विकासशील देशों में वित्तीय नीति की प्रकृति | Read this article in Hindi to learn about the nature of fiscal policy in developing countries.

विकासशील देशों में राजकोषीय नीति सैद्धान्तिक रूप से क्रियात्मक वित्त प्रबन्ध या विकास हेतु वित्त की व्यवस्था से सम्बन्धित रहती है ।

अतः इन देशों में राजकोषीय नीति की प्रकृति मुख्यतः निम्न पक्षों से सम्बन्धित है:

1. सार्वजनिक आय नीति एवं आर्थिक विकास (Central Policy and Economic Development):

सार्वजनिक आय अथवा आगम के तीन महत्वपूर्ण स्रोत है- (a) करारोपण, (b) सार्वजनिक उधार, एवं (c) साख-सृजन । इनमें करारोपण सबसे महत्वपूर्ण है । वाल्टर हैमर ने Fiscal Policies for Underdeveloped Countries में लिखा है कि एक विकासशील देश में सरकार का विकास कार्यक्रम उसकी कर प्रणाली की आर्थिक व प्रशासनिक क्षमता पर निर्भर करता है जिससे आवश्यक संसाधनों को एकत्रित किया जा सके ।

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मेयर एवं बाल्डविन के अनुसार कर नीति तब प्रभावशाली मानी जाएगी जब उसमें व्यक्तियों की कर देय क्षमता बढ सके । प्रशासन को कुशल योग्य व ईमानदार बनाया जा सके तथा देश में न्याय एवं समानता की स्थापना हो सके ।

विकास हेतु अनुकूल प्रशुल्क नीति में अधिकाधिक मात्रा में पूंजी जुटाने की क्षमता, विनियोग को प्रोत्साहित करने की सक्रियता, मूल्य स्थायित्व एवं उत्पादन पर पड़ने वाले बुरे प्रभावों की रोकथाम के गुण होने चाहिएँ ।

चार्ल्स पी॰ किंडलबर्जर के अनुसार कर नीति के मुख्य दो कार्य:

(I) अनावश्यक उपभोग व सट्‌टे की ओर होने वाले विनियोगों का नियन्त्रण ।

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(II) पूँजी निर्माण व पुनर्विनियोग अतिरेक में वृद्धि ।

सामान्यतः एक विकासशील देश की करारोपण नीति निम्न उद्देश्यों को समाहित करती है:

(1) उपभोग में कमी अथवा नियन्त्रण तथा साधनों को उत्पादक कार्यों की ओर गतिशील करना ।

(2) बचत व विनियोग की प्रेरणाओं में वृद्धि ।

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(3) जनता के हाथ से साधनों को राज्य की ओर स्थानान्तरित करना ताकि सार्वजनिक विनियोग सम्भव हो सके ।

(4) विनियोगों की प्रवृत्तियों में सुधार करना ।

करारोपण से उपभोग नियन्त्रित होता है । प्रत्यक्ष कर के द्वारा सरकार व्यय होने वाली उपभोक्ता आय में कमी करता है जिससे उसकी वस्तुओं को क्रय करने की शक्ति कम होती है । दूसरी ओर अप्रत्यक्ष करों द्वारा वस्तु कीमतों में वृद्धि होती है जिससे उपभोग स्वतः ही कम होने की प्रवृत्ति रखता है ।

विकासशील देशों में जनसंख्या का काफी अधिक भाग आय कर देने की क्षमता नहीं रखता । आय कर के एकत्रण में प्रशासनिक दुर्बलताओं के कारण कर चोरी (Tax Evasion) काफी अधिक होती है ।

दूसरा इन देशों में निगम या कारपोरेट क्षेत्र से भी अल्प आय प्राप्त होती है । इनके विकास हेतु काफी सुविधाएँ प्रदान की जाती है जिनमें कर छूट, विनियोग अनुदान, कुछ वर्षों तक विशेष रियायत मुख्य है । निगम क्षेत्र में कर की ऊँची दरें लगाने पर नयी फर्म व कम्पनियों की अवस्थापना में कमी आती है ।

विकासशील देशों में आय व सम्पत्ति की विषमताएँ विद्यमान होती हैं अतः समृद्ध वर्ग पर सम्पत्ति कर लगाकर अधिक राजस्व की प्राप्ति की जा सकती है ।

एडलर के अनुसार कई कम विकसित देशों में सम्पत्ति कर को आगम के अच्छे स्रोत के रूप में ध्यान में नहीं रखा गया इसका कारण यह है कि इन देशों में भूस्वामियों व शहरी सम्पत्ति के स्वामियों का राजनीतिक प्रभाव काफी अधिक रहा है ।

वह कर की दर में वृद्धि का प्रबल विरोध करते रहे है तथा दूसरा सम्पत्ति के मूल्यांकन सम्बन्धी कठिनाइयाँ काफी जटिल रहीं । आवश्यक उपभोग वस्तुओं पर अप्रत्यक्ष कर की न्यून तथा विलासिता की वस्तुओं पर अप्रत्यक्ष कर की उच्च दरें आरोपित करते हुए सरकार आय वितरण की विषमताओं को किसी सीमा तक दूर कर सकती है ।

इसका कारण यह है कि धनी वर्ग द्वारा उच्च उपभोग व विलासिता की वस्तुओं पर अधिक व्यय किया जाता है, जबकि निर्धन वर्ग की आय अधिकांशतः जीवनोपयोगी आवश्यक उपभोग पर ही व्यय होती है । अप्रत्यक्ष करों में आगम एकत्रित करने में एक्साइज ड्‌यूटी एवं उत्पादन शुल्क मुख्य हैं ।

उत्पादन शुल्क जहाँ उत्पादन पर लगाया जाता है वहीं बिक्री कर वस्तु की वास्तविक बिक्री पर लगाया जाता है 1 वास्तव में बिक्री कर व्यापारिक संस्थानों से एकत्रित किया जाता है जो अपने भार को उपभोक्ताओं की ओर विवर्तित करते हैं ।

विकासशील देशों में कर आगम में कस्टम ड्‌यूटी का महत्वपूर्ण स्थान है । इसके दो प्रकार है निर्यात् ड्‌यूटी तथा आयात ड्‌यूटी । विकासशील देश आयात ड्‌यूटी आगम प्राप्त करने में अधिक सक्षम है, क्योंकि इन देशों के निर्यात कम होते है तथा विदेशी प्रतिद्वन्द्विता से घरेलू उद्योगों को बचाने के लिए आयातित वस्तुओं को सापेक्षिक रूप से महँगा रखा जाता है ।

अप्रत्यक्ष करों में व्यय कर भी महत्वपूर्ण है जो एक व्यक्ति द्वारा किए जा रहे वास्तविक व्यय पर लगाए जाते है । वास्तविक व्यय को व्यक्ति की आय में बचतों को घटाकर प्राप्त किया जाता है । अतः वास्तविक व्यय पर लगने वाला कर व्यक्ति की बचतों को विपरीत रूप से प्रभावित नहीं करता । इनका दोष यह है कि इनका प्रबन्ध करना कठिन है ।

कृषि पर कर:

विकासशील देशों के कुल राष्ट्रीय उत्पाद में कृषि क्षेत्र का उच्च अनुपात होने पर भी कृषि पर कर की मात्रा बहुत अल्प या नहीं होती । इसका तर्क यह दिया जाता है कि जीवन-निर्वाह का मुख्य साधन होने के कारण कृषि कर भार को सहन नहीं कर पाती, परन्तु यह उन बड़े भूस्वामियों व कुलक वर्ग के लिए सत्य नहीं है जिनके पास संसाधनों व कृषि योग्य भूमि की कमी नहीं है ।

कृषि पर कर विविध रूपों में लगाया जा सकता है, जैसे- भूमि कर, कृषि आय कर, कृषि उत्पाद पर करारोपण इत्यादि । मुद्रा प्रसार एवं मुद्रा संकुचन की दशाओं में कराधान एक प्रभावी उपाय बनता है । मुद्रा प्रसार के समय व्यय योग्य आय में कमी करना आवश्यक हो जाता है ।

कारण यह है कि बाजार में वस्तु व सेवाओं की पूर्ति कम होती है । अतः जनता की क्रय शक्ति को कम करना आवश्यक होता है । अतः तेजी के समय वस्तु व सेवाओं पर नए कर लगने चाहिएँ तथा वर्तमान करों की दर में वृद्धि करनी चाहिए ।

दूसरी ओर मन्दी काल में करारोपण नीति का उद्देश्य उपभोग व विनियोग को प्रोत्साहित करना है । अतः वस्तु पर लगाए गए करों में कमी हो जिससे उपभोग व्यय बढे । उत्पादन शुल्क व बिक्री कर में भी छूट दी जाये । विनियोग में वृद्धि हेतु निगम कर में कमी की जाये ।

प्रो॰ डी॰ ब्राइट सिंह के अनुसार अल्पविकसित देशों में कर व्यवस्था को अधिक गहन व विस्तृत बनाकर करारोपण की संरचना का पुनर्गठन कर व कर प्रशासन को योग्य बनाकर कर आगम में वृद्धि की काफी सम्भावना विद्यमान होती है ।

2. सार्वजनिक ऋण (Public Borrowing):

सार्वजनिक ऋण स्वैच्छिक अथवा अनिवार्य हो सकते हैं । स्वैच्छिक ऋणों के द्वारा सरकार को पर्याप्त धनराशि प्राप्त नहीं हो पाती । अतः सरकार द्वारा अनिवार्य ऋण लिए जाते है जिन्हें स्थगित वेतन भी कहा जाता है ।

इसके द्वारा जनता की अतिरिक्त क्रय शक्ति को सीमित किया जा सकता है । मुद्रा प्रसार के समय में अनिवार्य ऋण नीति का आश्रय लिया जाता है । यह मन्दी व बेरोजगारी की दशा में भी स्वीकृत है ।

स्वैच्छिक ऋणों की प्राप्ति हेतु सरकार मुद्रा बाजार में विभिन्न प्रकार के बिल व प्रतिभूतियों का निर्गमन करती है । सार्वजनिक ऋण के द्वारा पूँजीगत संसाधन अनुत्पादक कार्यों से उत्पादक कार्यों की ओर विवर्तित किए जाते हैं ।

इनकी प्रकृति करों से भिन्न है, क्योंकि जनता द्वारा लिए गए उधार का पुनर्भुगतान करना पड़ता है । सार्वजनिक ऋणों के द्वारा प्राप्त राशि को उत्पादक उद्देश्यों की ओर लगाया जाना चाहिए ।

विकासशील देशों में स्वैच्छिक ऋण अल्प मात्रा में प्राप्त हो पाते है, क्योंकि आय का स्तर निम्न होता है । अतः सरकार अनिवार्य ऋणों पर अधिक आश्रित हो जाती है । इनके अधीन सरकार पाँच से दस या अधिक वर्षों के लिए बॉण्ड जारी करती है । कर्मचारियों की भविष्य निधि एवं अनिवार्य जमा भी इसमें सम्मिलित रहती है ।

विकासशील देशों द्वारा आन्तरिक स्रोतों से सीमित मात्रा में ऋण प्राप्त होने के कारण बाह्य ऋणों पर निर्भरता बनी रहती है । बाह्य ऋण प्राप्त करते हुए विकासशील देशों को प्रायः अनेक दबावों व शर्तों के अधीन कार्य करना पड़ता है । इनकी आर्थिक स्वतन्त्रता भी सीमित हो जाती है ।

यह ऋण प्रायः अनिश्चित होते है । बाह्य ऋणों का भार देश पर लम्बे समय तक रहता है तथा इनके पुनर्भुगतान की समस्या बनी रहती है । विकासशील देश प्रायः पुराने ऋणों के पुनर्भुगतान हेतु नए ऋण लेते है व इस चक्र में फँसे रह जाते है ।

3. सार्वजनिक व्यय (Public Expenditure):

विकासशील देशों की विकास सम्बन्धी प्राथमिकताएँ अन्तर्संरचनात्मक सुविधाओं एवं आर्थिक व सामाजिक उपरिमदों की स्थापना से सम्बन्धित रहती है । सरकार द्वारा ऐसी परियोजनाओं पर विनियोग किया जाता है जो दीर्घ समय अवधि के उपरान्त उत्पादन दे, ऐसा उपक्रम जो विकास हेतु आधारभूत हों पर उनमें जोखिम व अनिश्चितता का अंश अधिक हो ।

इन क्षेत्रों में विनियोग हेतु निजी क्षेत्र रुचि नहीं लेता । स्पष्ट है कि अन्तर्संरचनात्मक सुविधाओं एवं पूंजी गहन उद्योगों को स्थापित करने का दायित्व सरकार द्वारा वहन किया जाता है जिसके लिए सार्वजनिक व्यय की विशाल मात्रा चाहिए ।

विकासशील देशों में आय व सम्पत्ति के वितरण की विषमता को दूर करने में सार्वजनिक व्यय की भूमिका महत्वपूर्ण है । इन देशों की सरकारें विभिन्न क्षेत्रों के मध्य असमानता व असन्तुलन दूर करने के प्रयास करती है जिसके लिए पिछड़े क्षेत्रों में उत्पादन की गतिविधियों को बढाने, औद्योगिक क्षेत्र विकसित करने एवं विशेष सुविधाओं के प्रसार हेतु विशेष प्रयास किए जाते हैं ।

इनमें आदाओं की सुलभ पूर्ति प्रदान करना, अनुदान एवं कर छूट प्रदान करना, तैयार माल के विपणन की व्यवस्था मुख्य है । इस प्रकार सार्वजनिक व्यय में वृद्धि करते हुए क्षेत्रीय असमानताओं का निराकरण सम्भव बनता है ।

4. बजट नीति (Budget Policy):

विकासशील देशों में बजट नीति के मुख्य उद्देश्य निम्नांकित हैं:

(1) सार्वजनिक व निजी क्षेत्र में उत्पादक विनियोग की वृद्धि को बढ़ाना ।

(2) सार्वजनिक क्षेत्र के विनियोग हेतु वास्तविक व वित्तीय संसाधनों को अधिकतम परिमाण को गतिशील करना तथा यह ध्यान रखना कि निजी क्षेत्र में वास्तविक व वित्तीय संसाधनों की माँग में वृद्धि होती रहे ।

(3) अर्थव्यवस्था में वृद्धि की अधिकतम दर को बनाए रखते हुए आर्थिक स्थायित्व को सुनिश्चित करना ।

(4) बढते हुए राष्ट्रीय उत्पादन का पुनर्वितरण करना ।

विकासशील देशों में बजट नीति अधिक कारगर इस कारण नहीं हो पाती क्योंकि:

(i) इन देशों में कर संरचना दृढ व संकुचित होती है जिससे एक सुसंगठित व तालमेल युक्त कर नीति को लागू कर पाना कठिन होता है ।

(ii) इन देशों में गैर मौद्रिक क्षेत्र काफी अधिक होता है जो बजट नीति से प्रभावित नहीं होता ।

(iii) इन देशों में प्रशासनिक मशीनरी में दोष विद्यमान होते हैं ।

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