मौद्रिक नीति और आर्थिक विकास | Read this article in Hindi to learn about the role of monetary policy in economic development of a country.

निस्सन्देह अल्पविकसित देशों में आर्थिक विकास के दर को तीव्र करने में मौद्रिक नीति मुख्य भूमिका निभाती है ।

आर्थिक विकास में मौद्रिक नीति की भूमिका का वर्णन निम्नलिखित अनुसार है:

1. मौद्रिक नीति तथा बचत की गतिशीलता (Monetary Policy and Mobilisation of Savings):

बचतों की गतिशीलता आर्थिक विकास का एक महत्त्वपूर्ण उपकरण है । कम विकसित देशों में प्राय: प्रति व्यक्ति आय बहुत कम होती है । इससे एक सामान्य व्यक्ति बहुत कम बचत करने की स्थिति में होता है ।

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इसके अतिरिक्त वित्तीय संस्थाओं का भी अभाव होता है । वास्तव में, उचित सुविधाओं और संस्थाओं के अभाव के कारण बढ़ी हुई आय का व्यय बचत के स्थान पर उपभोग के लिये हो जाता है ।

इसलिये, शिक्षा एवं प्रचार द्वारा आम लोगों को स्वयं अपने ही हित में बचत करने के लिये प्रेरित किया जाना चाहिये, उनमें शिक्षा द्वारा बचत करने की आदत को विकसित किया जाना चाहिये । अधिक बचत के लिये प्रोत्साहन दिये जाने चाहियें ।

तथापि, किसी अर्थव्यवस्था में बचतों की गतिशीलता में निम्नलिखित ढंग बहुत सहायक होते हैं:

(i) वित्तीय संस्थाओं की स्थापना (Establishment of Financial Institutions):

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निर्धन तथा अल्प विकसित देशों में लोग अपनी बची हुई वर्तमान आय को जमा रखते हैं और इसका स्वर्ण, आभूषणों और भूमि आदि में निवेश कर देते हैं । इसलिये ऐसी वित्तीय संस्थाओं को स्थापित किया जाना चाहिये जहां लोग बचे हुये धन को विश्वास सहित जमा कर सकें ।

ग्रामीण क्षेत्रों में सहकारी बैंकों की स्थापना की जानी चाहिये ताकि ग्रामीण बचतें गतिशील हों और सस्ती साख उपलब्ध हो सके । पुन: धन एकत्रित करने की प्रक्रिया सरल होनी चाहिये ताकि साधारण व्यक्ति को ऋण प्राप्त करने अथवा जमा करने में कोई कठिनाई न हो ।

अत: मौद्रिक नीति सुदृढ़ वित्तीय संस्थाओं द्वारा आर्थिक विकास की गति को तीव्र कर सकती है । वह बचतों को गतिशील करके उन्हें अर्थव्यवस्था की उचित उत्पादक गतिविधियों में प्रयोग कर सकती है ।

(ii) आकर्षक बचत योजनाएं (Attractive Saving Schemes):

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मौद्रिक प्राधिकरण को चाहिये कि समाज के विभिन्न वर्गों के लिये आकर्षक बचत योजनाओं के साथ आगे आये । विभिन्न संस्थाओं को बीमा, अनिवार्य भविष्य निधि, भविष्य निधि एवं पैन्शन योजना की भांति सुदृढ़ आधार उपलब्ध करने की ओर विशेष ध्यान दिया जाये ।

ये संस्थाएं एक बड़ी सीमा तक बचतों को प्रोत्साहित करने में सहायक हैं । इसी प्रकार, ग्रामीण बचतों की गतिशीलता के लिये विशेष योजनाओं को प्रोत्साहित किया जाये ।

(iii) जमा बीमा (Deposit Insurance):

सामान्य लोगों के बीच अधिक विश्वास उत्पन्न करने के लिये मौद्रिक प्राधिकरण को जमा योजनाएं आरम्भ करनी चाहिये । ये योजनाएं अधिक-से-अधिक लोगों को अपनी बचतें बैंकों में जमा करने के लिये आकर्षित करेंगी ।

2. मौद्रिक नीति ओर पूंजी निर्माण (Monetary Policy and Capital Formation):

मौद्रिक नीति किसी अर्थव्यवस्था में बचतों को उत्साहित करके पूंजी निर्माण के संवर्धन में सहायक होती है । प्राय: अल्प विकसित देश पूंजी निर्माण के निम्न दर से पीड़ित होते हैं जोकि उनके पिछड़ेपन के लिये उत्तरदायी होता है ।

इन देशों में आर्थिक उन्नति के लिये पूंजी निर्माण की दर को तीव्र करना एक पूर्वापेक्षा है । अत: आर्थिक रूप में पिछड़े हुये क्षेत्रों में पूंजी निर्माण की दर को बढ़ाने में मौद्रिक नीति पर्याप्त सहायता कर सकती है ।

इस प्रयोजन से मौद्रिक नीति को निम्न तीन मोर्चों पर कार्य करना पड़ेगा:

(i) निजी निवेशों को बढ़ाना,

(ii) बचतों की गतिशीलता के लिये संस्थानिक संरचना का निर्माण और

(iii) सरकारी निवेश के लिये अतिरिक्त साधन जुटाना ।

अल्प विकसित देशों में, ब्याज का ढांचा उच्च स्तर का होता और अनेक असमानताओं का सामना करता है । ब्याज दर ढांचे को प्रभावित करके, मौद्रिक नीति निजी निवेश के संवर्धन के लिये कार्य कर सकती है । कहा जाता है कि सस्ती मुद्रा नीति किसी अल्प विकसित देश में पूंजी निर्माण का एक प्रभावी उपकरण होती है ।

ब्याज दर को कम करके, मौद्रिक प्राधिकरण साख की लागत को कम कर सकता है तथा लोगों को अधिक निवेश के लिये प्रेरित कर सकता है । सस्ती साख उपलब्ध करवा कर वास्तविक साधनों को पूंजी निर्माण की ओर मोड़ा जा सकता है ।

जहां केन्द्रीय बैंक की भूमिका सकारात्मक हो जाती है जो खुले बाजार की कार्यवाही द्वारा साख सुविधाओं का विस्तार कर सकती है तथा बैंक दर को कम कर सकती है । परन्तु इस नीति से साधनों के अनुत्पादक दिशा की ओर मुड़ जाने का भय होता है जिसे अर्थव्यवस्था में चयनित साख नियन्त्रण नीति द्वारा ठीक किया जा सकता है ।

मौद्रिक नीति निजी निवेश के प्रोत्साहन, ब्याज के उचित दर, वित्तीय संस्थाओं की स्थापना और घाटे की वित्त व्यवस्था द्वारा पूंजी निर्माण में मुख्य भूमिका निभा सकती है, परन्तु इसे अल्प विकसित देशों में सीमित सफलता ही प्राप्त होती है । इस सम्बन्ध में मौद्रिक नीति की भूमिका का आवश्यकता से अधिक अनुमान लगाना सही नहीं होगा ।

मौद्रिक नीति पूंजी निर्माण के संवर्धन के उपकरण के रूप में उतनी प्रभावी नहीं है जितनी कि राजकोषीय नीति । एक सरल मुद्रा नीति साख की उपलब्धता को आसान बना देती है परन्तु इस साख का प्रयोग नहीं होगा जब तक कि उच्च लाभ की प्रत्याशा न हो । ऐसी नीति स्फीतिकारी दबावों की ओर ले जा सकती है जो किसी क्षेत्र में आर्थिक विकास की प्रक्रिया को हानि पहुँचा सकते हैं ।

 

3. मौद्रिक नीति और कीमत स्थायित्व (Monetary Policy and Price Stability):

मौद्रिक नीति ने किसी पिछड़ी हुई अर्थव्यवस्था में स्फीतिकारी स्थितियों की रचना किये बिना आर्थिक विकास का संवर्धन करना होता है । आर्थिक विकास के लिये अतिरिक्त साधन जुटाने के साथ, केन्द्रीय बैंक को कीमतों में भी स्थायित्व रखना होगा ।

अत: इन देशों में मौद्रिक नीति को साख विस्तार और साख नियन्त्रण के दो भिन्न उद्देश्यों के लिये काम करना होगा । दोनों के बीच न्यायसंगत सन्तुलन रखना होगा । संक्षेप में, इसकी सफलता विकास के लिये पर्याप्त साधन जुटाने में निहित है जबकि दूसरी ओर इसे स्फीति को नियन्त्रण में रखना होगा ।

याद रहे कि अल्प विकसित देशों में केन्द्रीय बैंकों के पास साख नियन्त्रण की पारम्परिक और गैर-पारम्परिक विधियों द्वारा साख की मात्रा को नियन्त्रित करने के पर्याप्त रूप में प्रभावी साधन हैं । ऐसी अर्थव्यवस्थाओं में थोड़ी मात्रा में स्फीति को सहन किया जाता है और अर्थव्यवस्था में अधिक स्फीतिकारी दबाव मौद्रिक नीति द्वारा रोके जाने चाहिये ।

यदि स्फीति और आर्थिक विकास में चुनाव करना है तो आर्थिक स्थिरता के स्थान पर हल्की मात्रा में स्फीति को प्राथमिकता दी जानी चाहिये । इसलिये ऐसी अर्थव्यवस्थाओं में मौद्रिक नीति के सभी परम्परावादी मानकों को त्यागना होगा और नई गतिशील एवं विकास प्रवृतिक नीति का निर्माण करना होगा ।

ऐसी नीति न केवल साख की मात्रा को नियन्त्रित करने का लक्ष्य रखेगी बल्कि किसी अर्थव्यवस्था में साख के उपभोग पर भी प्रभावी नियन्त्रण रखेगी । एक स्फीति विरोधी नीति को मात्रात्मक और गुणात्मक नियन्त्रण का लक्ष्य रखना चाहिये ।

केन्द्रीय बैंक को चाहिये कि अपनी मौद्रिक नीति द्वारा साधनों को अर्थव्यवस्था में उच्च प्राथमिकता वाले वृद्धि संवर्धक क्षेत्रों की ओर मोड़े । इसके अतिरिक्त, गैर-आवश्यक और स्फीतिकारी क्षेत्रों की ओर साख के बहाव को कड़ाई से रोके ।

4. मौद्रिक नीति और भुगतानों के सन्तुलन में समत्व (Monetary Policy and Balance of Payments Equilibrium):

केन्ज़ और गुस्टव कैसेल (Keynes and Gustao Cassel) के अनुसार- किसी देश की मौद्रिक नीति के पास विनिमय दर के स्थायित्व के स्थान पर कीमत का उद्देश्य होता है । आर्थिक स्थायीकरण वाले विकास के विचार से यह परिचर्चा व्यर्थ है, आर्थिक स्थायित्व आवश्यक है और इसके अन्तर्गत केवल विनिमय दर का स्थायित्व ही नहीं बल्कि सब प्रकार का स्थायित्व अनुमानित है ।

किसी अल्प विकसित देश में मौद्रिक नीति का लक्ष्य भुगतानों के सन्तुलन के समत्व की प्राप्ति होनी चाहिये । यह देश प्राय: अपने आप को भुगतानों के सन्तुलन की कठिनाइयों में पाते हैं क्योंकि उनके थोड़े से निर्यातों की तुलना में विकासात्मक आयात अत्यधिक होते हैं ।

अन्य शब्दों में, विदेशी विनिमय का सकट इन देशों का एक सामान्य लक्षण बन गया है । मौद्रिक नीति उन्हें भुगतानों के सन्तुलन की कठिनाइयों से बचने में सहायता करती है ।

केन्द्रीय बैंक को इन देशों में भुगतानों के सन्तुलन की समस्याओं के समाधान के लिये विनिमय नियन्त्रण की स्पष्ट विधियां और नियन्त्रण की परम्परावादी विधियां जैसे बैंक दर नीति आदि का प्रयोग करना पड़ेगा ।

5. मौद्रिक नीति और घाटे की वित्त व्यवस्था (Monetary Policy and Deficit Financing):

किसी देश के आर्थिक विकास में घाटे की वित्त व्यवस्था मुख्य कारक है । जहां तक अल्प विकसित देशों का सम्बन्ध है वह पूंजी-घाटे वाले देश होते हैं । बचतें पूंजी निर्माण का मौलिक स्रोत होती हैं जब इन देशों का स्वैच्छिक बचत और आय अनुपात बहुत कम होता है ।

घाटे की वित्त व्यवस्था स्फीति की ओर ले जाती है, इस तथ्य के बावजूद, यह आर्थिक विकास के स्रोतों को गतिशील बनाने के लिये सरकार के हाथों में एक महत्त्वपूर्ण उपकरण है । अत: बचत दो प्रकार से हो सकती है- एक तो सामान्य कीमत स्तर को बढ़ा कर लोगों का उपभोग कम किया न सकता है, दूसरा घाटे की वित्त व्यवस्था द्वारा प्राप्त कोष का सरकार द्वारा प्रयोग करके ।

यह निवेश की मात्रा बढ़ाने में सहायक होगा । इस संदर्भ में कुरीहारा ने सिफारिश की है कि अल्प विकसित देशों को चाहिये कि जितनी तीव्रता से सम्भव हो सके स्फीति के भय की ओर ध्यान न देते हुए अपने उत्पादन साधनों को विकसित करें ।

इसी प्रकार वी. के. आर वी. राव का विचार है कि घाटे की वित्त व्यवस्था उस अनिवार्य बचत की मात्रा के सन्दर्भ में होती है जो सरकार हारा निवेश के समय के दौरान कीमतों में वृद्धि के कारण लोगों द्वारा प्रभावित की जाती है । इसलिये घाटे की वित्त व्यवस्था द्वारा रचित नये धन का उत्पादक मार्गों में प्रयोग किया जाना चाहिये जैसे यातायात के साधनों का विकास, संचार, बांध और सिंचाई आदि ।

संक्षेप में, एक सीमा में रहते हुये, घाटे की वित्त व्यवस्था को तीव्र आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करने के लिये न्यायसंगत ठहराया जा सकता है । लेकिन असीमित घाटे की वित्त व्यवस्था, अपने स्फीतिकारी प्रभाव के कारण, कुछ अच्छा करने के स्थान पर अनेक हानियां पहुंचा सकती है ।