मौद्रिक नीति और आर्थिक विकास | Read this article in Hindi to learn about the contribution of monetary policy in achieving economic growth.

आर्थिक वृद्धि के लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु मौद्रिक नीति का मुख्य योगदान द्विपक्षीय होता है:

(I) समग्र माँग का प्रबन्ध ।

(II) बचत एवं विनियोग को प्रोत्साहन ।

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उपर्युक्त की व्याख्या करते हुए सर्वप्रथम समग्र माँग के प्रबन्ध पर विचार करते हैं । मौद्रिक अधिकारी समग्र मौद्रिक माँग को वस्तु व सेवाओं की समग्र पूर्ति के साथ समंजित रखने का प्रयास करते हैं । इसके लिए एक लोचशील मौद्रिक नीति की आवश्यकता होती है ।

यदि देश में अतिरिक्त माँग है जिससे कीमतों में वृद्धि का सकट रहे तथा अनियन्त्रित तेजी की दशा दिखाई दे तब प्रबन्धित मौद्रिक नीति को लागू किया जायेगा । यदि समग्र माँग में कमी है तथा पूर्ति अतिरिक्त, जिससे कीमतों, उत्पादन, रोजगार एवं आय में ह्रास में हो रहा हो तो विस्तारवादी साख नीति को अपनाया जायेगा ।

दूसरा पक्ष है बचत एवं विनियोग को प्रोत्साहन जिसके लिए मौद्रिक अविकारी समुचित माहौल उत्पन्न कर सकने में समर्थ होते है । इस हेतु कीमत स्थायित्व के लक्ष्य को ध्यान में रखा जाता है ।

पूंजी निर्माण बचतों के द्वारा सम्भव होता है अतः मौद्रिक अधिकारी बैंकों, सहकारी समितियों व वित्तीय संस्थाओं के विस्तार द्वारा बचतों का संचय करने, लघु व मध्यम औद्योगिक इकाइयों के साथ कृषकों, व्यापारियों की साख आवश्यकता को पूरा कर मुद्रा व साख बाजार की अपूर्णताओं को दूर करने में प्रभावी भूमिका का निर्वाह कर सकता है ।

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विकास प्रेरित मुद्रा नीति कीमतों के उच्चावचन को सीमित करने वाली मुद्रा पूर्ति पर उतार-चढ़ाव ध्यान देती है । मुद्रा की पूर्ति पर नियन्त्रण से आर्थिक उतार-चढाव नियन्त्रित होते हैं ।

ई॰ एस॰ शॉ के अनुसार, मौद्रिक प्रणाली का दायित्व है कि वह आर्थिक इकाइयों एवं विधियों को मात्रात्मक एवं गुणात्मक रूप से निर्दिष्ट करें । वी॰ कृष्णामूर्ति अपने अध्ययन Monetary Equilibrium and Economic Development (1971) में लिखते हैं कि एक या एक से अधिक उद्देश्य जैसे पूर्ण रोजगार की प्राप्ति हेतु मौद्रिक नीति, चलन में मुद्रा के परिमाण के विस्तार अथवा संकुचन का प्रबन्ध करती है ।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि विकसित देशों में मौद्रिक नीति को आन्तरिक स्थायित्व एवं बाह्य सन्तुलन से सम्बन्धित किया जाता है वहीं कम विकसित देशों में मौद्रिक नीति आर्थिक परिवर्तन हेतु प्रभावपूर्ण भूमिका का निर्वाह करती है ।

इन देशों में आय रोजगार व पूँजी निर्माण के न्यून-स्तर विद्यमान होते हैं । अतः मौद्रिक नीति आय के स्तर को उच्च करने व अधिक रोजगार प्रदान करने में सक्षम होनी चाहिए ।

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साल्वाटोर एव डोवलिंग के अनुसार, कम विकसित देशों में मौद्रिक नीति को नियन्त्रण के समर्थ उपाय के रूप में देखा जा सकता है । यह तब सम्भव है जब इन देशों के वाणिज्यिक बैंकों द्वारा अपने कोषों के एक निश्चित प्रतिशत को विशेष सरकारी सेक्यूरिटीज के रूप में रखें ।

इससे कोषों की आवश्यकता में होने वाले परिवर्तनों के प्रति बैंक अधिक संवेदनशील बनेंगे और खुले बाजार की क्रियाओं से अधिक जुडे रहेंगे । कुछ अर्थशास्त्री सुझाव देते है कि चयनात्मक साख नियन्त्रण अधिक सहायक हो सकते है; जैसे-उपभोक्ता साख की मात्रा पर लगाए गए सरकारी नियमन, रीयल इस्टेट पर बैंक द्वारा दिए जा रहे ऋणों की मात्रा पर कुछ प्रतिशत तक रोक लगाना या इसकी परिसीमा तय करना एवं साख द्वारा वित्त पूरित वस्तुओं के आयात पर मात्रात्मक एवं गुणात्मक संरक्षण लगाना ।

उपभोक्ता साख की मात्रा को सीमित करते हुए एक बैंक मात्रात्मक एवं गुणात्मक संरक्षण लगाना । उपभोक्ता साख की मात्रा को सीमित करते हुए एक बैंक ऋणयोग्य कोषों की उपलब्ध पूर्ति के दबाव में कमी कर सकता है तथा विनियोग हेतु अधिक मुद्रा उपलब्ध कर सकता ।

रीयल इस्टेट पर दिए जा रहे ऋणों के प्रतिशत को कम कर एक बैंक अर्थव्यवस्था के अन्य उत्पादक क्षेत्रों की ओर ऋणों का प्रवाह बढ़ा सकता है या विविधीकृत कर सकता है । इसी प्रकार अनावश्यक आयातों हेतु ऋण अस्वीकृत कर या इनकी राशनिंग कर महत्वपूर्ण विनियोग कार्यक्रमों की ओर साख का प्रवाह बढाया जा सकता है ।

मौद्रिक नीति आर्थिक वृद्धि से सम्बन्धित कुछ प्रश्न महत्वपूर्ण हैं; जैसे-

(1) जहां नियमन की सरकारी क्षमता दुर्बल हो, तब वहाँ क्या साख को प्रभावित करने के लिए केन्द्रीय बैंक कुछ कर सकता है ?

नियमन की सरकारी क्षमता के कमजोर होने पर केन्द्रीय बैंक बहुधा साख की उपलब्धता के आकार को प्रभावित कर सकता है । ऐसी दशा में सामान्यतः सबसे बडा बैंक केन्द्रीय बैंक साख के परिणाम को जनता के साथ हुए लेन-देन द्वारा प्रभावित कर सकता है । अर्थव्यवस्था में विदेशी व्यापार क्षेत्र जितना अधिक सुदृढ होगा, बैंक की क्रियाएं उतनी ही कम प्रभावशाली होंगी ।

निर्यात प्राप्तियों में होने वाले मुख्य उच्चावचन मौद्रिक पूर्ति पर प्रत्यक्ष प्रभाव डालते हैं जिन्हें रोकने या क्षतिपूरित कर पाने में केन्द्रीय बैंक असमर्थ रहता है । यहाँ तक विदेशी सहायता के भी असमंजस भरे प्रभाव दिखाई देते हैं, विशेष रूप से जब यह वर्ष-प्रतिवर्ष बदलती है तथा आपूर्ति के समय इसके असहज प्रभाव देखे जाते हैं ।

कुछ देशों में सरकारी हस्तक्षेप ब्याज की दरों पर सीलिंग लगाता है जिसे बैंकों द्वारा वसूल किया जाता है । ब्याज की अधिकतम दर 12 प्रतिशत तक नियत होती है जिससे उन विनियोगियों को संरक्षण दिया जा सके जिन्होंने अपनी परियोजनाओं के लिए उधार लिया है ।

बैंक अपने वाणिज्यिक ग्राहकों को दिए जाने वाले कोष पर आश्रित रहता है जो मुख्यत: निर्यातक एवं आयातक होते है और वह क्षेत्र सामान्यत: समूची अर्थव्यवस्था का एक छोटा भाग होता है । बैंक कोषों की माँग वाणिज्यिक बैंकों के द्वारा भी की जाती है ।

चूंकि निजी व्यक्ति एवं कम्पनियों उस दशा में जब व्यापार से प्राप्त होने वाले लाभ अधिक आकर्षक होते है, उत्पादन हेतु अनिच्छा जताते है, तब बैंक भी अपने अधिकांश कोषों को वित्त प्रदान करने के लिए स्वाभाविक रूप से अधिक इक्षक रहते है ।

माँग के प्रबल होने पर वह अपने ग्राहकों को अधिक सेवाओं को देने के लिए प्रयासशील रहते है, दिए जाने वाले ऋण सापेक्षिक रूप से सुरक्षित होते है, ऋण की रातें अल्पकालीन या मध्यमकालीन अवधि की होती हैं तथा लिया जाने वाला ब्याज सापेक्षिक रूप से उच्च होता है ।

दूसरी ओर, उत्पादन के ऋण जिसे एक अर्थव्यवस्था आवश्यक रूप से विकास के लिए चाहती है, इतने सहज सरल नहीं होते, क्योंकि वह अधिक जोखिम युक्त होते हैं तथा तुरन्त लाभ भी प्रदान नहीं करते । यह बैंक के कोषों को एक लम्बी समय अवधि तक बाँध भी देते हैं ।

(2) दूसरा महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि कम विकसित देशों में एक प्रत्मिन्धात्मक कठोर मौद्रिक नीति के लागू होने पर व्यवसायी वर्ग क्या कर सकता है ?

यदि एक देश में केन्द्रीय बैंक आर्थिक क्रियाओं की रफ्तार को कम करने व मुद्रा-प्रसार से लड़ने हेतु कठोर मौद्रिक नीति का आश्रय लेता है तब उपक्रमी व्यवसायी घरेलू बैकिंग प्रणाली की अवहेलना करते हैं तथा अन्य स्रोतों से कोष एकत्रित करते हैं । वह बाह्य बाजारों से उधार लेना अधिक पसन्द करते है तथा आयातों का भुगतान इस ऋण से प्राप्त विदेशी करेन्सी के द्वारा कर देते हैं ।

इससे अर्थव्यवस्था को शिथिल करने के केन्द्रीय बैंक के प्रयास गडबडाते लगते हैं तथा दुर्लभ विदेशी कोषों की भविष्य माँग भी उत्पन्न होती है जब यह ऋण पुनर्भुगतान हेतु योग्य हो जाते हैं । कठोर घरेलू मुद्रा की समय अवधि में संसाधन युक्त उपक्रमी विदेशी आपूर्तिकर्ताओं से साख भी प्राप्त कर सकते हैं ।

संरक्षण की समय अवधि में विदेशी साख का क्रय कर तथा घरेलू साख के सुलभ होने पर पुनर्भुगतान करते हुए, स्थानीय व्यवसायी, बैंक के प्रयासों की प्रति चक्रीय गतियों की अवहेलना करता है । तीसरी सम्भावना एक व्यवसायी हेतु यह भी होती है कि वह अपने विदेशी ऋणों का कार्यकरण अपने देश में करें तथा स्थानीय करेन्सी हेतु केन्द्रीय बैंक को बेच दे ।

ऐसे में घरेलू मुद्रा पूर्ति में वृद्धि होती है जो केन्द्रीय बैंक के इरादों के विपरीत होती है । व्यवसायी ऐसे में केन्द्रीय बैंक की नीतियों से पृथक् स्वतन्त्र रूप से घरेलू उत्पादन या व्यापार की वित्तीय जरूरतें पूरी कर लेते है । चौथी सम्भावना यह है कि वह विदेशी बैंकों की स्थानीय शाखाओं से उधार ले लें ।

कम विकसित देशों की मौद्रिक नीति प्रमुख विदेशी बैंकों की शाखाओं की उपस्थिति से स्थिति को और जटिल बना देती है, क्योंकि यह शाखा कार्यालय पूर्णतः साख व कोषों के लिए स्थानीय बाजारों पर पूरी तरह निर्भर नहीं होते ।

यदि स्थानीय अधिकारी संरक्षित मौद्रिक उपायों को मुद्रा की पूर्ति को कम करने के लिए अपनाते हैं तो घरेलू साख को प्राप्त करना कठिन हो जाता है तथा ब्याज की दरों में वृद्धि होती है । ब्याज की दरें जब बढती है तो अन्तर्राष्ट्रीय बैंक अन्य देशों से अतिरिक्त कोष जुटाने हेतु प्रोत्साहित होते है जिससे वह अधिक दरों पर लाभ प्राप्त कर सकें ।

स्थानीय बैंकिंग अधिकारी बैंक के स्थानीय कोषों के प्रवाह को नियन्त्रित नहीं कर पाते तथा घरेलू मुद्रा पूर्ति के वांछित प्रभाव उत्पन्न नहीं होने देते । इस प्रकार एक कम विकसित देश में जहाँ मौद्रिक नीति परिस्थितियों वश दुर्बल हो विदेशी पूँजी का अन्तर्प्रवाह काफी अधिक जटिल प्रवाह पैदा कर देता है ।

(3) तीसरा प्रश्न यह है कि विदेशी ऋणों का पुनर्भुगतान करते हुए विकासशील देशों को किन समस्याओं का सामना करना पड़ता है ?

जन उधार ली गई मुद्रा के पुनर्भुगतान का समय आता है, तब विकासशील बचत एवं विदेशी विनिमय की दोहरी समस्या को झेलते है । यदि लिए गए ऋण से उत्पादकता में वृद्धि हुई है तब ऋण का भुगतान करने में कोई कठिनाई नहीं होती । लेकिन यदि ऋण अनुत्पादक है तो पुनर्भुगतान से उत्पादकता वृद्धि नहीं होती, आय का स्तर न्यून ही रहता है व जनता के जीवन-स्तर में ह्रास होता है । विदेशी विनिमय भी एक समस्या है ।

अधिकांश दशाओं में ऋण अवश्य ही ऋणदाता देश को विदेशी करेन्सी में वापस भुगतान किया जाना होता है । उधार लेने वाला यह प्रयास करता है कि वह आवश्यक विदेशी विनिमय को निर्यात प्राप्तियों के द्वारा बढ़ाए ।

यदि प्राप्त किए जाने वाले ऋण से निर्यात बढते ही या आयात प्रतिस्थापकों में सुधार हो तब पुनर्भुगतान कठिन नहीं होता । लेकिन यदि यह ऋण घरेलू उद्योग में प्रयोग किया जा रहा हो तब विदेशी विनिमय की पर्याप्त मात्रा प्राप्त करना एक समस्या हो सकती है ।

(4) चौथा प्रश्न यह है कि एक देश की व्यापार शर्तों में परिवर्तन विदेशी ऋण के पुनर्भुगतान की समस्या को किस प्रकार सुलझाता है ?

व्यापार शती के अनुकूल रहने की दशा में यदि एक देश विदेशी ऋण का प्रबन्ध करता है तथा जब निर्यात कीमतें उच्च रहती हैं तब वह निर्यातों की विशिष्ट मात्राओं की बिक्री के द्वारा ऋण का भुगतान कर देता है । व्यापार की शर्तें जितनी बेहतर होती है निर्यात हेतु वस्तुओं का परिमाण उतना ही कम होगा जिससे प्राप्त आय द्वारा ऋण का भुगतान किया जाए ।

यदि ऋण की समय अवधि में ही, व्यापार की शर्तें विपरीत हो जाएं, तब देश निर्यात के परिमाण में सापेक्षिक रूप से इतनी अधिक वृद्धि करेगा जिससे प्राप्त आय द्वारा भुगतान किया जा सके ।

व्यापार की शती में जितना अधिक ह्रास होगा, देश निर्यातों की मात्रा को बढ़ाएगा जिससे गिरती हुई निर्यात कीमतों को क्षतिपूरित किया जा सके । विकासशील देशों की व्यापार शर्तों में फेरबदल होते रहते है इसलिए कम विकसित देश तब हानि की दशा में रहते हैं जब ऋणों के पुनर्भुगतान आरम्भ होते है ।