हार्वे लाइबेनस्टीन के गंभीर न्यूनतम प्रयास | Read this article in Hindi to learn about:- 1. न्यूनतम आवश्यक प्रयास की प्रस्तावना (Introduction to Critical Minimum Effort) 2. न्यूनतम आवश्यक प्रयास की  संकल्पनाएँ (Propositions of Critical Minimum Effort) 3. वृद्धि को रोकने वाली प्रवृत्तियाँ (Growth Inhibiting Tendencies) and Other Details.

Contents:

  1. न्यूनतम आवश्यक प्रयास की प्रस्तावना (Introduction to Critical Minimum Effort)
  2. न्यूनतम आवश्यक प्रयास की  संकल्पनाएँ (Propositions of Critical Minimum Effort)
  3. वृद्धि को रोकने वाली प्रवृत्तियाँ (Growth Inhibiting Tendencies)
  4. आय में वृद्धि करने वाली शक्तियाँ (Income Generating Forces)
  5. आवश्यक न्यूनतम प्रयास (Required Minimum Effort)
  6. न्यूनतम प्रयास हेतु निर्धारक (Determinants for a Minimum Effort)
  7. न्यूनतम प्रयास का वास्तविक आकार (Actual Size of Minimum Effort)

1. न्यूनतम आवश्यक प्रयास की प्रस्तावना (Introduction to Critical Minimum Effort):

हार्वे लीबिंस्टीन ने अर्द्धविकसित देशों की समस्याओं का विश्लेषण करते हुए स्पष्ट किया कि इन देशों में पाया जाने वाला निर्धनता का विषम दुश्चक्र निम्न आय स्तर हेतु उत्तरदायी है । निर्धनता के विषम दुश्चक्र के निवारण हेतु आवश्यक है कि एक आवश्यक न्यूनतम प्रयास किया जाये जिसके परिणामस्वरूप प्रति व्यक्ति आय एक ऐसे स्तर तक बढ़े, जिससे आत्मनिर्भर विकास को बनाए रखना सम्भव बने ।

लीविंस्टीन के अनुसार पिछड़ेपन की अवस्था से एक अधिक विकासित अवस्था की ओर जाने के कम में हम दीर्घकालीन सतत् वृद्धि की आशा कर सकते है । किसी एक बिन्दु या अवधि में यह आवश्यक लेकिन हमेशा यथेष्ट दशा नहीं है कि अर्थव्यवस्था वृद्धि हेतु ऐसी उत्तेजना प्राप्त करें जोकि निश्चित न्यूनतम आकार के प्रयास से अधिक हो ।

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लीविंस्टीन द्वारा प्रस्तुत आवश्यक न्यूनतम प्रयास विश्लेषण (अर्द्धविकसित देशों, मुख्यत: भारत, चीन, इंडोनेशिया की समस्याओं के अध्ययन पर आधारित है । इन देशों में आय का न्यून स्तर पाया जाना एक सामान्य लक्षण है । इन देशों में जनसंख्या वृद्धि की दर काफी ऊँची है । अत: प्रति व्यक्ति आय की दर एवं जनसंख्या की वृद्धि दर के मध्य एक ऐसा प्रत्यक्ष संबंध दिखायी देता है कि आय में वृद्धि के प्रभावों को जनसंख्या वृद्धि की दर जून की कर देती है । इस प्रकार अर्थव्यवस्था एक निम्न स्तर संतुलन में फंसी रह जाती है ।

ऐसे में एक मात्र विकल्प यह रह जाता है कि विकास प्रयास ऐसे आवश्यक न्यूनतम आकार का किया जाये जो प्रति व्यक्ति आय में ऐसा अधिक व महत्वपूर्ण परिवर्तन करें कि अर्थव्यवस्था जनसंख्या वृद्धि के प्रभावों से मुक्त हो जाए । ऐसा होने पर अर्थव्यवस्था आत्मनिर्भर वृद्धि के मार्ग पर आ जाती है ।


2. न्यूनतम आवश्यक प्रयास की संकल्पनाएँ (Propositions of Critical Minimum Effort):

न्यूनतम आवश्यक प्रयास विश्लेषण दो आधारभूत संकल्पनाओं पर आधारित है:

(1) पहली संकल्पना यह कि अर्द्धविकसित देश इस कारण निर्धन है क्योंकि उनकी बचत एवं विनियोग की क्षमता न्यून है । आपकी निम्न प्रति व्यक्ति आय के कारण बचत की संभावना कम होती है जिससे विनियोग अति अल्प होता है तथा राष्ट्रीय आय में वृद्धि की दर भी न्यून ही रहती है ।

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(2) दूसरी संकल्पना इस तथ्य पर आधारित है कि अर्द्धविकसित देशों की आर्थिक वृद्धि में जनसंख्या की वृद्धि मुख्य बाधा है ।

लीबिंस्टीन के अनुसार जनसंख्या वृद्धि प्रति व्यक्ति आय के स्तर का फलन है । चूँकि अर्द्धविकसित देश जीवन निर्वाह स्तर में निवास करते है इसी कारण वह एक अर्द्धरोजगार संतुलन में फंसे रह जाते है । इस तथ्य को उन्होंने मति व्यक्ति आय एवं जनन दर के मध्य के अनुभव सिद्ध संबंधों के आधार पर प्रकट किया ।

लीबिंस्टीन के अनुसार- जीवन निर्वाह स्तर से अधिक प्रति आय में होने वाली वृद्धि से मृत्यु दर में गिरावट आती है लोकन जननदर में तत्संबधित कमी नहीं होती । इसके परिणामस्वरूप जनसंख्या में तीव्र वृद्धि होती है जो प्रति व्यक्ति आय में होने वाली धीमी आय वृद्धि को निगल जाती है ।

यह प्रक्रिया एक निश्चित सीमा तक चलती रहती है । एक निश्चित सीमा के उपरांत प्रति व्यक्ति आय में होने वाली वृद्धि जनन दर में कमी लाना प्रारम्भ करती है । अत: जनसंख्या वृद्धि की दर पहले की भाँति तीव्र गति से नहीं बढ़ती एवं वृद्धि की प्रक्रिया सुधार का अनुभव करती है ।

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लीबिंस्टीन का विश्लेषण डयूमोट की सामाजिक केशिकत्व सिद्धांत का आधार लेता है । जिसके अर्न्तगत यह स्पष्ट किया गया है कि सामाजिक रूप से श्रेष्ठ होने के लिए परिवार का आकार सीमित एवं प्रति व्यक्ति आय का स्तर अधिक होना चाहिए । अत: परिवार में बच्चों की संख्या कम होनी चाहिए ।


3. वृद्धि को रोकने वाली प्रवृत्तियाँ (Growth Inhibiting Tendencies):

लीबिंस्टीन के अनुसार अर्द्धविकसित देश निम्न स्तर आय संतुलन में फसी रहते है । इसमें वृद्धि को रोकने एवं आय को सीमित करने वाली प्रवृत्तियां विद्यमान रहती है जो निम्न स्तरीय आय संतुलन के चक्र को और अधिक सुदृढ़ करती है ।

ऐसी अन्य प्रवृत्तियां जो अर्द्धविकसित देशों के पिछड़ेपन को और अधिक बढ़ाती है, निम्न प्रकार है:

i. शून्य योग उपक्रम क्रियाओं का उपस्थित होना:

शून्य योग उपक्रम क्रियाएँ या प्रेरणाएँ राष्ट्रीय आय में कोई वृद्धि नहीं करती । अविकसित देशों में उपक्रमी राष्ट्रीय आय में वृद्धि हेतु पर्याप्त योगदान नहीं देते तथा निष्क्रिय रहते है । इसका कारण ऐसी परिस्थितियों का विद्यमान होना है कि साहसी शून्य योग उपक्रम क्रियाओं से अधिक प्रभावित होते है ।

शून्य योग क्रियाओ से अभिप्राय है:

(a) गैर व्यापरिक क्रियाएँ जिसके अर्न्तगत उपक्रमी का हित मुख्य रूप से अधिक एकाधिकारिक दशा बनाए रखने से संबंधित होता है ।

(b) राजनीतिक शक्ति में वृद्धि करने, अधिक प्रतिष्ठा अर्जित करने, आर्थिक व राजनीतिक सम्मान प्राप्त करने से संबंधित ।

(c) सहे की क्रियाएं

(d) ऐसे विनियोग जिनका सामाजिक मूल्य लगभग शून्य हो । शुद्ध बचतों का प्रयोग लेकिन ऐसे उपक्रमों में विनियोग किया जाना जिसमें उनका सामाजिक मूल्य या तो शून्य हो या यह सामाजिक मूल्य उनके निजी मूल्य से काफी निम्न हो ।

संक्षेप में शून्य योग कियाएँ देश के विकास हेतु बाधाकारी हैं, क्योंकि यह वास्तविक आय का सृजन नहीं करती ।

लीबिंस्टीन के अनुसार- घनात्मक योग क्रियाएँ आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करती है लेकिन इन धनात्मक योग क्रियाओं को मकमी के द्वारा मात्र लाभ प्राप्त करने की दशा के अधीन ही हाथ में लिया जाता है । धनात्मक योग क्रियाएं ऐसी प्रेरणाएं है जो आर्थिक विकास में वृद्धि करती है ।

अर्द्धविकासित देशों में ऐसी प्रपत्तियां देखी जाती है कि साहसी धनात्मक योग क्रियाओं के स्थान पर शून्य योग क्रियाओं से प्रभावित एवं प्रेरित होते है । अर्द्धविकासित अर्थव्यवस्थाओं में ऐसी दृढ़ता एवं जटिलताएँ देखी जाती है जिनसे विकास हेतु अनुकूल परिस्थितियों का निर्माण नहीं होने पाता एवं साहसी धनात्मक योग क्रियाओं का जोखिम लेने में असमर्थ रहता है ।

स्पष्ट है कि शून्य योग क्रियाओं की उपस्थिति विकास के उचित अवसरों का निर्माण नहीं करती तथा देश के संसाधनने का पूर्ण उपयोग विकास हेतु आवश्यक वातावरण नहीं बन पाता ।

अर्द्धविकसित देशों में यदि थोड़े से उपक्रमी धनात्मक योग क्रियाओं से संलग्न रहे तो यह अफत्मक नहीं कि इससे राष्ट्रीय आय में कोई शुद्ध वृद्धि दिखायी दे । धनात्मक योग क्रियाओं के फलने-भूलने की एक आवश्यक पूर्व दशा यह है कि इससे एक अनुकूल विनियोग वातावरण का निर्माण हो । यह खंड-खंड प्रयासों से नहीं हो सकता अत: आवश्यक है कि आवश्यक न्यूनतम आकार का बड़ा विकास प्रयास किया जाये ।

ii. नवीनता विरोधी दृष्टिकोण:

अर्द्धविकसित देशों में परिवर्तन के प्रति विरोधी दृष्टि के विद्यमान होता है अत: यह आवश्यक हो जाता हे कि नवीनता विरोधी दृष्टिकोण अपने अधिकतम स्तर तक न्यून हो जाए ।

iii. नए विचार एवं ज्ञान को न अपनाना:

अर्द्धविकसित देशों में नवीन विचार एवं ज्ञान को संदेह की दृष्टि से देखा जाता है । समाज पुराने विचारों पर आश्रित रहता है । आर्थिक विकास हेतु आधारभूत पूर्व दशा यह है कि समाज नए विचारों व ज्ञान को अपनाए ।

iv. उच्च उपयोग अर्द्धविकसित देशों में सीमित संसाधनों को उच्च उपभोग में व्यय किया जाता है । यह अनुत्पादक व्यय है ।

v. उच्च पूंजी-उत्पादन अनुपात अर्द्धविकसित देशों में उच्च पूजी उत्पादन अनुपात की प्रवृति देखी जाती है । जनसंख्या वृद्धि इस समस्या को और अधिक बढ़ाती है, क्योंकि पूजी की प्रति व्यक्ति उपलब्धता सीमित हो जाती है ।

वृद्धि को सीमित करने वाली उपर्युक्त प्रवृत्तियों यह बतलाती है कि उत्पादन के साधनों से लम्बे समय से आ रही अविभाव्यताओं के कारण पैमाने की आतरिक अभितव्ययिताएँ तथा वाह्य की प्रवृति दिखायी देती है । इन बाधाकारी शक्तियों को दूर करने के लिए आवश्यक न्यूनतम आकार का प्रयास होना चाहिए ।


4. आय में वृद्धि करने वाली शक्तियाँ (Income Generating Forces):

आवश्यक न्यूनतम विश्लेषण मुख्यत: ऐसी निश्चित अनुकूल आर्थिक दशाओं के अस्तित्व पर आधारित है, जिससे आय में वृद्धि करने वाली शक्तियाँ आय को सीमित करने वाली शक्तियों के सापेक्ष अधिक तेजी से बढ़ें । विकास की प्रक्रिया में इन दशाओं को वृद्धि अभिकर्त्ता के विस्तार द्वारा उत्पन्न किया जाता है ।

वृद्धि के अभिकर्त्ता को क्षमताओं की इन मात्राओं के द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है जो वृद्धि को योगदान देने वाली क्रियाओं को बढ़ाते है । वृद्धि अभिकर्त्ताओं में मुख्यत: उपक्रमी विनियोग बचत वर्ता एवं नवप्रवर्तक सम्मिलित किए जाते है । वृद्धि में योगदान करने वाली क्रियाएँ मुख्यत: उपक्रमशीलता का सृजन करती है, ज्ञान के भण्डार में वृद्धि करती है, व्यक्तियों की उत्पादक क्षमताओं को बढ़ाती है तथा बचत एवं विनियोग की दर में वृद्धि करती है ।

आवश्यक न्यूनतम प्रयास हेतू विकास के लिए अनुकूल वातावरण एवं ऐसे व्यक्तियों की उपस्थिति आवश्यक है जो उपक्रमशीलता को बढ़ते है । लीबिंस्टीन ने विकास प्रकिया में साहसी को महत्वपूर्ण स्थान दिया । साहसी के द्वारा विनियोग के उचित एवं नवीन अवसरों की खोज की जाती है ।

उत्पादन के विभिन्न साधनों को गतिशील किया जाता है । नवीन उद्योगों की स्थापना की जाती है तथा बड़े पैमाने के लाभों को प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है । इन कार्यों के द्वारा व्यक्तियों की आय एवं राष्ट्रीय आय की वृद्धि होती है ।


5. आवश्यक न्यूनतम प्रयास (Required Minimum Effort):

अर्द्धविकसित देशों में प्रति व्यक्ति आय के निम्न स्तर का मुख्य कारण निर्धनता का दुश्चक्र है । निर्धनता के दुश्चक्र से मुक्ति पाने का एकमात्र उपाय आवश्यक न्यूनतम प्रयास है । आवश्यक न्यूनतम मात्रा में विनियोग करने पर आय में इति करने वाली शक्तियां इतनी प्रबल हो जाती है कि स्थायी स्वत: स्कूर्ति की दशाएं उत्पन्न हो जाती है ।

इसके साथ ही ऐसी कई शक्तियाँ उत्पन्न होने लगती है जो अविरत वृद्धि हेतु देश के सामाजिक आर्थिक वातावरण को अनुकूल बनाती है:

i. विकास कारकों या अभिकर्त्ताओं की क्रियाशीलता में वृद्धि ।

ii. पूँजी उत्पादन दर में कमी ।

iii. सामाजिक एवं आर्थिक गतिशीलता हेतु आवश्यक घटकों को प्रोत्साहन ।

iv. वृद्धि को सीमित करने वाली शक्तियों के विस्तार एवं सक्रियता में कमी ।

v. द्वितीयक एवं तृतीयक क्रियाओं के विस्तार के फलस्वरूप श्रम विभाजन में वृद्धि ।

vi. ऐसा सामाजिक एवं आर्थिक सुधार जो नियमित रूप से जनन दर में कमी करें ।

उपर्युक्त कारकों एवं घटकों की उपस्थिति के द्वारा अर्द्धविकसित देश विनियोग की अपेक्षाकृत उच्च मात्राओं के रूप में किए गए आवश्यक न्यूनतम प्रयास के प्रयोग से निम्न संतुलन की अवस्था से बाहर आने में समर्थ होता है । इस प्रक्रिया की सफलता यह अपेक्षा रखती है कि प्रतिफलित आय में वृद्धि करने वाली शक्तियाँ, आय को न्यूनतम करने वाली शक्तियों की तुलना में शक्तिशाली बनी दें ।

प्रो.एच. मिंट के अनुसार- प्रति व्यक्ति आय के निम्न होने के कारण बाजार की अपूर्णताओं का सामना करने, आंतरिक बचतों के प्राप्त करने एवं पूरक विनियोग से उत्पन्न बाह्य बचतों द्वारा लाभ उठाने के लिए आवश्यक है कि विकास कार्यक्रम को वृहत स्तर पर आरंभ किया जाए ।

लीबिंस्टीन के आवश्यक न्यूनतम प्रयास विश्लेषण को चित्र 3 की सहायता से स्पष्ट किया जा सकता है । चित्र में 45 की रेखा प्रति व्यक्ति आय में होने वाली प्रेरित वृद्धि एवं ह्रास को प्रदर्शित करती है । Xt रेखा प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि करने वाली शक्ति एवं वक्र Zt आय में होने वाली कमी को सूचित करता है ।

लीबिंस्टीन के अनुसार- आय में वृद्धि करने वाली शक्तियाँ प्रति व्यक्ति आय के पहले स्तर द्वारा निर्धारित होती है । आय में कमी करने वाली शक्तियों का निर्धारण उस स्तर से होता है जहाँ तक प्रतिव्यक्ति आय बढ़ी होती है, केवल आय में वृद्धि करने वाली शक्तियाँ कार्य कर रही होती ।

माना प्रारंभिक अवधि में आय का स्तर Om है । आय में वृद्धि करने वाली शक्तियों का सृजन होने पर वह आय स्तर में na की वृद्धि करता है । इसी समय आय में कमी करने वाली शक्तियों का प्रभाव आय को उस बिन्दु से नीचे करने का प्रयास करता है जो आय में वृद्धि करने वाली शक्तियों के कारण बड़ा है । आय में कमी करने वाली शक्तियों का प्रभाव 45 की रेखा के नीचे मापा जाएगा ।

यदि आय स्तर में na वृद्धि होने पर प्रति व्यक्ति आय बिन्दु a में होते हुए 45 रेखा में बिन्दु f तक बढ़े तब आय में कमी करने वाली शक्तियाँ आय को fb तक गिरा देंगी । आय में वृद्धि करने वाले वक्र Xt तथा आय में कमी करने वाले वक्र Zt की विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए यह स्पष्ट किया जा सकता है कि आरंभिक आय स्तर om के द्वारा abcd पथ का सृजन होता है जिसे तीर द्वारा दिखाया गया है ।

यह पथ चित्र में बिन्दु E पर रुकता है अर्थव्यवस्था में अविरत् वृद्धि तब ही संभव है जब आय में होने वाली वृद्धि OK से अधिक हो । आय के OK स्तर के उपरांत विकास पथ बिन्दु G से H से I व आगे तीर द्वारा दिखाया गया है । यह अर्थव्यवस्था को अविरल वृद्धि की ओर ले जाता है ।

यदि आरंभिक उत्तेजक या विकास कारक प्रति व्यक्ति आय में OK से निम्न स्तर की, माना Oe ही वृद्धि कर पाते है तब अर्थव्यवस्था में होने वाले परिवर्तन का पथ उसे साम्य दशा E पर वापस ले आएगा । अत: अविरल वृद्धि के लिए इतना पर्याप्त विनियोग किया जाना आवश्यक है वो प्रति व्यक्ति आय में सहद स्तर से अधिक की वृद्धि करें ।

अविरल वृद्धि हेतु आवश्यक है कि आरंभिक विनियोग प्रयास एक निश्चित न्यूनतम स्तर से अधिक रहें जिससे प्रति व्यक्ति आय का स्तर इतना अधिक बड़े कि वह आय में कमी करने वाली स्वायत या प्रेरित शक्तियों का सामना कर सके ।

चित्र 4 में ee रेखा निम्न प्रति व्यक्ति आय के स्तर को एवं mm आवश्यक न्यूनतम प्रति व्यक्ति आय के स्तर को प्रदर्शित कर रही है । ee रेखा mm रेखा के मध्य के भाग को दो क्षेत्र I व II में विभाजित किया गया है । क्षेत्र III जो mm रेखा से ऊपर है, आय की अविरल वृद्धि को सूचित करता है ।

प्रारंभ में आय का स्तर oa है, माना ob स्तर की अविरल वृद्धि हेतु इतना विनियोग किया जाता है कि प्रति व्यक्ति आय में om स्तर के बराबर वृद्धि हो । यह आवश्यक न्यूनतम प्रयास के आकार को सूचित करती है । लीबिंस्टीन के अनुसार- विनियोगी के लिए यह भी अनुकूल एवं संभव है कि वह आवश्यक न्यूनतम विनियोग को विभिन्न समयों हेतु विभक्त कर दे ।

माना, इन्हें दो भागों में बाटा जाता है तथा अनुकूलता के साथ इनका क्रम निर्धारित किया जाता है । अत: विनियोग के प्रारंभिक चरण में प्रति व्यक्ति आय का स्तर Ob तक बढ़ता है । अब समय t पर विनियोग का दूसरा स्तर लगाया जाता है, जिससे आय में cd वृद्धि होती है ।

इससे अर्थव्यवस्था आवश्यक न्यूनतम स्तर पर पहुँच जाएगी । यह ध्यान रखना होगा कि यदि अनुकूलता समय । पर यदि विनियोगी विनियोग की दूसरी मात्रा विनियोजित करने में असमर्थ रहे तो प्रति व्यक्ति आय कुछ समय के उपरांत अपने मूल निम्न संतुलन स्तर पर आ जाएगी ।

जनसंख्या वृद्धि प्रति व्यक्ति आय का फलन है- अनुभव सिद्ध अवलोकन द्वारा लीबिंस्टीन ने प्रमाणित किया कि जनसंख्या वृद्धि की दर प्रति व्यक्ति आय के स्तर का फलन है । जीवन निर्वाह संतुलन बिन्दु पर जन्म व मृत्यु दोनों दरें उच्च होती है तथा प्रति व्यक्ति आय का स्तर निम्न होता है । जब प्रति व्यक्ति आय जीवन निर्वाह स्तर से उच्च होती है तब प्रारंभ में मृत्यु दर कम होती है लेकिन जन्म दर पूर्ववत होगी, अत: जनसंख्या में वृद्धि की प्रवत्ति दिखायी देगी ।

लीबिंस्टीन के अनुसार- प्रति व्यक्ति आय में होने वाली वृद्धि जनसंख्या में अल्प समय तक ही वृद्धि कराती है । वृद्धि की प्रक्रिया के साथ-साथ प्रति व्यक्ति आय में होने वाली वृद्धि जन्म दर को कम करती है । लीबिंस्टीन ने ड्यूमोंट के सामाजिक केशिकत्व सिद्धांत के आधार पर स्पष्ट किया कि प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि होने पर अधिक संतान उत्पन्न होने की इच्छा कम होने लगाती है ।

लीबिंस्टीन के अनुसार- 3 से 4 प्रतिशत की दर के मध्य होने वाली जनसंख्या बुद्धि जैविकीय रूप से निर्धारित अधिकतम वृद्धि दर है । जनसंख्या में होने वाली इस वृद्धि को नियंत्रित करने के लिए आवश्यक न्यूनतम प्रयासों को अधिक होना चाहिए । इसे चित्र 5 की सहायता से निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है ।

चित्र में वक्र N प्रति व्यक्ति आय के स्तर का मापन करता है जो राष्ट्रीय आय में जनसंख्या की वृद्धि दर के बराबर वृद्धि करता है । वक्र P प्रति व्यक्ति आय के प्रत्येक स्तर पर जनसंख्या वृद्धि की दर को सूचित करता है ।

चित्र में बिन्दु a जीवन निर्वाह संतुलन को सूचित करता है अर्थात् बिन्दु a पर जनसंख्या एवं आय में अधिकता की समस्या नहीं है । यदि प्रति व्यक्ति आय का स्तर OY1 हो जाये तब जनसंख्या एवं आय दोनों में 1 प्रतिशत की वृद्धि होती है । आय के OY2 स्तर में जनसंख्या की वृद्धि दर Y2b है (2 प्रतिशत) जबकि, आय की वृद्धि दर Y2b है (4 प्रतिशत) है अत: OY2 स्तर पर Y2d > Y2b इस स्थिति में राष्ट्रिय आय की वृद्धि के लिए प्रति व्यक्ति आय को इतना बढ़ाना आवश्यक होगा है कि यह जनसंख्या वृद्धि की दर से अधिक रहे ।

यह तब संभव होता है जब प्रति व्यक्ति आय का OY3 स्तर प्राय कर लिया जाये । e बिन्दु के उपरांत जनसंख्या बिन्दु e पर प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि एवं जनसंख्या वृद्धि का स्तर बराबर है । e बिन्दु के उपरांत जनसंख्या में होने वाली वृद्धि सीमित हो जाती है । अत: Y3 ही प्रति व्यक्ति आवश्यक न्यूनतम आय का है जो अविरल वृद्धि की प्रक्रिया के सृजन हेतु आवश्यक है ।


6. न्यूनतम प्रयास हेतु निर्धारक (Determinants for a Minimum Effort):

लीबिंस्टीन के अनुसार– न्यूनतम प्रयास की आवश्यकता को निर्धरित करने वाले घटक निम्न बिन्दुओं से संबंधित है:

(1) उत्पादन के साधनों की अविभाज्यता के कारण उत्पन्न आंतरिक अमितव्ययिताएँ:

दूर करने के लिए आवश्यक न्यूनतम आकार में अधिक का विनियोग करना पड़ता है । एक बड़े देश के लिए मात्र यह घटक एक बड़ी बाधा नहीं माना गया ।

(2) बाहय अर्न्तनिर्भरता एवं संतुलित वृद्धि को प्राप्त करने से उत्पन्न वाहय अमितव्ययिताएँ:

लीबिंस्टीन के अनुसार की अर्न्तनिर्भरता बाहय मितव्ययिताओं को उत्पन्न करने का मुख्य स्त्रोत है । यदि कोई गम्मीर तकनीकी अविभाज्यताएँ उपस्थित नहीं है, तब संतुलित वृद्धि को विनियोग के किसी स्तर द्वारा प्राप्त किया जा सकता है । लेकिन यदि अविभाज्यताएँ विद्यमान है तब प्रारंभिक विनियोग की यथेष्ट मात्रा होनी आवश्यक है ।

(3) आय को सीमित करने वाली स्वायत एवं प्रेरित बाधाओं को दूर करने के लिए आवश्यक न्यूनतम मात्रा से अधिक का विनियोग आवश्यक है ।

(4) अर्द्धविकसित देशों में ऐसे सांस्कृतिक एवं संस्थागत घटक व दृष्टिकोण विद्द्यमान होते है जो आर्थिक विकास हेतु बाधाकारी होते है ।

आर्थिक वृद्धि निम्न दृष्टिकोणों में संवर्धन व प्रोत्साहन की आशा करती है:

(i) बाजार प्रेरणाएं अर्थात् लाभ की सुदढ़ प्रेरणा जिसके द्वारा मौद्रिक आय अधिकतम करने की इच्छा जागे ।

(ii) उपक्रम से संबंधित जोखिम को वहन करने की इच्छा ।

(iii) कौशल निर्माण एवं प्रशिक्षण सुविधाओं की वृद्धि ।

(iv) वैज्ञानिक व तकनीकी प्रगति को प्रोत्साहित करने की इच्छा ।

संक्षेप में, ऐसी विचारधारा एवं दृष्टिकोण को उत्पन्न करना आवश्यक है जिसमें बाजार की क्रियाओं के आधार पर सफलता को मापा जाए एवं कार्य के विवेक सम्मत दृष्टिकोण को अपनाया जाये । पुरातन मान्यताओं एवं दृष्टिकोण के स्थान पर विकास के प्रति धनात्मक दृष्टिकोण को स्थापित करने के लिए आवश्यक है कि एक व्यापक न्यूनतम प्रयास किया जाये ।

लीबिंस्टीन के अनुसार- जब विनियोग की समर्थ एवं विशेष मात्रा के द्वारा आर्थिक वृद्धि प्रोत्साहित होती है तब सृजन की प्रक्रिया आर्थिक प्रणाली में नए मूल्यों को मान्यता प्रदान करती है । इन नए मूल्यों को व्यक्तियों द्वारा अपनाया जाता है । आवश्यकता इस बात की है कि इसके लिए आवश्यक न्यूनतम प्रयास किए जाएँ ।


7. न्यूनतम प्रयास का वास्तविक आकार (Actual Size of Minimum Effort):

लीबिंस्टीन ने अपनी पुस्तक Economic Backwardness and Economic Growth, 1967 में न्यूनतम प्रयास के वास्तविक आकार का परिकलन करने का प्रयास किया । उन्होंने जीवन प्रत्याशाओं की वृद्धि दरों को बढ़ती हुई आय एवं जनन दरों से संबंधित करते हुए संकल्पनाएँ स्थापित कीं । लीबिंस्टीन ने 12 पूर्वानुमान प्रस्तुत किये ।

इनमें से प्रारंभिक 10 पूर्वानुमान अर्थव्यवस्था की जड़ता से संबंधित पूर्वानुमान, आर्थिक वृद्धि स्थिर जनन दर पूर्वानुमान एवं आर्थिक वृद्धि जनन दर ह्रास पूर्वानुमान है ।

लीबिंस्टीन ने न्यनूतम प्रयास के वास्तविक आकार को निर्धारित करते हुए दो घटकों को महत्वपूर्ण माना है:

(1) आवश्यक विनियोग की मात्रा ।

(2) पूंजी उत्पादन अनुपात ।

(1) आवश्यक विनियोग की मात्रा:

लीबिंस्टीन ने स्पष्ट किया कि न्यूनतम प्रयास हेतु आवश्यक विनियोग का प्रबंध देश में उपलब्ध साधनों के द्वारा होना यथेष्ट है । यदि साधनों की कमी पड़ती है तो विदेशी सहायता ली जा सकती है । विकास के आरंभिक स्तरों पर एक सीमा तक विदेशी सहायता पर आश्रित रहा जा सकता है ।

(2) पूँजी उत्पादन अनुपात:

लीबिंस्टीन के अनुसार- आवश्यक न्यूनतम प्रयास की सफलता से अविरल वृद्धि संभव बनती है जिसके परिणामस्वरूप पूँजी उत्पाद अनुपात में कमी आती है । लीबिंस्टीन पूँजी उत्पादन अनुपात (COR) को वृद्धि मान पूंजी उत्पादन अनुपात (ICOR) कहा । यह वह दर है जो विनियोग के पश्चात किसी अर्थव्यवस्था में एक वर्ग विशेष में शुद्ध राष्ट्रीय आय की वृद्धि द्वारा निरुपित होती है ।

आर्थिक वृद्धि के साथ वृद्धिमान पूँजी उत्पादन अनुपात के घटने के लिए आवश्यक है कि:

(i) श्रमिकों की कार्य कुशलता व उत्पादकता में वृद्धि हो ।

(ii) श्रमविभाजन एवं विशिष्टीकारण का विस्तार हो, प्रशिक्षित श्रम की मात्रा में वृद्धि हो ।

(iii) प्रति व्यक्ति एवं राष्ट्रिय आय में वृद्धि हो ।

(iv) व्यावसायिक संरचना में परिवर्तन हो ।

(v) मशीनों के प्रयोग में वृद्धि हो लेकिन भारी मशीनों की आवश्यकता कम पड़े ।

प्रो. लीबिंस्टीन ने काहन के सामाजिक सीमांत उत्पादकता मापदण्ड व नकर्से के पूँजी गहन विनियोग मात्रा को कम करने के विचार को स्वीकार नहीं किया । अर्द्धविकसित देशों के प्रसंग में लीबिंस्टीन के अनुसार- पहले पाँच वर्षों में जनसंख्या वृद्धि की दर के 2.03 होने व पूंजी उत्पाद अनुपात के 3:1 होने पर राष्ट्रीय आय को प्रतिवर्ष 13.2 प्रतिशत की दर से विनियोग करना पड़ेगा ।

आने वाले वर्षों में धीरे-धीरे इसे बढ़ाकर 15:72 प्रतिशत करना होगा । 25 से 30 वर्ष की अवधि में जनसंख्या वृद्धि की दर बढ़कर प्रतिशत हो जाती है जिसके अर्न्तगत पहले पाँच वर्षों में राष्ट्रीय आय का प्रतिशत भाग, अगले वर्षों में प्रतिशत एवं 50 से 55 वे वर्ष में प्रतिशत विनियोग करना होगा ।

अर्द्धविकसित देशों में बढ़ती हुई चिकित्सा सुविधाओं व चिकित्सा संबंधी शोध से मृत्यु दर में तीव्र कमी की प्रवृत्ति देखी गयी है । इन्हें ध्यान में रखते हुए लियोन्टीफ ने अपने प्रक्षेषण 6a में पूर्वानुमान किया कि प्रारंभिक 10 वर्षों की अवधि में जीवन प्रत्याशा में होने वाला 12 वर्ष का सुधार दूसरे पांच वर्षों की अवधि में होता है ।

प्रक्षेषण 6a एवं 6b में जनसंख्या की उच्च वृद्धि दरों को देखते हुए किए जाने वाले शुद्ध विनियोग की मात्रा भी अधिक होनी चाहिए । प्रक्षेषण 6a में लीबिंस्टीन ने स्पष्ट किया कि पूँजी उत्पादन अनुपात के 3:1 होने पर पहले 5 वर्षों में शुद्ध विनियोग 15.15 प्रतिशत से 15.84 प्रतिशत एवं 50 वे 55 वें वर्ष में 15.78 प्रतिशत होना चाहिए ।

आलोचनात्मक विश्लेषण (Critical Appraisal):

प्रो. हार्वे लीबिंस्टीन का आवश्यक न्यूनतम प्रयास विश्लेषण प्रो. रोजोक्टीन रोडान के प्रबल प्रयास विश्लेषण की तुलना में अधिक व्यावहारिक है । इसका कारण यह है कि अर्थिक वृद्धि हेतु अर्द्धविकसित देशों में प्रबल प्रयास के साथ एक बारगी विनियोग करना संभव नहीं होता, जबकि आवश्यक न्यूनतम प्रयास को विभिन्न भागों में अनुकूलता के साथ बाँटते हुए क्रियान्वित करना संभव है । आलोचकों के अनुसार, लीबिंस्टीन की व्याख्या कई सैद्वांतिक दुर्बलताओं एवं व्यावहारिक रूप से चरितार्थ न होने के कारण सीमित संदर्भों में ही उपयोगी है ।

आलोचना के मुख्य बिन्दु निम्न है:

i. जनसंख्या संबंधी विश्लेषण का अनुभव सिद्ध अवलोकन पर सत्य न होना:

लीबिंस्टीन ने आवश्यक न्यूनतम प्रयास विश्लेषण में संकल्पना ली कि जनसंख्या वृद्धि की दर का निर्धारण प्रति व्यक्ति आय के स्तर द्वारा होता है । अर्थात् प्रति व्यक्ति आय में होने वाली वृद्धि से प्रारंभ में मृत्यु दर कम होती है, जबकि जन्म दर में परिवर्तन नहीं होता । अत: जनसंख्या तेजी से बढ़ती है ।

पुन: प्रति व्यक्ति आय की वृद्धि से जन्म दर सीमित होती है जिससे जनसंख्या वृद्धि की दर भी कम हो जाती है । व्यवहारिक रुप से यह देखा गया कि अर्द्धविकसित देशों में मृत्यु दर का गिरना प्रति व्यक्ति आय में होने वाली वृद्धि से नहीं वरन् चिकित्सा सुविधाओं की वृद्धि से प्रभावित रहता है । कई ऐसे कम विकसित देश भी है जहां प्रति व्यक्ति आय के स्तर में विशेष वृद्धि हुए बिना जनसंख्या विस्फोट की दशाऐं देखी जा रही है ।

अर्द्धविकसित देशों में जम दर में कमी प्रति व्यक्ति आय की वृद्धि के फलस्वरूप होना आवश्यक नहीं है । इन देशों में जन्म दरों में होने वाली कमी प्रति व्यक्ति आय के स्तर से प्रभावित न होकर देश में प्रचलित रीति रिवाज, परम्परा, विचारधारा एवं दृष्टिकोण से प्रभावित होती है । लीबिंस्टीन के द्वारा जनवृद्धि की दर कम करने हेतु परिवार नियोजन कार्यक्रमों की भूमिका पर भी विचार नहीं किया गया ।

प्रो.एच. मिन्ट के अनुसार- लीबिंस्टीन की यह मान्यता दोषपूर्ण हैं कि 3 प्रतिशत से उच्च वृद्धि दर अविरल वृद्धि को संभव बनाती है ।

ii. प्रति व्यक्ति आय एवं वृद्धि दर के मध्य सम्बन्ध:

प्रो.एच. मिन्ट के अनुसार- प्रति व्यक्ति आय के स्तर एवं कुल आय में वृद्धि दर के मध्य फलनात्क संबंध इतना सरल नहीं है जैसा लीबिंस्टीन द्वारा स्पष्ट किया गया है । लीबिंस्टीन का मानना था कि प्रति व्यक्ति आय के उच्च होने पर अर्थव्यवस्था में बचत व विनियोग में वृद्धि होती है जिससे अधिक उत्पादन होता है व वृद्धि दरें उच्च हो जाती है ।

जबकि प्रो. मिन्ट का मानना है कि प्रति व्यक्ति आय के स्तर एवं बचत व विनियोग दर के मध्य के संबंध को आय के वितरण की संरचना एवं बचतों को गतिशील करने में वित्तीय संस्थाओं की सक्रियता जैसे घटकों के द्वारा संशोधित किया सकता है ।

लीबिंस्टीन ने माना कि विनियोग एवं इसके परिणामस्वरूप प्राप्त होने वाली उत्पादन स्थिर पूंजी अनुपात के दारा निर्धारित नहीं होता बल्कि उस सीमा पर निर्भर करता है जिस पर देश के उत्पादक संगठन में सुधार आ सकता है । देश की जनवृद्धि की दर में 3 प्रतिशत स्तर प्राप्त करने के बाद भी अतिरिक्त विनियोग के परिणामस्वरूप घटते हुए प्रतिफल की प्रवृत्तियों को रोकने के लिए कौन से भूमि बचत संबंधी नवप्रवर्तन किए जा रहे है ? इस पर ध्यान देना भी आवश्यक हो जाता है ।

iii. खुली अर्थव्यवस्था का विश्लेषण नहीं:

प्रो. लीबिंस्टीन का विश्लेषण बद अर्थव्यवस्था के संदर्भ में सत्य है । यह अर्द्धविकसित देशों में विदेशी पूजी के प्रभाव एवं आय, बचत व विनियोग के स्तरों पर पड़नें वाले बाहय प्रभावों को व्याख्या नहीं करता ।

iv. समय तत्व की अवहेलना:

लीबिंस्टीन के विश्लेषण में विकास हेतु किए जाने वाले निरंतर प्रयत्नों हेतु समय तत्व पर ध्यान नहीं दिया जाता जिसके अधीन स्वयं स्फूर्ति रब्रत्ट विकास की सफलता हेतु संस्थागत एवं उत्पादक ढांचे में आधारभूत परिवर्तन करने आवश्यक होते है ।

प्रो.एच. मिन्ट के अनुसार- हम यह प्रश्न उठा सकते है कि विकसित देशों में वृद्धि में वृद्धि के पूर्णत: विकसित इंजन की अल्पकालीन आर्थिक क्रिया में परिवर्तनों को स्पष्ट करने के प्रयोजन हेतु प्रतिपादित यह विश्लेषण अल्प विकसित देशों के आर्थिक विकास की समस्या जो स्वयं वृद्धि के इंजन के निर्माण से संबंधित है के अध्ययन में किस सीमा तक उपयोगी हो सकता है ।