मुक्त व्यापार और निर्यात संवर्धन के लिए भारत के प्रयास | India’s Efforts for Free Trade and Export Promotion in Hindi.

आज वैश्वीकरण का दौर चल रहा है । विश्व की अर्थव्यवस्था विश्व व्यापार संगठन के माध्यम से एक दूसरे से सबद्ध हो चुकी है । विश्व व्यापार संगठन (W.T.O.) में भारतीय भागीदारी के साथ ही भारत भी इसमें शामिल हो गया है । सम्पूर्ण विश्व अर्थव्यवस्था अब एक-दूसरे से सम्बद्ध हो रही है ।

विश्व व्यापार संगठन ने मुक्त-व्यापार का पक्ष लिया है, जिसमें सभी भागीदार देशों को आर्थिक लाभ मिलते हैं । यह लाभ तभी संभव हैं जब देश में निर्यात संवर्द्धन हेतु प्रयास किए जाएँ । अतः प्रत्येक देश अपने उत्पादों के विशेषीकरण व निर्यात संवर्द्धन के प्रयास कर रहे हैं, ताकि व्यापार संतुलन पक्ष में रखा जा सके । इस हेतु भारत में निम्न प्रयास किए गए हैं ।

मुक्त व्यापार क्षेत्र (F.T.A.):

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ये विशेष रूप से तैयार किए गए ऐसे क्षेत्र हैं, जहाँ उत्पादों का प्रसंस्करण तथा उनका पारगमन करों व विभिन्न शुल्कों एवं सुनिश्चित नियमों के बिना किया जा सकता है । स्वतंत्र बन्दरगाहों को भी समान दर्जा दिया गया है ।

इस प्रकार इन्हें रोजगार, स्वास्थ्य, सुरक्षा एवं विकास नियोजन के सम्बंध में देश के शेष भागों में लागू कानून से छूट प्रदान की जाती है । तात्पर्य यह है कि मुक्त व्यापार क्षेत्र, देश की सीमा शुल्क प्रदेश से बाहर माने जाते हैं । पनवेल (मुंबई) में अर्शिया इंटरनेशनल ने देश का ‘पहला फ्री ट्रेड एंड वेयरहाउसिंग जोन’ अगस्त, 2010 शुरु किया ।

निर्यात संवर्द्धन क्षेत्र (E.P.Z.):

1980 के दशक से ही भारत में निर्यात संवर्द्धन क्षेत्रों (ईपीजेड) का विकास हुआ है । ये घरेलू प्रशुल्क क्षेत्र से अलग विशिष्ट परिसरों के रूप में स्थापित किए गए हैं जो अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्द्धी एवं शुल्क मुक्त वातावरण उपलब्ध कराते हैं ।

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यहाँ पर लागत को निम्न रखने का प्रयास किया जाता है तथा उच्च गुणवत्ता वाले प्रतिस्पर्द्धी व श्रेष्ठ उत्पाद तैयार किए जाते हैं, ताकि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हम लाभ की स्थिति में रहें । 1980 के दशक के प्रारंभ से ही हम इस दिशा में प्रयासरत हैं ।

कांडला (गुजरात), नोएडा (उत्तर प्रदेश), फाल्टा (पश्चिम बंगाल), सांताक्रुज (मुम्बई), कोच्चि (केरल), चेन्नई (तमिलनाडु) व विशाखापत्तनम (आंध्र प्रदेश) भारत के कुछ प्रमुख निर्यात प्रसंस्करण क्षेत्र हैं । सान्ताक्रुज-इलेक्ट्रॉनिक वस्तुएँ, रत्न व आभूषण का निर्यात करता है । इसी प्रकार तिरूनेलवेली (सूती वस्त्र), कांचीपुरम (रेशम), सूरत (वस्त्र व आभूषण) आदि का निर्यात करते हैं ।

वस्तुतः निर्यात प्रसंस्करण क्षेत्रों में इलेक्ट्रॉनिक्स, इंजीनियरिंग, रसायन-उत्पाद, आभूषण, वस्त्र, रबड़ व प्लास्टिक उत्पादों के निर्यात पर ध्यान दिया जाता है । इन निर्यात प्रसंस्करण क्षेत्रों के अलावा निर्यातोन्मुखी इकाइयों पर भी ध्यान दिया गया है, जो कपड़ा, खाद्य-प्रसंस्करण, ग्रेनाइट स्लैब, इलेक्ट्रॉनिक्स व खनिजों का निर्यात भी करते हैं ।

इन निर्यात संवर्द्धन क्षेत्रों में बेहतर आधारभूत संरचना, भूमि, जल व ऊर्जा आपूर्ति एवं बिना किसी अतिरिक्त वसूली के सीमा-शुल्क सम्बंधी औपचारिकताएँ पूरी कराई जाती हैं । वर्तमान समय में निजी क्षेत्रों को इस क्षेत्र में विशेष प्रोत्साहन दिया गया है ।

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सूरत, मुम्बई, ग्रेटर नोएडा, कांचीपुरम, नानगुनेरी (तमिलनाडु), पोसित्रा (गुजरात), काल्पी (पश्चिम बंगाल), पारादीप (ओडिशा), भदोही (उत्तर प्रदेश), काकीनाड़ा (आंध्र प्रदेश), द्रोणगिरी (महाराष्ट्र) इसके उदाहरण हैं । इनमें निजी निवेशकों के साथ-साथ अनिवासी भारतीयों को भी प्रोत्साहन दिया गया ।

विशेष आर्थिक क्षेत्र (S.E.Z.):

वैश्वीकरण, उदारीकरण व निजीकरण (LPG) के दौर में निर्यात संवर्द्धन क्षेत्रों (ईपीजेड) को चीनी मॉडल का अनुसरण करते हुए विशेष आर्थिक क्षेत्र (एसईजेड) का दर्जा दिया जा रहा है । भारत ने चीन की तर्ज पर विशेष आर्थिक क्षेत्रों को द्वितीय औद्योगीकरण का आधार बनाना चाहा है ।

इसके लिए नए-नए क्षेत्रों में संभावनाएँ ढूंढी जा रही हैं तथा अब तक इससे सम्बंधित 580 से भी अधिक प्रस्तावों को औपचारिक अनुमति दी गई है ।

विशेष आर्थिक क्षेत्र देश की भौगोलिक सीमा के अन्दर स्थित ऐसा ‘शुल्क मुक्त’ (Duty Free) क्षेत्र है, जिसे व्यापार संचालन, शुल्क एवं प्रशुल्कों की दृष्टि से विदेशी क्षेत्रों के समान माना जाता है, जो सामान्य रूप से निवेशकों को आकर्षित करने के लिए उदार आर्थिक नीतियों एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर के आधारभूत सुविधाओं एवं आवश्यकताओं से सम्पन्न होता है ।

चीन ने 1978, में प्रथम विशेष आर्थिक क्षेत्र का विकास किया था जिसके तर्ज पर भारत सरकार द्वारा अप्रैल, 2000 में विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) नीति की घोषणा की गई, जिसमें विशेष आर्थिक क्षेत्रों को विकास का ईंजन बनाना प्रमुख लक्ष्य रखा गया । इसमें विश्व स्तरीय आधारभूत संरचना के विकास, नियम व प्रतिबंधों की कमी, बेहतर राजकोषीय सुविधाएँ आदि का प्रावधान किया गया ।

सभी निर्यात संवर्द्धन क्षेत्रों को विशेष आर्थिक क्षेत्रों में बदल दिया गया । सेज नीति को प्रभावी बनाने के लिए इससे सम्बंधित अधिनियम फरवरी, 2006 में लागू हो गया है । त्वरित निर्णय हेतु ‘सिंगल विन्डो क्लियरेंस’ की व्यवस्था की गई है ।

यह माना गया कि सेज से देश से नवीन आर्थिक गतिविधियों का सृजन होगा, जिससे बड़े पैमाने पर रोजगार के अवसरों को उपलब्ध कराना संभव होगा । देश में नए निवेशों को बढ़ावा मिलेगा, विदेशी भागीदारी बढ़ेगी, वस्तु व सेवाओं के निर्यात को प्रोत्साहन मिलेगा । इस प्रकार, देश विकसित बनने की प्रक्रिया में आगे बढ़ता चला जाएगा ।

विशेष आर्थिक क्षेत्र से सम्बंधित नीति में औद्योगिक विकास व निर्यात संवर्द्धन में तालमेल बैठाने के प्रयास हो रहे हैं । इसमें सेज के विकासकर्ता व निगमों के हितों पर ध्यान देने के साथ-साथ प्रतिस्पर्द्धी अर्थव्यवस्था के विकास हेतु हरसंभव प्रयास किए जा रहे हैं ।

विशेष आर्थिक क्षेत्र के लिए भूमि के एक बड़ी मात्रा उपलब्ध कराई जाती है, ताकि क्षेत्र विशेष में बड़े पैमाने पर औद्योगीकरण को बढ़ावा मिल सके एवं हमारे उत्पाद विश्व के बाजारों में अधिक प्रतिस्पर्धी हो सके ।

इससे भारत के विभिन्न हिस्सों में जहाँ एक ओर वृहद स्तर पर रोजगार के अवसरों को उत्पन्न किया जा सकेगा, वहीं दूसरी ओर औद्योगीकरण की इस प्रक्रिया से हम विकसित देश बनने की ओर अग्रसर हो सकेंगे ।

वर्तमान समय में विशेष आर्थिक क्षेत्रों के लिए स्वीकृत किए गए क्षेत्रों की सर्वाधिक संख्या महाराष्ट्र में हैं । उसके बाद क्रमशः आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक, गुजरात व हरियाणा का स्थान आता है । राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश व बिहार जैसे राज्यों में विशेष आर्थिक क्षेत्रों के विकास की दिशा में प्रगति संतोषजनक नहीं है ।

हाल ही में प. बंगाल में सिंगूर व नंदीग्राम में सेज के विवादग्रस्त होने से इसके बारे में एक बहस छिड़ गई है । जहाँ सिंगूर में टाटा का नैनो कार बनना था, वहीं नंदीग्राम में इंडोनेशिया के सलेम ग्रुप द्वारा केमिकल प्लांट लगाने की योजना थी । परंतु कृषि भूमि अधिग्रहण के मसले को लेकर यहाँ सेज काफी विवादग्रस्त हो गया ।

भारत के कुछ प्रमुख विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) फाल्टा (पश्चिम बंगाल), नोएडा (उत्तर प्रदेश), कांडला व सूरत (गुजरात), सांताक्रुज (मुंबई), कोच्चि (केरल), चेन्नई (तमिलनाडु), विशाखापत्तनम् (आंध्र प्रदेश), दिब्बीज लेबोरेटरी (आंध्र प्रदेश), हैदराबाद जेम्स लिमिटेड, महिंद्रा वर्ल्ड सिटी (महाराष्ट्र), कोल्लम टेस्नोपार्क (केरल), नोकिया व फ्लैक्ट्रॉनिक्स सेज (तमिलनाडु), विप्रो लिमिटेड व बाइफोन लिमिटेड (कर्नाटक), क्वार्क सिटी (चंडीगढ़), मूंदड़ा बंदरगाह सेज (गुजरात), रिलायंस जामनगर इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड (गुजरात), सेरम बायोफार्मा लिमिटेड व एअरपोर्ट डेवलपमेन्ट कॉरपोरेशन लिमिटेड (महाराष्ट्र), राजीव गांधी प्रौद्योगिकी उद्यान एवं मोटोरोला, डेल व फॉक्सकॉन और अपाचे (आंध्र प्रदेश), सेज आदि हैं ।

नेल्लौर (आंध्र प्रदेश) में उर्वरक सहकारी कंपनी द्वारा देश का पहला किसान विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) की स्थापना किए जाने की योजना है । हाडापसर (पुणे) में पहला ‘बायोटिक विशेष आर्थिक क्षेत्र’ निर्मित हो रहा है । हरियाणा के फरीदाबाद में देश का पहला ‘ग्रीन एसईजेड’ बनाया जा रहा है ।

यद्यपि विशेष आर्थिक क्षेत्रों को भारतीय औद्योगिक व आर्थिक विकास का ईंजन माना जाता है, परंतु सरकारी स्तर पर इसके ठीक से संचालन न होने की वजह से यह अनेक राजनीतिक व आर्थिक विवादों में घिर गया है । इस संदर्भ में सिंगूर व नंदीग्राम का उदाहरण लिया जा सकता है, जहाँ हिंसात्मक घटनाएं भी हुई तथा भूमि अधिग्रहण की समस्या ने राजनीतिक रंग ले लिया ।

वस्तुतः विशेष आर्थिक क्षेत्र से जुड़ी सबसे गंभीर समस्या भूमि अधिग्रहण से ही सम्बंधित है । वर्तमान समय में सेज के लिए भूमि की अधिकतम सीमा 5,000 हेक्टेयर की है । इसे भारत सरकार ने बहुउत्पादीय विशेष आर्थिक क्षेत्र के लिए 10,000 हेक्टेयर किए जाने पर विचार किया जा रहा है ।

यद्यपि यह प्रावधान है, कि सेज स्थापित करने वाली इकाई बाजार दर पर किसानों से भूमि खरीद सकती है, परंतु राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया बहस का मुद्दा बन गई है ।

भारत में संस्थागत कारक विशेषकर भूमि सुधार के पहलू इस संदर्भ में विवाद के कारण हैं । उदाहरण के लिए, पश्चिम बंगाल में जमींदारी बंदोबस्त रहा है, जहाँ भू-स्वामी व काश्तकार (किसान) अलग-अलग हैं ।

टाटा प्रबंधन ने भूमि अधिग्रहण हेतु मुआवजा भू-स्वामियों को दिया । इसमें पंजीकृत व अपंजीकृत बंटाईदार (काश्तकार) व खेतीहर मजदूरों के हितों का ध्यान नहीं रखा गया, इसीलिए वहाँ गंभीर समस्या उत्पन्न हो गई । अतः मुआवजा देने के क्रम में वास्तविक किसानों के हितों को ध्यान में रखा जाना भी जरूरी है ।

पर्याप्त मुआवजा, विस्थापितों के पुनर्वास व पुनर्सेजगार, विशेष आर्थिक क्षेत्र में स्थापित उपक्रमों में उनकी शेयर होल्डिंग की व्यवस्था, बाजार आधारित प्रतिस्पर्द्धा आदि उपरोक्त समस्याओं के समाधान हो सकते हैं । इस हेतु भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया को पारदर्शी, स्पष्ट व सकारात्मक बनाया जाना जरूरी है ।

विशेष आर्थिक क्षेत्रों के निर्माण के क्रम में यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि कृषि भूमि का यथासंभव कम से कम अधिग्रहण हो अन्यथा देश की बढ़ती जनसंख्या के लिए जरूरी खाद्य सुरक्षा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकते हैं । कई कंपनियाँ केवल कर रियायतों का लाभ उठाने के लिए अपनी इकाइयों को सेज में स्थानांतरित कर रही है ।

इससे बेहतर अधारभूत संरचना क्षेत्र में और विकास बढ़ेगा व क्षेत्रीय असमानताएं बढ़ेगी । अतः इस प्रवृति को कम किया जाना जरूरी है । भारत ने सेज मामले में चीन की सफलता को दोहराने की कोशिश की है, परंतु चीन में विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) बड़े शहरों से काफी दूर छोटे कस्बों व गाँव में विकसित किए गए ताकि वहाँ भी आधुनिक सुविधाएं विकसित हो सके तथा विकास का विकेन्द्रीकरण संभव हो सके ।

इसके विपरीत भारत में अधिकतर सेज महानगरों के निकट स्थापित हो रहे हैं । स्पष्ट है कि विशेष आर्थिक क्षेत्रों में केवल कर रियायत व श्रम कानून में उदारता लाकर ही सरकार को संतोष नहीं करना चाहिए, वरन् उन्हें भेदभाव से दूर रखकर संपूर्ण विकास का साधन बनाना चाहिए ।

इसके लिए स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा, अभिनव विधियों के प्रयोग एवं अंतर्राष्ट्रीय सहयोग बढ़ाने पर बल देना जरूरी है, ताकि विशेष आर्थिक क्षेत्र बाजार मैत्रीपूर्ण, सुधार-मैत्रीपूर्ण व समग्र विकास में सहायक बनकर उभर सकें । इन्हीं सब प्रयासों से सेज चीन की भांति भारत के भी आर्थिक विकास का उत्परक हो सकेगा तथा देश के औद्योगीकरण की प्रक्रिया को बढ़ावा देगा, जिससे हम 21वीं सदी में विकसित देश बनने का गौरव हासिल कर सकेंगे ।

कृषि निर्यात क्षेत्र (A.E.Z.):

विशेष आर्थिक क्षेत्र व निर्यात प्रसंस्करण क्षेत्र के अलावा कृषि उत्पादों से सम्बंधित कृषि निर्यात क्षेत्र (A.E.Z.) भी बनाए जा रहे हैं । कृषि निर्यात क्षेत्र किसी देश का वह विशेषीकृत भौगोलिक क्षेत्र होता है, जो कृषि और उससे सम्बद्ध उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए स्थापित किया जाता है ताकि वहाँ के कृषकों को वैश्वीकरण का लाभ मिल सके । ताइवान के कुल निर्यात का 6% एईजेड से ही प्राप्त होता है ।

भारत में और भी बेहतर संभावनाएँ हैं । इस संदर्भ में तिरुचरापल्ली में फूलों की खेती, उत्तराखंड का अल्मोड़ा व दून घाटी में लीची के लिए, मध्यवर्ती उत्तर प्रदेश आम के बगीचे, पंजाब में आलू व जालंधर, लुधियाना आदि क्षेत्रों में कृषि आर्थिक क्षेत्र बनाए गए ।

पश्चिम बंगाल में अनानास की खेती हेतु कूच-बिहार व सिलीगुड़ी, पंजाब में सब्जी की खेती, महाराष्ट्र में अंगूर (नागपुर, नासिक) की खेती, के विकास हेतु प्रयास हुए हैं । कृषि आधारित पदार्थों के निर्यात की पर्याप्त संभावनाएँ हैं ।

बागानी कृषि के विकास एवं उत्पादों के निर्यात के द्वारा भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था में गत्यात्मक परिवर्तन लाए जा सकते हैं तथा वैश्वीकरण के लाभ को अधिक समानता से वितरित किया जा सकता है ।

देश में कृषि निर्यात क्षेत्रों (A.E.Z.) को विशेष आर्थिक क्षेत्र (S.E.Z.) के फेर में बिल्कुल अनदेखा किया जा रहा है, जबकि कृषि निर्यात क्षेत्र के शानदार प्रदर्शन को देखते हुए विशेषज्ञ इसमें किए गए निवेश को विशेष आर्थिक क्षेत्र से ज्यादा फायदेमंद और विकास की कुंजी बता रहे हैं ।

परंतु पिछले 5 वर्षों में बीस राज्यों में कुल मिलाकर 60 ही कृषि निर्यात क्षेत्र बनाए गए हैं, जबकि इसकी योजना 2001 में ही बन गई थी । आज विशेष आर्थिक क्षेत्र को विकास का इंजन माना जा रहा है तथा इससे सम्बंधित परियोजनाएँ लगभग 500 हैं ।

लेकिन, विशेषज्ञों की शिकायत यह है कि कृषि को प्राथमिकता दिए जाने के बावजूद कृषि निर्यात क्षेत्र उपेक्षित हो रहे हैं तथा इनमें अपेक्षा से आधा निवेश भी नहीं हुआ है, जो भारत जैसे कृषि प्रधान देश के लिए शुभ संकेत नहीं है ।

मुक्त व्यापार की स्थिति में निर्यात संवर्द्धन के विविध प्रयास आज के वैश्वीकरण के दौर में भारतीय व्यापार संतुलन हेतु अपरिहार्य हैं । अतः इनके आधुनिकीकरण एवं विभिन्न प्रकार से इन्हें प्रोत्साहन दिए जाने की आवश्यकता है, ताकि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हम अधिक प्रतिस्पर्द्धी हो सकें ।

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