भारत में मुद्रास्फीति | Read this essay in Hindi to learn about inflation in India.

भारत में नियोजित विकास की प्रक्रिया में मुद्रा प्रसारिक दबाव चिन्ता का विषय रहे है । यद्यपि पहली योजना में विस्फीति कारक वृद्धि की प्रवृतियाँ दिखाई दीं जिसका कारण खाद्यान्नों का पर्याप्त उत्पादन रहा इसके साथ ही योजना का परिव्यय अर्थव्यवस्था के आकार के सापेक्ष अल्प रहा । कीमतों के स्थायित्व के पीछे कुछ कारक महत्वपूर्ण थे ।

नियोजकों ने एक वृद्धिमान पूँजी उत्पाद अनुपात 3 : 1 का अनुमान लगाया जबकि वास्तविक दर मात्र 2.4 प्रतिशत रही । स्थिर कीमतों पर शुद्ध राष्ट्रीय उत्पाद योजना अवधि में 18 प्रतिशत की दर से बड़ा जो बाजार कीमतों पर शुद्ध राष्ट्रीय उत्पाद की वृद्धि दर 6 प्रतिशत से अधिक था । पहली योजना सापेक्षिक रूप से कीमत स्थायित्व का प्रदर्शन करती थी । अतः इसे अवस्फीति कारक वृद्धि का नाम दिया गया ।

द्वितीय पंचवर्षीय योजना से मुद्रा प्रसारिक प्रवृतियाँ उत्पन्न हुई इसका कारण खाद्यान्न व औद्योगिक कच्चे माल की कीमतों में होने वाली वृद्धि थी । तीव्र औद्योगिक उत्पादन ने विकास व्यय में वृद्धि की ।

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सार्वजनिक क्षेत्र का वास्तविक परिव्यय 4,672 करोड़ रुपया था जो पहली योजना से ढाई गुना अधिक था । शुद्ध राष्ट्रीय परिव्यय में 7.6 प्रतिशत वार्षिक वृद्धि हुई, जबकि उत्पादन में मात्र 4.7 प्रतिशत वार्षिक वृद्धि हुई । उपभोक्ता वस्तुओं की उपलब्धता में कमी आने तथा औद्योगिक कच्चे माल व पूंजीगत पदार्थों के अभाव से कीमतों में वृद्धि होती गयी ।

तीसरी योजना तीव्र मुद्रा प्रसार व धीमी आर्थिक वृद्धि की दशाओं का प्रदर्शन करती रही । कृषि उत्पादन कम हुआ । देश को पडोसी देशों के साथ युद्ध में उलझना पड़ा । सैन्य परिव्यय 1960-61 के 281 करोड रुपये से 1965-66 में 884 करोड रुपया हो गया ।

सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा प्रदान किए गए वेतन में 15 प्रतिशत वार्षिक वृद्धि हुई, जबकि पहली दो योजनाओं में यह वृद्धि 7.7 व 4.8 प्रतिशत वार्षिक थी । औद्योगीकरण कार्यक्रमों पर होने वाले विनियोग ने भी कीमत स्तर को प्रभावित किया । देश में जितनी क्षमताओं का सृजन हुआ उतना क्षमता उपयोग सम्भव नहीं बन पाया । मुद्रा-प्रसार के कारण व्यापार सन्तुलन विपरीत हुआ विदेशी विनिमय के संकट उत्पन्न हुए । भुगतान सन्तुलन के समायोजन के लिए 1966 में रुपये का 36.5 प्रतिशत अवमूल्यन करना पड़ा ।

वार्षिक योजनाओं की अवधि में अर्थव्यवस्था प्रतिसार की दशाओं का अनुभव कर रही थी । मौद्रिक पूर्ति की वृद्धि दर 8 से 11 प्रतिशत रही । बढते हुए बजट घाटी के कारण केन्द्र व राज्य सरकारों ने रिजर्व बैंक से काफी अधिक उधार लिया गैर विकास व्यय में मुख्यतः युद्ध वित्त 1967-71 की अवधि में तेजी से बढा । इन लक्षणों के साथ अपर्याप्त कृषि उत्पाद व औद्योगिक उत्पादन की न्यून वृद्धि बनी रही ।

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चतुर्थ योजना के आरम्भ से ही प्रमुख औद्योगिक कच्चे पदार्थों, जैसे-जूट, कपास, तेल बीज का अभाव उत्पन्न हुआ व इनकी कीमतें तेजी से बड़ी । मौद्रिक पूर्ति में 10 से 16 प्रतिशत वार्षिक की वृद्धि हुई । बजट के घाटे बढे तथा गैर विकास व्यय में वृद्धि हुई ।

उत्पादन की अपर्याप्तता से की प्रवृतियाँ दिखायी दी । मौसम की विपरीतता तथा हरित क्रान्ति के कुछ क्षेत्र विशेषों तक ही सफल होने के कारण कृषि उत्पादन गिरा वहीं बिजली. यातायात, कच्चे माल व विभिन्न मध्यवर्ती आदाओं के अभाव से औद्योगिक उत्पादन शिथिल रहा ।

उपभोक्ता वस्तु उद्योग जो प्रत्यक्ष रूप से कृषि प्रधान आदाओं पर निर्भर थे । संसाधनों की कमा से ग्रस्त रहे । औद्योगिक वृद्धि दरें न्यून थी । सार्वजनिक क्षेत्र की बचत व विनियोग प्रवृतियाँ सन्तोषजनक नहीं थी । सरकारी आगम में कमी के साथ गैर विकास परिव्यय, जैसे- बाढ़ समस्या, सैनिक व्यय, महँगाई भत्ता, सामाजिक सेवाओं पर व्यय से अर्थव्यवस्था में संकट विद्यमान रहा ।

मुद्रा प्रसार से लागते भी बढ़ रही थीं और विनिर्माण परियोजनाएँ बढे हुए परिव्यय के कारण पिछड़ रही थी । समग्र माँग व पूर्ति में असन्तुलन के कारण मुद्रा-प्रसार तेजी से बदला जा रहा था ।

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पाँचवी योजना के आरम्भ से ही आन्तरिक रूप से सृजित माँग स्फीति के साथ अन्य आदाओं की बढ़ती कीमतों से लागत स्फीति की दशाएँ विद्यमान रहीं । एक ओर खाद्यान्नों के उत्पादन में कमी हो रही थी तो दूसरी ओर पेट्रोलियम खाद्यान्न व कच्चे संसाधनों को आयात व्यापार सन्तुलन पर विपरीत प्रभाव डाल रहा था ।

कीमतों की वृद्धि से चिंतित होकर सरकार ने मुद्रा प्रसार विरोधी उपायों को युद्ध स्तर पर चलाया । मुद्रा पूर्ति की दर में वृद्धि पर अंकुश लगाया गया । गैर विकास परिव्ययों में कटौती की गयी । बजट के घाटे को घटाने का प्रयास किया गया ।

निजी मौद्रिक आय व बचतों को गतिशील करने के लिए कई उपाय किए गये । जमाखोरी, कर अपवचन व विलासिता पूर्ण उपभोग को नियन्त्रित करना आवश्यक समझा गया । जुलाई, 1975 में आपातकाल की घोषणा से मुद्रा प्रसारिक दबाव कुछ कम हुए । काले बाजार की क्रियाओं, जमाखोरी व अन्य आर्थिक बुराईयों पर नियन्त्रण हेतु कठोर कदम उठाए गए ।

देश में औद्योगिक शान्ति के साथ ही प्रशासनिक व विदेश व्यापार नियन्त्रण से उत्पादकता में अभिवृद्धि सम्भव हुई । सरकार द्वारा मुद्रा प्रसार को नियन्त्रित करने के उपाय कारगर बनें ।

1974-75 में कीमतों में 25 प्रतिशत की वृद्धि देखी जा रही थी । सरकार द्वारा अपनाए गए मौद्रिक व राजकोषीय उपायों व कठोर कार्यवाहियों से 1978-79 तक कीमतें लगभग स्थिर रहीं । 1979-80 में राजनीतिक अस्थायित्व से इस अवधि में दबी हुई मुद्रा प्रसारिक दशाएँ पुन: उग्र हो गयी ।

छठी योजना के उतरार्द्ध से ही प्राथमिक वस्तुओं व विनिर्मित उत्पादों की कीमतों में वृद्धि हो रही थी । 10 जुलाई, 1981 को मुद्रा प्रसार विरोधी नीति की घोषणा की गयी जिसमें आयकर संशोधन अध्यादेश तथा अनिवार्य जमा योजना कीमतों की निगरानी, कालेबाजार की क्रियाओं पर नियन्त्रण के साथ ही उत्पादकता में वृद्धि कर पूर्ति को बढ़ाना, उत्पादन क्षमता का पूर्ण उपयोग आवश्यक वस्तुओं का आयात व सट्‌टे की क्रियाओं पर रोक मुख्य थे ।

सार्वजनिक वितरण प्रणाली को अधिक प्रभावपूर्ण बनने के प्रयास किए गए । अर्थव्यवस्था में तरलता को नियन्त्रित करने के लिए प्रतिबन्धात्मक मौद्रिक नीति को अपनाया गया ।

रिजर्व बैंक द्वारा बैंक दर को 9 प्रतिशत से बढाकर 10 प्रतिशत व अनुसूचित बैंक के नकद वैधानिक अनुपात को 6 से बढ़ाकर 7 प्रतिशत व बैंकों के वैधानिक तरलता अनुपात (S.L.R.) को 34 से बढाकर 35 प्रतिशत कर दिया गया । मई, 1983 में नकद वैधानिक अनुपात को पुन: 7 से बढ़ाकर 8 प्रतिशत कर दिया गया तथा नवम्बर 1983 में व्यापारिक बैंकों की जमा में वृद्धि के 10 प्रतिशत भाग को अवरुद्ध किया गया । परन्तु स्थिति सुधर नहीं पायी ।

जनवरी, 1984 में नयी मुद्रा प्रसार विरोधी नीति के अधीन अगले नौ महीनों तक केन्द्रीय सेवाओं में भरती पर रोक, योजना व्यय में 5 प्रतिशत की कटौती व गैर योजना व्यय में 3 प्रतिशत की कटौती की घोषणा की गई । फरवरी, 1984 में नकद वैधानिक अनुपात को बढाकर 9 प्रतिशत कर दिया गया ।

पहली पंचवर्षीय योजना से छठी योजना अवधि तक मुद्रा प्रसार के मुख्य कारक निम्न रहे:

(1) मौद्रिक पूर्ति में वृद्धि हुई परन्तु उत्पादकता में सापेक्षिक रूप से वृद्धि नहीं हो पायी । जनता के पास करेंसी एवं जनता की जमा मुद्रा के योग द्वारा प्राप्त मौद्रिक पूर्ति MI 1950-51 में 20 बिलियन से बढ्‌कर 1970-71 में 73.21 बिलियन व 1970-71 में 429 बिलियन हो गयी थी । प्रति व्यक्ति शुद्ध राष्ट्रीय उत्पाद का निर्देशक 1950-51 में 100 था जो 1985-86 में 171.2 रहा, जबकि इस अवधि में जो कीमतों का निर्देशक (1970-71 = 100) 1950-51 के 48 से 1985-86 में बढकर 358 हो गया था ।

(2) सरकारी व्यय में तीव्र वृद्धि जिसमें विकास व्यय के सापेक्ष गैर विकास व्यय अधिक हुआ । विकास व्यय के अन्तर्गत चिकित्सा व लोक स्वास्थ्य व चिकित्सा शिक्षा व विज्ञान कृषि से सम्बन्धित क्रियाएँ, उद्योग व खनन, विदेश व्यापार व निर्यात, प्रोत्साहन इत्यादि सम्मिलित है ।

दूसरी ओर गैर विकास व्यय में कर व ड्‌यूटी के एकत्रण, प्रशासनिक सेवा, सैन्य व्यय, ऋण सेवा तथा गैर विकास उद्देश्यों हेतु राज्यों को प्रदान की जाने वाली सर्वाधिक अनुदान सहायता शामिल की जाती है । विकास व्यय में अर्थव्यवस्था की उत्पादन क्षमता में वृद्धि होती है, जबकि गैर विकास व्यय आय एवं क्रय शक्ति से वृद्धि करता है ।

सरकार द्वारा गैर विकास व्यय किए जाने पर अर्थव्यवस्था में मौद्रिक आय तो बढ़ती है पर वस्तु व सेवाओं की आपूर्ति में तत्सम्बन्धित वृद्धि नहीं होती ।

(3) न्यूनता वित्त प्रबन्ध पर निर्भरता बनी रही:

सातवीं योजना:

सातवीं योजना अवधि में वृहत मुद्रा M3 में 17.6 प्रतिशत वार्षिक की औसत दर से वृद्धि हुई केन्द्रीय सरकार को निबल रिजर्व बैंक ऋण में 17.8 प्रतिशत वार्षिक वृद्धि हुई । सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि की औसत दर 5.7 प्रतिशत रही । ऐसा नकदी बाहुल्य जो सकल राष्ट्रीय उत्पाद में वृद्धि के अनुकूल नहीं था, अर्थव्यवस्था में मुद्रा प्रसार का मुख्य कारक बना ।

सातवीं योजना के उपरान्त कीमतों में अतिशय वृद्धि की प्रवृतियाँ विद्यमान थीं । कुछ अर्थशास्त्रियों के अनुसार संरचनात्मक समायोजन की प्रक्रिया के परिणामस्वरूप जहाँ मुद्रा प्रसार की गति बड़ी वहीं दूसरी ओर आर्थिक वृद्धि की दरें अल्प रही ।

मुद्रा प्रसार के निवारण एवं भुगतान सन्तुलन के समायोजन की तात्कालिक आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए सरकार द्वारा दृढ़ मुद्रा व साख नीति अपनाई गई । साथ ही अर्थव्यवस्था बाजार-मित्रता की अर्थव्यवस्था के पथ पर अग्रसर होने का निर्णय ले चुकी थी ।

भारतीय रिजर्व बैंक वार्षिक रिपोर्ट में कहा गया कि 1991-92 के लिए एक नियमित बजट के अभाव एवं व्यापक आर्थिक सन्तुलन के मध्यमकालीन कार्यक्रमों के प्रसंग में अल्पकालीन प्रबन्ध का भार रिजर्व बैंक की मौद्रिक व साख नीतियों पर आ जाता है ।

भारतीय रिजर्व बैंक ने इस उद्देश्य हेतु माँग प्रबन्ध की नीति की घोषणा की जिसके मुख्य पक्ष निम्नांकित थे:

(i) बैंक दर को 10 प्रतिशत से बढ़ाकर 12 प्रतिशत किया जाना ।

(ii) मियादी जमाओं पर अधिकतम ब्याज दर पर 2 प्रतिशत की वृद्धि ।

(iii) बड़े ऋण प्राप्तकर्ताओं के लिए न्यूनतम उधार दरों में वृद्धि जो 18.5 से 20 प्रतिशत थी ।

(iv) वृद्धिमान गैर खाद्य जमा अनुपात में 1990-91 के 60 प्रतिशत से कमी कर 45 प्रतिशत कर दिया जाना ।

(v) उपभोक्ता टिकाऊ वस्तुओं, शेयर, डिबेंचर, वास्तविक परिसम्पत्ति हेतु साख पर रोक तथा उन आवश्यक वस्तुओं पर चयनात्मक साख नियन्त्रण को पुन: दृढ़ करना जिनकी आपूर्ति सीमित है ।

उपर्युक्त के साथ ही आयातों की मात्रा में काफी कमी किए जाने के लिए नकद सीमाओं को उच्च कर दिया गया । विनिमय दर की नीति को अधिक आक्रामक किया गया जिससे यह कटु बाह्य भुगतान सन्तुलन की समस्या को कुछ कम करें ।

इन सबमें भारत के मुख्य व्यापार सहयोगियों की करेंसियों के सापेक्ष स्मये का 18 प्रतिशत से अधिक अवमूल्यन किया गया । सम्भव है कि इन उपायों का विपरीत प्रभाव पडे अर्थात् मुद्रा प्रसार की दर अधिक बढे, सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दरें न्यून ही व निर्यातों की वृद्धि प्रभावित हो । उद्योग, विदेश व्यापार एवं विनियोग के विकास हेतु घोषित नवीन उदारनीतियों सफलता तब संदिग्ध हो जाएगी ।

1990 के उपरान्त मुद्रा प्रसार के नियन्त्रण में जो मुख्य कारक उत्तरदायी रहे उनमें देश में तरलता आधिक्य व न्यूनता शक्ति प्रबन्ध पर निर्भरता के साथ बढ़ी हुई प्रशासित वसूली कीमतों, रेलभाड़े में वृद्धि उत्पादन कर की वृद्धि बस्ती हुई आयात लागतें एवं आवश्यक वस्तुओं के लिए पूर्ति का असन्तुलन मुख्य रहे ।

1990-91 की रिजर्व बैंक रिपोर्ट में मुद्रा प्रसार के कारकों में गैर मौद्रिक कारकों के अधिक योगदान को स्वीकार किया गया । मुद्रा प्रसार की वृद्धि उत्तरदायी घटकों में रुपये का अवमूल्यन, आयातों की नकद सीमाओं में वृद्धि, बैंक दर की वृद्धि, न्यूनतम उधार दर में वृद्धि या उपभोक्ता टिकाऊ वस्तुओं हेतु प्रदान की जाने वाली साख पर नियन्त्रण का भी योगदान रहा ।

1990 के आरम्भ से ही औद्योगिक उत्पादन में आने वाली कमी व कुछ उद्योगों में प्रतिसार की दशा को भी ध्यान में रखना होगा । आवश्यक वस्तुओं की कीमतों को स्थायित्व प्रदान करने के लिए आयातों में वृद्धि हुई जिससे भुगतान सन्तुलन पर विपरीत प्रभाव पड़ा ।

जहाँ तक बैंक साख का प्रश्न है वहाँ सट्‌टाजनित लाभों हेतु इसका नियन्त्रण जरूरी है, लेकिन इसकी समुचित आपूर्ति वाणिज्यिक क्षेत्र में उत्पादन की वृद्धि हेतु घटी हुई लागत पर उपलब्ध होती रहे । संक्षेप में आर्थिक वृद्धि की दर में सुधार हेतु साख की आपूर्ति को नियमित करना आवश्यक है ।

दूसरी ओर अर्थव्यवस्था में सामूहिक माँग को राजकोषीय आय एवं मजदूरी नीति के द्वारा नियमित किया जाये । मात्र मौद्रिक नीति पर अधिक निर्भरता उत्पादकता विरुद्ध भी हो सकता है ।

भारत में विनिमय दर नीति ने भी मुद्रा प्रसारिक दबावों ने वृद्धि की है । जुलाई, 1990, में रुपये के अवमूल्यन व उससे उपरान्त रुपये के मूल्य में होने वाले ह्रास से आगम एवं वित्तीय घाटे बढे । ऐसे में रुपये के पुन ह्रास को रोकने के हर सम्भव प्रयास किए जाने आवश्यक है ।

भारत में क्षेत्रीय वृद्धि एवं मुद्रा प्रसार की प्रवृतियों के अवलोकन से यह स्पष्ट होता है कि 1981-89 की अवधि में सकल घरेलू उत्पादन में वृद्धि की दर प्रतिशत थी जिसमें प्राथमिक क्षेत्र का सकल घरेलू उत्पादन 4.03 प्रतिशत एवं गैर कृषि क्षेत्र का सकल घरेलू उत्पादन 6.55 प्रतिशत से बढ़ा वहीं प्राथमिक वस्तुओं की कीमतें इसी अवधि में 7.01 प्रतिशत तथा गैर कृषि मदों की कीमतें 6.18 प्रतिशत की दर से बड़ी ।

1989-93 की अवधि में सकल घरेलू उत्पाद की औसत वृद्धि दर 4.54 प्रतिशत थी जिसमें कृषि क्षेत्र की वृद्धि दर 2.49 प्रतिशत व गैर कृषि क्षेत्र की वृद्धि दर 5.61 प्रतिशत रही तो इस अवधि में मुद्रा प्रसार कृषि क्षेत्र में 10.24 प्रतिशत एवं गैर कृषि क्षेत्र में 10.4 प्रतिशत की दर से बढा ।

1994 से 1996 की अवधि में सकल घरेलू उत्पाद की औसत वृद्धि दर 6 प्रतिशत थी जिसमें कृषि क्षेत्र 3.53 तथा गैर कृषि क्षेत्र का सकल घरेलू उत्पाद 6.38 प्रतिशत से बढ़ रहा था तथा इस अवधि में मुद्रा प्रसार क्रमश: 9 प्रतिशत की दर से बढा ।

अक्तूबर, 1996 में मुद्रा-प्रसार 6.25 प्रतिशत पर स्थायित्व प्राप्त कर गया । तीनों समय अवधियों में गैर कृषि वस्तुओं के उत्पादन एवं आय वृद्धि की वार्षिक वृद्धि दरों की तुलना से यह स्पष्ट होता है कि वृद्धि में होने वाली मुद्रा-प्रसार की दर में होने वाली कमी से सम्बन्धित है ।

साठवें एवं सत्तरहवें दशक में भी ऐसी ही प्रवृतियाँ देखी गई थीं । इनमें 1989-90 का वर्ष हट कर था जिस वर्ष तेल की कीमतों में अचानक तीव्र वृद्धि हुई थी । 1990 के दशक में प्राथमिक उत्पादों की कीमतें सर्वप्रथम 1991-92 में 17.8 प्रतिशत व 1998-99 में तेजी से बढीं ।

1990 के दशक के प्रारम्भ में कीमतें बढ़ने का मुख्य कारण खाद्यान्न की वास्तविक एवं प्रशासित कीमतों में तेजी से वृद्धि की गयी, लेकिन कृषिकों से समुचित खाद्यान्न आपूर्ति सुनिश्चित नहीं हो पाई । 1990 के दशक में कृषि उत्पादन गतिरोध की दशाओं का प्रदर्शन कर रहा था ।

पूर्ति की अनिरन्तरता एवं अवरोध के साथ कृषि वस्तुओं की कीमतों में होने वाली वृद्धि ने आर्थिक वृद्धि की प्रक्रिया को धीमा करने के साथ मुद्रा-प्रसार में वृद्धि करने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया ।

विनिर्माण एवं प्राथमिक क्षेत्रों में मुद्रा-प्रसार के प्रभाव को प्रदर्शित किया जाता है जिससे स्पष्ट है कि 1990-92 एवं 1994-95 में प्राथमिक उत्पादों का मुद्रा प्रसार में योगदान विनिर्माण क्षेत्र में भी मुद्रा प्रसार के बढ़ते हुए प्रभाव को प्रदर्शित कर रहा था ।

भारत में विभिन्न कीमत सूचकों की वार्षिक प्रवृत्तियाँ (Annual Trends in Various Price Indicators):

विभिन्न कीमत सूचक:

1. WPI = थोक कीमत निर्देशांक जिसमें 435 मदें सम्मिलित हैं । इन मदों का भार घरेलू बाजार में व्यापार की गई वस्तुओं के मूल्य के आधार पर ज्ञात किया जाता है ।

2. CPI-IW = उपभोक्ता कीमत निर्देशक औद्योगिक श्रमिकों के लिए CPI-UNME = उपभोक्ता कीमत निर्देशक शहरी गैर-हस्त चालित कर्मचारियों हेतु

3. CPI-AL = उपभोक्ता कीमत निदेंशांक कृषि श्रमिकों के लिए

4. CPI-AL = उपभोक्ता कीमत निर्देशांक ग्रामीण श्रमिकों के लिए

थोक कीमत निर्देशांक के आधार पर मुद्रा प्रसार की वार्षिक दरें अक्टूबर, 1998 में 8.2 प्रतिशत थीं, जबकि पिछले वर्ष यह 4.3 प्रतिशत की दर से बढ़ रही थीं । अक्टूबर, 1998 तक पिछले वर्ष के सापेक्ष कीमतों में दुगनी वृद्धि होने का कारण खाद्यान्न कीमतों में 17 प्रतिशत की वृद्धि होना था ।

इसके अन्तर्गत खाद्य पदार्थों में 20.1 प्रतिशत की वृद्धि होना था । इसके अन्तर्गत खाद्य उत्पादों में 20.1 प्रतिशत, खाद्यान्नों में 12 प्रतिशत व खाद्य उत्पादों में 10 प्रतिशत तक की वृद्धि देखी गयी, जबकि अक्तूबर, 1997 में खाद्यान्न कीमतों में मात्र 39 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी ।

इसके अन्तर्गत खाद्य पदार्थों में 32 प्रतिशत, खाद्यान्न में -0.8 प्रतिशत तथा खाद्य उत्पादों में 5.5 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई थी । गैर खाद्यान्न मदों में अक्तूबर, 1998 में मूल्य वृद्धि की दर 4.4 प्रतिशत थी जबकि पिछले वर्ष यह 4.5 प्रतिशत की वार्षिक दर से बड़ी थी ।

इनमें कच्चा माल जिसमें प्राथमिक गैर खाद्य मदें तथा खनिज शामिल हैं, की कीमतें 1998 में 8.1 प्रतिशत की दर से बड़ी, जबकि 1997 में यह 3.2 प्रतिशत नहीं थीं, विद्युत प्रकाश, ऊर्जा एवं स्नेहकों में 1998 में 0.4 प्रतिशत वृद्धि हुई, जबकि 1997 में इनमें 14.6 प्रतिशत की वृद्धि रिकार्ड की गई थी ।

विनिर्मित उत्पादों में 1998 में 4.5 प्रतिशत वृद्धि हुई थी, जबकि 1997 के वर्ष में यह मात्र 2.3 प्रतिशत रही । उपभोक्ता कीमत निर्देशक एवं मुद्रा-पसार की दर 1997-98 के सापेक्ष 1998-99 में अधिक रही ।

वार्षिक मुद्रा-प्रसार जहाँ 1997-98 में 4.7 प्रतिशत था वहीं 1998-99 में यह 15 प्रतिशत की वृद्धि दिखा रहा था । वित्तीय वर्ष 1997-98 में मुद्रा-प्रसार की दर 2.3 प्रतिशत रही तो 1998-99 में यह बढ्‌कर 8.7 प्रतिशत हो गयी थी । थोक कीमत निर्देशांक में 2001-02 से 2004-05 तक 4.7 प्रतिशत रही । तेजी से दो अंकों में बढता हुआ मुद्रा प्रसार 20007-08 में प्रकट हुआ जिसने देश के सम्मुख गंभीर संकट उत्पन्न कर दिये व मुद्रा प्रसार की दर 14 प्रतिशत पार कर गई ।

मुद्रा प्रसार एवं मौद्रिक पूर्ति (Inflation and Money Supply):

भारतीय रिजर्व बैंक मौद्रिक पूर्ति पर द्वितीय कार्यकारी दल की संस्तुतियों के अधीन मुद्रा पूर्ति का आंकलन निम्न चार घटकों के आधार पर करता है:

इनमें M1 सर्वाधिक तरल है अर्थात् वस्तुओं के क्रय-विक्रय व भुगतान हेतु विनिमय के माध्यम के रूप में स्वीकार की जाती है ।

M1 → M2 → M3 → M4 की ओर बढ़ने पर मुद्रा की तरलता कम होती जाती है अर्थात् यह ‘विनिमय माध्यम’ से ‘मूल्य संचय’ की ओर बढ़ती जाती ।

भारत में मुद्रा पूर्ति:

 

भारत में मुद्रा पूर्ति 1950 से 1960 के दशक में 4.2 प्रतिशत वार्षिक की दर से बढी परन्तु 1960 व 1970 के दशक में यह 15 प्रतिशत व 22 प्रतिशत की दर से बढी । 1970 से 1990 के दशक में औसत वार्षिक दर 16.5 प्रतिशत रही ।

1996-97 से 2000-01 तक मुद्रा की पूर्ति में होने वाली वृद्धि (प्रतिशत में) M1 में 12.05 तथा M3 में 16.99 रही जबकि सकल राष्ट्रीय उत्पाद में वृद्धि 5.4 रही । थोक कीमत सूचकांक में इस अवधि में मुद्रा स्फीति की वार्षिक दर प्रतिशत रही ।

2001-02 से 2004-05 की अवधि में मुद्रा की पूर्ति में होने वाली वृद्धि (प्रतिशत में) M1 में 14.24 तथा M3 में 14.96 रही जबकि सकल राष्ट्रीय उत्पाद में वृद्धि 6.7 रही । थोक कीमत सूचचांक में इस अवधि में मुद्रा स्फीति की वार्षिक दर 4.7 रही ।

भारत में मुद्रा प्रसार पर किए अध्ययनों का अनुभवसिद्ध अवलोकन (Review of Empirical Studies on Inflation in India):

भारत में मुद्रा प्रसार पर किए गए अनुभवसिद्ध अवलोकन को मुख्यतः दो वर्गों में बाँटा जा सकता है:

(i) मुद्रा प्रसार के एकल समीकरण मॉडल की सहायता से किए गए समग्र कीमत व्यवहार के अध्ययन ।

(ii) मुद्रा प्रसार एवं वृद्धि का व्यापक-अर्थमिति मॉडल व्याख्या ।

मुद्रा प्रसार पर किए गए प्रारम्भिक अध्ययन सामान्य रूप से समग्र विधि पर आधारित थे जो प्रतिष्ठित या कींजियन विश्लेषण से प्रभावित रहे । 1970 के उपरान्त संरचनात्मक विधि को व्यापक अर्थमितीय मॉडल से सम्बन्धित किया गया ।

1. कींजियन विश्लेषण (Keynesian Approach):

1970 के दशक के मध्य तक भारतीय अर्थव्यवस्था में मुद्रा प्रसार पर किए गए अध्ययन कींजियन विश्लेषण पर आधारित थे जिनमें नरसिम्हा मारवाह, मेमन राज, वेनट्राब, दर एवं मेलर, भट्‌टाचार्य तथा दिवातिया एवं पानी के अध्ययन महत्वपूर्ण हैं ।

राज, वेनट्राब, दर एवं मेलर तथा दिवातिया व पानी ने मुद्रा प्रसार का अध्ययन एक सामूहिक कार्यविधि पर आधारित रह कर किया, जबकि अन्य ने कीमतों के व्यवहार का परीक्षण व्यापक अर्थमितीय ढाँचे के आधार पर किया । मौद्रिक एवं कीसियन विश्लेषण के आधार पर किए गए अध्ययनों ने केवल माँग पक्ष के प्रभावों को ध्यान में रखा तथा पूर्ति पक्ष के घटकों की अवहेलना की ।

2. संरचनावादी विश्लेषण (Structuralist Approach):

भारतीय प्रसंग में विशुद्ध संरचनावादी विधि का प्रयोग अधिकांश शोधकर्त्ताओं ने मुद्रा प्रसार के मॉडल के विश्लेषण में नहीं किया । अख्तर (1975), राव एवं रंगाचारी (1977), पानी (1977), पंडित (1978,1984), अहलूवालिया (1979) भल्ला (1981) रनगंधाचारी (1981), भट्‌टाचार्य (1982, 184), कृष्णामूर्ति (1984) ने मौद्रिक संरचनात्मक विधि का प्रयोग करते हुए मुद्रा प्रसार का विश्लेषण दिया । इनमें से अधिकांश ने माँग एवं पूर्ति दोनों की परिसीमाओं को महत्व दिया तथा सामान्य एवं क्षेत्रीय कीमतों के व्यवहार को ध्यान में रखा ।

इन अध्ययनों से जो निष्कर्ष प्राप्त हुए उनका सार निम्न है:

(i) मुद्रा प्रसार की प्रक्रिया का आरम्भ होना उन सार्वजनिक विनियोगों के कारण हुआ जो सरकार के बजट घाटी को वित्त प्रदान करने के लिए किए जा रहे थे ।

(ii) विकास की अपेक्षाओं को पूर्ण करने में पूँजी की कमी के कारण सरकार ने मौद्रिक विस्तार की नीति को अपनाया और घाटे की बजट नीति पर आधारित रही जिसके परिणामस्वरूप मौद्रिक विस्तार हुआ इससे समग्र माँग बढ़ी ।

(iii) खाद्यान्न की समग्र माँग एवं समग्र पूर्ति के मध्य असन्तुलन विद्यमान रहा । भारतीय अर्थव्यवस्था में खाद्यान्न के स्टाक में होने वाले परिवर्तन का कीमत स्तर पर अत्यधिक प्रभाव पडता है, क्योंकि सरकार के बफर स्टाक आपरेशन एवं सार्वजनिक वितरण प्रणाली खाद्यान्न की कीमतों को काफी अधिक प्रभावित करती है ।

उपर्युक्त अध्ययनों की एक मुख्य सीमा यह थी कि समग्र उत्पादन एवं कीमतों का निर्धारण करते समय कृषि के योगदान को समुचित महत्व नहीं दिया गया ।

3. मौद्रिक विश्लेषण (Monetarist Approach):

फ्रीडमैन (1983) के विचार में भारतीय मुद्रा प्रसार की व्याख्या वास्तविक आय के सापेक्ष मौद्रिक स्टाक में होने वाली वृद्धि के द्वारा की जा सकती है । उन्होंने यह निष्कर्ष पहली और दूसरी पंचवर्षीय योजना में उत्पादन एवं मौद्रिक पूर्ति में होने वाले परिवर्तनों का अध्ययन करके दिया ।

फ्रीडमैन के आधार पर तदन्तर साठवें एवं सत्तरहवें दशक में रामन श्रीवास्तव एवं सक्सेना, कालाको, राव, ब्रह्मानन्द, गुप्ता, ने मुद्रा प्रसार पर अध्ययन प्रस्तुत किए । इन अध्ययनों का सार यह है कि मौद्रिक कारक, विशेष रूप से, मौद्रिक पूर्ति में होने वाले परिवर्तन स्फीतिकारक दशाओं के उत्पन्न होने में सहायक रहे ।

मौद्रिक विश्लेषण की संकल्पना में भारतीय अर्थव्यवस्था में एक स्थायी मौद्रिक माँग फलन के अस्तित्व की मान्यता ली गई थी । इससे अभिप्राय यह था कि मौद्रिक पूर्ति में होने वाली वृद्धि केवल कीमत स्तर को प्रभावित करती इसके उत्पादन एवं रोजगार पर कोई प्रभाव न पड़े ।

लेकिन भारत में मुद्रा फलन की माँग को स्थायी नहीं माना जा सकता, क्योंकि कीमत एवं मुद्रा की गति के मध्य सहगतियाँ होती रहती है । भारतीय अर्थव्यवस्था में, मुद्रा की पूर्ति उत्पादन एवं रोजगार की वृद्धि से दीर्घकाल में धनात्मक रूप से सम्बन्धित रही है क्योंकि सरकार ने विकास की परियोजनाओं को वित्त प्रदान करने के लिए न्यूनार्थ वित्त प्रबन्धन की नीति को अपनाया ।

सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि भारत के बढते हुए बाजार के आकार के परिप्रेक्ष्य में जिस तेजी से समग्र माँग में वृद्धि हुई उसके सापेक्ष समग्र पूर्ति न बढ पाई । इससे अर्थव्यवस्था में कीमतें तेजी से बढीं ।

समग्र माँग और समग्र पूर्ति के मध्य बढते हुए निरन्तर अन्तर से कीमत प्रत्याशाएँ अधिक होती रही । मुद्रा प्रसार के बढने से मुद्रा प्रसार की लागत का प्रभाव संसाधनों के आबंटन एवं वितरण प्रभावों से सम्बन्धित होता है ।

सार रूप में, हम पाते हैं कि भारत में मुद्रा प्रसार का महत्वपूर्ण निर्धारक मुद्रा है, लेकिन समग्र एवं सापेक्षिक कीमतों को प्रभावित करने वाला यह अकेला घटक नहीं है ।

यह भी ध्यान रखना होगा कि वृद्धि की प्रक्रिया में संरचनात्मक असन्तुलन के कारण सरकार के बजट घाटों में लगातार वृद्धि हुई तथा मौद्रिक पूर्ति बढी । ऐसे में मौद्रिक पूर्ति में की जाने वाली थोड़ी कमी से मुद्रा प्रसार में किंचित कमी तो होती, परन्तु आय और उत्पादन वृद्धि की दशा पर इसका नकारात्मक प्रभाव पडता ।

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