आर्थिक विकास में विदेशी व्यापार की भूमिका | Read this article in Hindi to learn about the role of foreign trade in economic development.

आर्थिक विकास में अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की भूमिका विचारणीय है । इसने विकास के इंजन के रूप में कार्य किया है, जैसा कि उन्नीसवीं शताब्दी में ग्रेट ब्रिटेन में और बीसवीं शताब्दी में जापान में देखा गया है ।

यहां तक कि आजकल भी एशिया की नई उद्योगीकृत अर्थव्यवस्थाओं जैसे हांगकांग, सिंगापुर, ताइवान और दक्षिणी कोरिया आदि द्वारा अपनायी गयी बाह्य-प्रवृतिक विकास नीति ने निर्धन अल्प विकसित देशों को कम साधनों से निपटने के योग्य बनाया है ।

अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार अनेक प्रकार से आर्थिक विकास में योगदान करता है:

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1. अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार पूंजीगत वस्तुओं के आयात के साधन खोजने में सहायता करता है जिनके बिना आर्थिक विकास की कोई प्रक्रिया आरम्भ नहीं हो सकती ।

2. अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार कीमत स्थायित्व को सुविधाजनक बनाता है । मांग और पूर्ति का असन्तुलन जो विकास को आरम्भिक सोपानों में रोकता है उसे अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के यन्त्र द्वारा समाप्त किया जा सकता है ।

3. अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार, आयातों से प्रतिस्पर्द्धी दबावों द्वारा गतिशील परिवर्तन के लिये दबाव, निर्यात बाजारों के लिये प्रतिस्पर्द्धा का दबाव और साधनों के बेहतर निर्धारण उत्पन्न करता है ।

4. अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार क्षमता के पूर्ण उपभोग और परिमाप की मितव्ययताओं की पूर्ण उपयुक्तता की इजाजत देता है ।

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तथापि, अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की कुछ विशेष कठिनाइयां हैं जिनका वर्णन नीचे किया गया है:

1. आरम्भिक वस्तुओं की धीमी गति (Slow Pace of Primary Commodities):

अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के मार्ग में आने वाली मुख्य कठिनाई आरम्भिक वस्तुओं की वृद्धि विश्व बाजार की तुलना में धीमी है जो अल्प विकसित देशों के निर्यात का मुख्य भाग है । सन् 1955 में प्राथमिक वस्तुएं कुल निर्यात का 50 प्रतिशत भाग थी जो सन् 1977 में 35 प्रतिशत तक नीचे आ गई तथा पुन: 1990 में घट कर 28 प्रतिशत रह गई ।

इसके लिये उत्तरदायी कारण है बाजार मितव्ययताओं की अपनी कृषि की सुरक्षा की बढ़ती हुई प्रवृत्ति, प्राथमिक वस्तुओं की मांग में अपर्याप्त वृद्धि, कृत्रिम प्रतिस्थापनों का विकास आदि ।

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2. विश्व व्यापार में कम भाग (Less Share in World Trade):

देखा गया है कि विकासशील देशों के निर्यात धीमे हैं । फलत: कुल विश्व व्यापार में विकासशील देशों का भाग निम्न प्रवृत्ति का रहा है । इसका भाग जो सन् 1950 में 31 प्रतिशत था, सन् 1960 में 13.9 प्रतिशत तक आ गया और 1990 में 5 प्रतिशत रह गया ।

गिरावट का कारण है व्यापार ब्लॉकों की उत्पत्ति, प्रतिबंधक व्यापारिक नीतियां और एकाधिकारों की वृद्धि आदि । यह प्रवृत्तियां इस तथ्य को दर्शाती हैं कि विकासशील देशों को विकास के मार्ग में अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का एक बाधा के रूप में सामना करना पड़ता है ।

3. व्यापार की बुरी शर्तें (Worse Terms of Trade):

विकसित बाजारों में, प्राथमिक उत्पादों की कम मांग ने विकासशील देशों में भुगतानों के सन्तुलन की स्थिति को बिगाड़ दिया है । निर्मित वस्तुओं की कीमतें बढ़ रही हैं जबकि प्रारम्भिक वस्तुओं की कीमतें धीरे-धीरे कम हो रही हैं ।

संयुक्त राष्ट्र रिपोर्ट के अनुसार, पहले विकासशील देश दो टन चीनी निर्यात करके एक ट्रैक्टर खरीद लेते थे अब उन्हें वही ट्रैक्टर प्राप्त करने के लिये सात टन चीनी निर्यात करनी पड़ती है । एक अन्य अनुमान के अनुसार, सन् 1980 के दशक में विकासशील देशों ने तेल को छोड़ कर अन्य कच्चे माल की कीमतों में गिरावट के करण 1 से 3 प्रतिशत तक कुल राष्ट्रीय उत्पाद (GNP) खो दिया ।

4. प्रतिबन्धक व्यापार नीतियां (Restrictive Trade Policies):

औद्योगिक देशों द्वारा अपनाई गई प्रतिबन्धक व्यापार नीतियां विकासशील देशों के निर्मित वस्तुओं के निर्यात की सम्भावनाओं को प्रभावित करती हैं । यह इस तथ्य के कारण है कि विकासशील देशों के लिये औद्योगिक देशों के बाजार अधिक महत्त्वपूर्ण हो गये हैं ।

उदाहरण के रूप में, सन् 1965 में, औद्योगिक देशों ने विकासशील देशों की निर्मित वस्तुओं के निर्यात का 41 प्रतिशत लिया । सन् 1990 में यह 75% तक बढ़ गया । सन् 1990 में निर्मित वस्तुओं के विश्व व्यापार का केवल 3 प्रतिशत विकासशील देशों के बीच था ।

संक्षेप में हम निष्कर्ष प्राप्त कर सकते हैं कि विकासशील अर्थव्यवस्थाएं विदेशी व्यापार के मार्ग में अनेक कठिनाइयों का सामना करती है । इन समस्याओं के समाधान के अनेक बहुराष्ट्रीय प्रयत्न असफल रहे हैं ।

इसलिये, विद्यमान परिस्थितियों में, विकासशील अर्थव्यवस्थाओं को एक प्रासंगिक मिश्रित व्यापार नीति तैयार करनी पड़ी है जो निर्यातों की रचना कर सकती है ओर आवश्यक आयातों की पूर्ति सुनिश्चित कर सकती है ।

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