संसाधन आवंटन के लिए निवेश मानदंड | Read this article in Hindi to learn about the investment criterion for resources allocation. The criterion are:- 1. आवर्त दर या पूंजी प्रतिस्थापन मापदंड (The Rate of Turnover Criterion) 2. सामाजिक सीमान्त उत्पादकता मापदण्ड (The Social Marginal Productivity Criterion) and a Few Others.

संसाधन आवण्टन हेतु विभिन्न मापदण्ड प्रस्तावित किए गए है जो निम्नांकित है:

1. आवर्त दर या पूंजी प्रतिस्थापन मापदंड (The Rate of Turnover Criterion):

जे॰ जे॰ पोलक के अनुसार विनियोग का चुनाव आवर्त दर के आधार पर किया जाना चाहिए जो उत्पादन का पूंजी से अनुपात है ।

बुचानन एवं पोलक ने स्पष्ट किया कि आवर्त दर मापदण्ड जिसे न्यूनतम पूँजी उत्पाद अनुपात के नाम से भी जाना जाता है) को द्वितीय विश्व युद्ध के उपरान्त विकसित देशों के पुर्ननिर्माण में ध्यान में रखा गया था । विनियोग कोषों के सीमित होने पर सर्वप्रथम ऐसे विनियोगों का चुनाव किया जाना चाहिए जिनसे वार्षिक उत्पाद का उच्च मूल्य प्राप्त हो ।

ADVERTISEMENTS:

ऐसे देश जो पुर्ननिर्माण या विकास की प्रक्रिया में लगे ही उन्हें पूंजी के प्रयोग में मितव्ययिता लानी चाहिए अर्थात् वृद्धिमान पूँजी उत्पाद अनुपात को न्यूनतम करना चाहिए तथा पूंजी की उत्पादकता को अधिकतम करना चाहिए ।

इस मापदण्ड की निम्न सीमाएँ है:

(i) इस मापदण्ड में समय तत्व की उपेक्षा की गयी है । यह सम्भव है कि अल्पकाल में किसी विनियोग कार्यक्रम में पूंजी उत्पाद कम हो पर दीर्घकाल में इसमें वृद्धि की प्रवृति दिखायी दी ।

(ii) काह्न के अनुसार यह मापदण्ड पूंजी संसाधन आवण्टन के एक विशिष्ट रूप के सामाजिक प्रतिफल या लाभ को ध्यान में नहीं रखता । विनियोग परियोजनाएँ अन्य आर्थिक क्रियाओं पर पूरक लाभ भी प्रदान करती हैं । यह मापदण्ड पूरक लाभों की उपेक्षा करता है ।

ADVERTISEMENTS:

(iii) विकासशील देशों में पर्याप्त समंकों के अभाव में पूंजी उत्पाद अनुपात की सही गणना करना सम्भव नहीं होता ।

(iv) प्रो॰ ए॰ के॰ सेन के अनुसार यह मापदण्ड शुद्ध उत्पादन की उच्च दर को हमेशा प्रदर्शित नहीं करता । यह मापदण्ड पूंजी को गतिशील करने में लगी लागत को ध्यान में नहीं रखता ।

(v) यह मापदण्ड श्रम प्रधान परियोजनाओं को अधिक प्राथमिकता देता है । विकासशील देशों में पूंजी की अल्पता व अधिक रोजगार प्राप्त करने के लक्ष्यों को देखते हुए यह तर्क सही है, परन्तु यह ध्यान रखना आवश्यक है कि श्रम प्रधान परियोजनाओं द्वारा अधिक उत्पादकता प्राप्त नहीं होती व आर्थिक व सामाजिक उपरिपूंजी का निर्माण अधिक नहीं हो पाता ।

उपर्युक्त के बावजूद यह मापदण्ड एक दिये हुए क्षेत्र में निर्दिष्ट परियोजनाओं के चुनाव में काफी उपयोगी है । हालिस बी॰ चैनरी के अनुसार इन दशाओं में समस्या विभिन्न वैकल्पिक तकनीकी, स्थानों एवं साधन संयोगों के चुनाव की है जिससे समान आर्थिक क्रियाएँ सम्भव बनायी जा सकें ।

2. सामाजिक सीमान्त उत्पादकता मापदण्ड (The Social Marginal Productivity Criterion):

ADVERTISEMENTS:

सामाजिक सीमान्त उत्पादकता मापदण्ड को प्रो॰ ए॰ ई॰ काहन ने प्रस्तुत किया । उनके अनुसार सीमित संसाधनों से अधिकतम प्रतिफल प्राप्त करने का सही मापदण्ड सीमान्त उत्पादकता है । समाज को ध्यान में रखते हुए इसे सामाजिक सीमान्त उत्पादकता कहा जाता है जिसमें एक सीमान्त इकाई द्वारा राष्ट्रीय उत्पाद में होने वाले शुद्ध योगदान को ध्यान में रखा जाता है ।

इस मापदण्ड को अनुरूप सीमित व दुर्लभ संसाधनों को इस प्रकार आवण्टित किया जाना चाहिए जिनसे राष्ट्रीय उत्पादन अधिकतम हो सके । इस उददेश्य से अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में साधनों का आवण्टन इस प्रकार हो जिससे प्रत्येक उपयोग में साधनों की सामाजिक सीमान्त उत्पादकता बराबर हो 1 ऐसा किया जाने पर विकास के प्रत्येक कार्यक्रम से अर्थव्यवस्था को अधिक लाभ प्राप्त हो सकेगा ।

प्रो॰ हॉलिस बी॰ चेनरी ने 1963 में अपने लेख में सामाजिक सीमान्त उत्पादकता मापदण्ड को संशोधित किया । उनके अनुसार कोई भी विनियोग न केवल राष्ट्रीय उत्पाद बल्कि रोजगार, भुगतान सन्तुलन तथा अर्थव्यवस्था के आय वितरण पर भी प्रभाव डालता है ।

चेनरी ने सामाजिक कल्याण फलन के रूप में सामाजिक उत्पादकता के माप को प्रस्तुत किया । कल्याण फलन ऐसे कई चरों पर आधारित है जो एक विशिष्ट विनियोग आवण्टन को प्रदर्शित करते हैं ।

यदि, सामाजिक कल्याण का सूचकांक = U

राष्ट्रीय आय पर प्रभाव = Y

आय के वितरण पर प्रभाव = D

भुगतान सन्तुलन पर पड़ा कुल शुद्ध प्रभाव = B

तब कल्याण फलन U = U (Y, B, D …….)

संक्षेप में, इस मापदण्ड के अनुसार ऐसे विनियोग किए जाने चाहिएँ जिनकी सामाजिक सीमान्त उपयोगिता अधिकतम हो इससे अभिप्राय यह है कि-

(i) विनियोगों की एक दी हुई मात्रा का आवण्टन इस प्रकार किया जाये जिससे पूंजी उत्पाद अनुपात कम हो ।

(ii) विनियोगों की ऐसी परियोजनाओं का चुनाव किया जाना चाहिए कि भ्रम से विनियोग का अनुपात अधिकतम हो सके तथा

(iii) विनियोगों का आवण्टन इस प्रकार किया जाये कि भुगतान सन्तुलन पर विपरीत प्रभाव न पड़े अर्थात् निर्यात वस्तुओं का अधिक उत्पादन सम्भव बने ।

(iv) ऐसे विनियोग किए जाएँ जो देश में आधारभूत वस्तुओं का उत्पादन करें । उत्पादन में घरेलू संसाधनों का अधिक प्रयोग किया जाये । विनियोग के उपरान्त अल्प समय अवधि में उत्पादन प्राप्त हो तथा मुद्रा प्रसारिक दबाव उत्पन्न न होने पाएँ ।

आलोचनात्मक मूल्यांकन:

सामाजिक सीमान्त उत्पादकता मापदण्ड की मुख्य विशेषताएं निम्न हैं:

(a) यह मापदण्ड समाज को समग्र रूप से ध्यान में रखते हुए विनियोग निर्णयों को ध्यान में रखता है न कि एक व्यक्तिगत उपक्रमी के दृष्टिकोण से ।

(b) यह मापदण्ड विकासशील देशों को उस दशा में सहायता पहुंचाता है जब उनके पास पूंजी दुर्लभ हो तथा उन्हें अपने सीमित संसाधनों का अधिकतम प्रयोग करना हो ।

सामाजिक सीमान्त उत्पादकता मापदण्ड के मुख्य दोष निम्नांकित है:

(i) यह मापदण्ड विनियोग को केवल उत्पादकता की दृष्टि से देखता है लेकिन यह विनियोग के उन प्रभावों को ध्यान में नहीं रखता जो इसके द्वारा उत्पन्न रोजगार के द्वारा तथा सृजित आय के वितरणात्मक पक्षों से सम्बन्धित है ।

वस्तुतः विकासशील देशों में नियोजन का उद्देश्य आर्थिक विकास के साथ रोजगार के अधिक अवसर प्रदान करना व आय की विषमताओं को दूर करना भी है जिसे ध्यान में नहीं रखा जाता ।

(ii) विकासशील देशों में अर्न्तसंरचना के विकास हेतु विनियोग आवश्यक हैं इनसे प्रायः ऐसे पूरक लाभ प्राप्त नहीं होते जिन्हें मात्रात्मक रूप से मापा जा सके । पूरक विनियोग ऐसी परियोजनाओं के सन्दर्भ में प्राप्त होते हैं जिनमें अंर्तनिर्भरता का एक उच्च अंश विद्यमान होता है ।

परन्तु समस्या यह है कि उनका मापन किस प्रकार किया जाये ? अर्न्तनिर्भरता की स्थितियों में भी अर्थशास्त्री प्रत्येक व्यक्तिगत परियोजनाओं के सामाजिक उत्पाद को पृथक रूप से आकलित करना आवश्यक नहीं समझते । उनके विचार में ज्यादा अच्छा यह है कि वह परियोजनाओं के एक अनुकूलतम क्रम को निर्धारित कर दें ।

(iii) इस मापदण्ड की प्रकृति स्थैतिक है अर्थात् यह भविष्य में किए जाने वाले विकास प्रयासों की व्याख्या नहीं करता । इस कारण केवल वह देश जिन्होंने विकास का एक उच्च प्राप्त कर लिया है इस मापदण्ड को अपनाने में समर्थ हो सकते हैं । वस्तुतः विकासशील देश केवल अपने चालू सामाजिक कल्याण को ही अधिकतम नहीं करना चाहते वरन भविष्य के नियोजन के परिप्रेक्ष्य में नीति निर्धारित करते हैं ।

(iv) यह मापदण्ड मानकर चलता है कि किसी क्षेत्र में विनियोग के स्वरूप में होने वाले परिवर्तन से अन्य क्षेत्रों में इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता । वस्तुतः एक अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्र अर्न्तनिर्भर होते है । अतः एक क्षेत्र में किया विनियोग अन्य क्षेत्रों में अवश्य प्रभाव डालेगा ।

(v) इस मापदण्ड में गुणक प्रभाव की उपेक्षा की गयी है ।

(vi) यह माना गया है कि पूंजी की सीमान्त उत्पादकता सभी उपयोगों में समान होती है व्यावहारिक नहीं है ।

(vii) यह मापदण्ड उत्पादन की तकनीक को स्थिर मानकर चलता है । वास्तव में उत्पादन तकनीक में समय परिस्थिति व विनियोग के परिमाण के अनुरूप परिवर्तन होते रहते हैं ।

(viii) यह मापदण्ड अनिश्चित एवं अस्पष्ट है, क्योंकि वर्तमान व भविष्य में परियोजनाओं की लागत व लाभों का मूल्यांकन किया जाना सम्भव नहीं है । इसी प्रकार संसाधनों का आवण्टन करने में बाजार कीमतों को आधार बनाना सही नहीं है ।

विकासशील देशों में ऐसे भी संसाधन हैं जैसे अदृश्य बेकारी व पढे लिखे लोग जिन्हें सही काम नहीं मिल पाया है । इसी कारण प्रो॰ हॉलिस चेनरी व टिनबर्जन जैसे अर्थशास्त्रियों ने छाया कीमतों व लेखांकन कीमतों के प्रयोग को उचित माना ।

उपर्युक्त से स्पष्ट है कि यह मापदण्ड समुदाय की दृष्टि से किये जा रहे विनियोगों को अधिक महत्व देता है लेकिन इस सिद्धान्त को अपनाया जाना कई सैद्धान्तिक व व्यावहारिक कठिनाइयों को जन्म देता है । मुख्य रूप से यह मापदण्ड विनियोग निर्णयों को प्रतिफल या अधिकतम उत्पादन की दृष्टि से देखता है, परन्तु यह रोजगार व विनियोग के वितरण पक्ष को ध्यान में नहीं रखता ।

3. सीमान्त प्रति व्यक्ति पुनर्विनियोग उपलब्धि मापदण्ड (The Marginal Per Capita Reinvestment Quotient Criterion):

वाल्टर गेलेनसन एवं हार्वे लीबिस्टीन ने 1955 में सीमान्त प्रति व्यक्ति पुर्नविनियोग उपलब्धि मापदण्ड भप्र० की व्याख्या की । इसे तीव्र विकास विनियोग मापदण्ड अतिरेक दर का मापदंड तथा सीमान्त प्रति व्यक्ति विनियोग उपलब्धि या गुणांक के नाम से भी जाना जाता है ।

गेलेनसन एवं लीबिंस्टीन ने सामाजिक सीमान्त उत्पादकता के निर्धारक को स्थैतिक मानते हुए तर्क दिया कि सही विनियोग मापदण्ड के लिए विकास की प्रक्रिया में अर्थव्यवस्था के उचित लक्ष्य को निर्धारित किया जाना चाहिए ।

ऐसा कारगर लक्ष्य प्रति व्यक्ति उत्पादन या औसत आय का अधिकतमीकर होगा । उनके उत्पादन की मात्रा को वर्तमान के बजाय भविष्य में अधिकतम किया जाना चाहिए, यह तब सम्भव है जब बचत व विनियोग की दर को अधिकतम किया जाये ।

भविष्य की किसी समय अवधि में आर्थिक विकास के लक्ष्य के रूप में प्रति व्यक्ति उत्पादन को अधिकतम करने के लिए यह आवश्यक होगा कि- (1) प्रति श्रमिक पूंजी की मात्रा तथा (2) श्रम शक्ति की गुणवत्ता को अधिकतम किया जाये । इस प्रकार पूंजी-श्रम अनुपात को अधिकतम किया जाना इस मापदण्ड का मुख्य आधार ।

दीर्घकाल में प्रति श्रमिक इकाई पर उपलब्ध होने वाली पूंजी की मात्रा मुख्यतः दो घटकों पर निर्भर करती है:

(1) पुनर्विनियोग अतिरेक की मात्रा जो आरम्भिक विनियोग के परिणामस्वरूप हर वर्ष प्राप्त होगी ।

(2) श्रम शक्ति के आकार में होने वाली वृद्धि ।

स्पष्ट है कि भविष्य में प्रति व्यक्ति उत्पादन में वृद्धि करने के लिए वर्तमान समय में बचतों की दर में वृद्धि की जानी चाहिए । इससे आय पर पुर्नविनियोजन सम्भव होगा । पुर्नविनियोजन अधिक तब हो सकता है जब राष्ट्रीय आय में लाभ का भाग अधिक हो तथा मजदूरी का भाग कम हो ।

इसका कारण यह है कि मजदूरी से प्राप्त आय तो उपभोग पर व्यय कर दी जाती है । अत: लाभ के द्वारा ही पुर्नविनियोग में वृद्धि सम्भव होती है । संक्षेप में लाभों की दर में होने वाली वृद्धि से बचतों में वृद्धि सम्भव होती है जिससे अधिक पूंजी निर्माण सम्भव होगा व उत्पादकता में वृद्धि होगी ।

प्रति व्यक्ति पुर्नविनियोग अतिरेक को निर्धारित करने वाले घटक निम्न हैं:

(1) प्रति श्रम सकल उत्पादकता ।

(2) प्रति श्रमिक के द्वारा उपभोग की गयी मजदूरी वस्तुएँ ।

(3) गुणात्मक घटकों के द्वारा उत्पादकता में होने वाली वृद्धि ।

(4) प्रसवन अथवा उर्वरता दर में कमी ।

विकासशील देशों में आर्थिक विकास की गति को तीन करने के उद्देश्य से आवश्यक न्यूनतम प्रयास के सिद्धान्त पर आश्रित रहने को उपयुक्त माना गया । गेलन्सन एवं लीबिंस्टीन ने विनियोग की अतिरेक दर या पुर्नविनियोग दर को ज्ञात करने के लिए निम्न सूत्र का प्रयोग किया-

r = (P – ew)/K

जहाँ P = प्रति मशीन उत्पादन (जिसे शुद्ध उत्पादन माना गया)

e = प्रति मशीन में लगे श्रमिकों की संख्या

W = वास्तविक मजदूरी की दर

K = प्रति मशीन की लागत

स्पष्ट है कि समूचे लाभों का पुर्नविनियोग होने व समस्त मजदूरी का उपयोग होने पर पूंजीपति के लाभ की दर में वृद्धि होती है अर्थात् r की दर में वृद्धि तब होगी जब पूंजी गहन तकनीक का आश्रय लिया जाये ।

स्तुत: पूंजी गहन तकनीक अल्पकाल में श्रम की कम मात्रा का अवशोषण करती है लेकिन दीर्घकाल में जब विकास की दर बढ जाती है तब अधिक श्रमिकों को उत्पादन में रोजगार दिया जाना सम्भव बनेगा ।

आलोचनात्मक मूल्यांकन:

गैलेन्सन लीबिंस्टीन मॉडल में दीर्घकालीन वृद्धि को ध्यान में रखा गया तथा विनियोग परियोजनाओं का चुनाव सीमान्त प्रति व्यक्ति पुर्नविनियोग आवण्टन के आधार पर किया गया । परियोजनाओं को उनकी उच्च विनियोग क्षमताओं को सृजित करने के आधार पर चुना गया ।

पूंजी गहन परियोजनाएँ उपक्रमी वर्ग को अधिक प्रतिफल प्रदान करने में समर्थ होती है तथा इस वर्ग की बचत व विनियोग प्रवृतियां उच्च होती है । इस कारण गेलेन्सन लीबिंस्टीन मॉडल यह निष्कर्ष प्रदान करता है कि वृद्धि की उच्च दरों को प्राप्त करने के लिए पूंजी गहन परियोजनाएँ अपनायी जानी चाहिएँ ।

गैलेन्सन लीबिंस्टीन व्याख्या की सीमाएं निम्न है:

(1) बेरोजगारी का समस्या पर प्रकाश नहीं डाला गया है ।

(2) इस सिद्धान्त में आय के असमान वितरण का पक्ष लिया गया है जिसके अनुरूप धनी वर्ग अधिक समृद्ध व निर्धन और अधिक हीन दशा प्राप्त करते है ।

(3) यह प्रश्न विवाद उत्पन्न करता है कि क्या पूंजी गहन परियोजनाएं भविष्य में उच्च विनियोग स्तरों को प्राप्त करेंगी, क्योंकि विकासशील देशों में पूंजी को गैर उत्पादन उद्देश्यों की ओर लगाया जाना सामान्य प्रवृति होती है ।

(4) यह प्रश्न भी अनुत्तरित रहता है कि क्या उस दशा में उद्योगों द्वारा अधिक विनियोग आकर्षित कर पाएँगे, जबकि समाज में निर्धन वर्ग उत्पादित वस्तु को जय करने की क्षमता ही नहीं रखते ।

(5) यह मान लेना भी गलत है कि सभी लाभों को पूँजीपतियों द्वारा पुर्नविनियोजित किया जाएगा, जबकि सभी मजदूरियों का उपभोग किया जाएगा । प्रो॰ ए॰ के॰ सेन के अनुसार यह मानना भी गलत है कि उपभोग की मात्रा स्थिर रहेगी ।

(6) यह सिद्धान्त सीमान्त उत्पादकता नियम के प्रतिकूल है, क्योंकि पूंजी की मात्रा में होने वाली वृद्धि से प्रारम्भ में तो उत्पादकता बढ़ती है लेकिन बाद में इसमें कमी आती है । इस स्थिति में पुर्नविनियोग हेतु उपलब्ध पूंजी का अतिरेक भी घटेगा ।

(7) इस व्याख्या में पूंजी के ह्रास के फलस्वरूप पुर्नविनियोग अतिरेक पर पड़ने वाले विपरीत प्रभाव की व्याख्या नहीं की गई है ।

(8) विकासशील देशों में पूंजी प्रधान तकनीकों को अपनाने पर पूंजीगत वस्तुएँ मशीन, कुशल श्रम शक्ति के आयात में वृद्धि होगी जिससे उसके भुगतान सन्तुलन पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा ।

(9) पूंजी प्रधान तकनीक को अपनाने पर बेरोजगारी बढ़ती है व आय वितरण की विषमताएँ भी बढती है । इस सकार यह सिद्धान्त सामाजिक कल्याण के पक्षों को ध्यान में नहीं रखता । एच॰ मिंट के अनुसार यह मापदण्ड सामाजिक न्याय के आदर्श की अवहेलना करता है ।

(10) प्रो॰ आटो एक्स्टीन के अनुसार आय के समान वितरण इस मापदण्ड से अच्छे राजकोषीय उपाय हैं जिनसे पुर्ननिवेश हेतु पर्याप्त मात्रा में बचतें प्राप्त हो सकती ।

गैलेन्सन-लीबिंस्टीन मॉडल की भांति एक्सटीन की व्याख्या है । एक्सटिन ने सुझाव दिया कि एक विनियोग परियोजना का चुनाव दो मापदण्डों पर किया जाना चाहिए:

(1) उपभोक्ता प्रवाह में इसके प्रत्यक्ष योगदान का वर्तमान मूल्य, तथा

(2) अप्रत्यक्ष उपभोक्ता प्रवाह के इसके वर्तमान मूल्य जिनमें मूल विनियोग से सम्बन्धित होने वाले पुर्नविनियोग सम्मिलित है । इन दोनों मापदण्डों के योग को एक्सटीन ने सीमान्त वृद्धि योगदान के नाम से सम्बोधित किया ।

एक्सटीन की सीमान्त वृद्धि योगदान व्याख्या काह्न के सिद्धन्त तथा लीबिंस्टीन मांडल के मध्य एक सेतु का कार्य करती है । उनकी व्याख्या काह्न की व्याख्या जैसे ही निष्कर्ष प्रदान करती है जबकि वर्तमान समय को महत्वपूर्ण समझा जाये तथा एक उच्च बट्‌टे की दर को ध्यान में रखा जाये ।

4. काल श्रेणी या समय तत्व मापदण्ड (The Time Series or Time Factor Criterion):

प्रो॰ अमर्त्य कुमार सेन ने में काल श्रेणी मापदण्ड की व्याख्या की । इसमें विभिन्न तकनीकों के मध्य चुनाव की समस्या को उठाया गया है जिसे एक विनियोगी ध्यान में रखता है । इसके साथ ही उत्पादन में होने वाली वृद्धि को एक निश्चित समय अवधि के सन्दर्भ में देखा गया है ।

संक्षेप में, उत्पादन की वृद्धि के लिए केवल विनियोग को ही नहीं बल्कि एक समय अवधि को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए जिसके अधीन एक परियोजना प्रतिफल की प्राप्ति करती है ।

प्रो॰ सेन ने पूंजी उत्पाद अनुपात तथा बचत की दर को दिया हुआ माना तथा यह बताया कि उत्पादन से सम्बन्धित पूंजी प्रधान व श्रम प्रधान तकनीक पर आधारित दो परियोजनाओं से प्राप्त होने वाले प्रतिफलों का आकलन किया जाना सम्भव है ।

दोनों प्रकार की तकनीकों के तुलनात्मक विश्लेषण से यह ज्ञात हो सकता है कि एक निश्चित समय अवधि में अधिकतम उत्पादन प्रदान करने वाली तकनीक कौन सही होगी ? प्रो॰ सेन ने अपनी व्याख्या को स्पष्ट करने के लिए एक काल्पनिक तालिका को ध्यान में रखा जिसमें पूंजी प्रधान परियोजना C तथा श्रम प्रधान परियोजना L है ।

इनसे प्राप्त प्रतिफलों को 10 वर्ष की समय अवधि में निम्न तालिका द्वारा प्रदर्शित किया गया है:

 

प्रो॰ सेन ने उपर्युक्त तालिका की सहायता से स्पष्ट किया कि पहले 6 वर्षों में विनियोग किए जाने पर तकनीक कम प्रतिफल प्रदान करती है, जबकि शेष चार वर्षों में श्रम गहन तकनीक द्वारा अधिक प्रतिफल प्राप्त होता है ।

समूची समय अवधि (दस वर्ष में) दोनों ही तकनीकों के द्वारा उत्पादन समान रहता है । यह बात ध्यान में रखनी है कि यदि हम पूंजी प्रधान परियोजनाओं को अपनाते हैं तो प्रारम्भ में जो उत्पादन की हानि दिखाई देती है वह शेष चार वर्षों में पूर्ण हो जाती है । इसे पुनरुद्धार की अवधि कहा जाता है ।

सेन का विश्लेषण यह स्पष्ट करता है कि एक परियोजना की लागत का आंकलन करते हुए न केवल उसमें विनियोजित पूंजी बल्कि योजना के पूर्ण होने में लगी समय अवधि को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए ।

इस मापदण्ड के अनुसार एक परियोजना की वास्तविक लागत जो 100 करोड है, लेकिन यह पूर्ण होने में 10 वर्ष की समय अवधि लेती है उस दूसरी परियोजना से अधिक होगी जिसमें 100 करोड रु॰ का ही विनियोग किया गया है, लेकिन जिसे पूरा करने में 5 वर्ष का समय लगता है ।

प्रायः यह देखा जाता है कि विकासशील देश एक दीर्घ समय अवधि तक चलने वाली योजना के स्थान पर मध्यम कालीन व अल्पकालीन समय अवधि वाली योजना को पसन्द करते है । हिक्स शीघ्र प्रतिफल देने वाली योजना को के द्वारा सम्बोधित करते है ।

आर्थिक विकास की आरम्भिक अवस्थाओं में विकासशील देशों को मुद्रा प्रसारिक दबावों का सामाना करना पडता है । इसके प्रभाव तब कम किये जा सकते है जब अल्प समय अवधि वाली योजनाओं में विनियोग किया जाये ।

ऐसी परियोजनाएं सामान्यत: श्रम प्रधान तकनीक पर आधारित होती हैं जिनकी सहायता से बेरोजगारी की समस्या का निवारण किया जाना सम्भव है । पूंजी गहन एवं श्रम प्रधान तकनीकों से सम्बन्धित विनियोग का परिमाण तथा पुर्नविनियोग की दर के दिये होने पर दोनों तकनीकों से सम्बन्धित वास्तविक आय प्रवाहों की काल श्रेणी का निर्धारण किया जा सकता है ।

इससे यह ज्ञात होता है कि एक दी हुई समय अवधि में कौन-सी तकनीक अधिक प्रतिफल प्रदान करेगी ? इससे तकनीक के चुनाव का निर्धारण सम्भव होता है । पूंजी गहन एवं श्रम गहन तकनीक पर आधारित परियोजनाओं के मध्य चुनाव को चित्र 47.1 द्वारा प्रदर्शित किया गया है ।

चित्र में AL तथा A’C’ रेखा एक निश्चित समय में क्रमशः श्रम गहन व पूंजी गहन तकनीक से प्राप्त प्रतिफल को प्रदर्शित करती है । ON समय तक पूँजी गहन तकनीक के सापेक्ष श्रम गहन तकनीक अधिक वृद्धि दर प्रदान करती है, परन्तु बिन्दु के उपरान्त पूंजी प्रधान तकनीक द्वारा अधिक उत्पादन प्राप्त होता है ।

प्रो॰ सेन के अनुसार OM समय अवधि पुनरुद्धार काल है, क्योंकि पूँजी गहन तकनीक का अतिरेक C’BL ठीक बराबर है ABA’ के । प्रो० सेन के अनुसार पूँजी प्रधान एवं प्रधान तकनीक के मध्य चुनाव करने के लिए पुनरुद्धार समय अवधि T की तुलना निश्चित की गयी समय अवधि U से की जाती है ।

इस आधार पर तकनीक के चुनाव को निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है:

(1) यदि T > U तब श्रम गहन तकनीकी के चुनाव को प्राथमिकता दी जाती है ।

(2) यदि T < U तब पूंजी गहन तकनीक के चुनाव को प्राथमिकता दी जाती है ।

(3) यदि T = U तो यह उदासीनता की स्थिति है ।

यदि तकनीक 1 एवं तकनीक 2 से सम्बन्धित पुर्नविनियोग के अनुपात को (r1/r2) के द्वारा तथा इन दोनों तकनीकों को हेतु वांछित विनियोग के परिमाण का अनुपात (m1/m2) के द्वारा अभिव्यक्त किया जाये तब प्रो॰ सेन के अनुसार पहली तकनीक से सम्बन्धित वृद्धि की दर का अधिक या कम होना इस बात पर निर्भर करता है कि m1r1 > या m2r2 के ।

इसके द्वारा वास्तविक आय प्रवाह की दो समय श्रेणियों को निकाला जा सकता है । यदि m1r1 > m2r2 के हो तब यह नहीं कहा जा सकता है कि पहली तकनीक अधिमान युक्त तकनीक होगी । इस आधार पर कोई निष्कर्ष प्रदान करने के लिए यह आवश्यक है कि समय बट्‌टे की प्रासंगिक दरों को वास्तविक आय प्रवाहों की दो काल श्रेणियों पर लागू किया जाये ।

समय बट्‌टा इसलिए आवश्यक है क्योंकि- (1) आय के स्तर में वृद्धि से आय की सीमान्त सामाजिक उपयोगिता में ह्रास होता है तथा (2) भविष्य अनिश्चित होता है । ऐसी दशा में जब सीमान्त सामाजिक उपयोगिता तेजी से गिरती है आय वृद्धि की एक उच्च दर का अभिप्राय सामाजिक सन्तुष्टि का उच्च स्तर नहीं होता । चूंकि भविष्य अनिश्चित होता है इसलिए अनिश्चितता बट्टे का मूल्यांकन आवश्यक हो जाता है ।

आलोचनात्मक मूल्यांकन:

प्रो॰ सेन का मापदण्ड तकनीक के चुनाव की समस्या को समय तत्व के अधीन विश्लेषित करता है ।

इसकी सीमा यह है कि इस मापदण्ड में:

i. समय का निर्धारण स्वैच्छिक आधार पर किया गया है ।

ii. समय अवधि के चुनाव के मापदंड के बारे में कोई स्पष्ट व्याख्या नहीं की गई है ।

iii. काल श्रेणी पर प्रभाव डालने वाले घटकों जैसे तकनीक परिवर्तन, मजदूरी की दर व उपभोग प्रवृति में परिवर्तन होते रहते है इसलिए भविष्य में किए जाने वाले विनियोग व उत्पादन के सम्बन्ध में पुर्वानुमान करना संभव नहीं होता ।

iv. डॉ॰ के॰ एन॰ प्रसाद के अनुसार इस विश्लेषण में कोई नवीनता नहीं है । ऐसी दशा में जब पुनरुद्धार काल कम है तब यह मापदण्ड परिवर्तन की विशुद्ध दर के मापदण्ड का रूप ले लेता है तथा ‘पुनरुद्धार काल के लम्बे होने पर यह पुनर्निवेश मापदण्ड की भाँति देखा जा सकता है ।

5. विनियोग के अन्य मापदण्ड (Other Criterion of Investment):

विनियोग के अन्य मापदण्ड में निम्न महत्वपूर्ण है:

(i) साधन बहुलता मापदण्ड

(ii) पूँजी उत्पाद दर मापदण्ड

(iii) वृद्धि युक्त बिन्दु मापदण्ड

(iv) विनियोग मापदण्ड

(v) भुगतान सन्तुलन मापदण्ड

(vi) आवश्यकता मापदण्ड

उपर्युक्त मापदण्डों की व्याख्या निम्नांकित हैं:

(i) साधन बहुलता मापदण्ड:

इस मापदण्ड में विद्यमान साधन बहुलताकी स्थिति को ध्यान में रखा जाता है । इसके अनुरूप उपलब्ध विनियोग कोषों को इस प्रकार प्रवाहित किया जाता है कि देश के मुख्य बहुल संसाधनों को श्रेष्ठ प्रयोग सम्भव हो सके ।

इस मापदण्ड के आधार पर विकसित देश जहाँ पूंजी सापेक्षिक रूप से अधिक उपलब्ध होती है तथा श्रम कम, वह ऐसी परियोजनाओं को चला सकते है जो पूंजी गहन तकनीक पर आधारित हैं ।

दूसरी तरफ कम विकसित देशों में जहाँ कम पूंजी व अधिक श्रम की उपलब्ध होता है वह श्रम प्रधान परियोजनाओं को अधिक प्राथमिकता देते है । इस आधार पर इसे श्रम अवशोषण मापदण्ड के नाम से भी जाना जाता है । इसे साधन गहनता मापदण्ड भी कहा जाता है ।

साधन बहुलता मापदण्ड के गुण निम्नांकित हैं:

(i) उपलब्ध बहुल संसाधनों का अधिकतम प्रयोग सम्भव होता है ।

(ii) अधिक जनसंख्या वाले देशों में इस मापदण्ड पर आधारित रह श्रमिकों को अधिक रोजगार दिया जा सकता है । इस मापदण्ड को अपनाने से आय की व्यापक असमानताएं कम की जा सकती है । साधन बहुलता मापदण्ड को अपनाने में कुछ कठिनाइयाँ भी सामने आती हैं-

(a) मौरिस डाब के अनुसार यदि पूंजी गहन तकनीक को प्राथमिकता दी जाये तो भी विद्यमान अकुशलता, निम्न उत्पादकता एवं जड़ता में कमी नहीं आ पाएगी ।

(b) इस मापदण्ड के आधार पर कुल विनियोग कोषों को अधिक रोजगार प्रदान करने वाली योजनाओं में लगाने से यह आवश्यक नहीं कि तीव्र आर्थिक वृद्धि अवश्य ही प्राप्त हो जाएगी । प्रायः इस मापदण्ड के अपनाने पर देश में सुदृढ पूंजी आधार निर्मित नहीं हो पाता ।

(ii) पूँजी उत्पाद दर मापदण्ड:

इस मापदण्ड में विभिन विनियोग परियोजनाओं के मध्य चुनाव करते हुए तथा प्राथमिकताओं को निर्धारित करते हुए विभिन्न विनियोग परियोजनाओं के पूँजी उत्पाद अनुपातों की तुलना की जाती है । ऐसी विनियोग परियोजनाओं का चुनाव किया जाता है जो पूंजी उत्पाद अनुपात को न्यूनतम करें ।

(iii) वृद्धि युक्त बिन्दु:

प्रो॰ एलनयंग एवं रोजेन्सटीन रोडान जैसे अर्थशास्तियों ने ऐसे उद्योगों का विकास करने पर बल दिया जो अन्य उद्योगों की वृद्धि के लिए अनुकूल दशाएँ अर्थात् बाह्य मितव्ययिताओं को उत्पन्न करते है ।

उदाहरण के लिए यातायात या ईधन व शक्ति के क्षेत्र में किया जाने वाला विनियोग विनिर्माण उद्योगों की लागतों व बाजार सम्भावनाओं पर प्रभाव डालता है । इसी प्रकार लौह-इस्पात व इजीनियरिंग उद्योग में किया गया विनियोग उद्योग की वृद्धि सम्भावनाओं को सामान्य रूप से बढाता है ।

संक्षेप में, यह मापदण्ड उन क्षेत्रों में विनियोगों को प्रोत्साहित करना उपयुक्त समझता है जो उत्पादन की प्रक्रिया में क्षैतिज व उध्र्व एकीकरण को बढ़ाएं । पूर्ति पक्ष के अधीन अतिरिक्त बाह्य मितव्ययिताओं की वृद्धि इस मापदंड में निहित है ।

माँग पक्ष को ध्यान में रखते हुए विनियोग ऐसे वेत्रों में किया जाये जिससे उपल बाजार माँग बढ़े । इस प्रकार बाह्य मितव्ययिताओं व उपलब्ध बाजार मांग को ध्यान में रखते हुए विनियोग को अर्थव्यवस्था के वृद्धियुक्त बिन्दुओं की ओर निदेशित किया जाता है ।

(iv) विनियोग मापदण्ड:

विभिन्न परियोजनाओं में विनियोग करते हुए यह ध्यान रखना आवश्यक है कि विनियोग करने के उपरान्त उत्पादन एक दीर्घ समय अवधि अन्तराल के उपरान्त प्राप्त हो रहा है या विनियोग के उपरान्त अल्प समय अवधि में । प्रो॰ हिक्स ने विनियोग के परिणामस्वरूप अल्प अवधि में उत्पादन प्रदान करने वाली योजना को शीघ्र विनियोग वाली योजना कहा ।

विकासशील देशों में सामान्यतः ऐसी विनियोग परियोजनाओं में विनियोग मापदण्ड का चयन मुख्यतः इसी लक्ष्य से सम्बन्धित होता है कि अर्थव्यवस्था में मुद्रा प्रसारिक दबाव उत्पन्न ही तथा उनका प्रभावी नियन्त्रण किया बाना संभव हो ।

इस उद्देश्य हेतु कृषि क्षेत्र में एवं उपभोक्ता वस्तु उद्योगों जो सापेक्षिक रूप से अल्प समय अवधि में उत्पादन करने में समर्थ हों पर विनियोग को उच्च प्राथमिकता प्रदान की जाती है । मुद्रा प्रसार के विपरीत प्रभावों का सामाना करने के लिए कृषि क्षेत्र, उपभोक्ता वस्तु उद्योगों एवं पूंजीगत वस्तु उद्योगों में किए गए विनियोग के मध्य एक अनुकूल सन्तुलन बनाए रखना आवश्यक है ।

(v) भुगतान सन्तुलन मापदण्ड:

विकासशील देशों में निर्यातों के सापेक्ष आयात की अधिकता से व्यापार संतुलन विपरीत रहता है । प्रायः यह देश औद्योगीकरण की आवश्यकता हेतु पूँजीगत आयात अधिक करते है । इन देशों में निर्यात अतिरेक सीमित होता है तथा प्रदर्शन प्रभाव के कारण विदेशी वस्तुओं के उपभोग की लालसा अधिक होती है । अत: आयातों की सीमान्त प्रवृति अधिक होती है ।

एक देश के भुगतान सन्तुलन में प्रतिकूलता को उचित विनियोग निर्धारक का चयन कर सुलझाया जा सकता है । इस उद्देश्य से विनियोग ऐसे निर्यात उद्योगों की ओर प्रवाहित किये जाने चाहिएं जो अधिक निर्यातों की प्राप्ति को सम्भव बना सकें । इसके साथ ही आयात प्रतिस्थापक उद्योगों में विनियोग किए जाएँ जिससे आयातों पर निर्भरता कम हो सके ।

(vi) आवश्यकता मापदण्ड:

आवश्यकता का अंश एक अन्य निर्धारक है जो एक अर्थव्यवस्था में विनियोगों के स्वरूप को निर्धारित करता है । अतः वस्तुओं के उत्पादन को उनकी आवश्यकता के आधार पर क्रमबद्ध किया जा सकता है ।

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