लुईस का आर्थिक विकास का मॉडल | Lewis’s Model of Economic Development in Hindi.

प्रो. आर्थर लेविस ने अपने विकास मॉडल Economic Development with Unlimited Supplies of Labour (May 1954) में वृद्धि को पूँजीपति वर्ग की आय में होने वाले परिवर्तन के सन्दर्भ में स्पष्ट किया । यह मानते हुए कि अतिरेक भ्रम की पूर्ति असीमित होती है उन्होंने निष्कर्ष दिया कि उपक्रमी द्वारा उत्पादन में वृद्धि बिना मजदूरी में वृद्धि या लाभों में कमी किए की जा सकती है । समाज में पूँजीपति की बचत एवं विनियोग करने की सीमान्त प्रवृति सर्वाधिक होती है । अत: पूँजीवादी क्षेत्र के बढ़ने के अनुपात में ही अर्थव्यवस्था में वृद्धि होती है तथा सकल राष्ट्रीय उत्पादन एवं लाभ में वृद्धि होती है ।

दो क्षेत्र (Two Sectors):

प्रो. आर्थर लेविस के अनुसार एक अर्थव्यवस्था के दो क्षेत्र है:

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(1) घरेलू क्षेत्र,

(2) विनिमय क्षेत्र ।

आर्थिक विकास के प्रारम्भ होने पर घरेलू क्षेत्र संकुचित होता है तथा विनिमय क्षेत्र विस्तार करता है । लेविस ने एक द्वैत अर्थव्यवस्था में आर्थिक विकास की प्रक्रिया को अन्तक्षेंत्रीय सम्बन्धों के द्वारा स्पष्ट किया ।

श्रम की असीमित पूर्ति (Unlimited Supply of Labour):

लेविस का विश्लेषण मुख्यत: इस बिन्दु पर आधारित है कि जीवन-निर्वाह मजदूरी दर पर श्रम की पूर्णतया लोचदार पूर्ति विद्यमान विमान होती है । श्रम की असीमित पूर्ति से अभिप्राय है कि जीवन-निर्वाह मजदूरी दर पर श्रम की पूर्ति श्रम की माँग से अधिक होती है । लेविस ने कम विकसित देशों में अतिरेक श्रम के विविध वर्गों को ध्यान में रखा जिसके आधार पर उन्होंने अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन किया ।

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उन्होंने एक समूचे परिवार द्वारा कृषि किये जाने के बहुप्रचलित उदाहरण को ध्यान में रखा जिसमें यदि कुछ सदस्य किसी दूसरे रोजगार में लग जाते है तब भी परिवार द्वारा किए जाने वाले उत्पादन में कोई कमी नहीं दिखायी देती । उन्होंने ठीक ऐसी ही दशाएँ शहरों में भी पायीं । शहरों में दुकानों या स्टोर पर अधि-रोजगार की दशा देखी जाती है । परिवार के कुछ सदस्य यदि अपनी दुकान या स्टोर से हर अन्यत्र रोजगार करें तब भी दुकान की बिक्री पर कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ता ।

लेविस ने आकस्मिक पेशों को छद्म बेरोजगारी के लक्षण के रूप में प्रकट किया । उन्होंने बन्दरगाह का उदाहरण लेते हुए कहा कि वहाँ श्रमिक, टूरिस्ट गाइड, अनुवादक इत्यादि बहुत बड़ी संख्या में जहाज के आने पर रोजगार मिलने की आशा करते है । यदि इनकी संख्या में थोड़ी कमी भी हो तो भी अर्थव्यवस्था की क्षमता या उससे प्राप्त होने वाली सेवाओं पर बुरा प्रभाव नहीं पड़ेगा ।

लेविस ने विकास की प्रक्रिया में महिलाओं की भूमिका को स्पष्ट किया । अर्द्धविकसित देशों में महिलाएँ अधिकांशत: अपने घर एवं खेत से बाहर कार्य नहीं करतीं । समाज न तो इसके लिए उन्हें प्रोत्साहित करता है व न ही उनके लिए काम के बेहतर अवसर विद्यमान होते है । लेविस के अनुसार बाजार अर्थव्यवस्था में आधी से अधिक श्रमशक्ति समर्थ रूप से क्रियाशील नहीं होती । इस प्रकार लेविस के अनुसार श्रम की असीमित पूर्ति विद्यमान होती है ।

लेविस का मॉडल (Model of Arthur Lewis):

लेविस ने श्रम की असीमित पूर्ति के द्वारा आर्थिक विकास के मॉडल को बन्द अर्थव्यवस्था एवं खुली अर्थव्यवस्था के सन्दर्भ में विश्लेषित किया । बन्द अर्थव्यवस्था के सन्दर्भ में मॉडल की व्याख्या-लेविस ने निम्न मान्यताओं के आधार पर असीमित श्रम पूर्ति के द्वारा आर्थिक विकास की प्रक्रिया को विश्लेषित किया ।

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बन्द अर्थव्यवस्था के संदर्भ में मॉडल की व्याख्या-लेविस ने निम्न मान्यताओं के आधार पर असीमित श्रम पूर्ति के द्वारा आर्थिक विकास की प्रक्रिया का विश्लेषित किया:

(1) एक अर्द्धविकसित देश के दो मुख्य क्षेत्र हैं:

पूँजीवादी क्षेत्र अर्थव्यवस्था का वह भाग है जो पूर्ण-उत्पादनीय पूँजी का प्रयोग करता है एवं इसके प्रयोग हेतु पूँजीपति को भुगतान करता है । पूँजी का प्रयोग पूँजीपति के द्वारा नियन्त्रित किया जाता है जो पूर्ण-उत्पादनीय पूँजी एवं मजदूरी पर कार्य करने वाले श्रम का उपयोग करते हैं ।

पूँजीवादी क्षेत्र में श्रम को काम पर लगाकर उत्पादन को लाभ पर बेचा जाता है । यहाँ श्रम को काम पर लगाना एवं लाभ उद्देश्य मुख्य है । पूँजीवादी क्षेत्र में उपक्रम निजी या सार्वजनिक दोनों ही प्रकार के हो सकते है । इसके अन्तर्गत मात्र विनिर्मित वस्तुएँ ही नहीं वरन् खनन एवं बागान भी शामिल होते हैं ।

(2) जीवन-निर्वाह क्षेत्र अर्थव्यवस्था का वह भाग है जो पुर्नउत्पादनीय पूँजी का प्रयोग नहीं करता । इसे घरेलू परम्परागत क्षेत्र या स्वरोजगार क्षेत्र भी कहा जाता है । उत्पादन की विद्यमान परम्परागत तकनीकों के अधीन जीवन-निर्वाह क्षेत्र में प्रति व्यक्ति उत्पादन पूँजीवादी क्षेत्र की तुलना में निम्न होता है । जीवन-निर्वाह क्षेत्र में परिवार के कुछ सदस्यों की सीमान्त उत्पादकता औसत उत्पाद से निम्न होती है । इसी कारण जीवन-निर्वाह क्षेत्र में छद्म बेकारी की प्रवृति देखी जाती है । जीवन-निर्वाह क्षेत्र में प्रचलित मजदूरी की दर पर कार्य किया जाता है ।

(3) अर्द्धविकसित देश में पूँजी व प्राकृतिक संसाधन देश की जनसंख्या के सापेक्ष सीमित होते हैं । पूँजीवादी क्षेत्र को अपने विकास के लिए प्रशिक्षित श्रम की आवश्यकता होती है । जीवन-निर्वाह क्षेत्र में श्रम की सीमान्त उत्पादकता अत्यन्त न्यून शून्य या ऋणात्मक भी हो सकती है । कुशल श्रमिकों का अभाव होता है । इसी कारण प्रशिक्षित श्रम की पूर्ति असीमित नहीं होती । लेविस ने प्रशिक्षित श्रम की कमी को अर्द्धबाधा माना । यह बाधा अकुशल श्रमिकों को प्रशिक्षण प्रदान कर तथा प्रशिक्षित श्रमिकों के आयात द्वारा दूर की जा सकती है ।

(4) जीवन-निर्वाह क्षेत्र में जीवन-निर्वाह मजदूरी का निर्धारण उस न्यूनतम आय द्वारा किया जाता है जो जीवन-निर्वाह के लिए आवश्यक होती है; अर्थात् पूंजीवादी क्षेत्र में मजदूरी का स्तर जीवन-निर्वाह क्षेत्र में प्राप्त होने वाली आय पर निर्भर करता है । लेविस ने स्पष्ट किया कि जीवन-निर्वाह क्षेत्र में श्रमिकों को प्राप्त होने वाली आय पूंजीवादी क्षेत्र में मजदूरी की न्यूनतम सीमा को निर्धारित करती है । वास्तव में मजदूरी का स्तर जीवन-निर्वाह क्षेत्र में प्राप्त मजदूरी से अधिक होती है । लेविस के अनुसार पूँजीवादी क्षेत्र एवं जीवन-निर्वाह आय में 30 प्रतिशत या इससे अधिक अन्तर होता है ।

(5) पूँजीवादी एवं जीवन-निर्वाह क्षेत्र के मध्य आधारभूत सम्बन्ध यह है कि जब पूँजीवादी क्षेत्र विस्तार करता है तब यह जीवन-निर्वाह क्षेत्र से श्रमिकों को आकर्षित करता है । श्रम की अतिरिक्त पूर्ति कृषिकों, आकस्मिक मजदूरों, छोटे व्यापारियों, घरेलू नौकरों, घरों में कार्यरत महिलाओं एवं जनसंख्या में होने वाली वृद्धि से प्राप्त की जाती है । अत: पूँजीवादी क्षेत्र में अप्रशिक्षित श्रम की पूर्ति को पूर्णतया लोचदार माना जाता है ।

(6) अप्रशिक्षित श्रम पूर्ति की उपलब्धता से पूंजीवादी क्षेत्र में नए उद्योगों को स्थापित करना एवं उद्योगों का विस्तार करना सम्भव होता है । पूँजीवादी क्षेत्र में विनियोग का आकार जनसंख्या वृद्धि के सापेक्ष निरपेक्ष रूप से अधिक नहीं होता अर्थात् जनसंख्या गुणक के कार्यशील रहने की मान्यता ध्यान में रखी गयी है ।

आर्थिक विस्तार की प्रक्रिया:

पूँजीवादी क्षेत्र में विस्तार होने पर जीवन-निर्वाह क्षेत्र से श्रमिकों को आकृष्ट किया जाता है । पूँजीवादी एवं जीवन-निर्वाह क्षेत्र में मजदूरी की दरें भिन्न-भिन्न होती है । जीवन-निर्वाह क्षेत्र में मजदूरी की दर का निर्धारण जीवन-निर्वाह उपभोग के लिए आवश्यक न्यूनतम प्राप्तियों के आधार पर होता है ।

विस्तार कर रहे पूँजीगत क्षेत्र के द्वारा अकुशल श्रमिक को दी जाने वाली मजदूरी का निर्धारण जीवन-निर्वाह क्षेत्र की प्राप्तियों द्वारा होता है । व्यक्ति जीवन-निर्वाह क्षेत्र को छोड़ कर अन्य क्षेत्र में तब तक रोजगार खोजने नहीं जाता जब तक उसे प्रदान करने वाली मजदूरी उसके औसत उत्पाद के बराबर हो ।

इसी कारण पूँजीवादी क्षेत्र द्वारा प्रदान की गयी मजदूरी जीवन-निर्वाह क्षेत्र की प्राप्तियों से कुछ अधिक होनी चाहिए । आर्थर लेविस के अनुसार पूंजीवादी क्षेत्र में प्रदान की जाने वाली मजदूरी एवं जीवन-निर्वाह प्राप्तियों में 30 प्रतिशत या इससे अधिक का अन्तर रहता है ।

इन दोनों क्षेत्रों में मजदूरी स्तर की भिन्नताओं को निम्न बिन्दुओं द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है:

(1) जीवन-निर्वाह प्राप्तियों से अधिक मजदूरी इस कारण नियत की जाती है ताकि श्रमिक को पूँजीवद्री क्षेत्र में आकर्षित किया जा सके । जीवन-निर्वाह क्षेत्र में व्यक्ति सरल परम्परागत जीवन व्यतीत करता है । उसे पूँजीवादी क्षेत्र की ओर आकर्षित करने के लिए हस्तान्तरण की मनोवैज्ञानिक अनुपयोगिताओं की क्षतिपूर्ति की जानी आवश्यक हो जाती है ।

(2) छद्म बेरोजगारी के विद्यमान होने के कारण जीवन-निर्वाह क्षेत्र से पूंजीवादी क्षेत्र की ओर श्रम के हस्तान्तरण होने पर कुल उत्पादन में कोई परिवर्तन नहीं होता । जीवन-निर्वाह क्षेत्र से कुछ व्यक्तियों को पूँजीवादी क्षेत्र में लिए जाने पर जीवन-निर्वाह क्षेत्र के निवासियों का औसत उत्पादन एवं वास्तविक आय बढ़ जाती है ।

(3) पूँजीवादी क्षेत्र सामान्यत: शहरों में केन्द्रित होता है जहाँ भोजन, मकान का किराया, यातायात व्यय पर अधिक खर्च आता है । जीवन-निर्वाह क्षेत्र से श्रमिक पूंजीवादी क्षेत्र में कार्य करने तब आएगा जब उसे शहरों की अधिक लागतों को वहन करने के लिए जीवन-निर्वाह क्षेत्र से अधिक मजदूरी मिले ।

(4) पूँजीवदी क्षेत्र में कार्य करने वाला श्रमिक अधिक परिष्कृत रुचियों एवं सामाजिक प्रतिष्ठा से प्रभावित होता है । शहरों में प्रदर्शन प्रभाव अधिक तेजी से कार्य करता है । इन घटकों के कारण रहन-सहन की लागतें ऊँची होती हैं । पूँजीवादी क्षेत्र में कार्य करने वाले श्रमिक अधिक मजदूरी प्राप्त करने के लिए श्रम संघों का गठन करते हैं ।

लेविस के मॉडल में वृद्धि की प्रक्रिया का मुख्य लाभ है । इसे पूंजीवादी अतिरेक के द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है । लेविस के अनुसार अल्पविकसित देशों में आर्थिक विकास की दर मुख्यत: पूँजीवादी अतिरेक के उत्पन्न होने एवं उसके प्रयोग पर निर्भर करती हैं ।

पूँजीवादी अतिरेक का सृजन:

वस्तुत: पूँजीपति लाभ के अधिकतमीकरण का लक्ष्य रखता है । पूँजीपति बचत करता है तथा इसका विनियोग करता है । पूँजीवादी क्षेत्र में श्रम की सीमान्त उत्पादकता पूँजीवादी क्षेत्र द्वारा प्रदान की जाने वाली मजदूरी से अधिक होती है जिसके कारण पूँजीवादी अतिरेक की प्राप्ति होती है । पूँजीपति द्वारा प्राप्त अतिरेक को चित्र 1 द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है ।

चित्र में X-अक्ष में श्रम की मात्रा तथा Y-अक्ष में मजदूरी एवं सीमान्त उत्पाद प्रदर्शित किया गया है । जीवन-निर्वाह प्राप्तियों को OS दूरी के द्वारा दिखाया गया है । पूँजीवादी क्षेत्र की वास्तविक मजदूरी दर को OW के द्वारा प्रदर्शित किया गया है जो जीवन-निर्वाह प्राप्तियों से SW अधिक है ।

 

पूँजीपति क्षेत्र द्वारा प्रदान की गयी मजदूरी OW पर श्रम की पूर्ति असीमित है । इसलिए श्रम के पूर्णतया लोचदार पूर्ति वक्र को ४स्थ के द्वारा दिखाया गया है । श्रम की माँग को सीमान्त उत्पादकता अनुसूची क्रम के द्वारा प्रदर्शित किया गया है ।

पूंजीवादी क्षेत्र में लाभ के अधिकतमीकरण के मुख्य लक्ष को ध्यान में रखते हुए उत्पादक पूँजी को उस बिन्दु तक लगाएगा जहाँ श्रम की सीमान्त उत्पादकता प्रचलित मजदूरी के बराबर हो । चित्र से स्पष्ट है कि श्रम की सीमान्त उत्पादकता रेखा NR, प्रचलित मजदूरी रेखा WW’ को बिन्दु P पर काटता है । P बिन्दु पर श्रम की सीमान्त उत्पादकता प्रचलित मजदूरी के बराबर है । अत: यहीं पूँजीवादी क्षेत्र में OM से अधिक श्रमिकों को कार्य नहीं दिया जाएगा । शेष श्रमिक जीवन-निर्वाह क्षेत्र में कार्य करते रहेंगे ।

चित्र से स्पष्ट है कि पूँजीवादी क्षेत्र द्वारा उत्पादित कुल उत्पाद NPMO है । प्रति व्यक्ति वास्तविक मजदूरी OW पर ON श्रमिकों को काम पर लगाया जाता है । अत: कुल श्रमिकों को वितरित कुल मजदूरी कोष OW × OM = OWPM होगा । इन दोनों का अन्तर या NPMO – OWPM = NPW पूँजीवादी अतिरेक अथवा लाभ है ।

लेविस के मॉडल में आर्थिक विस्तार की प्रकिया में पूँजीवजी अतिरेक की भूमिका महत्वपूर्ण है । आर्थिक विस्तार हेतु आवश्यक है कि पूँजीवादी अतिरेक का पुर्नविनियोग किया जाए जिससे नयी पूँजी का सृजन हो, इस अतिरेक के एक भाग को नयी पूँजी के सृजन हेतु पुर्नविनियोजित किया जाता है ।

अत: स्थिर पूँजी की मात्रा में वृद्धि होती है तथा श्रम की सीमान्त उत्पादकता अनुसूची में विस्तार होता है । चित्र 2 में श्रम की सीमान्त उत्पादकता सूची N1R1 है । यहाँ पूँजीवादी अतिरेक N1P1W है । इसके पुर्नविनियोग से श्रम की सीमान्त उत्पादकता बढ़कर N2P2 हो जाती है जो WW’ रेखा को P2 बिन्दु पर काटती है जहाँ OW मजदूरी पर OM2 श्रमिकों को रोजगार मिलता है ।

इस प्रकार मजदूरों को वितरित कुल कोष OWP2M2 है । कुल उत्पादन ON1, P1M1 से बढ़कर ON2P2M2 हो जाता है । स्पष्ट है कि पूंजीवादी अतिरेक या लाभ ON2P2M2 – OWP2M2 = WN2P2 हो जाता है । इस बड़े हुए पूंजीवादी अतिरेक का एक भाग पुन: पुर्नविनियोजित किया जाता है जिससे कुल उत्पादन में और अधिक वृद्धि होती है । स्पष्ट है कि अगली अवस्था में N3P3W पूँजीवादी अतिरेक प्राप्त होगा ।

इस पूँजीवादी अतिरेक का पुर्नविनियोग पुन जीवन-निर्वाह क्षेत्र से और अधिक मजदूरों को आकर्षित करेगा, उत्पादन बढ़ेगा तथा साथ ही पूंजीवादी अतिरेक भी बढ़कर N4P4W हो जाएगा । यह प्रक्रिया तब तक चलती रहेगी जब तक अतिरेक श्रम उपलब्ध रहेगा ।

लेविस के विश्लेषण के अनुमार पूँजी निर्माण का मुख्य स्रोत लाभ है । राष्ट्रीय आय में लाभ का अंश जितना अधिक होगा विकास की सम्भावनाएं उतनी ही बढेंगी । लेविस के अनुसार पूँजीवादी क्षेत्र को प्राप्त होने वाले लाभ का अंश राष्ट्रीय उत्पादन में पूँजीवादी क्षेत्र की अधिकता पर निर्भर करता है । अत: जैसे-जैसे पूँजीवादी क्षेत्र का विस्तार होता है तथा मजदूरी-कीमत अनुपात स्थिर रहता है । राष्ट्रीय आय में लाभ का अंश बढ़ता है । स्पष्ट है कि लाभ की प्राप्ति से ही बचत सम्भव है ।

लेविस ने स्पष्ट किया कि यदि श्रम की असीमित पूर्तियों स्थिर वास्तविक मजदूरी पर उपलब्ध ही तथा यदि लाभों का कोई भाग उत्पादक क्षमता में पुर्नविनियोजित किया जाए तो लाभ निरन्तर रूप से राष्ट्रीय आय के सापेक्ष बढ़ेंगे एवं पूँजी निर्माण भी राष्ट्रीय आय के सापेक्ष बढ़ेगा ।

वृद्धि की प्रक्रिया का अन्त (End of Growth Process):

लेविस के अनुसार यदि एक स्थिर वास्तविक मजदूरी की दर पर श्रम की असीमित पूर्ति उपलब्ध हो तथा यदि लाभ का कोई अंश उत्पादन क्षमता की ओर पुर्नविनियोजित किया रहा हो तब राष्ट्रीय आय के बढ़ने के साथ-साथ लाभ बढेंगे राष्ट्रीय आय के बढ़ने के साथ-साथ पूँजी निर्माण में भी वृद्धि होगी । स्पष्ट है कि पूंजीवादी अतिरेक या लाभ की प्राप्ति एक मुख्य बिन्दु है । जब तक पूँजीवादी अतिरेक प्राप्त होगा इसके पुर्नविनियोग से राष्ट्रीय आय बढ़ेगी तथा अर्थव्यवस्था आर्थिक वृद्धि के पथ पर जाती रहेगी ।

अत: पूँजीवादी अतिरेक की वृद्धि अधिक से अधिक अतिरेक श्रम के उपयोग से सम्बन्धित है । वृद्धि की यह प्रक्रिया तब सकेगी जब अतिरेक श्रम न रहे लेविस के अनुसार वृद्धि इससे पूर्व के बिन्दु पर भी थम सकती है । ऐसा तब होता है जब वास्तविक मजदूरी इतनी अधिक बढ़ जाए कि यह पूंजीपति को प्राप्त होने वाले लाभों में कमी करना बन्द कर दे । लाभ इतने कम हो जाएँ कि उनका समस्त भाग उपभोग पर व्यय हो जाएँ तथा विनियोग हेतु कुछ भी न बचे ।

शुद्ध विनियोग के शून्य होने की स्थिति तब आ सकती है, जबकि:

(1) पूंजी संचय की दर जनसंख्या में होने वाली वृद्धि के सापेक्ष कहीं अधिक हो जिसके फलस्वरूप जीवन-निर्वाह क्षेत्र में निवास करने वाले व्यक्तियों की संख्या में निरपेक्ष कमी हो जाए । इसके साथ ही जीवन-निर्वाह क्षेत्र में औसत उत्पादन बढ़े । इसके फलस्वरूप जीवन-निर्वाह मजदूरी में वृद्धि होगी तथा पूँजीवादी क्षेत्र की मजदूरी भी बढ़ेगी । अत: पूँजीवादी अतिरेक के परिमाण में कमी आएगी । ऐसी स्थिति तब नहीं आएगी जबकि जनसंख्या की वृद्धि पूंजीवादी क्षेत्र में होने वाली वृद्धि की दर से अधिक रहे ।

(2) जीवन-निर्वाह क्षेत्र में तकनीकी प्रगति सम्भव हो जिससे उयादकता का स्तर बड़े । इससे भी जीवन निर्वाह क्षेत्र की प्राप्तियों का स्तर बढ़ेगा तथा पूँजीवादी क्षेत्र की मजदूरी बढ़ेगी । अत: पूँजी संचय की दर एवं पूँजीवादी अतिरेक में कमी होगी ।

(3) कच्चे पदार्थों एवं खाद्यानों की कीमतों में वृद्धि होने से व्यापार की शर्तें पूँजीवादी क्षेत्र के विरूद्ध हो जाती है । इसका एक कारण यह भी है कि पूंजीवादी क्षेत्र के द्वारा खाद्यान्न उत्पादित नहीं किए जाते । जब पूँजीवादी क्षेत्र का विस्तार होता है तब खाद्यान्नों की माँग बढ़ती है । इस प्रकार व्यापार की शर्तें पूँजीवादी क्षेत्र के विरूद्ध हो जाती है । यदि श्रमिकों की वास्तविक आय को स्थिर रखा जाये तब भी पूँजीवादी क्षेत्र में दी जाने वाली मजदूरी बढ़ती है तथा जीवन-निर्वाह प्राप्तियाँ भी बढ़ती है । अत: पूँजीवादी अतिरेक में कमी उत्पन्न होती है ।

(4) यदि पूँजीवादी क्षेत्र की उत्पादकता अपरिवर्तित रहती है तब भी पूँजीवादी क्षेत्र के श्रमिक पूँजीवादी जीवन पद्धति का अनुसरण करते हैं उनकी आवश्यकता बढ़ती है । इसके परिणामस्वरूप जीवन-निर्वाह प्राप्तियाँ बढ़ती है तथा पूँजीवादी मजदूरी भी बढ़ती है । अत: पूँजीवादी अतिरेक एवं पूँजी संचय की दर निम्न हो जाती है ।

लेविस का मॉडल – खुली अर्थव्यवस्था की दशा (Model of Lewis – The Open Economy Case):

खुली अर्थव्यवस्था में लेविस का मॉडल निम्न बिन्दुओं पर आधारित है:

(1) श्रमिकों का अप्रवास:

जीवन-निर्वाह क्षेत्र में अकुशल श्रमिकों का अप्रवास अन्य देशों की ओर होने से श्रम आयात करने वाले देश के पूंजीवादी क्षेत्र में विस्तार की प्रक्रिया बढ़ने लगती है ।

(2) पूँजी का निर्यात:

पूँजी का निर्यात घरेलू अर्थव्यवस्था में स्थिर पूंजी के सृजन में कमी करता है । इससे श्रम की माँग पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है । पूँजी का निर्यात घरेलू अर्थव्यवस्था में मजदूरी की कमी की प्रवृति भी उत्पन्न कर सकता है ।

अर्न्तराष्ट्रीय व्यापार की दशाओं का उल्लेख करते हुए लेविस ने स्पष्ट किया कि ऐसे देश जिनकी जनसंख्या के सापेक्ष कृषि संसाधन अपर्याप्त है उन्हें विनिर्मित वस्तुओं का निर्यात करना चाहिए तथा खाद्यान्नों का आयात करना चाहिए । ऐसे देश जिनके पास पर्याप्त कृषि संसाधन है उन्हें कृषि उत्पादों का निर्यात करना चाहिए ।

आलोचनात्मक विश्लेषण (Critical Evaluation):

आर्थर लेविस का विश्लेषण एक द्वैत अर्थव्यवस्था में अर्न्तक्षेत्रीय सम्बन्धों एवं विकास की प्रक्रिया को स्पष्ट करता है । कुछ निश्चित दशाओं के अधीन यह सिद्धान्त अधिक जनसंख्या वाले अर्द्धविकसित देशों हेतु सार्थक विवेचन प्रस्तुत करता है ।

इस सिद्धान्त की सीमाएँ निम्न बिन्दुओं द्वारा स्पष्ट की जा सकती है:

(1) श्रम की पूर्ति असीमित नहीं:

लेविसने अर्द्धविकसित देशों में श्रम की पूर्ति को असीमित माना । वस्तुत: यह मान्यता कई अर्द्धविकसित देशों के सन्दर्भ में सत्य है । परन्तु कई अफ्रीकी एवं लेटिन अमेरिकी देश ऐसे भी है जहाँ जनसंख्या का घनत्व काफी कम है । अत: इन देशों में छद्म बेकारी की प्रवृतियाँ नहीं पायी जाती है ।

(2) श्रम का प्रशिक्षण-एक समस्या:

लेविस के अनुसार अर्द्धविकसित देशों में श्रमिक अकुशल होता है तथा उन्हें उचित प्रशिक्षण प्रदान करके कुशल बनाया जा सकता है । वस्तुत: श्रम का प्रशिक्षण एवं कौशल निर्माण एवं दीर्घकालीन एवं स्थायी समस्या है ।

(3) यह माना गया कि पूँजीवादी क्षेत्र में तब तक एक स्थिर मजदूरी दर विद्यमान होती है जब तक कि जीवन-निर्वाह क्षेत्र से असीमित श्रम पूर्ति प्राप्त होती रहे । यह मान्यता इस कारण अवास्तविक है, क्योंकि एक अर्द्धविकसित देश के औद्योगिक क्षेत्र में खुली बेकारी की दशा विद्यमान होने पर भी मजदूरी की दरें बढ़ती रहती हैं । स्पष्ट है कि स्थिर मकरी की मान्यता अवास्तविक है ।

(4) पूंजीवादी अतिरेक का पुर्नविनियोग हमेशा नहीं:

लेविस के अनुसार पूँजीवादी अतिरेक को उत्पादक पूँजी में पुर्नविनियोजित किया जाता है । लायड रेनाल्ड ने अपने शोध लेख में स्पष्ट किया कि यदि उत्पादक पूँजी श्रम बचत करने वाली हों तब यह श्रम का अवशोषण नहीं कर पाएगी । ऐसी दशा में यह सिद्धान्त क्रियान्वित नहीं हो सकता ।

(5) मात्र कृषि क्षेत्र में ही अतिरेक श्रम समस्या नहीं:

सुब्रता घटक तथा फेन इनगरसेंट के अनुसार अतिरेक श्रम केवल कृषि क्षेत्र में ही नहीं पाया जाता बल्कि कई कम विकसित देशों, औद्योगिक कस्बों व शहरों में भी पाया जाता है । शहरों में विद्यमान अतिरेक श्रम का अवशोषण औद्योगिक क्षेत्र द्वारा किए जाने पर कृषि से उद्योग की ओर होने वाले श्रम हस्तान्तरण का विपरीत प्रभाव पड़ेगा ।

(6) उद्यमी प्रेरणाओं का अभाव:

लेविस के अनुसार अर्द्धविकसित देशों में पूँजीपति के द्वारा उद्यमी प्रेरणा का विकास नहीं किया जाता है । वस्तुत: इन देशों में आदर्श पूँजीपति विद्यमान नहीं होता ।

(7) समग्र माँग की समस्या पर विचार नहीं:

लेविस का मॉडल समग्र माँग की समस्या पर विचार नहीं करता । यह माना जाता है कि पूँजीवादी क्षेत्र के उत्पादन को बाजार प्राप्त करने में कोई समस्या नहीं होती । इस क्षेत्र के उत्पादन को या तो पूँजीवादी क्षेत्र द्वारा उपभोग कर लिया जाता है अथवा इसका निर्यात कर दिया जाता है । पूँजीवादी क्षेत्र के उत्पादन को जीवन-निर्वाह क्षेत्र में भी खपाया जा सकता है, जबकि जीब्रन-निर्वाह क्षेत्र में पर्याप्त क्रय शक्ति क्षमता हो । यह हमेशा सम्भव नहीं है कि बढ़ते हुए उत्पादन को हमेशा इसी प्रकार खपा लिया जाये ।

(8) गुणक प्रभाव लागू नहीं:

यह सिद्धान्त मान कर चलता है कि पूँजीपति वर्ग लाभों का पुर्न विनियोजन करते है जिससे पूँजी संचय की प्रक्रिया चलती रहती है । इस प्रसंग में विनियोग गुणक की कार्यशीलता आवश्यक है लेकिन कम विकसित देशों में विनियोग गुणक हमेशा कार्यशील नहीं होता । यदि श्रमिकों द्वारा उपभोग की जाने वाली वस्तुओं की कीमतें बढ़ जाएँ या किसी कारण लाभ कम हो जाएँ तब अतिरेक श्रम के अवशोषण से पूर्व ही पूँजी निर्माण की प्रक्रिया रुक जाती है ।

(9) श्रम की गतिशीलता में बाधाएँ:

पूएंजीवादी क्षेत्र द्वारा जीवन-निर्वाह प्राप्तियों से अधिक मजदूरी प्रदान किए जाने के बावजूद भी श्रम जीवन-निर्वाह क्षेत्र से पूंजीवादी क्षेत्र की ओर आसानी से गतिशील नहीं होता । व्यक्ति अपने घर, परिवार, वातावरण, सामाजिक बन्धनों व धार्मिक कारणों से अपने मूल स्थान को छोड़ना नहीं चाहते । देश के विभिन्न राज्यों व क्षेत्रों में भाषा, खान-पान, रीति-रिवाजों की भिन्नता होने एवं पूँजीवादी क्षेत्रों में भोजन, आवास व आवश्यक सुविधाओं के महंगे होने के कारण भौगोलिक गतिशीलता भी सीमित होती है ।

(10) आंशिक या प्रच्छन्न बेरोजगारी की समस्या पर विचार नहीं:

लेविस ने अर्द्धविकसित देशों में पायी जाने वाली आशिक व प्रच्छन्न बेरोजगारी की समस्या पर विचार नहीं किया ।

(11) श्रम की सीमान्त उत्पादकता को शून्य मानना त्रुटिपूर्ण:

प्रो. शूल्ज के अनुसार लेविस की यह मान्यता त्रुटिपूर्ण है कि अधिक जनसंख्या वाले देशों में श्रम की सीमान्त उत्पादकता शून्य या नहीं के बराबर होती है । ऐसा होने पर जीवन-निवाह मजदूरी भी शून्य होगी । यह ध्यान रखना पड़ेगा कि जीवन-निर्वाह क्षेत्र में श्रमिकों को भुगतान नकद रूप से न किया जाकर किस्म में किया जाये । इस स्थिति में पूँजीवादी क्षेत्र की ओर जाने वाले अतिरेक श्रमिकों की सही संख्या ज्ञात करना कठिन हो जाता है ।

(12) जीवन-निर्वाह क्षेत्र से थम का प्रवास होने पर उत्पादकता गिरती है:

लेविस की मान्यता है कि जब जीवन-निर्वाह क्षेत्र से श्रम पूँजीवादी क्षेत्र की ओर जीवन-निर्वाह क्षेत्र में होने वाला कृषि उत्पादन अप्रभावित रहता है । शूल्ज के अनुसार यह मान्यता अव्यावहारिक है । वस्तुत: जीवन-निर्वाह क्षेत्र से श्रमिकों के पलायन व प्रवास के कारण इस क्षेत्र की उत्पादकता प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभावित होती है ।

(13) निम्न आय समूह द्वारा बचत सम्भव:

लेविस का विचार था कि उच्च आय वाले 10 प्रतिशत व्यक्तियों के द्वारा ही अधिकांश आय बचायी जाती है । वस्तुत: निम्न आय वर्ग भी अनेक सामाजिक कारणों से बचत करते है । उच्च आय वर्ग में प्रदर्शन प्रभाव की क्रियाशीलता के कारण बचतों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है ।

(14) अकुशल कर प्रबन्ध:

लेविस के अनुसार करारोपण से आय में वृद्धि होती है लेकिन यह अर्द्धविकसित देशों के सन्दर्भ में प्रासंगिक नहीं है, क्योंकि कर एकत्रित करने में यह देश कुशल प्रबन्ध की व्यवस्था नहीं कर पाते ।

(15) आर्थिक विषमता में वृद्धि:

प्रो. साइमन कुजनेट्‌स के अनुसार कम विकसित देशों में लेविस का मॉडल आर्थिक विषमता की वृद्धि करता है ।

(16) मुद्रा प्रसार स्वयं समाप्त होने की प्रवृति नहीं रखता:

पूँजी का सृजन मौद्रिक पूर्ति की शुद्ध वृद्धि द्वारा करने पर लेविस के अनुसार मुद्रा प्रसारिक दशाएँ स्वयं समाप्त होने की प्रवृति रखती हैं । अल्प विकसित देशों का अनुभव स्पष्ट करता है कि मुद्रा प्रसार स्वयं समाप्त होने की प्रवृति नहीं रखता । संरचनात्मक दृढ़ताओं के कारण उपभोक्ता वस्तुओं की पूर्ति तेजी से नहीं बढ़ पाती ।

निष्कर्ष (Conclusion):

उपर्युक्त सीमाओं के बावजूद भी लेविस का विश्लेषण अर्द्धविकसित देशों की समस्याओं एवं इसके समाधान हेतु व्यावहारिक सुझाव प्रस्तुत करता है । पूँजी संचय के द्वारा किस प्रकार श्रम अतिरेक एवं सीमित पूँजी वाले देश में विकास की प्रक्रिया गतिशील होती है इसका सुस्पष्ट विवेचन लेविस ने किया है । अर्द्धविकसित देशों के आर्थिक विकास हेतु साख मुद्रा के योगदान एवं तकनीकी घटकों के महत्व को यह सिद्धान्त विशेष रूप से रेखांकित करता है । यह विकास के आशावादी दृष्टिकोण पर आधारित है ।

लेविस के असीमित-पूर्ति द्वारा आर्थिक विकास विश्लेषण का सारांश निम्नांकित बिंदुओं से स्पष्ट है:

(1) कई अर्थव्यवस्थाओं में जीवन-निर्वाह मजदूरी पर असीमित मात्रा में श्रम उपलब्ध होता है । यह प्रतिष्ठित मॉडल की व्याख्या थी । यदि इन अर्थव्यवस्थाओं पर नव-प्रतिष्ठित मॉडल (जिसमें कीन्जियन मॉडल भी सम्मिलित है) लागू किया जाये तो इसके परिणामस्वरूप गलत निष्कर्ष प्राप्त होंगे ।

(2) आर्थिक विकास के साथ-साध श्रम को प्राप्ति मुख्यत: जीवन-निर्वाह कृषि आकस्मिक या अनियत मजदूरों, छोटे व्यापार घरेलू सेवा गृहणियों एवं परिवार की लड़कियों एवं जनसंख्या में होने वाली वृद्धि द्वारा प्राप्त होती है । यदि देश के प्राकृतिक संसाधनों की तुलना में उसकी जनसंख्या अधिक हो तब इन समस्त क्षेत्रों में तो नहीं पर इनमें से अधिकांश में श्रम की सीमान्त उत्पादकता अत्यन्त कम अथवा शून्य या ऋणात्मक भी होती है ।

(3) ऐसी जीवन-निर्वाह मजदूरी जिस पर विनियोग के लिए अतिरिक्त श्रम उपलब्ध होता है जीवन-निर्वाह के लिए कम-से-कम आवश्यक आय से सम्बन्धित प्रचलित मत द्वारा निर्धारित होती है; या यह जीवन-निर्वाह कृषि में प्रति व्यक्ति औसत उत्पादन से कुछ अधिक हो सकती है ।

(4) ऐसी अर्थव्यवस्था में पूँजी निर्माण के साथ-साथ पूँजीवादी क्षेत्र में रोजगार बढ़ता है ।

(5) पूँजी निर्माण एवं तकनीकी प्रगति के परिणामस्वरूप मजदूरी नहीं बढ़ती बल्कि राष्ट्रीय आय में लाभों का अंश बढ़ता है ।

(6) एक अविकसित अर्थव्यवस्था में राष्ट्रीय आय के सापेक्ष बचत के कम होने का यह कारण यह है कि राष्ट्रीय आय की तुलना में पूंजीपतियों के लाभ अल्प होते हैं । जैसे-जैसे पूँजीवादी क्षेत्र का विस्तार होता है वैसे-वैसे लाभों में सापेक्षिक रूप से अधिक वृद्धि होती जाती है और अधिक-से-अधिक अनुपात में राष्ट्रीय आय का पुर्नविनियोग होता है ।

(7) पूँजी का निर्माण केवल लाभ द्वारा नहीं बल्कि साख के द्वारा भी होता है । इस मॉडल में मुद्रा प्रसार द्वारा होने वाले पूंजी निर्माण की वास्तविक लागत शून्य होती है एवं इस पूँजी की उतनी ही उपयोगिता होती है जितनी अधिक उचित मानी जाने वाली विधि (अर्थात जो लाभों द्वारा प्राप्त होती है) के द्वारा निर्मित पूंजी की ।

(8) युद्ध के लिए संसाधनों को जुटाने के उद्देश्य से की जाने वाली मुद्रा स्फीति की प्रवृति संचयी होती है लेकिन उत्पादक पूँजी के निर्माण के उद्देश्य से की गयी मुद्रा स्फीति स्वत: समाप्त हो जाती है । पूँजी निर्माण के साथ-साथ कीमतें बढ़ती है एवं तब पुन: गिरती हैं जब इसके द्वारा प्राप्त उत्पादन बाजार में आने लगता है ।

(9) पूँजीवादी क्षेत्र इस प्रकार अनिश्चित काल तक विस्तार नहीं कर सकता क्योंकि यह सम्भव होता है कि जनसंख्या वृद्धि की तुलना में पूँजी संचय की गति अधिक हो जाये । जब अतिरेक श्रम समाप्त हो जाता है तब मजदूरी जीवन-निर्वाह सार से अधिक होने लगती है ।

(10) इस देश के अतिरिक्त कुछ अन्य देशों में भी अतिरेक श्रम उपलब्ध हो सकता है । इस प्रकार जैसे ही इस देश में मजदूरी बढ़ने लगती है, वैसे ही काफी अधिक मात्रा में होने वाले सामूहिक आप्रवास एवं पूंजी के निर्यात के कारण मजदूरी में वृद्धि की प्रवृति कम हो जाती है ।

(11) अकुशल श्रमिकों के सामूहिक आप्रवास के परिणामस्वरूप प्रति व्यक्ति उत्पादन में भी वृद्धि सम्भव है, लेकिन इसके कारण सभी देशों में मजदूरी सबसे अधिक गरीब देशों के जीवन-निर्वाह स्तर के समान होने की प्रवृति रखती है ।

(12) पूंजी का निर्यात घरेलू देश में पूँजी निर्माण की गति को कम करता है एवं इस प्रकार मजदूरी गिरती है । यह तब दूर किया जा सकता है, जबकि पूँजी के निर्यात के कारण श्रमिकों द्वारा आयात की जाने वाली वस्तुएँ सस्ती हो जाएँ । लेकिन यदि पूँजी के निर्यात के परिणामस्वरूप आयात की जाने वाली वस्तुओं की लागत में वृद्धि हो या प्रतिस्पर्द्धी देशों में लागतें कम हों तब यह प्रवृति और अधिक उग्र हो जाती है ।

(13) यदि विदेशी पूंजी के आयात के फलस्वरूप उन वस्तुओं के उद्योग में उत्पादकता न बड़े जिनका पूंजी आयातक देश अपने उपभोग के लिए उत्पादन करें तो इसके कारण अतिरेक श्रम वाले देशों में वास्तविक मजदूरी नहीं बढ़ेगी ।

(14) उष्णकटिबन्धीय वाणिज्यिक उत्पाद के सस्ते होने का मुख्य कारण यह है कि इन देशों में खाद्यानों का प्रति व्यक्ति उत्पादन काफी अल्प है । निर्यात उद्योगों में उत्पादकता वृद्धि का समस्त लाभ प्राय: विदेशी उपभोक्ताओं को प्राप्त होता है, लेकिन जीवन-निर्वाह खाद्य उत्पादन में उत्पादकता की वृद्धि के परिणामस्वरूप वाणिज्यिक पदार्थ अधिक महंगें हो जाएँगे ।

(15) अतिरेक श्रम वाले देशों में तुलनात्मक लागतों का सिद्धान्त ठीक उसी प्रकार लागू होता है जैसे कि अन्य देशों में । लेकिन यदि अन्य देशों के सन्दर्भ में यह सिद्धान्त स्वतन्त्र व्यापार का समर्थन करने वाले तर्कों का एक उचित आधार है तो अतिरेक श्रम वाले देशों में यह संरक्षण का समर्थन करने वाले तर्कों का समान रूप से उचित आधार है ।

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