मुद्रास्फीति और विकासशील देश | Read this essay in Hindi to learn about the importance of inflation in developing countries.

विकासशील देशों में कीमत वृद्धि के सिद्धान्त किस सीमा तक सार्थक रहे है इसकी समीक्षा निम्नांकित बिन्दुओं से स्पष्ट होती है:

(1) फिलिप्स वक्र मॉडल वस्तुतः आय निर्धारण का कींजोपरान्त विश्लेषण है । प्रो॰ वी॰ के॰ आर॰ वी॰ राव ने स्पष्ट किया कि कीन का समग्र माँग विश्लेषण विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था में प्रत्यक्ष रूप से लागू नहीं होता ।

हाल के वर्षों में हालाँकि यह देखा जा रहा है कि एक विकासशील अर्थव्यवस्था भी देश की वृद्धि प्रक्रिया में आने वाली संरचनात्मक दृढताओं के कारण माँग में कमी की दशाओं का अनुभव करने लगती है ।

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प्रो॰ भट्टाचार्य के अनुसार मुद्रा प्रसार का फिलिप्स वक्र विश्लेषण विकासशील देशों के लिए सीमित महत्व का है क्योंकि संगठित श्रम बाजार विकासशील देशों के कुल श्रम बाजार का काफी छोटा हिस्सा होता है ।

काफी बड़े असंगति क्षेत्र में मजदूरी दर का श्रम की उत्पादन से प्रत्यक्ष सम्बद्ध नहीं होता तथा यह वस्तु की कीमतों के निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत नहीं करती ।

(2) विकासशील देशों में मुद्रा प्रसार पर मुख्य विवाद मुख्यतः मौद्रिक विश्लेषकों एवं संरचनावादियों के मध्य है । मौद्रिक विश्लेषक यह तर्क देते है कि सभी अर्थव्यवस्थाओं में सामान्य रूप से मुद्रा प्रसार का निर्धारण अतिरिक्त मौद्रिक पूर्ति के द्वारा होता है तथा विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में पूर्ति की बाधाएँ विशेष रूप से देखी जाती हैं ।

पूर्ति की परिसीमाओं वाले देश में अतिरिक्त मुद्रा उत्पादन का सृजन नहीं कर सकती, क्योंकि मात्र मौद्रिक पूर्ति के बढने से तकनीक व वास्तविक संसाधनों का विस्तार सम्भव नहीं होता । मौद्रिक विश्लेषक मुद्रा प्रसार एवं वृद्धि मध्य के विपर्यय को भी स्वीकार नहीं करते ।

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(3) संरचनावादी विकासशील देशों में दिखाई दे रहे मुद्रा प्रसार को शुद्ध मौद्रिक प्रवृति का नहीं मानते, बल्कि उनकी राय में मुद्रा प्रसार तब उत्पन्न होता है जब वृद्धि की प्रक्रिया में संरचनात्मक असमायोजन होता है तथा इसे मात्र मौद्रिक नियमन द्वारा रोका जाना सम्भव नहीं होता ।

विशुद्ध संरचनावादी मॉडल में मुद्रा प्रसार तब भी उत्पन्न हो सकता है, जबकि मौद्रिक आपूर्ति में कोई विस्तार न हो रहा हो । संशोधित संरचनावादी मॉडल में मौद्रिक पूर्ति कीमत स्तर के साथ विस्तार करती है, लेकिन इस प्रवाह की दिशा आवश्यक रूप से, मुद्रा से कीमत की ओर ही नहीं होती, बल्कि यह इससे उलट भी हो सकती है ।

इस मॉडल में वृद्धि एवं मुद्रा प्रसार के मध्य विपर्यय विद्यमान रहता है तथा इसका कारण फिलिप्स के कथन की भाँति मजदूरी प्रभावित बेरोजगारी दर के सम्बन्धों से नहीं बल्कि क्षेत्रों के मध्य उत्पादन एवं माँग की वृद्धि के अन्तरों से सम्बन्धित रहता है ।

(4) विकासशील देशों में मौद्रिक विश्लेषण की सीमा यह है मौद्रिक विश्लेषण मूलत: एकल क्षेत्रीय मॉडल हैं । दूसरा मौद्रिक मॉडल में बैंक साख को कोई भूमिका निर्दिष्ट नहीं की गई है, जबकि उत्पादन की गतिविधि में सरकारी व निजी दोनों ही क्षेत्रों में बैंक साख अत्यधिक महत्वपूर्ण होती है ।

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सामान्यतः यह देखा जाता है कि विकासशील देशों में बजट घाटे का अधिकांश भाग भौतिक व अन्तर्संरचनात्मक उत्पादन क्षमताओं के निर्माण में लगाया जाता है । यदि सरकार विनियोग नहीं करती तो अर्थव्यवस्था की उत्पादन क्षमता में विस्तार सम्भव नहीं है ।

(5) प्रायः यह तर्क दिया जाता है कि विकासशील देशों में मौद्रिक पूर्ति का विस्तार विनियोग में वृद्धि नहीं करता, क्योंकि मुद्रा की माँग की ब्याज दरें बेलोचदार होती है । यह तर्क आशिक रूप से तथ्यपूर्ण है, क्योंकि कई विकासशील दरों में ब्याज दरें प्रशासित होती है तथा इसके परिणामस्वरूप अतिरिक्त मुद्रा ब्याज की दरों में कमी नहीं कर पाती ।

दूसरी तरफ बढते हुए बजट घाटे के परिणामस्वरूप सरकार की ओर जाने वाली बैंक साख में वृद्धि होती है जिससे प्रशासित ब्याज दरों की संरचना में भी वृद्धि की जानी आवश्यक हो जाती है इससे मुद्रा प्रसार की प्रत्याशाओं में वृद्धि होती है । स्पष्ट है कि अतिरिक्त मुद्रा इस प्रकार, ब्याज की दरों में कमी करने के बजाय कीमत स्तरों को ऊँचा करती है ।

(6) विवेकपूर्ण प्रत्याशाओं की मान्यता भी विकासशील देशों के लिए काफी कठोर प्रतीत होती है । यदि प्रत्याशाएँ विवेकपूर्ण हैं तो ऐसे में सभी आर्थिक कारकों व एजेण्टों को पूरी जानकारी होनी चाहिए । परन्तु यह विकसित देशों में भी सम्भव नहीं बन पाता ।

विकासशील देशों में तो सूचनाऐं सीमित एवं बिखरी हुई होती हैं । काफी बडा असंगठित क्षेत्र सूचनाओं के सुगम सम्प्रेषण में बाधाएँ खडी करता है । न तो इन देशों में एकरूप बाजार होता है और न ही एकरूप उत्पादन व्यवहार ।

विकासशील देशों की आधारभूत विशेषताओं को देखते हुए विवेकपूर्ण प्रत्याशाओं की व्यावहारिकता पर विश्लेषणात्मक अध्ययन भी कम ही हुए हैं । भट्टाचार्य व अनिता कुमारी ने अपने अध्ययन में अनुभव किया है कि भारत में बजट हस्तान्तरण पर सरकारी पूर्वानुमान भी पूरी तरह से विवेकपूर्ण प्रत्याशाओं को सन्तुष्ट नहीं करते ।

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