मुद्रास्फीति: अर्थ, प्रभाव और नियंत्रण | Read this article in Hindi to learn about:- 1. मुद्रा प्रसार के प्रस्तावना (Introduction to Inflation) 2. मुद्रा प्रसार के आशय एवं कारण (Meaning and Causes of Inflation) 3. प्रभाव (Effects) 4. नियन्त्रण हेतु उपाय (Remedies to Control) 5. अधारभूत सैद्धान्तिक मॉडल (Basic Theoretical Models) 6. प्रमुख मुद्रा स्फीति (Core Inflation) 7. कीमत नियन्त्रणों की मुद्रा प्रसारक प्रावैगिकी (Inflationary Dynamics of Price Controls).

मुद्रा प्रसार के प्रस्तावना (Introduction to Inflation):

मुद्रा प्रसार से आशय मुख्य रूप से कीमतों में वृद्धि होने के कारण मुद्रा के मूल्य में होने वाली कमी से है । जब मौद्रिक माँग उपलब्ध वस्तु व सेवाओं के मूल्य से अधिक होती है, तब अर्थव्यवस्था पर विस्तारक दबाव पडता है । उत्पादक द्वारा उत्पादन के साधनों की अधिक माँग की जाती है ।

यदि अर्थव्यवस्था में अशोषित संसाधनों की पर्याप्त मात्रा हो, तब विस्तारक दबाव का मुख्य प्रभाव रोजगार के स्तर को उच्च करना होगा । यह स्थिति तब तक चलेगी जब तक समस्त बेरोजगार साधनों का पूर्ण अवशोषण नहीं हो जाता । अर्थव्यवस्था में पूर्ण रोजगार की स्थिति प्राप्त होने के उपरान्त उत्पादन में अधिक वृद्धि होना सम्भव नहीं बन पाता ।

ऐसी स्थिति में पूर्ति पर माँग के आधिक्य के कारण कीमतें बढती हैं । सैद्धान्तिक रूप से कीमतों में होने वाली वृद्धि ऊँचे कीमत स्तर पर मांग को पूर्ति के बराबर कर देगी जिससे मुद्रा प्रसार की प्रवृति संचयी होती है ।

ADVERTISEMENTS:

इसका कारण यह है कि ऊँची कीमतें लागत में वृद्धि करती है तथा लागतों में होने वाली वृद्धि कीमतों में पुन. वृद्धि करती हैं । संक्षेप में वस्तु एवं सेवाओं के सामान्य कीमत स्तर में होने वाली वृद्धि मुद्रा प्रसार है । कीमत स्तर में वृद्धि क्रय शक्ति को कम करती है ।

मुद्रा प्रसार के आशय एवं कारण (Meaning and Causes of Inflation):

मुद्रा प्रसार वह स्थिति है जब मुद्रा एवं साख की मात्रा में उपलब्ध वस्तुओं के सापेक्ष अधिक वृद्धि होती है । इसके परिणामस्वरूप सामान्य कीमत स्तर में निरन्तर एवं काफी अधिक वृद्धि होती है । द्वितीय विश्वयुद्ध के उपरान्त अधिकांश देशों में मुद्रा प्रसार की प्रवृतियां उग्र हुईं तथा अर्थशास्त्रियों द्वारा इससे सम्बन्धित समस्याओं का विश्लेषण किया गया । मुद्रा प्रसार के मुख्य कारणों को लागत प्रेरित एवं माँग प्रेरित सिद्धान्तों के द्वारा समझाया जा सकता है ।

(1) माँग प्रेरित मुद्रा प्रसार (Demand Pull Inflation):

जिसका कारण वस्तु व सेवाओं की माँग में होने वाली तीव्र वृद्धि है अर्थात् देश में मुद्रा की मात्रा में तो वृद्धि होती है पर वास्तविक उत्पादन उस तेजी से नहीं बढ पाता जिस तेजी से उपभोग या माँग में वृद्धि हो । माँग प्रेरित मुद्रा प्रसार से तात्पर्य यह भी है कि काफी अधिक मुद्रा काफी कम वस्तुओं के क्रय-विक्रय के साथ सम्बन्धित रहती है ।

ADVERTISEMENTS:

संक्षेप में इसके कारण निम्न है:

(i) देश में मुद्रा पूर्ति का बढना ।

(ii) व्यय योग्य आय में वृद्धि ।

(iii) व्यवसाय परिव्यय में वृद्धि ।

ADVERTISEMENTS:

(iv) घरेलू वस्तु व सेवाओं के लिए बढी हुई विदेशी माँग ।

माँग प्रेरित मुद्रा प्रसार के पीछे उदार मौद्रिक व राजकोषीय नीति (Liberal Monetary or Fiscal Policy) होती है ।

लागत प्रेरित मुद्रा प्रसार (Cost Push Inflation) का कारण उत्पादन के संसाधनों के प्रतिफल में होने वाली वृद्धि है । उत्पादन लागत में वृद्धि तब उत्पन्न होती है, जब बढ़ती कीमतों के कारण अपने पूर्व जीवन-स्तर को बनाए रखने के लिए अधिक आय, वेतन, मजदूरी की माँग की जाती है ।

संक्षेप में, इसके कारण निम्न हैं:

(I) मजदूरी की उच्च दरें ।

(II) उत्पादकों के द्वारा निर्धारित लाभ की उच्च सीमाएं ।

(III) सरकार के द्वारा लगाए गए ऊँचे कर ।

(IV) आधारभूत संसाधनों की उपलब्धता में कमी ।

(V) प्रशासित (Administered) कीमतों में कमी ।

उपर्युक्त दोनों दशाओं में दो मुख्य प्रवृतियाँ दिखाई देती हैं:

(i) साधन आदाओं की कीमत में वृद्धि तथा

(ii) अन्तिम वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि । इस प्रकार मांग प्रेरित व लागत प्रेरित प्रक्रियाएँ एक-दूसरे से सम्बन्धित है तथा इन्हें आसानी से पृथक् नहीं किया जा सकता ।

कम विकसित देशों में उत्पादन के साधनों में सामान्य गतिशीलता अनुपस्थित होती है । संरचनात्मक दृढताएँ भी विद्यमान होती है जिसमें पूर्ति का बेलोच होना मुख्य है । इसका कारण यह है कि सामाजिक व आर्थिक उपरिमदों के अभाव अपूर्ण साधन बाजार व साधनों की गतिशीलता का न्यून होना ।

(2) मुद्रा प्रसार का सबसे जटिल रूप संरचनात्मक है यह तब उत्पन्न होता है जब उत्पादन के साधनों में गतिशीलता सीमित होती है । उद्योगों में एकाधिकार विद्यमान होता है तथा सम्पत्ति का वितरण असमान होता है ।

श्रम शक्ति के अगतिशील होने तथा अनुकूलन के अभाव से अर्थव्यवस्था का विस्तार एवं विविधीकरण अधिक कठिन हो जाता है । उद्योगों की संरचना के दुर्बल होने तथा प्रतिस्पर्द्धा की कमी से विद्यमान फ़र्में एकाधिकारी शक्ति प्राप्त करती हैं व मनमानी कीमत वसूल करती है ।

कीमत स्तर पर प्रभाव डालने वाले अन्य मुख्य घटक निम्नांकित है:

(a) विखण्डित भूमि जोत प्रणाली तथा भूमि के स्वामित्व में केन्द्रीयकरण का उच्च अंश,

(b) बढते कृषि उत्पादनों के लिए प्रेरणाओं का अभाव,

(c) निर्यातों में अस्थायित्व, व्यापार की विपरीत शर्तें व आयात की न्यून क्षमता,

(d) सम्पत्ति व आय वितरण की विषमताएँ ।

(3) मुद्रा प्रसार तब भी उत्पन्न होता है जब किन्हीं आकस्मिक कारकों के कारण उत्पादन में कमी हो जाये । सामान्य रूप से कृषि उत्पादन में मौसम के प्रतिकूल होने का प्रभाव पड़ता है । बाढ़, सूखा, अकाल जैसी परिस्थितियों के कारण कृषि उत्पादन कम हो जाता है । इसे अर्द्ध उत्पादन प्रसार कहा जाता है ।

(4) विकासशील देशों में सरकार अपने व्यय पूर्ण करने के लिए न्यूनता वित्त प्रबन्ध की सहायता लेती है । इससे सम्पन्न स्फीति को बजट स्फीति कहा जाता है । इसे घाटा प्रेरित मुद्रा प्रसार भी कहते है ।

(5) गति अथवा तीव्रता के आधार पर मुद्रा प्रसार के निम्न स्वरूप है:

(अ) रेंगता हुआ मुद्रा प्रसार जिसके अधीन मौद्रिक पूर्ति में 2 प्रतिशत वार्षिक दर से वृद्धि होती है ।

(ब) गतिशील मुद्रा प्रसार जिसकी दर 2 प्रतिशत से अधिक होती है व बढती कीमतों के प्रभाव धीरे-धीरे आम नागरिकों को अनुभव होने लगते है ।

(स) दौडता हुआ मुद्रा प्रसार अर्थात् कीमतों में और अधिक वृद्धि जिससे क्रय शक्ति में कमी आती है तथा स्थिर आय प्राप्त करने वाले वर्ग को अधिक असुविधा होती है ।

(द) तीव्रगामी मुद्रा प्रसार जिसमें कीमतों में तेजी से वृद्धि होती है तथा जनता का मुद्रा से विश्वास उठ जाता है ।

(6) नियन्त्रण के आधार पर मुद्रा प्रसार खुला एवं दबाव युक्त होता है । खुले मुद्रा प्रसार में कीमतों पर नियन्त्रण का अभाव होता है, जबकि दबावयुक्त मुद्रा प्रसार पर सरकार द्वारा विविध प्रतिबन्धात्मक उपायों से मुद्रा प्रसार को नियन्त्रित रखने का प्रयास किया जाता है ।

(7) परिस्थितियों के आधार पर मुद्रा प्रसार को युद्ध काल व युद्ध काल के उपरान्तर में विभाजित किया जा सकता है । युद्ध काल में विनिर्मित वस्तुओं के मूल्य में अप्रत्याशित वृद्धि होती है तथा कच्चे माल के मूल्य उतने नहीं बढ़ते इससे उत्पादक अधिक लाभ प्राप्त करता है ।

देश में असुरक्षा का वातावरण होने के कारण इन लाभों का विनियोजन नहीं किया जाता, बल्कि उसे उपभोग पर व्यय कर दिया जाता है । ऐसी स्थिति में कीमतें तेजी से बढती हैं । युद्ध के उपरान्त अर्थव्यवस्था के पुर्ननिर्माण के लिए मौद्रिक पूर्ति में वृद्धि की जाती है । इससे कीमत स्तर बढ़ता है ।

 

(8) आकार की दृष्टि से मुद्रा प्रसार व्यापक एवं खण्डीय होता है । व्यापक मुद्रा प्रसार से अभिप्राय है वस्तु व सेवाओं की कीमत में होने वाली सामान्य वृद्धि, जबकि खण्डीय मुद्रा प्रसार के अधीन कुछ विशेष वस्तु व सेवाओं की कीमतें बढती हैं ।

(9) अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले प्रभावी की दृष्टि से मुद्रा प्रसार निष्कलंक तब होता है तब कीमतों की वृद्धि के साथ ही आय वेतन व मजदूरी में वृद्धि होती है तथा क्रय शक्ति में कमी नहीं आती ।

कीमतों में होने वाली न्यूनाधिक वृद्धि के कारण जब मुद्रा का मूल्य कम हो तथा मुद्रा के स्थान पर वस्तुओं को स्टॉक में रखा जाना अच्छा समझा जाये तो यह स्वच्छ मुद्रा प्रसार की दशा है । कीमतों में आकस्मिक व अनियमित परिवर्तन से मुद्रा की क्रय शक्ति में आने वाली गिरावट घटिया मुद्रा प्रसार को जन्म देती है ।

आर्थिक विकास की प्रक्रिया में मुद्रा प्रसार की भूमिका का विश्लेषण करते हुए कुछ अर्थशास्त्रियों का मत है कि मुद्रा प्रसार की नियन्त्रित दर एक देश के विकास में सहायक होती है ।

क्योंकि:

(A) यह व्यावसायिक समुदाय व उपक्रमी वर्ग की ओर आय का विवर्तन करता है जिनकी बचत की सीमान्त प्रवृति अधिक होती है ।

(B) यह लाभों में वृद्धि करता है जिससे आर्थिक क्रियाएँ बढती है व विनियोग प्रोत्साहित होते हैं । दूसरी ओर तीव्रगामी या सरपट मुद्रा प्रसार एक देश के विकास पर विपरीत प्रभाव डालता है ।

इसके कारण निम्न है:

(a) बचत व विनियोग की प्रेरणाओं का सीमित होना ।

(b) अनुत्पादक परिसम्पत्तियों एवं वास्तविक परिसम्पत्तियों का खरीदा जाना जिससे उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पडता है ।

(c) घरेलू कीमतों के उच्च होने के कारण निर्यात कीमतें बढती है जिससे सीमित विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है । दूसरी ओर आयात सस्ते होने पर आयातों के लिए अधिक विदेशी विनिमय की आवश्यकता होती है । ऐसे में भुगतान सन्तुलन असमायोजित हो जाते है ।

(d) तीव्र मुद्रा प्रसार की दशा में बैंक अधिक उधार देने में अनिच्छुक रहते है ।

(e) आर्थिक स्थायित्व एवं नियन्त्रण के अभाव में विदेशी विनियोग सीमित होने वाला लगता है ।

मौद्रिक अर्थशास्त्रियों का यह दृढ़ विश्वास है कि मुद्रा प्रसार का मुख्य कारण मौद्रिक कुव्यवस्था है, जबकि संरचनावादी का विश्वास था कि कम विकसित देशों में मुद्रा प्रसार कुछ अन्य दशाओं के जटिल हो जाने के कारण भी उत्पन्न होता है जिसमें कमजोर श्रम प्रबन्ध सम्बन्ध मुख्य है ।

जब देश की उत्पादकता के सापेक्ष आय कीमत मजदूरी में वृद्धि हो, तब लागत प्रेरित मुद्रा प्रसार की दशा उत्पन्न नहीं होती, लेकिन जब श्रमिक उत्पादकता की वृद्धि के साथ मजदूरी में वृद्धि हेतु आन्दोलन करें व व्यापारी बिक्री में होने वाली वृद्धि के साथ ही लाभ को बढाना चाहें, तब लागत प्रेरित मुद्रा प्रसार भयानक होने लगता है ।

मुद्रा प्रसार के प्रभाव (Effects of Inflation):

मुद्रा प्रसार के प्रभावों को निम्नांकित बिन्दुओं द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है:

(i) समाज के विभिन्न वर्गों पर प्रभाव:

सामान्यतः मुद्रा प्रसार स्थिर आय प्राप्त करने वाले वर्ग को सर्वाधिक प्रभावित करता है । कीमतें बढने पर उनकी जीवन-निर्वाह लागतें उच्च हो जाती है । कम विकसित देशों में कृषि क्षेत्र के सापेक्ष शहरी क्षेत्र में मुद्रा प्रसार के अधिक घातक प्रभाव पडते है ।

कारण यह है कि कृषि क्षेत्र में अपनी जरूरत की वस्तुएँ सामान्यतः स्वयं उत्पादित कर ली जाती है व बाजार में आश्रय कम होता है । यदि इस क्षेत्र द्वारा अतिरेक उत्पादन का बाजार में विक्रय किया जाये तो उन्हें बढी हुई कीमतें प्राप्त होंगी पर शहरी क्षेत्र में अपनी हर उपभोग आवश्यकता हेतु बाजार पर निर्भरता बनी रहती है । इसलिये इनकी बढी हुई कीमतों पर ही वस्तु क्रय करनी पडती है ।

(ii) मुद्रा बाजार एवं बैंक निर्णयों पर मुद्रा प्रसार का प्रभाव:

मुद्रा प्रसार ऋणदाता को हानि एवं ऋण प्राप्तकर्त्ता को लाभ प्रदान करता है । इससे मौद्रिक बैंकिंग गतिविधियों सम्बन्धी निर्णय अधिक जटिल होते है, क्योंकि बैंक निश्चित दरों पर उधार देने के अनिच्छुक होते हैं । ब्याज की उच्चावचन युक्त दरें विनियोग को अधिक जोखिमपूर्ण बनाती है जिससे विकास पर बुरा प्रभाव पडता है ।

(iii) विनियोग निर्णयों पर प्रभाव:

मुद्रा प्रसार का चिरकालिक स्वरूप विनियोग निर्णयों पर बुरा प्रभाव डालता है । विनियोग करते समय विनियोगी द्वारा अपनी विनियोग परियोजना की वर्तमान दृश्यता तथा मुद्रा प्रसार के चलते भविष्य में प्राप्त होने वाली लाभ सम्भावनाओं को ध्यान में रखा जाता है ।

चूंकि मुद्रा प्रसार अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों पर असमान प्रभाव डालता है । अतः वर्तमान परिस्थितियों में लाभदायक दिखाई देने वाली परियोजना भविष्य में खतरा भी उत्पन्न कर सकती है ।

यदि निर्मित या अन्तिम रूप से तैयार वस्तु की कीमतों के सापेक्ष श्रम व कच्चे माल की लागतें तेजी से बढती जाएँ तो ऐसे में विनियोग द्वारा वांछित फल प्राप्त नहीं हो सकता । विनियोग को मुद्रा प्रसार द्वारा उत्पन्न अनिश्चितता व जोखिम भी निरुत्साहित करते हैं ।

ऐसी स्थिति में उत्पादक विनियोग की अपेक्षा उपक्रमी अपनी पूंजी को अनुत्पादक विनियोग में लगाता है । विनियोगी वास्तविक परिसम्पत्ति में सट्‌टा खेलते हैं, क्योंकि भूमि की कीमतें मुद्रा प्रसारिक अवधियों में तेजी से बढती हैं ।

(iv) मुद्रा प्रसार एवं भुगतान सन्तुलन:

मुद्रा प्रसार से घरेलू अर्थव्यवस्था में कीमत बढती है । घरेलू कीमतों के बढने से आयातों की कीमतें निर्यात कीमतों के सापेक्ष सस्ती हो जाती है । आयातों के अधिक होने पर अधिक विदेशी मुद्रा की आवश्यकता होती है । दूसरी ओर निर्यात कम होने से निर्यात प्राप्तियों कम हो जाती हैं । देश में कीमतें बढने से निर्यातकर्त्ता को अपनी वस्तु का निर्यात मूल्य भी बढाना पडता है । बढी कीमतों को विदेशी क्रेता पसन्द नहीं करते । अतः निर्यात प्राप्तियाँ कम हो जाती हैं ।

आयातों की अधिकता व निर्यातों की कमी व्यापार सन्तुलन पर विपरीत प्रभाव डालती हैं । समायोजन के लिए ऋण व सहायता पर निर्भरता बढ़ती जाती है । इनके सम्भव न होने पर विनिमय नियन्त्रण व अवमूल्यन की नीति को अपनाया जाता है जिसकी अपनी सीमाएं व संकट है ।

स्पष्ट है कि मौद्रिक इकाई के आन्तरिक मूल्य में कमी होने से भुगतान सन्तुलन की कठिनाइयाँ बढती है । स्थिर विनिमय दर की प्रणाली में करेंसी का अधिकांश हो जाता है तथा विदेशी बाजार में निर्यातों का मूल्य बढ जाता है तथा विदेशी वस्तुओं के सापेक्षिक रूप से सस्ते होने पर विदेशी विनिमय की समस्या उत्पन्न होती है ।

इसके साथ ही विदेशी विनियोगी करेंसी में विश्वास नहीं करते जिससे पूँजी के अर्न्तप्रवाह गिर जाते है । ऐसे में यह कहा जा सकता है कि मुद्रा प्रसार की वास्तविक संसाधन लागतें विकास की प्रक्रिया में इसके लाभों के सापेक्ष कहीं अधिक होती है ।

मुद्रा प्रसार के नियन्त्रण हेतु उपाय (Usual Remedies to Control Inflation):

मुद्रा प्रसार को नियन्त्रित करने के उपायों को तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है:

(i) मौद्रिक उपाय ।

(ii) राजकोषीय उपाय ।

(iii) अमौद्रिक उपाय

(i) मौद्रिक उपाय:

मौद्रिक उपायों के द्वारा मौद्रिक पूर्ति को नियन्त्रित किया जाता है । केन्द्रीय बैंक विविध उपायों, जैसे- बैंक दर नीति, खुले बाजारों की क्रिया, परिवर्ती कोष अनुपात व गुणात्मक नियन्त्रण उपायों से मुद्रा पूर्ति का नियन्त्रण करता है ।

(ii) राजकोषीय उपाय:

राजकोषीय उपायों में सार्वजनिक व्यय करारोपण व सार्वजनिक ऋण नीति शामिल है । राजकोषीय उपायों से अर्थव्यवस्था की अतिरिक्त क्रय शक्ति को वापस लेने में सहायता मिलती है ।

(iii) अमौद्रिक उपाय:

अन्य उपायों में उत्पादन समायोजन मजदूरी नीति, कीमत नियन्त्रण व राशनिंग मुख्य है । उत्पादन समायोजन के लिए- (अ) विभिन्न उपयोगों में उत्पादन में साधनों का पुर्नआबंटन, (ब) ऐसी वस्तुओं की पूर्ति का नियन्त्रित करना जिनकी कीमतों में एकदम वृद्धि होती है । अतः कीमत नियन्त्रण व राशनिंग के उपाय किये जाते है, (स) आवश्यक वस्तुओं का आयात करना सम्मिलित है ।

संक्षेप में मुद्रा प्रसार पर रोक लगाने के लिए सरकार द्वारा मुख्यतः निम्न उपाय किये जाते है:

(a) सरकारी व्यय पर रोक लगाना, वित्तीय अनुशासन स्थापित करना तथा क्रय शक्ति में कमी करने के लिए करों में वृद्धि करना ।

(b) मौद्रिक नीति को कठोर बनाना व व्यवसायियों हेतु साख की आपूर्ति को दुर्लभ करना ।

(c) मजदूरी व कीमतों को नियन्त्रित करना ।

माँग प्रेरित मुद्रा प्रसार की स्थिति में कठोर मौद्रिक एवं राजकोषीय नीति का प्रयोग उचित माना जाता है । लागत प्रेरित मुद्रा प्रसार में रोक हेतु मजदूरी एवं कीमत नियन्त्रण की विधि अधिक उपयुक्त होती है जिससे व्यवसायियों एवं श्रमिकों की बढ़ती हुई माँग पर रोक लगाई जा सके, परन्तु ऐसे नियन्त्रणों को लगाना कठिन होता है । यह ध्यान रखना होगा कि कडी मुद्रा नीति से माँग पर रोक तो लगेगी लेकिन अर्थव्यवस्था के महत्वपूर्ण क्षेत्रों में होने वाला विस्तार भी अवरुद्ध होगा ।

मुद्रा प्रसार के अधारभूत सैद्धान्तिक मॉडल (Basic Theoretical Models of Inflation):

परम्परागत आर्थिक साहित्य में मुद्रा प्रसार सिद्धान्त के दो स्वरूप हैं- माँग प्रेरित मुद्रा प्रसार एवं लागत प्रेरित । लेकिन माँग पूर्ति एवं कीमतों के मध्य होने वाली नियमित अर्न्तक्रियाओं की दशा में माँग प्रेरित व लागत प्रेरित मुद्रा प्रसार के मध्य अन्तर करना कठिन हो जाता है । विशेष रूप से, जबकि मजदूरी कीमत समायोजन किए जा रहे हो ।

मुद्रा प्रसार के परम्परागत सिद्धान्तों एवं अनुभवसिद्ध अवलोकन का सवेंक्षण जॉनसन, बीनफेन ब्रेनर तथा हौल्जमेन के द्वारा किया गया । मुद्रा प्रसार के आधुनिक सिद्धान्त माँग एवं लागत घटकों के मध्य भेद स्थापित नहीं करते ।

ये सिद्धान्त वस्तुतः प्रावैगिक मॉडल हैं जहाँ सामान्य कीमतों के स्तर के सापेक्ष मुद्रा प्रसार की दर मुख्यतः ध्यान में रखी जाती है । आधुनिक सिद्धान्तों में कीमत प्रत्याशाओं की मुद्रा प्रसार में भूमिका पर सर्वाधिक ध्यान दिया जाता है ।

मुद्रा प्रसार के आधुनिक साहित्य पर महत्वपूर्ण सर्वेक्षण का कार्य मुख्यतः लेक्सर एवं पारकिन, क्रिश हडसन, किर्कपोट्रिक एवं निक्ससन द्वारा किया गया है ।

मुद्रा प्रसार के कींजोपरान्त विश्लेषण मुख्य रूप से तीन धारणाओं से सम्बन्धित रहे है:

(i) मौद्रिक विश्लेषण ।

(ii) फिलिप्स वक्र ।

(iii) संरचनावादी विश्लेषण ।

(i) मौद्रिक विश्लेषण (Monetarist Analysis):

मौद्रिक विश्लेषण मुद्रा के नव-परिमाण सिद्धान्त का प्रावैगिक विश्लेषण है । इसके दो प्रकार हैं- पहला Adaptive Expectation Model जिसे फ्रीडमैन ० एवं लेडलर व पार्किन के द्वारा व्याख्यायित किया गया तथा दूसरा Rational Expectation Models जिसका प्रतिपादन लुकास एवं सारजेंट एवं वालेक के द्वारा किया गया ।

(a) मौद्रिक विश्लेषण एवं मॉडल (Monetarist Model):

पूर्ति वृद्धि दर का फलन है । अल्पकाल में मौद्रिक पूर्ति को प्रभावित कर सकती है क्योंकि वास्तविक एवं प्रत्याशित मुद्रा प्रसार की दर में अन्तर होता है ।

विवेकपूर्ण प्रत्याशा के मॉडल का आधारभूत निष्कर्ष यह है कि पूर्ण सूचना के साथ मुद्रा निक्रिय होगी या मुद्रा पर पडने

मुद्रा प्रसार का मौद्रिक मॉडल निम्न मान्यताओं पर आधारित है:

(i) मुद्रा की माँग आय का एक स्थायी फलन है (The Demand for Money is a Stable Function of Income) अथवा मुद्रा की मांग केवल हस्तान्तरण के उद्देश्य से की जाती है (Money is Demanded only for Transaction Motive) । किसी भी मौद्रिक मॉडल में इस मान्यता में इस अर्थ में डील दी जाती है कि मुद्रा की मांग पर सम्पत्ति एवं व्याज की दर में होने वाले परिवर्तन का प्रभाव पड़ता है ।

वैसा कि फ्रीडमैन एवं सर्जेंट एवं वैलेक ने अपने अध्ययन में किया । नीति सम्बन्धी अन्तिम विचार करते समय मौद्रिक विश्लेषण के अधीन अर्थशास्त्री व्याज की दर की लोच असमर्थ पाते इस पर ध्यान नहीं देते ।

(ii) मुद्रा पूर्ति को पूरी तरह से बर्हिजात माना गया है । इसका न केवल पूर्वानुमान लगाया जा सकता है बल्कि मौद्रिक नीति के उपकरणों के सन्दर्भ में यह नियंत्रित भी की जा सकती है ।

(iii) मुद्रा से कीमत की ओर एक ही दिशा में होने वाला प्रवाह होता है ।

(iv) कीमतों पर मुद्रा का कोई दीर्घकालिक प्रभाव नहीं पड़ता जिसका अभिप्राय यह है कि उत्पादन एवं रोजगार पर मुद्रा के जो प्रभाव पड़ रहे है वह अस्थायी व क्षणिक प्रकृति के है । यह मान्यता फ्रीडमैन ने अपनी व्याख्या में ध्यान में रखी ।

सरल रूप में मौद्रिक मॉडल की संकल्पना यह है कि मुद्रा (M) का कीमत स्तर (P) पर प्रत्यक्ष प्रभाव पडता है, जबकि दिया हुआ उत्पादन (Q) है, अर्थात्-

Pt = f(Mt/Qt)

उपर्युक्त सूत्र के द्वारा यह इंगित होता है कि मुद्रा प्रसार की दर उत्पादन के ऊपर मौद्रिक पूर्ति की अतिरिक्त वृद्धि से प्रत्यक्ष सम्बन्ध रखता है । स्थैतिक मौद्रिक मॉडल को प्रावैगिक मॉडल का रूप देने के लिए इसमें उत्पादन एवं कीमत की प्रत्याशाओं पर मुद्रा के अल्पकालीन प्रभावों का समावेश किया जाता है ।

मॉडल के दो स्वरूप हैं:

पहला Adaptive Expectation Model एवं दूसरा Rational Expectation Models ।

प्रावैगिक मॉडल जिसमें Adaptive Expectation को सम्मिलित किया जा रहा हो निम्न प्रकार का होता है:

उपर्युक्त मॉडल में, वास्तविक मुद्रा प्रसार की दर Pt अतिरिक्त माँग, Xt तथा प्रत्याशित मुद्रा प्रसार की दर Pet का फलन है । प्रत्याशित मुद्रा प्रसार पूर्व में हुए मुद्रा प्रसार की दर (जहाँ L अन्तराल संरचना या Lag Structure) का फलन है तथा अतिरिक्त माँग मुद्रा वृद्धि दर mt तथा उत्पादन वृद्धि, Qt का फलन है ।

इस मॉडल में ध्यान देने योग्य बात यह है कि चालू मुद्रा प्रसार की दर केवल अतिरिक्त मांग का फलन नहीं है बल्कि प्रत्याशित मुद्रा प्रसार का भी फलन है । इस प्रकार यह मॉडल तीव्र मुद्रा प्रसार या Hyper Inflation की प्राविधि को भी स्पष्ट करने में सक्षम है ।

Adaptive Expectation मौद्रिक मॉडल के कई रूप है जो समय अवधि के अन्तराल फलनों एवं माँग एवं कीमत को प्रभावित करने वाले बर्हिजात चरों की उपस्थिति से प्रभावित होते है । इसके कुछ मॉडल ऐसे है जिसमें विशेष रूप से राजकोषीय नीति के उपकरणों की भूमिका को ध्यान में रखा गया है, जैसे बजट घाटे को ।

अतिरिक्त माँग फलन भी अलग-अलग मॉडलों में भिन्नता लिए होता है । मूलतः इन मॉडलों में इस बात को स्थापित किया गया है कि मुद्रा का उत्पादन एवं रोजगार पर कोई दीर्घकालिक प्रभाव नहीं पड़ता । लेडलर एवं पार्किन ने ऐसे मॉडलों का सैद्धान्तिक एवं अनुभव सिद्ध अवलोकन किया है ।

(b) प्रत्याशाएँ विवेकपूर्ण मॉडल (Rational Expectations Model):

मूथ के अनुसार प्रत्याशाएँ विवेकपूर्ण तब होंगी, जब प्रत्याशित मूल्य वास्तविक मूल्य का सही पूर्वानुमान करेगा ।

इस मॉडल में प्रत्याशित कीमत Pet t समय पर सन्तुलन कीमत है तथा प्रत्याशा में कोई त्रुटि पद नहीं है । वास्तविक व प्रत्याशित कीमतों में कोई अन्तर तब उत्पन्न होता है, जब बाजार व्यवहार के बारे में कोई पूर्ण सूचना नहीं होती । विवेकपूर्ण प्रत्याशा की मूथ की धारणा को मौद्रिक मॉडल में लूकास तथा साजेंट व वैलेक ने समावेशित किया ।

मुद्रा प्रसार के विवेकपूर्ण प्रत्याशा मॉडल कीमत व उत्पादन के संक्षिप्त स्वरूपों को निम्न प्रकार प्रस्तुत किया जाता है:

 

जहाँ Kt पूंजी स्टॉक की वृद्धि एवं Zt बर्हिजात कारकों का वैक्टर है जो समग्र माँग को प्रभावित करता है । वास्तविक मुद्रा प्रसार की दर प्रत्याशित मुद्रा प्रसार की दर Pet का फलन है, जो निर्भर करता है क्रमश: मुद्रा एवं उत्पादन वृद्धि, mt व Xt की सूचनाओं से ।

विवेकपूर्ण प्रत्याशा मॉडल भी उत्पादन की मुद्रा आपूर्ति से दीर्घकालीन निष्क्रियता की मान्यता को ध्यान में रखता है । उत्पादन की दीर्घकालीन पूर्ति पूँजी स्टाक की वृद्धि पर निर्भर करता है । अल्पकाल में, वस्तुतः पूर्ति दीर्घकाल से भिन्न होती है, क्योंकि वास्तविक एवं प्रत्याशित मुद्रा प्रसार की दर में अन्तर होता है ।

अतिरिक्त माँग, समग्र माँग जो ब्याज की वास्तविक दर एवं अन्य बर्हिजात घटकों का फलन है तथा समग्र पूर्ति के मध्य का अन्तर है । बर्हिजात घटकों में बजट का घाटा भी शामिल किया जाता है ।

सन्तुलन की दशा में वास्तविक मुद्रा प्रसार की दर एवं प्रत्याशित मुद्रा प्रसार की दर बराबर हो जाते हैं, जोकि मौद्रिक

वाले अप्रत्याशित परिवर्तनों के कारण ही उत्पादन पर वास्तविक प्रभाव पडेगा ।

(ii) फिलिप्स वक मॉडल (Phillips Curve Model):

फिलिप्स वक्र मॉडल का व्युत्पादन किंज के लागत प्रेरित कीमत संयन्त्र के द्वारा किया गया । इसका मूल्य प्रतिपादन 1958 में फिलिप्स के द्वारा किया गया था जिसे सैद्धान्तिक रूप से लिप्सी तथा सेमुअलसन एवं सोलोव ने व्याख्यायित किया ।

फिलिप्स वक्र विशेषण में मौद्रिक मजदूरी की दर में होने वाले परिवर्तनों एवं बेरोजगारी की दर के मध्य विपरीत सम्बन्ध अभिव्यक्त किया गया । इसके आधार पर मुद्रा प्रसार की दर एवं बेरोजगारी की दर के मध्य एक विपरीत सम्बन्ध देखा गया ।

जैसे-जैसे रोजगार का विस्तार होता है, बेरोजगारी की दर गिरती है तथा श्रम की सीमान्त उत्पादकता गिरती है और यह प्रवृति दी हुई मौद्रिक मजदूरी की दरों पर, मुद्रा प्रसार की दर में वृद्धि करती है ।

फिलिप्स के विश्लेषण के आधार पर आशिक बेरोजगारी की दर, श्रम संघों के अंश एवं श्रम उत्पादकता में होने वाले परिवर्तनों का मूल्यांकन तकनीकी परिवर्तनों, प्रवास एवं अन्य घटकों के सन्दर्भ में किया जा सकता है ।

फ्रिश ने मुद्रा प्रसार के फिलिप्स वक्र मॉडल के सामान्य रूप को निम्नवत् प्रदर्शित किया है:

 

P = f(u) + Pe

 

जहाँ P एवं Pe मुद्रा प्रसार की वास्तविक एवं प्रत्याशित दरें है तथा u बेरोजगारी की दर है ।

हडसन के अनुसार साठवें दशक में विकसित देशों में वास्तविक मुद्रा प्रसार की दर का सन्तोषजनक प्रदर्शन फिलिप्स वक्र की सहायता से किया गया ।

लेकिन सत्तर के दशक में गतिरोध युक्त मुद्रा प्रसार की दशा में फिलिप्स वक्र मॉडल के साथ मुख्य समस्या यह थी कि यह जहाँ बेरोजगारी, मुद्रा प्रसार के मध्य विपरीत या Trade Off को प्रकट करता है वहीं अवरोध युक्त मुद्रा प्रसार की दशा में मुद्रा प्रसार की दर स्थिर या बढती हुई बेरोजगारी के साथ बढ़ती चली जाती है ।

मिल्टन फ्रीडमैन एवं फेल्पस ने बेरोजगारी और मुद्रा प्रसार की सभी स्थितियों में वक्र की असफलता को स्पष्ट किया । उन्होंने कहा कि दीर्घकाल में बेरोजगारी और मुद्रा प्रसार के मध्य विसंगति इस कारण नहीं होती, क्योंकि श्रम की माँग एवं पूर्ति दोनों ही वास्तविक मजदूरी पर निर्भर करती हैं ।

फ्रीडमेन एवं फेल्पस ने बेरोजगारी की प्राकृतिक दर को Search Theory, Contract Model एवं Aggregate-Relative Confusion Model के द्वारा विश्लेषित किया ।

(iii) संरचनात्मक विश्लेषण (Structuralist Approach):

संरचनागत विश्लेषण मुख्यतः विकासशील देशों में कीमतों के व्यवहार को स्पष्ट करता है । संरचनागत मॉडल का सैद्धान्तिक आधार लेटिन अमेरिकी देशों में अनुभव की गई वृद्धि की प्रक्रिया का अवलोकन था ।

कुछ सुधारों के साथ संरचनागत मॉडलों का उपयोग एशियाई व अफ्रीकी देशों में हो रहे मुद्रा प्रसार को समझाने के लिए किया गया । ईडल, आरगे, थिरवाल, कोरबो लियो के द्वारा मुख्यतः संरचनागत मॉडल विकसित किए गए ।

संरचनावादी मॉडल वृद्धि की प्रक्रिया में द्वैतता को महत्व देता है तथा संरचनात्मक द्वैतता में कीमतों में वृद्धि होती है । विकासशील देशों हेतु जो संरचनावादी मॉडल प्रस्तुत किए गए उनमें संकुल, थोर्प एवं कोरबो ली के अध्ययन महत्वपूर्ण हैं ।

संरचनावादियों ने विकासशील देशों की वृद्धि प्रक्रिया में आ रही आधारभूत परिसीमाओं पर ध्यान दिया । विकासशील देशों में प्राथमिक क्षेत्र जो खाद्यान्न की आपूर्ति करता है तथा कृषिगत कच्चे माल प्रदान करता है, उत्पादन की न्यून आय एवं कीमत लोच रखता है ।

जब विनिर्माण वस्तुओं जिनका उत्पादन आधुनिक क्षेत्र में किया जा रहा है की आय बढती है तो खाद्यान्न की माँग उसकी पूर्ति के सापेक्ष तेजी से बढती है । इसके परिणामस्वरूप खाद्य पदार्थों की कीमत-मजदूरी की दर-विनिर्माण वस्तु की कीमतों में वृद्धि होती है ।

यह समस्या और गम्भीर तब हो जाती है, जब विदेशी विनिमय की कमी होने लगती है । विकासशील देशों के निर्यात मुख्यतः प्राथमिक किस्म के होते है जिनकी कीमत लोच उच्च होती है ।

दूसरी तरफ आयात मुख्यतः पूंजी वस्तुओं एवं कच्चे पदार्थों के होते है जिनकी कीमत लोच न्यून होती हैं । विनिर्माण उत्पादन एवं कीमतों में होने वाली वृद्धि से निर्यात प्राप्तियों के सापेक्ष आयात भुगतान बढ़ते है जिससे विदेशी विनिमय की कमी हो जाती है । दुर्लभ विदेशी विनिमय के कारण विकासशील देश पर्याप्त मात्रा में खाद्यान्न आयात नहीं कर पाते एवं इन देशों में कीमतें तेजी से बढ़ती हैं ।

विकासशील देशों में मुद्रा प्रसार का दूसरा बड़ा कारण सरकारी एवं निजी दोनों ही क्षेत्रों में कम बचत एवं अधिक विनियोग की प्रवृतियों का पाया जाना है । विकास को वित्त प्रदान करने के उद्देश्य से बैंकों से सरकार की ओर-साख का विस्तार होता है जिससे मुद्रा पूर्ति में वृद्धि होती है ।

इस प्रकार विकासशील देशों में एक तरफ खाद्य एवं पूर्ति में विषमता व्याप्त रहती है तो दूसरी ओर मौद्रिक पूर्ति एवं उत्पादन के मध्य भी विषमता दिखाई देती है । उत्पादन की वृद्धि दर जितनी अधिक होती है । मुद्रा प्रसार की दर भी उतनी अधिक रहती है ।

प्रमुख मुद्रा स्फीति (Core Inflation):

प्रायः यह स्वीकार किया जाता है कि मुद्रा स्फीति को निम्न और स्थिर बनाए रखना मुद्रा नीति का प्राथमिक लक्ष्य होना चाहिए । इस सिद्धान्त को देखते हुए केन्द्रीय बैंक के सम्मुख मुद्रा नीति के केन्द्र बिन्दु के रूप में मुद्रा स्फीति की एक विशेष माप का चयन करना चिन्ताजनक है ।

जिन देशों ने मुद्रा-स्फीति के सम्बन्ध में सुनिश्चित लक्ष्य निर्धारित करने की प्रणाली अपनायी है वे मुद्रा नीति के संचालन हेतु मानक अर्थात् मापी गई मुद्रा-स्फीति दर के बदले मुद्रा स्फीति मूल्यमान के रूप में मापते है ।

मापी गई मुद्रा-स्फीति की दर को सामान्यतः गैर स्थायी घटक और स्थायी घटक के रूप में विभाजित किया जाता है । यह तर्क दिया जाता है कि गैर स्थायी बर्हिजात धक्के जिनके अन्तर्गत प्राकृतिक विपत्तियाँ, वस्तु की कीमतों में तेजी से होने वाले उतार-चढाव, पेट्रोलियम के मूल्य में होने वाली वृद्धि प्रायः सामान्य मूल्य स्तर में किंचित परिवर्तन करते है ।

ऐसे धक्कों से मूल्य स्तर पर पडे प्रभावों को कम करने के लिए मुद्रा नीति में यदि बार-बार परिवर्तन किए जाएँ तो अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा । इसके लिए मुद्रा नीति में प्रावधान किया जाता है ।

यदि ऐसे बर्हिजात धक्के मुद्रा स्फीति के पहले चरण के उपरान्त भी जारी रहते है तो मुद्रा नीति को चाहिए कि वह इसको प्रभावहीन करने का प्रयास करें । ये मुद्रा स्फीति की मापी गई (शीर्ष) दर के स्थायी घटक के महत्वपूर्ण अंग है । इस स्थायी घटक को प्राय: निहित मुद्रा स्फीति दर अथवा प्रमुख मुद्रा स्फीति कहा जाता है । अतः यह चालू मुद्रा स्फीति दर नहीं जिसमें अल्पकालिक घटक शामिल रहते हैं बल्कि भावी निहित मुद्रा स्फीति दर है जो मुद्रा नीति के लिए चिन्ता का विषय होनी चाहिए ।

निहित या प्रमुख मुद्रा स्फीति दर का मापन करने के लिए पर्याप्त निर्णयशीलता एवं विवेक की आवश्यकता होती है । एक्सटीन ने मुद्रा स्फीति दर को तीन तत्वों में विभाजित किया है- प्रमुख, माँग एवं आवेग जिसमें प्रमुख मुद्रा स्फीति दर कारक मूल्य वृद्धि के रूप में परिभाषित की जाती है ।

विकासशील देशों में बाजार समाशोधन स्तर पर न तो मजदूरी दर है और न ही पूँजी लागत । इसके अतिरिक्त असंगठित क्षेत्र की प्रधानता एवं ब्याज दर के व्यवस्थित ढाँचे के अधीन एक्सटीन द्वारा परिभाषित प्रमुख मुद्रा-स्फीति का विश्वसनीय अनुमान नहीं लग पाता ।

प्रमुख मुद्रा-प्रसार की वैकल्पिक धारणा ब्रायन एवं सैचेटी द्वारा 1993 में प्रस्तुत की । उन्होंने सीमित प्रभाव वाले प्राक्कलकों, जैसे उपभोक्ता कीमत निर्देशांक (जिसमें खाद्यान्न एवं ऊर्जा को शामिल नहीं किया जाता) 15 प्रतिशत निकाले गए औसत और माध्य के द्वारा यह पाया कि माध्य का पिछली मुद्रा वृद्धि के साथ सुदृढ़ सम्बन्ध स्थापित करने के लिए इन युक्तियों का प्रयोग किया जाता है । इसलिए ये निष्कर्ष प्रेरित हो सकती हैं ।

बेवरिज एवं नेलसन का मत है कि स्थायी व आवर्ती घटक में यादृच्छिक समय शृंखला का विसंयोजन अधिक व्यावहारिक एवं उपयोगी हो सकता है ।

जहाँ तक भावी मूल्य का सम्बन्ध है यादृच्छिक समय प्रवृति में समाज की समयानुसार परिवर्तनशील आशाएँ व्यापक रूप से दिखाई देती हैं और स्थायी घटक में न केवल चालू शृंखला सूचना शामिल है बल्कि प्राक्कलित अवशेष की पिछली रूपरेखा से पुर्वानुमान योग्य भावी परिवर्तन भी शामिल हैं ।

वेवरिज और नेलसन के अनुसार वर्ष 1975-76 से 1986-87 की अवधि के थोक मूल्य सूचकांक के मासिक आँकडों की स्वैच्छिक समय शृंखला के विसंयोजन का प्रवृति चक्र अल्पकालिक तीस वृद्धि को प्रदर्शित करता है । इसका मुख्य कारण तेल के मूल्य में होने वाली वृद्धि थी । तदुपरान्त 1979-82 की अवधि में इसमें तेजी से कमी आई ।

जनवरी, 1982 से जनवरी, 1992 के मध्य स्थायी घटक वास्तविक मुद्रा स्फीति दर के आगे पीछे होता रहा लेकिन 1992-93 से इसमें विपरीत प्रवृति देखी गई । यद्यपि चक्रीय घटक के उच्चावचन से अप्रैल, 1991 से शुरु होने वाले समायोजन कार्यक्रम के आरम्भिक वर्षों में अत्यधिक अन्तर उदारीकरण की अवधि में दिखा रहे थे लेकिन अप्रैल, 1991 से इसमें ऊर्ध्वगामी प्रवृति दिखाई दी ।

मुद्रा प्रसार की दर पर विचार करते हुए आर्थिक विवेक इस युक्ति को ध्यान में रखता है कि यह वह दर है जो पूरी तरह से आर्थिक एजेंटो द्वारा प्रत्याशित है  अन्य दृष्टि से यह स्थायी घटक ही है जो तीव्र सकारात्मक आपूर्ति की स्थिति में अंकित मुद्रा स्फीति दर की दृढता को कम करता है ।

प्रायः यह अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण होगा, क्योंकि यह स्थायी या मुख्य मुद्रा स्फीति दर को कम करता है । मुद्रा नीति के मुख्य उद्देश्य के रूप में मुद्रा स्फीति दर को कम करने के लक्ष्य को इस परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए |

कीमत नियन्त्रणों की मुद्रा प्रसारक प्रावैगिकी (Inflationary Dynamics of Price Controls):

सार्वजनिक प्रतिक्रिया के कारण किए गए मूल्य निर्धारण को प्रायः स्वतन्त्र बाजार के सिद्धान्त से हट कर देखा जाता है । आर्थिक सिद्धान्त में प्रायः यह माना जाता है कि प्रतिस्पर्द्धी शक्तियों के फलस्वरूप कीमतें ऐसे स्तर पर निर्धारित का जाती है जो अर्थव्यवस्था के लिए लाभप्रद हों ।

एक ऐसे विकासशील देश में जहाँ बाजार तन्त्र की पूर्व शर्तों को पूरी तरह पूरा नहीं किया जा सकता वहाँ आम जनता के कल्याण की दृष्टि से आवश्यक हो जाता है कि सरकार द्वारा आम जनता द्वारा उपभोग की जा रही वस्तुओं की कीमतों को नियन्त्रित किया जाए । इस प्रकार किए जा रहे कीमत नियन्त्रण से सीमित उद्देश्य की ही पूर्ति हो जाती है तो दूसरी तरफ अर्थव्यवस्था के विकास में ऐसे नियन्त्रणों के कुछ अवांछनीय परिणाम भी दिखाई देते है ।

अतः मूल्य नियन्त्रणों की प्रणाली ऐसी होनी चाहिए जिससे अर्थव्यवस्था में लागतों को न्यूनतम स्तर पर रखते हुए अवांछनीय परिणामों को सीमित किया जा सके । ऊर्जा सम्बन्धी कुछ महत्वपूर्ण आदाओं जिसका औद्योगिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान होता है की कीमतें सरकार द्वारा नियन्त्रित की जाती है ।

नियन्त्रित मदों की वर्तमान सूची थोक मूल्य सूचचांक समूह में भारांक में कच्चा पेट्रोलियम तथा प्राकृतिक गैस खनिज तेल, कोयला खनन, बिजली तथा यूरिया सम्मिलित है ।

हाल ही में आर्थिक सुधार लागू किये जाने के पश्चात् नियन्त्रित श्रेणी में सम्मिलित मदों की संख्या कम हो गयी है तथा सीमेन्ट, अलौह धातुओं तथा मिश्र धातुओं, लोहा, इस्पात व लौह मिश्र धातुओं एवं उर्वरकों (यूरिया को छोड़कर को उक्त सूची से हटा दिया गया है । नियन्त्रित सूची की अधिकांश मदें ईंधन, बिजली, प्रकाश व चिकनाई के पदार्थ समूह से सम्बन्धित है जिनका भारांक 10.7 है ।

हमें ऐसे मूल्य नियन्त्रणों के आर्थिक सहायता वाले पक्ष को ध्यान में रखना होगा, क्योंकि राजकोषीय घाटे को प्रभावित कर वह कीमतों के सामान्य स्तर को भी प्रभावित करता है ।

आर्थिक सहायता सम्बन्धी श्वेत-पत्र में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि 1996-97 की अवधि में पेट्रोलियम पर कुल आर्थिक सहायता 18,440 करोड़ रुपये तक पहुँच गयी जो पिछले वर्ष की आर्थिक सहायता की राशि के सापेक्ष दुगुने से भी अधिक थी ।

इस प्रकार योजना सम्बन्धी संसाधनों का एक बड़ा हिस्सा आर्थिक सहायता में व्यय हो जाने के कारण विकास सम्बन्धी अन्य अपेक्षाएँ पूरी नहीं हो पाई । तेल एवं पेट्रोलियम उत्पादों की घरेलू जरूरतों का एक बड़ा हिस्सा आयातों से पूरा होता है और इस प्रकार भुगतान सन्तुलन पर काफी अधिक दबाव पड़ता है ।

1990 के दशक में अब तक ईंधन की कीमतों में लगभग दस बार 3 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि की गई है । जब कभी लम्बे अन्तराल के बाद कीमतों को संशोधित किया गया तो उस समय काफी अधिक मूल्य वृद्धि की गई ।

नियन्त्रित मूल्यों के समायोजन को स्थगित किये जाने पर अल्पकाल में मुद्रा स्फीतिकारी दबावों को रोका जा सकता है, परन्तु बाद में इसके दुष्परिणाम दिखाइ देते है ।

इसके अतिरिक्त चूंकि नियन्त्रित कीमतें अनिवार्य रूप से आदा सम्बन्धी कीमतें होती है । अतः उनकी कीमतों में की गई वृद्धि के परिणामस्वरूप एक बार के प्रत्यक्ष प्रभाव के अलावा उन वस्तुओं की कीमतें अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होती हैं जिनके निर्माण में इन आदाओं का प्रयोग किया जाता है ।

कुल मिलाकर नियन्त्रित कीमतों में संशोधन किए जाने पर वस्तुओं के एक बडे समूह के सापेक्ष कीमतों पर प्रभाव पड़ता है तथा अर्थव्यवस्था में मुद्रा स्फीति की सम्भावनाएँ बढ जाती है ।

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