उत्पादन के लिए तकनीक का विकल्प: 3 दृष्टिकोण | Read this article in Hindi to learn about the the three main approaches for choice of technique for production in underdeveloped countries. The approaches are:- 1. परम्परागत मार्ग (The Traditional Approach) 2. मारिस डॉब की अवधारणा (Maurice Dobb’s Approach) 3. ए. के. सेन का मार्ग (A.K. Sen’s Approach).

तकनीकों के चुनाव की समस्याओं के तीन मार्ग हैं, जिन पर नीचे विचार किया गया है:

(1) परम्परागत मार्ग (The Traditional Approach):

निजी उद्यम वाली अर्थव्यवस्था के सन्दर्भ में, परम्परागत व्यष्टि सिद्धान्त इस तथ्य की ओर ध्यान केन्द्रित करता है कि अपने लाभों को उच्चतम बनाने की इच्छा रखने वाला कोई भी उद्यमी उत्पादन की उस विधि का चुनाव करेगा जो उत्पादन की लागत को न्यूनतम बनाती है ।

जब श्रम का आद्यिक्य तथा पूँजी की दुर्लभता हो, तो कारक संयोग उत्पादन की लागत को न्यूनतम बना देंगे । इस स्थिति में, सस्ते कारकों का भारी मात्रा में तथा दुर्लभ कारकों का सापेक्ष रूप में कम प्रयोग होता है । अत: यह कल्पना करते हुये कि उत्पादन के लिये सस्ते श्रम की बहुलता है, श्रम गहन तकनीक का प्रयोग किया जायेगा ।

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इससे लाभ और उत्पादन अधिकतम हो जायेंगे । स्पष्ट है कि इससे तकनीकों का चुनाव निर्धारित होगा । समष्टि स्तर पर, आयोजित विकास के लिये इस तकनीक को विवेकपूर्ण माना जाता है । उत्पादन के दुर्लभ कारक अर्थात् पूँजी से उत्पादन को अधिकतम बनाने के लिये स्पष्ट तकनीक को अपनाया जा सकता है ।

दुर्लभ साधन के उपयोग का कम व्यय करने के लिये ऐसे निवेश करने चाहिये जहां उत्पादन पूँजी अनुपात अधिकतम है अथवा पूँजी उत्पाद अनुपात न्यूनतम है ।

अत: साधनों के भण्डार तकनीक के चयन को निर्धारित करते हैं । इस अवधारणा को आगे परिशुद्ध किया गया है क्योंकि उत्पादन का छाया मूल्यों पर मूल्यांकन किया जाना चाहिये तथा निवेश के अन्य परिणामों के लिये जैसे बाहरी अर्थव्यवस्था के प्रभावों तथा पूरक क्रियाओं के लिये इसका ठीक प्रकार से समायोजन किया जाना चाहिये ताकि निवेश पर सामाजिक प्रतिफल का अनुमान लगाया जा सके ।

अत: निवेश वहां किया जाना चाहिये जहां पर पूँजी पर सामाजिक प्रतिफल अधिकतम हो । तकनीकों के चुनाव के साधन निधि सिद्धान्त की सबसे बड़ी त्रुटि यह है कि यह आर्थिक वृद्धि की गतिशील समस्या से निपटने के लिये एक स्थैतिक संरचना को अपनाता है ।

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यह मार्ग, साधनों के प्रयोग में कालपर्यन्त इष्टतम वृद्धि मार्ग के स्थान पर साधनों के कुशल उपयोग पर अधिक बल देती है । इसके अतिरिक्त, तकनीक के चयन पर अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर को तीव्र करने के साधन के रूप में विचार नहीं किया जाता । दीर्घकालिक आयोजन में यह मार्ग उचित नहीं है ।

(2) मारिस डॉब की अवधारणा (Maurice Dobb’s Approach):

हम इस विचार से अवगत हैं कि दीर्घकालिक आर्थिक वृद्धि मुख्यता आयोजन का उद्देश्य है । हाल ही में, तकनीक के चुनाव को लक्ष्य की प्राप्ति के लिये उपयोगी बनाया जा रहा है । वृद्धि की दर पर इसके प्रभाव को ध्यान में रखते हुये मारिस डॉब की तकनीक के चयन को अपनाया जाना चाहिये ।

इस प्रकार डॉब निवेश आयोजन में गेल्नसन-लेबेनस्टीन MRQ कसौटी का अनुकरण करते हैं । यह इस बात का वर्णन करते हैं कि एक विशेष परियोजना में निवेश द्वारा कितनी बचत अथवा पुनर्निवेश प्राप्त किये जा सकते हैं । एक आयोजित अर्थव्यवस्था में सरकारी नीति द्वारा बचतें उत्पन्न की जा सकती हैं । यहां वही ”यथार्थ” है जैसे कि अर्थव्यवस्था में वृद्धि दर वित्तीय बाधाओं के विरुद्ध है ।

अल्पविकसित देशों में यह ”यथार्थ” बाधाएं है:

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(i) मजदूरी वस्तुओं (जैसे आहार) का अतिरेक जो निवेश वस्तुओं के उद्योगों में श्रमिकों की उपभोग आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये उपलब्ध हो जाता है और

(ii) निवेश वस्तुओं के उद्योगों में उपलब्ध उत्पादन क्षमता ।

उपरोक्त दोनों प्रकरणों में श्रम गहन तकनीक उपयुक्त नहीं है क्योंकि ऐसी तकनीकों की निम्न श्रम उत्पादकता उपरोक्त दोनों प्रतिबन्धों को तीव्र करती है । एक श्रम गहन तकनीक मजदूरी वस्तुओं के अतिरेक को निम्न निवेश तक उपलब्ध रखेगी ।

क्योंकि श्रम का कम उत्पादन कठिनता से इस क्षेत्र की आवश्यकताओं को पूरा करता है । इस प्रकार, निवेश वस्तुओं के उद्योग में, श्रम-गहन तकनीकों द्वारा अधिक क्षमता का निर्माण कठिन होगा ।

मॉरिस डॉब कहते हैं कि पूँजी प्रवणता को अनिश्चित रूप में नहीं बढ़ाया जाना चाहिये । पूँजी प्रवणता को उसी सीमा तक बढ़ाया जाता है- जहां पूँजीगत साज-सामान की अतिरिक्त लागत, इन मशीनों से प्राप्त अतिरिक्त लाभ के बराबर है । इस अवस्था को इष्टतम पूँजी प्रवणता कहा जा सकता है ।

डॉब का यह मत भी है कि लघुकाल में तकनीक का ऐसा चुनाव उपभोग एवं रोजगार की वृद्धि के साथ संघर्ष में आयेगा । दीर्घकाल में पूँजी गहन तकनीकें पूँजी निर्माण के उच्च दर द्वारा निरपेक्ष उपभोग तथा रोजगार की तीव्र दर को सुनिश्चित करेंगी ।

इसलिये मॉरिस डॉब का दृढ़ कथन है कि पूँजी गहन तकनीकें दीर्घकालिक वृद्धि, उपभोग और रोजगार प्राप्त कर सकती हैं । तथापि हमें याद रखना चाहिये कि आनुभविक प्रमाण इस सिद्धान्त का समर्थन नहीं करते कि पूँजी गहन तकनीकें दीर्घकाल में अधिक निरपेक्ष रोजगार की रचना में सहायक होगें ।

(3) ए. के. सेन का मार्ग (A.K. Sen’s Approach):

ए. के. सेन तकनीक के चयन का प्रयोग निवेश आयोजन के लिये चुनी गई कसौटी के लिये करते हैं ।

 

उसके सरल मॉडल में अर्थव्यवस्था को दो भागों में विभाजित किया जाता है:

(a) पूर्व-पूँजीपति, परिवार आधारित कृषि क्षेत्र जहां बड़े स्तर पर खुली एवं छुपी हुई बेरोजगारी है,

(b) राज्य के स्वामित्व वाला विकसित क्षेत्र । तकनीकों के चुनाव की समस्या पश्चात-कथित क्षेत्र से सम्बन्धित है ।

क्षेत्र (a) केवल कहे जाने के लिये है । आरम्भ में, सरकार की निवेश क्षमता उपभोग पर उत्पादन के अतिरेक द्वारा सीमित है जो क्षेत्र (b) में उत्पन्न किया जा सकता है । यदि अतिरेक रहता है, तो सरकार इसे कराधान आदि द्वारा निवेश के लिये गतिशील कर सकती है ।

मुख्य प्रश्न यह है कि इसे कैसे निवेश किया जाये । क्षेत्र (a) को दो विभागों में बांटा जाता है- विभाग I पूँजी वस्तुएं बनाता है तथा विभाग II अनाज का उत्पादन करता है जिसे मात्र एक उपभोक्ता वस्तु माना जाता है । सेन ने एक मात्रा उपभोक्ता वस्तु की इस मान्यता को त्याग दिया ।

मान्यताएं (Assumption):

यह सरल मॉडल निम्नलिखित मान्यताओं पर आधारित है, जिनमें से कुछ को बाद में नरम कर दिया गया ।

मुख्य मान्यताएं है:

(i) पूँजी वस्तुएं जो एक बार उत्पादित कर दी जाती है निरन्तर रहती है तथा केवल श्रम द्वारा उत्पादित की जाती है ।

(ii) उत्पादन के केवल दो कारक हैं- श्रम एवं स्थिर पूँजी ।

(iii) परिमाप के स्थिर प्रतिफल प्रयोज्य हैं ।

(iv) वैकल्पिक तकनीकों में उत्पादन काल एक समान है ।

(v) समय की प्रति इकाई के लिये वास्तविक मजदूरी दर सभी तकनीकों के लिये समान है तथा पर्यन्तकाल में स्थिर रहता है ।

(vi) वेतन अर्जन करने वाले अपनी सम्पूर्ण आय का उपयोग कर लेते हैं तथा वेतन अर्जन न करने वाले इसका पूर्ण रूप में पुनर्निवेश कर देते हैं ।

(vii) अधिकाल में प्रौद्योगिकीय ज्ञान में कोई उन्नति नहीं होती ।

(viii) क्षेत्र (b) में बेरोजगारी के कारण क्षेत्र (a) को श्रम की पूर्ति निर्वाह योग्य वेतन पर पूर्णत: लोचपूर्ण होती है ।

व्याख्या (Explanation):

अब उत्पादन की दो वैकल्पिक तकनीकों H और L में से चुनाव की समस्या है । पूर्व-कथित की पूँजी प्रवणता पश्चात कथित से अधिक है । सेन कहते हैं कि पूँजी-प्रवणता विभाग I में आवश्यक श्रम वर्षों की संख्या है जो विभाग II में अतिरिक्त श्रमिक की नियुक्ति के लिये पर्याप्त स्थिर पूँजी उत्पादित कर सके ।

मॉडल L तकनीक के लिये निम्नलिखित संकेतों का प्रयोग करता है, सदृश उत्कृष्ट संकेत H तकनीक के लिये प्रयोग किये जाते हैं:

W = वास्तविक वेतन दर प्रति अवधि ।

C = क्षेत्र (a) में अनाज का कुल उत्पादन ।

Pc = क्षेत्र (a) के विभाग II में प्रतिश्रमिक प्रति अवधि उत्पादकता ।

a = पूँजी प्रवणता जैसे कि ऊपर परिभाषित की गई है ।

Lc = विभाग II में नियुक्त श्रमिकों की संख्या ।

Li = विभाग I में नियुक्त श्रमिकों की संख्या ।

Wc = क्षेत्र (a) के विभाग II का कुल वेतन बिल ।

क्षेत्र (a) के विभाग I में रोजगार विभाग II में किसी समय में उत्पादित अतिरेक राशि जमा क्षेत्र (b) से उपलब्ध किसी भी अतिरेक पर निर्भर करता है । अत: L और H तकनीकों में से चुनाव निवेश आयोजन के योजना निर्माताओं द्वारा प्रस्तावित निवेश कसौटी पर निर्भर करता है ।

कल्पना करें कि कसौटी जे.जे.पोलक और एन.एस.बुचानन की कुल बिक्री पूँजी की कसौटी है । यह उत्पादन से पूँजी के अनुपात को अधिकतम बनाने का लक्ष्य रखती है । वैकल्पिक रुप से कल्पना करें कि आयोजन का लक्ष्य वर्तमान निवेश से वर्तमान उत्पादन को अधिकतम बनाना है ।

इस स्थिति में L और H तकनीकों के बीच चयन का निर्धारण सेन के मॉडल में शर्त I द्वारा किया जाता है । यह वर्णन करता है कि तकनीक L तकनीक H के स्थान पर किये गये निवेश से अनाज उत्पादन की एक बड़ी, समान अथवा छोटी मात्रा पहले काल में मौसम पर निर्भर करते हुये उपलब्ध कराती है ।

तथापि, यह आवश्यक नहीं, कि एक तकनीक जो पहली अवधि में एक उच्च कुल उत्पादन देती है वह आने वाले समय में भी उच्च उत्पादन देती रहेगी । अत: भविष्य का उत्पादन इस बात पर निर्भर करेगा कि विभाग II से कितना अतिरेक विभाग I में पुनर्निवेशित किया जाता है ।

इस प्रकार शर्त I केवल वर्तमान काल से सम्बन्धित है । ए.इ. खान और एच. बी. चेनरया ने एक अन्य निवेश कसौटी प्रस्तुत भी की है इसे सामाजिक सीमान्त उत्पादकता कसौटी कहा जाता है ।

इस कसौटी के अनुसार- पूँजी की सामाजिक सीमान्त उत्पादकता का अधिकतमीकरण किया जाना चाहिये, किसी विशेष परियोजना की सामाजिक सीमान्त उत्पादकता का परिकलन करने के लिये हम परियोजना के उत्पादन में ”जोड़े गए मूल्य” से सामाजिक अवसर लागत घटाते हैं अर्थात सम्बन्धित परियोजना से रोजगार के लिये वापस गये श्रम के परिणामस्वरूप अन्य खोया गया वैकल्पिक उत्पादन I

सेन के मॉडल में, मान्यता के अनुसार श्रम की सामाजिक अवसर लागत शून्य है (क्षेत्र S में श्रम की बेरोजगारी के कारण तथा वहां श्रम की सीमान्त उत्पादकता शून्य होने के कारण) ।

यहां सामाजिक सीमान्त उत्पादकता और पूँजी कुल बिक्री कसौटी अक्समात् मेल खाते है । इसलिये उस तकनीक को वरोयता दी जायेगी जो अनुपात Pc/a को अधिकतम बनाती है । एक अन्य निवेश कसौटी है ‘गेलेनसन-लीबेनस्टेन पुनर्निवेश लब्धि कसौटी’ जिस के मॉरिस डॉब भी समर्थक हैं ।

निवेश कसौटी के अनुसार- तकनीक के चुनाव का निर्धारण सेन की विधि की शर्त 2 के सन्दर्भ में है । इसमें वर्णित है कि तकनीक L तकनीक H से एक बड़ी समान अथवा छोटी अतिरेक दर अथवा पुनर्निवेश पर निर्भर करते हुये उपलब्ध करती है ।

जहाँ (Pc – W) क्षेत्र A के विभाग II में प्रति श्रमिक पुनर्निवेश के लिये अतिरेक अनाज उपलब्ध है । यह अतिरेक बनाता है जिसे फिर पुनर्निवेश के लिये प्रयोग किया जा सकता है । इस तथ्य को रेखा चित्र 9.3 की सहायता द्वारा समझाया जा सकता है ।

रेखा चित्र में हमने विभाग I से उपलब्ध पूँजी को निश्चित राशि के परिणामस्वरूप क्षैतिज अक्ष पर विभाग II(Lc) में उत्पन्न अतिरिक्त रोजगार का माप किया जैसा कि दक्षिण की ओर नीचे के OL के साथ दिखाया गया है (यह अनाज के आरम्भिक अतिरेक S, पर निर्भर करता है तथा S/W द्वारा निर्धारित किया जाता है) उर्ध्व अक्ष पर विभाग II में उत्पादित अतिरिक्त उत्पादन C मापा गया है ।

जब नियुक्त श्रम की विविध मात्राओं के साथ पूँजी की आरम्भिक राशि का प्रयोग किया जाता है (अर्थात जब एक स्थिर कारक को परिवर्तनशील कारक के साथ मिश्रित किया जाता है) हमें परिणामित कुल उत्पाद प्राप्त होता है जैसा कि वक्र Q द्वारा दिखाया गया है ।

OW कुल मजदूरी वक्र है जो पहले दी गई मान्यता कि मजदूरी दर रोजगार के सभी दरों पर स्थिर रहती है, के आधार पर खींची गया है । ∠Wc, OLc, द्वारा दिया गया वेतन दर स्थिर है । कोण OBI और OAL पूर्वी प्रवणताएं a और a’ क्रमश: तकनीक L और H का प्रतिनिधित्व करते हैं ।

अब निवेश आयोजन के लिये कसौटी अपनाने से व्यवसाय से पूँजी अथवा सामाजिक सीमान्त उत्पादकता, की तकनीक वह होनी चाहिये जो निवेश की निश्चित मात्रा से उपभोक्ता वस्तुओं के चालू उत्पादन को अधिकतम बनाती है । इस कोण से तकनीक L(श्रम-गहन) को तकनीक H(पूँजी गहन) से प्राथमिकता दी जायेगी ।

श्रम-गहन अधिकतम प्राप्त योग्य उत्पादन PB उत्पादित करता है तथा OI निश्चित पूँजी भण्डार के साथ OB श्रम शक्ति नियुक्त करता है । जब कि पश्चात-कथित (पूँजी गहन) कम कुल उत्पादन P’A, कम श्रम शक्ति OA लगाकर उसी पूँजी के साथ उत्पन्न करता है । अत:

यदि हमारा उद्देश्य पुनर्निवेश योग्य अतिरेक को उपभोग (MPQ) से अधिकतम बनाना है अथवा अतिरेक कसौटी की दर से अधिक बनाना है । तो तकनीक L(श्रम गहन) के विरुद्ध तकनीक H (पूँजी गहन) का चुनाव किया जायेगा । क्योंकि तकनीक H उपभोग पर अधिकत्तम अतिरेक P’D पुन: निवेश के लिये उत्पन्न करती है यद्यपि यह कम श्रम शक्ति OA नियुक्त करती है ।

तकनीक L कम पुनर्निवेश योग्य अतिरेक PE उत्पन्न करती है, यद्यपि यह अधिक श्रम शक्ति OB का प्रयोग करती है और अधिकतम कुल उत्पादन PB उत्पादित करती है । इस प्रकार-

अत: इससे स्पष्ट है कि यदि कसौटी पूँजी की कुल बिक्री अथवा सामाजिक सीमान्त उत्पादकता को अधिकतम बनाने की है, तो सापेक्षतया श्रम-गहन तकनीक (तकनीक L) का अनुसरण किया जाना चाहिये ।

यदि हम उपभोग अथवा पुनर्निवेश पर अतिरेक उत्पादन को अधिकतम बनाना चाहते हैं तो सापेक्षतया पूँजी गहन तकनीक (H तकनीक) अपनायी जानी चाहिये । संक्षेप में, हम इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि चालू, काल में पूँजी बिक्री अथवा S.M.P कसौटी अधिक प्रासंगिक है ।

आलोचना (Criticism):

सेन के तकनीकों के चुनाव के मॉडल की अनेक अर्थशास्त्रियों द्वारा कड़ी आलोचना की गई है ।

मॉडल की मुख्य दुर्बलताएं निम्नलिखित हैं:

(i) सेन का मॉडल इस बात का विश्लेषण नहीं करता कि मांग, आगत कीमतें, प्राकृतिक कारण, सरकारी नीति में परिवर्तन आदि से सम्बन्धित भविष्य की अनिश्चिताएं तकनीकों के चुनाव को कैसे प्रभावित करती हैं ।

(ii) यह मॉडल अनाज जैसी मात्र एक वस्तु पर आधारित है जो उपभोग एवं निवेश वस्तु दोनों का कार्य करती है । यह श्रम के समरूप कारक होने की कल्पना करता है । पूँजी श्रम अनुपात को उत्पादन की तकनीकों का मात्र एक सूचक मानना अवास्तविक मान्यता है ।

(iii) जी.एम. मायर के अनुसार- पुनर्निवेश कसौटी के सन्दर्भ में सेन कल्पना करता है कि निर्वाह क्षेत्र में श्रम की असीमित पूर्ति उपलब्ध है । सेन ऐसे श्रम की पूर्ति पर सीमा की सम्भावना पर विचार नहीं करते । तथापि जब इस सीमा को लागू किया जाता है, तो इष्टतम पूँजी प्रवणता भिन्न होगी जैसी सेन ने कल्पना की है ।

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