तथा कूल्हे बदलने पर आती है, तब आधुनिक दवाइयाँ सर्वोत्तम साबित होती हैं, लेकिन ये दवाइयाँ बीमारियों से बचाव में सक्षम नहीं हैं ।

चिकित्सक रोग को नियंत्रित करने में इतने व्यस्त हैं कि उनके पास इन रोगों से बचाव के बारे में सोचने का समय ही नहीं है (कभी-कभी वे इसके लिए प्रशिक्षित भी नहीं होते) आज के दौर में हम बीमारी या उसके लक्षणों के उपचार पर केन्द्रित रहते हैं, उसकी जड़ को जानने की कोशिश ही नहीं करते ।

ईमानदारी से कहें, तो जब बात रोगी को सेहतमंद रहने तथा रोगों से बचाव के लिए शिक्षित करने की आती है, उसके लिए डॉक्टरों को बडी कठिन जंग लडनी पड रही है । अस्वास्थ्यकर खाद्य को बढावा देने वाले विज्ञापन हर तरफ दिखाई दे रहे हैं और इस तरह के उत्पाद अक्सर स्कूलों में और यहाँ तक कि बच्चों के अस्पतालों में भी बिकते हैं ।

वायु और जल प्रदूषण पृथ्वी को हर जगह प्रभावित कर रहा है । हमारी संस्कृति स्वास्थ्य को बढ़ावा देने वाले सिद्धांतों के बजाए सुविधा और सहूलियत को मान्यता देने वाली हो गई है ।

यदि इसका सकारात्मक पक्ष देखें, तो आधुनिक दवाइयों की वजह से हमारा जीवन काल लंबा हो गया है और उसकी गुणवता में भी सुधार हुआ है । अब हमें अपने शरीर और पोषण की भी बेहतर जानकारी है और ये समझ दिनोंदिन बढ रही है ।

आधुनिक युग में उपलब्ध सभी सुविधाओं के बारे में सोचना चाहिए, क्या मानव वास्तव में पूर्व काल में जाना चाहेंगे- यहाँ तक कि वायु भी शुद्ध है, फिर भी? हममें से अधिकतर लोग आधुनिक जीवन के आविष्कारों, जैसे- हवाई जहाज माइक्रोवेव, कम्प्यूटर, केन्द्रीय तापन आदि के अभ्यस्त हो चुके हैं ।

इन सब के बावजूद, यदि कुछ लोग हैं, जो आधुनिक सुविधाओं के बजाए शुद्ध संसार में रहना चाहते हैं – तो वास्तव में ऐसा कोई विकल्प नहीं है । मानव सभी जीवमंडल-2 पर्यावरण में नहीं रह सकते । आज इस बात की जरूरत है कि मानव अपने स्वास्थ्य की रक्षा करें और शरीर प्रदूषण से हुई क्षतियों को सुधारें । खुशकिस्मती से हमारे पास इसके रास्ते भी उपलब्ध हैं ।

जापान की ओकीनावान्स नामक जाति में मृत्यु दर पूरे विश्व की तुलना में सबसे कम है । परिणामतः वे न केवल विश्व में सबसे लंबे जीवन का आनंद लेते हैं, बल्कि विश्व में सबसे लंबे समय तक स्वस्थ रहने की संभावना पर भी गर्व करते हैं ।

विशेषतः जो लोग 100 वर्ष के ऊपर की आयु तक पहुँच जाते हैं, उनका ये इतिहास रहा है कि वे बहुत धीमी गति से वृद्ध हुए और वृद्धावस्था की लंबी चलने वाली बीमारियाँ जैसे विक्षिप्तता, हृदय रोग (धमनी संबंधी हृदय रोग और आघात) तथा कैन्सर से भी बचे रहे ।

ओकीनावान्स अपने स्वास्थ्य को बहुत नियंत्रित रखते हैं और लंबे समय तक स्वस्थ एवं क्रियाशील जीवनयापन करते हैं । यदि वे ऐसा कर सकते हैं, तो भी कर सकते हैं । अपने स्वास्थ्य की जिम्मेदारी ले । यह आखिरकार मानव का जन्मसिद्ध अधिकार है ।

ऐसा मानकर न चलें कि मानव की उम्र भी उसी दर से आगे बढ़ेगी, जैसी आपके चारों ओर के लोगों की बढ रही है । यह न समझें कि चूँकि मानव की उम्र अधिक है, तो मानव निष्क्रिय हो गए या मानव को अशक्त बनाने वाली बीमारियाँ हो जाएंगी ।

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