मौद्रिक नीति: अवधारणाएं, उद्देश्य और लक्ष्य | Read this article in Hindi to learn about:- 1. मौद्रिक नीति की प्रस्तावना (Introduction to Monetary Policy) 2. मौद्रिक नीति की अवधारणा एवं आशय (Concept and Meaning of Monetary Policy) 3. उद्देश्य (Objectives) 4. लक्ष्य (Targets).

मौद्रिक नीति की प्रस्तावना (Introduction to Monetary Policy):

एक देश अपनी सीमाओं के मध्य विकास परियोजनाओं को विनियोग के स्तर के द्वारा प्रभावित कर सकता है । इसे वह साख के प्रवाह को नियमित करने की कुशलता द्वारा सम्भव करता है ।

विकसित देशों में कोषों की उपलब्धता को नियमित करने का मुख्य मौद्रिक उपाय (1) खुले बाजार की क्रियाएँ, (2) कोषों की आवश्यकता में परिवर्तन, तथा (3) बट्टे की दर में समायोजन या सदस्य बैंकों को केन्द्रीय बैंक द्वारा दिए जाने वाले क्या की दर में परिवर्तन कर सम्भव होता है ।

कम विकसित देशों में मौद्रिक नीति की क्रियाशीलता सीमित होती है । इसका कारण यह है कि इन देशों में सरकारी प्रतिभूतियों के लिए पर्याप्त बाजार नहीं होता तथा खुले बाजार की क्रियाओं के कार्यकरण का क्षेत्र सीमित होता है । साथ ही कोषों की आवश्यकता या बट्टे की दर में परिवर्तन के प्रभाव भी सीमित होते हैं ।

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सामान्यतः विकसित देश में केन्द्रीय बैंक आर्थिक स्थायित्व की प्राप्ति हेतु मुद्रा बाजार को नियन्त्रित करता है । कम विकसित देशों में उसे आर्थिक विकास को गति प्रदान करने हेतु न केवल मुद्रा बाजार का नियमन करना पड़ता है बल्कि आर्थिक विकास हेतु संसाधनों को भी गतिशील करना होता है ।

इस प्रक्रिया में केन्द्रीय बैंक एक ओर विकास हेतु मौद्रिक संसाधनों का प्रबन्ध करता है, उनके समुचित उपयोग की व्यवस्था करता है तो दूसरी ओर उसे मुद्रा प्रसारिक शक्तियों को नियन्त्रण में रखना होता है । संक्षेप में, साख विस्तार एवं साख नियन्त्रण की शक्तियों को तालमेलयुक्त रखना उसका दायित्व हो जाता है ।

मौद्रिक नीति की अवधारणा एवं आशय (Concept and Meaning of Monetary Policy):

संकुचित रूप में मौद्रिक नीति केन्द्रीय बैंक द्वारा लागू साख नियन्त्रणों से मुद्रा पूर्ति को नियंत्रित करती है । विस्तृत रूप में मौद्रिक नीति के अन्तर्गत सरकार द्वारा व्यय एवं मुद्रा के प्रयोग को प्रभावित करने के विनियमित करने वाले उपाय सम्मिलित किए जाते हैं ।

संक्षेप में, केन्द्रीय बैंक के द्वारा अपनाई गई नीति मौद्रिक नीति या साख नियन्त्रण नीति कहलाती है । इसके अधीन केन्द्रीय बैंक द्वारा अपनाए गए वह समस्त उपाय शामिल होते हैं जिससे वह मुद्रा प्रसार पर नियन्त्रण कर अर्थव्यवस्था को आन्तरिक स्थायित्व व बाह्य सन्तुलन की ओर ले जाने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करती है ।

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मौद्रिक नीति को परिभाषित करते हुए क्राउथर ने स्पष्ट किया कि मुद्रा की व्यवस्था एवं उसके कार्यकरण से उत्पन्न होने वाले दोषी को न्यून करने हेतु किए जाने वाले समस्त उपाय मौद्रिक नीति के अन्तर्गत समाहित होते है ।

मौद्रिक नीति के अधीन कीमत स्थायित्व, विदेशी विनिमय स्थायित्व, पूर्ण रोजगार एवं तीव्र आर्थिक विकास जैसे उद्देश्यों हेतु केन्द्रीय बैंक मुद्रा की पूर्ति में कमी अथवा वृद्धि करता है ।

आर॰ पी॰ कैंट के अनुसार- पूर्ण रोजगार के विशिष्ट उद्देश्य की प्राप्ति हेतु मौद्रिक नीति प्रचलन में मुद्रा की मात्रा के विस्तार एवं संकुचन का प्रबन्ध करती है । अत: मौद्रिक अधिकारी द्वारा मुद्रा की पूर्ति का विनियमन मौद्रिक नीति है ।

प्रो॰ ए॰ जी॰ हार्ट मौद्रिक नीति के द्वारा तथा राजकोषीय नीति से मौद्रिक अधिकारी अथवा सरकार निजी उपभोग अथवा सरकारी व्यय में संसाधनों के प्रवाह को कम या अधिक कर सकती है । इस प्रकार वह विनियोग एवं पूँजी निर्माण हेतु उपलब्ध संसाधनों की मात्रा में कमी या वृद्धि कर सकती है जिसका अर्थव्यवस्था की विकास दर पर प्रत्यक्ष प्रभाव पडेगा ।

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पाल एनजिग (Paul Einzig) मौद्रिक नीति का समुदाय का मौद्रिक प्रणाली के प्रति राजनीतिक अधिकारी का दृष्टिकोण मानते है । इस परिभाषा में नियन्त्रण के तरीके व उन उद्देश्यों को स्पष्ट नहीं किया गया है जो राजनीतिक अधिकारी के दृष्टिकोण को प्रभावित करते है ।

जी॰ के॰ शॉ के अनुसार मौद्रिक अधिकारियों द्वारा मुद्रा की मात्रा, इसकी उपलब्धता तथा ब्याज की दर में परिवर्तन के लिए की गई सजग क्रियाओं से आशय मौद्रिक नीति से है । हैरी जी॰ जानसन मौद्रिक नीति को केन्द्रीय बैंक के मुद्रा की पूर्ति पर नियन्त्रण द्वारा अभिव्यक्त करते हैं जिसे एक उपकरण के रूप में सामान्य आर्थिक नीति के उद्देश्यों को प्राप्त करने हेतु प्रयुक्त किया जाता है ।

प्रो॰ राइटमैन ने मौद्रिक नीति को ऐसे प्रयास के द्वारा अभिव्यक्त किया जो मौद्रिक पूर्ति को नियन्त्रित करता है तथा कुछ निश्चित व्यापक उद्देश्यों के लिए साख का सृजन करता है ।

सार रूप में मौद्रिक नीति एक तरीका है- मौद्रिक प्रबन्ध में केन्द्रीय बैंक द्वारा अपनाया गया । एक देश का केन्द्रीय बैंक वह परम्परागत एजेन्ट है जो मौद्रिक नीति को निर्मित एवं क्रियान्वित करता है । इसी सन्दर्भ में भारत की मौद्रिक नीति भी रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया के द्रारा संचालित होती है ।

मौद्रिक नीति की कई मात्रात्मक विधियों के अन्तर्गत केन्द्रीय बैंक साख नियन्त्रण की चुनी हुई विधियों की बेहतर समझ रखता है जिसके द्वारा वह सट्‌टे, जमाखोरी या फिर गैर उत्पादनीय व्यापार एवं अन्य उद्देश्यों हेतु ऋण योग्य कोषों की उपलब्धता को सीमित करता है ।

वह समयानुकूल होने पर साख की राशनिंग भी कर सकता है । परन्तु सामान्यतः ऐसा नहीं किया जाता । जॉर्ज जी॰ सौस के अनुसार चुने हुए साख नियन्त्रण मौद्रिक पूर्ति के प्रयोग के ऐसे उदाहरण है जो मौद्रिक नीति के प्रयोग को सीधे संसाधनों के आवण्टन से प्रभावित करते है ।

नैतिक राय एवं प्रचार-प्रसार भी चयनात्मक साख नियन्त्रण की सहायक विधियों है । कई केन्द्रीय बैंक साप्ताहिक रूप से वाणिज्यिक बैंकों से साप्ताहिक समयबद्ध सूचनाएँ प्राप्त करते है जिससे उनकी जमाओं, अग्रिमों एवं ऋणों के बारे में जानकारी प्राप्त हो सके ।

इस प्रकार केन्द्रीय बैंक उन तरीकों से परिचित रहता है जिसके अधीन वाणिज्यिक बैंक कार्यरत रहते है । स्पष्ट राय मशविरे के द्वारा वाणिज्यिक बैंको को एक विशिष्ट नीति या दिशा प्रदान करते हुए समूची बैंकिंग व्यवस्था के सुचारू क्रियान्वयन को सम्भव बनाया जाता है ।

वी॰ कृष्णमूर्ति के अनुसार, आरम्भिक स्तर पर मौद्रिक नीति एक देश के पास मुद्रा की समुचित मात्रा से सम्बन्धित रही था परन्तु बाद में मौद्रिक नीति एक या अधिक उद्देश्यों के लिए मुद्रा के परिमाण में विस्तार एवं संकुचन के प्रबन्ध से सम्बन्धित हो गयी । इनमें पूर्ण रोजगार का उद्देश्य महत्वपूर्ण था । व्यापक अर्थों में सभी प्रकार के मौद्रिक एवं बैंकिंग नियमनों को मौद्रिक नीति के अन्तर्गत सम्मिलित किया जाता है, क्योंकि वह आर्थिक प्रणाली में विद्यमान मुद्रा के परिणाम को प्रबन्धित करती हैं ।

स्पष्ट है कि एक देश का केन्द्रीय बैंक वह परम्परागत एजेन्ट है जो मौद्रिक नीति का निष्पादन एवं क्रियान्वयन करता है । भारत में मौद्रिक नीति को रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया द्वारा सम्पन्न किया जाता है ।

भारतीय संदर्भों में मौद्रिक नीति सरकार एवं रिजर्व बैंक के उन निर्णयों से सम्बन्धित है जो प्रत्यक्ष रूप से- (i) मौद्रिक पूर्ति के परिणाम एवं संघटक, (ii) साख के आकार एवं वितरण (iii) ब्याज दरों के स्तर एवं संरचना, तथा (iv) उन समस्त मौद्रिक चरों, बचत एवं विनियोग, उत्पादन, आय एवं कीमतों इत्यादि पर प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष प्रभाव डालते हैं ।

एक मौद्रिक नीति तब निष्क्रिय कहलाती है जब केन्द्रीय बैंक जानबूझकर मौद्रिक उपायों को लागू नहीं करता । मौद्रिक नीति सक्रिय उस दशा में होगी जब वह कुछ निश्चित लक्ष्यों को समुचित मौद्रिक उपायों के द्वारा क्रियान्वित करे ।

मौद्रिक नीति स्वयं में एक लक्ष को प्राप्त करने का आय है । इसके लक्ष्य, उद्देश्य एवं क्षेत्र आर्थिक वातावरण एवं समयानुकूल दशाओं से परिचालित होते है । इसकी संरचना एवं क्रियान्वयन देश के मुद्रा बाजार के संस्थागत घाटे के अधीन संचालित किया जाता है ।

व्यापक अर्थों में, यद्यपि मौद्रिक नीति नियन्त्रणकारी उपाय के रूप में अकेले क्रियान्वित नहीं होती वरन् इसे राजकोषीय नीति एवं ऋण प्रबन्ध के साथ लागू किया जाता है । वास्तव में राष्ट्रीय वित्त नीति को निर्धारित करने में मौद्रिक नीति, राजकोषीय नीति तथा ऋण प्रबन्धन को तालमेल युक्त किया जाता है । परम्परागत रूप से साख नियन्त्रण के उपाय एवं निर्णय मौद्रिक नीति के संघटक घटक है ।

मौद्रिक एवं साख नीतियाँ निम्न अन्तर्सम्बन्धित घटकों पर क्रियाशील होती हैं:

(1) साख की उपलब्धता एवं इसका प्रवाह ।

(2) मुद्रा की मात्रा ।

(3) उधार की लागत अर्थात् मन की दर ।

(4) अर्थव्यवस्था की सामान्य तरलता ।

एक उचित मौद्रिक नीति नियोजित विकास के कार्यक्रमों के सफल संचालन हेतु पूर्वअहर्ता है । यहाँ यह ध्यान रखना आवश्यक है कि आर्थिक वृद्धि एक वास्तविक दशा है, मौद्रिक दशा नहीं ।

लेकिन मुद्रा इसमें एक प्रावैगिक भूमिका प्रस्तुत करती है, क्योंकि यह व्यर्थ पड़े संसाधनों को क्रियाशील करती है तथा विभिन्न मदों की ओर मुद्रा का आवण्टन करती है । एक सुविचारित मौद्रिक नीति इसके समर्थ आवण्टन द्वारा सूचित होती है ।

विकसित देशों में मौद्रिक अधिकारी मौद्रिक उपायों के नियमनकारी प्रभावों को अधिक महत्वपूर्ण मानते है जिसके द्वारा आर्थिक स्थायित्व के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सके जबकि भारत जैसे विकासशील देशों में मौद्रिक नीति नियंत्रित विस्तार के उद्देश्य से सामान्यत प्रभावित होते हैं जिसमें बहुधा दो विरोधाभासी लक्ष्य समाहित होते हैं- (i) अर्थिक वृद्धि बो सम्भव बनाना, (ii) मुद्रा प्रसारिक दबावों को परिसीमित करना ।

वास्तव में विकासशील देशों में मौद्रिक नीति के दो पक्ष होते हैं- (I) धनात्मक (II) ऋणात्मक धनात्मक पक्ष के अन्तर्गत जहाँ यह बचतों की दर में सुधार एवं पूँजी निर्माण हेतु साख के विस्तार की सुधारात्मक क्रियाएँ करता है तो दूसरी ओर ऋणात्मक पक्ष में यह साख विस्तार को संरक्षित करते हुए देश की अवशोषण क्षमता के अनुरूप साख का उचित आवण्टन करता है ।

अर्थव्यवस्था के नियमन में केन्द्रीय बैंक सरकारी बोल्ट के क्रय स्य विक्रय की किया सम्पन्न करने में सहायक हो सकता है । सरकारी बॉण्ड के क्रय से बॉण्ड की माँग में वृद्धि होती है, वह उनकी कीमतों में वृद्धि का कारक बनता है तथा ब्याज की दरें गिरती है चूंकि बॉण्ड के प्रतिफल की दर ब्याज है अत: बॉण्ड की उच्च कीमतों का आशय है प्रतिफल की दरों का निम्न होना ।

केन्द्रीय बैंक द्वारा बॉण्ड हेतु किया गया भुगतान भावी प्रयोग के लिए अर्थव्यवस्था में मुद्रा को वापस लाता है । केन्द्रीय बैंक द्वारा बॉण्ड की बिक्री से ठीक विपरीत प्रभाव उत्पन्न होंगे । कोषों की आवश्यकता में परिवर्तन से एक बैंक द्वारा प्रदान किए गए ऋणों की मात्रा (जो कि कोषों के एक दिए हुए स्तर पर दिए जाते हैं प्रभावित होती है ।

इस सम्बन्ध को हम निम्न समीकरण से प्रदर्शित कर सकते है:

 

कोषों की आवश्यकता (r) को सीमित या कम रखते हुए मौद्रिक पूर्ति में काफी अधिक विस्तार (कोषों में हर परिवर्तन के प्रति) होगा दूसरी ओर कोषों की आवश्यकता बढने पर, कोषों में किसी परिवर्तन की विस्तार क्षमता घट बाएगी ।

उदाहरण हेतु यदि 20% कोष की आवश्यकता है तब कोषों में परिवर्तन ( Δ R) मौद्रिक पूर्ति पर- (1 – 0.2)/ 0.2 = 0.8/0.2 = 4 अर्थात् चार गुना अधिक प्रभाव डालेगा । यदि कोष आवश्यकता 10% कम होनी है तब कोषों में होने वाले एकसमान परिवर्तन के प्रति मौद्रिक पूर्ति- (1 – 0.10)/0.10 = 0.90 / 0.10= 9 अर्थात् नौ गुना प्रभाव डालेगी ।

यदि साख की बढ़ती आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए एक देश आन्तरिक रूप से पूंजी में वृद्धि करने में कठिनाई का अनुभव करें तो आन्तरिक स्रोतों के पूरक के रूप में वह विदेशी पूंजी बाजारों का दोहन कर सकता है । विदेश से प्राप्त उधार देश को इस योग्य बनाता है कि विनियोग की दर घरेलू बचत की दर से (कम-से-कम ऋण लेने की समय अवधि तक) अधिक रहे ।

लेकिन यदि विनियोग परियोजना ऋण समय अवधि में उत्पादकता में वृद्धि नहीं करती व आय का सृजन नहीं होता तब या तो पुन: एक नए ऋण के लिए प्रयास करना पडता है ताकि एक समय अवधि अन्तराल में उत्पादन व आय का स्तर बड़े अन्यथा उधार व ब्याज भुगतान के चक्र विषम होकर जीवन-स्तर में कमी कर देंगे ।

विदेशी उधार की समर्थता मुख्यतः निम्न घटकों पर निर्भर करती है:

(1) घरेलू उत्पादकता में वृद्धि की सम्भावनाएँ, यदि ऋण लेने व उसका पुर्नभुगतान करने की अवधि में घरेलू उत्पादन बडे तो यह एक बेहतर दशा है ।

(2) प्राप्त होने वाले ऋण पर ली जाने वाली ब्याज की दर ।

(3) वह समय अवधि जिसके अधीन ऋण प्राप्त हो रहा है तथा वह अतिरिक्त समय जब वास्तविक पुर्नभुगतान किया जाएगा ।

(4) व्यापार की शर्तों की दशा जो ऋण की समय अवधि में दिखाई दे ।

(5) अर्थव्यवस्था में बचतों में वृद्धि की जाने की कुशलता जो प्राप्त ऋण के फलस्वरूप उत्पन्न होगी ।

(6) वृद्धि को बनाए रखने या अनुरक्षित करने हेतु किए जाने वाले नये विनियोग की दर, जबकि ऋण की समय अवधि पूरी हो गई हो ।

मौद्रिक नीति के उद्देश्य (Objectives of Monetary Policy):

सार रूप में, मौद्रिक नीति को मौद्रिक क्षेत्र में सरकार की अर्थ नीति के द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है । अतः मौद्रिक नीति के उद्देश्यों को सरकार द्वारा तय किए गए समूचे आर्थिक उद्देश्यों के सन्दर्भ में देखा जाना आवश्यक है ।

मौद्रिक नीति का लक्ष्य विभिन्न उद्देश्यों की प्राप्ति से सम्बन्धित होता है जो तत्कालीन परिस्थितियों से प्रभावित होती है । भारत के सन्दर्भ में मौद्रिक नीति का मुख्य उद्देश्य आधारभूत रूप से आर्थिक विकास की गति को संगत कीमत स्थायित्व के साथ तीव्र करना रहा है ।

लोकनीति का एक पक्ष होने के कारण मौद्रिक नीति विभिन्न व्यापक आर्थिक लक्ष्यों को प्राप्त करने से सम्बन्धित होती है जबकि द्वितीय विश्वयुद्ध से पूर्व मौद्रिक नीति का परम्परागत उद्देश्य सामान्यतः कीमत स्थायित्व एवं विनिमय स्थायित्व तक ही सीमित रहा है ।

मेयर एवं बाल्डविन के अनुसार, ”कम विकसित देशों में मौद्रिक नीति साख की लागत एवं पूर्ति को प्रभावित कर, मुद्रा प्रसार के नियन्त्रण एवं भुगतान सन्तुलन के साम्य द्वारा आर्थिक विकास को प्रोत्साहन प्रदान करती है ।

जब विकास की गति तीव्र होने लगती है तब व्यापार के विस्तार एवं जनसंख्या वृद्धि की आवश्यकताओं को पूर्ण करने हेतु साख की लोचदार पूर्ति की आवश्यकता होती है जिसके लिए समर्थ मौद्रिक नीति की भी आवश्यकता पड़ती है ।

अतः मौद्रिक नीति-

(1) बचत व विनियोग हेतु अनुकूल वातावरण उत्पन्न करने में सहायक हो आर्थिक विकास की गति प्रदान करती है,

(2) सस्ती मुद्रा नीति द्वारा इससे साख की लागत को न्यून किया जा सकता है,

(3) अनुकूल वित्तीय संस्थाओं की स्थापना द्वारा वह पूंजी निर्माण हेतु संसाधनों को गतिशील करने में सहायक होती है,

(4) मुद्रा प्रसारिक दबावों को नियंत्रित कर विनियोग प्रोत्साहन प्रदान करती है । विभेदात्मक ब्याज दरों एवं साख के प्रयोग पर नियन्त्रण द्वारा विनियोग की चाहे जाने वाली राशि प्राप्त करने में सहायक सिद्ध हो सकती है,

(5) न्यूनार्थ वित्त प्रबन्धन के द्वारा विकास योजनाओं हेतु चाही जाने वाली धनराशि की गतिशीलता हेतु समर्थ होती है,

(6) प्रो॰ जे॰ ई॰ मीड के अनुसार भुगतान सन्तुलन असमायोजन के निवारण हेतु राजकोषीय नीति के साथ मौद्रिक नीति का संयोग प्रभावकारी होता है जिससे विदेशी विनिमय स्थायित्व सम्भव होता है ।

रैडक्लिफ कमेटी ने विकसित देशों के सन्दर्भ में मौद्रिक नीति के निम्न उद्देश्य स्पष्ट किए:

(i) रोजगार का एक उच्च एव स्थायी स्तर

(ii) मुद्रा के आन्तरिक मूल्य को उचित कीमत स्थायित्व के द्वारा अनुरक्षित रखना

(iii) अविरत आर्थिक वृद्धि, आय का उच्च एवं वृद्धिमान स्तर तथा देश के जीवन स्तर में सुधार

(iv) भुगतान सन्तुलन में सुधार

(v) स्थायी विनिमय दरें तथा विदेशी विनिमय कोषों का सुदृढ़ीकरण

ब्रिटेन में 1959 में प्रस्तुत रेडक्लिफ कमेटी की रिपोर्ट में यह स्पष्ट किया गया कि मौद्रिक क्रिया वित्तीय संस्थाओं, फर्मों व वास्तविक संसाधनों पर व्यय करने वाले लोगों की तरलता में परिवर्तन कर कुल माँग पर प्रभाव डालती है ।

वह घटक जिससे मौद्रिक नीति को प्रभावित या नियन्त्रित किया जा सकता है मुद्रा की पूर्ति से कुछ हट कर है । इसलिए मौद्रिक अधिकारियों को मौद्रिक प्रणाली के केन्द्रीय कल व्याप्त दरों की संरचना को ध्यान में रखना चाहिए न कि केवल मुद्रा पूर्ति को ।

व्यावसायिक गतिविधियों एवं वर्तमान मौद्रिक स्थिति में सबसे महत्वपूर्ण शृंखला आय या मुद्रा की मात्रा नहीं है बल्कि कुल तरलता है जिसमें ब्याज की दरी में परिवर्तन के कारण विवर्तन होता है । इसलिए मौद्रिक नीति का मुख्य उद्देश्य मुद्रा की मात्रा के नियन्त्रण पर न होकर अर्थव्यवस्था की कुल तरलता की दशा के नियंत्रण पर होना चाहिए ।

तरलता की दशाओं में आर॰ एस॰ सेयर्ज ने सैद्धान्तिक पक्ष प्रस्तुत किये । इसलिए मुद्रा की तरलता पर रैडक्लिफ-सेयर्ज थीसिस महत्वपूर्ण बनी ।

इसमें मौद्रिक नीति के क्रियान्वयन हेतु है:

(a) तरलता नियंत्रण हेतु प्रबन्ध इसलिए कठिन हो जाता है, क्योंकि सभी वित्तीय संस्थाओं पर केन्द्रीय बैंक प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तरीके से नियन्त्रण स्थापित नहीं कर पाता । यदि नई-नई गैर बैंकिंग वित्तीय संस्थाएँ सामने आती रहें और केन्द्रीय बैंक इन पर प्रभावी प्रबन्ध के द्वारा नियंत्रण कर ले तब कोई समस्या नहीं ।

(b) तरलता प्रभाव के द्वारा नियन्त्रण ब्याज की दर में परिवर्तनों से सम्भव हो सकता है । अन्ततः रैडक्लिफ कमेटी ने यह सुझाव दिया कि सामान्य परिस्थितियों में मौद्रिक नीति को राजकोषीय नीति के साथ सयोजित किया जाये । गुरले व शॉ तरलता के सम्बन्ध में मौद्रिक नीति को राजकोषीय नीति के अधीन नहीं मानते ।

उन्होंने स्पष्ट किया कि आर्थिक वृद्धि होने पर बैंक व वित्त संस्थाएँ तेजी से बढ़ती हैं । इससे अधिक परिसम्पत्तियाँ सृजित होती हैं व तरलता बढती है । यदि वित्तीय संस्थाओं को केन्द्रीय बैंक के नियन्त्रण से बाहर रखा जाएगा तो संकट बढ़ेगा । अतः मौद्रिक अधिकारी गैर बैंकिंग वित्तीय मध्यस्थों पर विनिमयन रखें |

मौद्रिक नीति के लक्ष्य (Targets of Monetary Policy):

मौद्रिक नीति के यंत्र मौद्रिक नीतियों के उद्देश्यों के अनुरूप तब समर्थ रूप से क्रियाशील नहीं हो पाते जब मौद्रिक अविकारी अनिश्चितता के कारण यह अनुमान नहीं लगा पाते कि समस्या का वास्तविक कारण क्या है और इसके समाधान हेतु वह किस यन्त्र-उपकरणों को चुनें ।

जो यन्त्र चुने जाते है आवश्यक नहीं कि वह तुरन्त प्रभाव दिखाएँ । फिर मुद्रा बाजार से सम्बन्धित सूचनाओं को एकत्रित करने, उनके निदान हेतु प्रभावी उपकरण चुनने में भी विलम्ब होता है ।

इसे सूचना अन्तराल की संज्ञा दी जाती है । सामान्यीकरण पर आधारित उद्देश्य अर्थव्यवस्था में कार्यरत चरों व प्राचलों के साथ गैर नीति घटकों से प्रभावित होते हैं । इन्हें एक-दूसरे से पृथक् करना मुश्किल होता है । इन कठिन दशाओं में बहुधा नीतियों के निर्माण से सम्बन्धित उद्देश्य चरों के स्थान पर कुछ कृत्रिम चरों का प्रयोग किया जाता है ।

बहुधा लक्ष चरों को प्रचालन अथवा कार्यकारी तथा मध्यवर्ती लफ्यों में वर्गीकृत करते है । प्रचालन लक्ष्य मौद्रिक नीति के रोजाना व्यवहार में प्रयुक्त होते है । इनमें ब्याज की दर, बैंक रिजर्व व मौद्रिक आधार को सम्मिलित करते हैं ।

मध्यवर्त्ती चर वह है जो मौद्रिक नीति के रोजाना व्यवहार में समायोजन करने व शुद्धता लाने हेतु निर्देशित किए जाते है । प्रमुखत: मध्यवर्त्ती लक्ष्य मुद्रा की पूर्ति एवं ब्याज की दर में होने वाले परिवर्तन हैं ।

संक्षेप में मौद्रिक पूर्ति के लक्ष्य (1) मुद्रा की पूर्ति, (2) बैंक साख, व (3) दीर्घकालीन ब्याज की दरें हैं ।

एक बेहतर व कारगर मौद्रिक नीति, अपने लक्ष्यों में निम्न गुणों का समावेश करती है:

(i) मौद्रिक नीति के उद्देश्य के साथ मात्रात्मक सम्बन्ध हो जिससे पड़ने वाले प्रभाव के बारे में असमंजस व अनिश्चितता न रहे ।

(ii) यह शीघ्रता से एक अथवा एक से अधिक नीति उपकरणों से प्रभावित हो ।

(iii) इसको निर्दिष्ट किया जा सके । यह समय अवधि अन्तराल या पश्चता के बिना माप की जाने योग्य हो ।

(iv) इसे मौद्रिक क्रिया के द्वारा नियन्त्रित किया जा सके ।

उपर्युक्त लक्ष्यों में मौद्रिक पूर्ति व बैंक साख का अधिक बेहतर प्रभाव पड़ता है । सापेक्षिक रूप से मौद्रिक पूर्ति को बैंक साख से अच्छा लक्ष्य चर माना जाता है ।

इसका कारण यह है कि:

(1) मौद्रिक पूर्ति मौद्रिक यंत्रों उपकरणों से शीघ्र प्रभावित होती है

(2) व्याज की दर पर गैर नीतिगत प्रभाव कम पड़ते हैं, जबकि ब्याज की दर पर मौद्रिक नीति का प्रभाव अधिक होता है,

(3) ब्याज दर के सापेक्ष मौद्रिक पूर्ति के परिवर्तनों व मुद्रा व्यय में सम्बन्ध अधिक स्थायी व मापनीय होते हैं । संक्षेप में ब्याज दर की तुलना में मौद्रिक पूर्ति बेहतर चर मानी जा सकती है ।

मौद्रिक पूर्ति के प्रभावपूर्ण क्रियान्वयन में परेशानी यह है कि:

(1) M1 M2 व M3 में से किसको मुद्रा पूर्ति का उचित माप माना जाये ।

(2) मुद्रा पूर्ति भी बर्हिजात घटकों से प्रभावित होती है,

(3) प्रायः मौद्रिक अधिकारी द्वारा मुद्रा पूर्ति की उपयुक्त मात्रा का निर्धारण किया जाना सम्भव नहीं होता ।

(4) मुद्रा पूर्ति से सम्बन्धित मात्रात्मक समंकों की शुद्धता के बारे में सन्देह प्रकट किया जाता है ।

जहाँ तक ब्याज की दरों को बेहतर लक्ष चर मानने के तर्क है उनमें – (i) यह स्पष्ट रूप से अनुभव की जा सकती है (ii) इसमें मौद्रिक नीति के यन्त्रों का तत्काल प्रभाव पड़ता है, (iii) यह उत्पादकता एवं आय को साख की उपलब्धता, विनियोग शृंखला के प्रभावों, मूल्यांकन व लागत प्रभाव की दृष्टि से प्रत्युतर देती है ।

वस्तुतः नीतिगत उपाय की तरह व्याज की दर भी सीमाओं से परे नहीं हैं-

जैसे:

(i) यह बताना कठिन है कि नीतिगत उद्देश्यों पर ब्याज की दर का क्या प्रभाव पडगा,

(ii) ब्याज की दर पर बर्हिजात तत्वों का शीघ्र प्रभाव पड़ता है ।

(iii) ब्याज की दरें भिन्न-भिन्न होती हैं अतः किस दर का क्या प्रभाव पड़ेगा यह निर्धारित कर पाना कठिन है । अतः मुद्रा की पूर्ति एवं ब्याज की दर को एक विशेष लक्ष्य के सापेक्ष लक्ष्यों के संयोग से सम्बन्धित करना मौद्रिक अधिकारी हेतु बेहतर होगा साथ ही वह चुने लक्ष के सापेक्ष लक्ष्यों की सीमा को निर्धारित करें ।