आर्थिक विकास और व्यापार की शर्तें | Read this article in Hindi to learn about:- 1. आर्थिक वृद्धि एवं व्यापार शर्त  के सैद्धान्तिक विवेचन (Theoretical Explanations of Economic Growth and Terms of Trade) 2. निर्यात/आयात की माँग में परिवर्तन तथा व्यापार की शर्त (Shifts in the Demand for Exports/Imports and Terms of Trade) and Other Details.

आर्थिक वृद्धि एवं व्यापार शर्त के सैद्धान्तिक विवेचन (Theoretical Explanations of Economic Growth and Terms of Trade):

एक देश में आर्थिक वृद्धि से तात्पर्य है देश के उत्पादन सम्भावना वक्र में सुधार होना, जो बदते हुए समग्र उत्पादन को सूचित करता है । उत्पादन सम्भावना वक्र में होने वाले सुधार से यह स्पष्ट होता है कि उत्पादन के साधनों की उत्पादकता में वृद्धि होने एवं तकनीकी सुधार होने से साधनों की एक दी हुई मात्रा से अधिक वस्तुओं का उत्पादन सम्भव है ।

आर्थिक वृद्धि होने से व्यापार की शती पर पडने वाले प्रभाव को हम चित्र द्वारा स्पष्ट कर सकते है जबकि उत्पादन बढती हुई अवसर लागतों के अन्तर्गत हो रहा है अर्थात् दो वस्तुओं X और Y (गेहूँ और कपड़े) के उत्पादन में गिरते हुए प्रतिफल का नियम लागू होता है ।

चित्र में प्रारम्भिक उत्पादन सम्भावना वक्र P1P1 द्वारा प्रदर्शित हे । प्रारम्भ में देश P बिन्दु पर उत्पादन करता है जहाँ व्यापार शर्त रेखा TT उत्पादन सम्भावना रेखा P1P1 को स्पर्श करती है । आर्थिक विकास होने पर देश के उत्पादन में वृद्धि होगी व उत्पादन सम्भावना वक्र परिवर्तित होकर P2P2 हो जाता है ।

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जब नई व्यापार की रेखा T1T1 रेखा के ढाल से प्रदर्शित की जाएगी । P बिन्दु से नई व्यापार शर्त रेखा T1T1 पर X व Y के समानान्तर खींचने पर दो बिन्दु m व n प्राप्त होते है । त्रिभुज MPN उस सीमा रेखा को बतलाती है जिस पर विकास आयात प्रेरित, निष्क्रिय या निर्यात प्रेरित हो सकता है ।

यदि उत्पादन नई व्यापार शर्त रेखा T1T1 पर N बिन्दु के दायीं ओर होता है तो विकास अति निर्यात प्रेरित होगा । यदि विकास निष्क्रिय है तो उत्पादन बिन्दु PE पर होगा । जब विकास अति निर्यात प्रेरित होता है तो निर्यात वस्तु गेहूँ की अधिक मात्रा व आयात वस्तु कपड़े की कम मात्राएँ उत्पादित करेगा । यह दशा देश की व्यापार शर्तों को आवश्यक रूप से विपरीत कर देंगी ।

दूसरी तरफ यदि विकास अति आयात प्रेरित है तो यह दशा बिन्दु M के बायीं ओर प्रदर्शित की जाएगी । इस दशा में आयात वस्तु कपडे का अधिक उत्पादन होगा व व्यापार की शर्तें देश के पक्ष में होंगी ।

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परन्तु यदि देश इतना बड़ा है कि वह अपनी क्रियाओं या प्रयासों से अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की शती को प्रभावित कर दे तो यह सम्भव है कि विकासशील देश की व्यापार की शर्तें इस प्रकार विपरीत हो जाएं कि उन्हें एक निम्न उदासीनता वक्र पर आना पड़े ।

प्रो॰ जगदीश भगवती ने ऐसी दशा को इमीसराइजिंग ग्रोथ कहा है जिसे हम चित्र 49.2 की सहायता से स्पष्ट कर रहे है । वास्तव में उत्पादन बिन्दु P पर हो रहा है जहाँ उत्पादन सम्भावना रेखा P1P1 तथा व्यापार की शर्त रेखा TT एक-दूसरे को स्पर्श करते है । देश का उपभोग बिन्दु C है जहाँ व्यापार शर्त रेखा TT तथा सामूहिक उदासीनता वक्र C1C1 एक-दूसरे को स्पर्श करते हैं ।

जब आर्थिक वृद्धि की प्रक्रिया आरम्भ होती है तब उत्पादन म बिन्दु से हटकर P2 बिन्दु पर होता है, क्योंकि आर्थिक वृद्धि से उत्पादन में भी वृद्धि होगी । फलस्वरूप उत्पादन सम्भावना वक्र P1P1 दायीं ओर खिसक कर P2P2 स्थिति पर आ जाएगा जहाँ P1 बिन्दु पर एक नई व्यापार शर्त रेखा TT1 इसे स्पर्श करती है ।

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इस नवीन दशा में उपभोग बिन्दु C1 पर हो रहा है जहाँ व्यापार शर्त रेखा TT1 सामूहिक उदासीनता रेखा C1C0 को स्पर्श करती है । उत्पादन के P से P1* बिन्दु पर बढने के बावजूद उपभोग सन्तुष्टि स्तर सामूहिक उदासीनता रेखा C1C2 से हट कर निम्न सामूहिक निम्न सामूहिक उदासीनता रेखा C1C2 पर आता है । स्पष्ट है सन्तुष्टि स्तर में कमी हुई है ।

निर्यात/आयात की माँग में परिवर्तन तथा व्यापार की शर्त (Shifts in the Demand for Exports/Imports and Terms of Trade):

सन्तुलन की दशा में एक देश के निर्यात दूसरे देश के आयातों के बराबर होते है । अन्य बातों के समान रहने पर यदि एक देश के आयातों की माँग में वृद्धि होती है तो आयातों की कीमत, निर्यात कीमत की तुलना में बढ़ेगी और आयात कर रहे देश की व्यापार शर्तें विपरीत हो जाएंगी ।

अतः यदि देश की निर्यात माँग में वृद्धि होती है तो निर्यातों की कीमतें आयात कीमतों की तुलना में बढ जाएँगी और व्यापार की शर्तों में सुधार होगा । इन स्थितियों को चित्र 49.3 एवं 49.4 से प्रदर्शित किया गया है ।

माना दो देश अमेरिका व ब्रिटेन हैं । अमेरिका का प्रस्ताव वक्र OA तथा ब्रिटेन का प्रस्ताव वक्र OB है । दोनों प्रस्ताव वक्र OA तथा OB एक-दूसरे को बिन्दु P पर काटते हैं अर्थात P बिन्दु पर अमेरिका के निर्यात व आयात ब्रिटेन द्वारा किए जा रहे निर्यात व आयात के बराबर होते है । चित्र 49.3 में इस दशा को प्रदर्शित किया गया है । दो वस्तुओं कपड़े व गेहूँ की विनिमय दर PM/OM है जो सीधी रेखा OP के ढाल को प्रदर्शित करती है ।

माना अमेरिका के आयातों की माँग में वृद्धि होती है तब इसका प्रस्ताव वक्र OA से दायीं ओर नीचे को खिसक कर OA1 स्थिति में आ जाता है । नवीन सन्तुलन बिन्दु P1 पर निर्धारित होगा जहाँ OA1 तथा OB प्रस्ताव वक्र एक-दूसरे को स्पर्श करते है ।

नई वस्तु विनिमय दर P1M1/ OM2 होगी जो OP1 रेखा का ढाल है । इस नई दशा में अमेरिका की व्यापार दशाएँ विपरीत हो जाएँगी, क्योंकि वह कपड़े की सीमित मात्रा का आयात गेहूँ की अपेक्षाकृत अधिक मात्राओं के द्वारा कर रहा है ।

चित्र से स्पष्ट है कि गेहूँ की अपेक्षाकृत अधिक मात्रा (OM1/OH) का निर्यात किया जा रहा है, जबकि कपडे की सीमित (OK1<OK) प्राप्त हो रही है । स्पष्ट है कि इस उदाहरण में व्यापार शर्त ब्रिटेन के प्रस्ताव वक्र पर निर्भर करती है । ब्रिटेन का प्रस्ताव वक्र जितना अधिक बेलोच होगा अमेरिका की व्यापार शर्तें उतनी अधिक विपरीत होंगी ।

दूसरी दशा में यदि अमेरिका के निर्यातों की माँग बढती हे तो ब्रिटेन का प्रस्ताव वक्र अपनी वास्तविक दशा OB से ऊपर की ओर विवर्तित होकर OB2 पर आ जाएगा । नया प्रस्ताव वक्र OB अमेरिका के प्रस्ताव वक्र OA को P1 बिन्दु पर काटेगा ।

नई व्यापार की शर्त रेखा OP2 ब्रिटेन के लिए विपरीत होगी, क्योंकि इस परिवर्तित दशा में ब्रिटेन P1M1 कपडे की मात्रा का निर्यात करता है जो आरम्भिक सन्तुलन दशा P में निर्यात की गई नई मात्रा PM से अधिक है ।

इसके बदले वह केवल OM1 मात्रा गेहूँ का आयात करता है जबकि पूर्व सन्तुलन दशा में गेहूँ की होने वाली मात्रा OM थी । इस प्रकार नया वस्तु विनिमय अनुपात P1M1/OM2 ब्रिटेन के लिए लाभप्रद नहीं है ।

विनिमय दर रेखा X-अक्ष के साथ जितने अधिक अंश का कोण बनाएगी, अमेरिका की व्यापार शर्त उतनी ही अधिक लाभप्रद होगी । यदि यह अंश कम है तो वह अमेरिका की विपरीत व्यापार शर्त को निरूपित करेगा ।

उपर्युक्त विवेचन के आधार हम यह स्पष्ट कर सकते हैं कि एक देश की व्यापार शर्तों में होने वाले सुधार से वह निर्यातों की समान मात्रा से अधिक आयातों को प्राप्त कर सकता है । व्यापार की शर्तों में होने वाला सुधार, देश की राष्ट्रीय आय में अप्रत्यक्ष व परोक्ष दोनों में ही वृद्धि करता है ।

व्यापार की शर्त राष्ट्रीय आय एवं विकास के लिए उत्पन्न होने वाले साधनों को प्रभावित करती है, परन्तु हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि व्यापार की शर्त अन्य घटकों पर भी निर्भर करती है । व्यापार की शती में होने वाला सुधार स्वचालित रूप से विकास की गति को त्वरित नहीं करता ।

विकास तो केवल उस परिस्थिति में ही सम्भव होगा जब व्यापार शती के सुधार के साधन लाभप्रद विनियोग के रूप में अधिक उत्पादन की ओर लगाए जाएँ । व्यापार शती में सुधार तब भी सम्भव है जब निर्यातों को प्रतिस्थापित किया जा रहा हो । इससे प्राप्त होने वाले विदेशी विनिमय कोष सीमित होने लग जाएँगे ।

यदि देश अपनी विकास आवश्यकताओं के लिए ऐसे यंत्रों, तकनीकी ज्ञान एवं कच्चे संसाधनों पर आश्रित हो जिसका आयात किया जा रहा हो तो विदेशी विनिमय कोषों के सीमित होने पर विकास प्रयास सफल नहीं हो पाएँगे एवं अनुकूल व्यापार शती का लाभप्रद प्रभाव नहीं पडेगा ।

निर्यातों को प्रतिबन्धित करने से निर्यात उत्पादन इकाइयों में लगे साधन बेरोजगार हो जाएँगे तथा कम उत्पादन क्षेत्रों में कार्य करने पर बाध्य होंगे । इससे भी आर्थिक विकास पर विपरीत प्रभाव पडेगा ।

व्यापार की शर्त एक देश की वास्तविक आय पर पड़ने वाले परिवर्तन की सूचना केवल तब दे सकती है, जबकि वह मान्यताएँ व्यवहार में ला! हो सकें जिन पर व्यापार का क्लासिकल सिद्धान्त आधारित है ।

क्लासिकल अर्थशास्त्री उत्पादन के साधनों की स्थिर पूर्ति, उत्पादन की अपरिवर्तित तकनीक, उत्पादन के सभी साधनों में पूर्ण रोजगार व पूर्ण प्रतियोगिता की उपस्थिति के अधीन व्यापार के सिद्धान्त का प्रतिपादन करते थे ।

व्यवहार में यह मान्यताएँ खरी नहीं उतरती । अतः व्यापार शर्त की अवधारणा एक देश की वास्तविक आय में होने वाले परिवर्तन का विश्लेषण करने में समर्थ नहीं रहतीं । अतः व्यापार शर्त की अवधारणा एक देश की वास्तविक आय में होने वाले परिवर्तन का विश्लेषण करने में सीमित भूमिका प्रस्तुत करती हैं ।

क्सासिकल स्थैतिक मॉडल अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में घरेलू अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले प्रावैगिक प्रत्यावर्तन प्रभावों को भी ध्यान में नहीं रखता । संक्षेप में व्यापार की शर्त एक देश की वार्षिक दशा में होने वाले परिवर्तनों पर प्रकाश नहीं डालतीं । व्यापार की शती में होने वाले परिवर्तनों का प्रभाव कुछ अन्य प्रासंगिक घटकों, उत्पादकता के परिमार्जन, माँग व रोजगार में होने वाले परिवर्तन के सन्दर्भ में भी देखी जानी आवश्यक है ।

थ्योरी ऑफ इमीसराइजिंग ग्रोथ (Theory of Immiserizing Growth):

इमीसराइजिंग ग्रोथ के विचार को प्रस्तुत करते हुए एजवर्थ (1894) ने स्पष्ट किया कि यदि देश के निर्यातों की लागत में कमी होती है तो यह देश के हित के विरूद्ध भी हो सकती है । इस सिद्धान्त के पीछे मुख्य विचार यह है कि आर्थिक विकास कई स्थितियों में देश की व्यापार शर्तों में प्रतिकूलता भी उत्पन्न करता है ।

आशय (Meaning):

जब उत्पादन में होने वाली वृद्धि के द्वारा प्राप्त लाभ, व्यापार शती के विपरीत रहने से क्षतिपूरित हो जाते हैं तब देश के आर्थिक कल्याण में कमी होती है । इस सम्भावना को प्रो॰ जगदीश भगवती (1958) ने प्रदर्शित किया तथा इसे इमीसराइजिंग ग्रोथ कहा ।

इमीसराजिंग ग्रोथ के विचार को हम चित्र की सहायता से स्पष्ट कर सकते है । यह प्रदर्शित करता है कि किस प्रकार व्यापार की शर्तें विपरीत होने पर कल्याण में इतनी कमी होती है कि उत्पादन में होने वाली वृद्धि से प्राप्त होने वाले लाभ का अधिक महत्व नहीं रह जाता ।

चित्र 49.9 में X व Y अक्ष पर वस्तु प्रकट की गई हैं । उत्पादन सम्भावना वक्र AB है तथा कीमत रेखा P1P1 इसे E बिन्दु पर स्पर्श करती है अतः उत्पादन बिन्दु E है । उपभोक्ता कल्याण के स्तर को उदासीनता रेखा के द्वारा दिखाया गया है ।

P1P1 रेखा को उदासीनता रेखा IC2 बिन्दु F पर स्पर्श करती है अत: उपभोग बिन्दु F है । माना देश की उत्पादन कुशलता में वृद्धि होती है । अतः देश का उत्पादन सम्भावना वक्र AB से परिवर्तित होकर CD दशा प्राप्त करता है ।

उत्पादन सम्भावना वक्र में होने वाले परिवर्तन से यह आशा की जाएगी कि आर्थिक वृद्धि होने पर देश के आर्थिक कल्याण में सुधार होगा परन्तु वास्तव में देश एक निम्न स्थिति को प्राप्त करेगा ।

उत्पादन नए उत्पादन सम्भावना वक्र CD के किसी बिन्दु पर होगा । व्यापार शर्त रेखा P1P1 से बदल कर P2P2 हो जाएगी । अत: नया साम्य CD व P1P1 के स्पर्श बिन्दु G पर नियत होगा । इस दशा में उपभोक्ता बिन्दु H पर उपभोग करता वहाँ उदासीनता रेखा IC1 व्यापार शर्त रेखा P2P2 को स्पर्श करती है । चित्र से स्पष्ट है कि बिन्दु H, प्रारम्भ के उपभोग बिन्दु F की तुलना में एक निम्न उदासीनता वक्र पर स्थित है ।

सन्तुलन की आधारभूत दशा में जहाँ देश बिन्दु E पर उत्पादन तथा बिन्दु F पर उपभोग करेगा सापेक्षिक रूप से कम निर्यात किया जायेगा, परन्तु उसके द्वारा किया जाने वाला आयात सापेक्षिक रूप से अधिक होगा । सन्तुलन की अन्तिम अवस्था में जहाँ देश बिन्दु G पर उत्पादन तथा बिन्दु H पर उपभोग करता है, निर्यात अधिक एवं आयात कम किया जाएगा ।

प्रतिकूल दशा के कारण (Reasons for Reverse Condition):

देश में प्रतिकूल दशाओं के उत्पन्न होने के दो मुख्य कारण हैं । पहला तो यह कि आर्थिक वृद्धि प्रारम्भ में क्षमताओं में वृद्धि करेगी जिससे निर्यात उत्पादन क्षमता में सुधार होगा । दूसरा कारण यह है कि देश द्वारा किए जा रहे निर्यात उत्पादों की विश्व माँग काफी निम्न लीची का सामना करेगी ।

इस प्रकार पहले घटक के परिणामस्वरूप विकास का प्रमुख प्रभाव विश्व बाजार में राष्ट्र के निर्यात उत्पादन की पूर्ति के बढने से सम्बन्धित है, जबकि दूसरा घटक यह प्रस्तावित करता है कि व्यापार की शर्तें तेजी से गिरती है ।

कम विकसित देशों हेतु सिद्धान्त का कथन (Statement for the Theory for Less Developed Countries):

यह सिद्धान्त प्राथमिक वस्तुओं का उत्पादन एवं नियमित करने वाले ऐसे सभी देशों में लागू होता है जहाँ अधिकांश कृषि मदें अल्प विश्व माँग लोचों का सामना करती हैं ।

कम विकसित देशों के लिए यह सिद्धान्त यह नीति प्रस्तावित करता है कि वह निर्यात क्षेत्र में विनियोग करने के बजाय विनियोगों का आवण्टन आयात प्रतिस्थापक उद्योगों में करें, परन्तु यह प्रस्तावित करते हुए हमें दो बातों को ध्यान में रखना पडेगा ।

पहला तो यह कि यह सिद्धान्त केवल उन देशों में लागू हो सकता है जो इतने बड़े आकार के हों कि विश्व बाजार में अपनी पूर्ति के द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की शर्तों को प्रभावित कर सकें । दूसरा यदि देश विश्व बाजार की तुलना में इतना छोटा है कि वह विश्व बाजार की शर्तों को प्रभावित कर सकने में समर्थ न हो तो यह सिद्धान्त लागू नहीं हो पाएगा ।

यह सिद्धान्त मुख्यतः कम विकसित देशों में लागू हो सकता है पर अर्थशास्त्रियों ने इसकी उपादेयता एवं क्रियाशीलता पर सन्देह व्यक्त किया है, “Economist in the developed world would seem to brush aside this theory as an academic curosity rather than a serious representation of a real world case.”

इसके बावजूद भी यह सिद्धान्त आर्थिक विकास हेतु व्यापार आधारित रणनीतियों को अपनाने का विरोध करता है । विशेष रूप से ऐसे देशों के लिए जो इतने बडे हैं कि विश्व व्यापार शर्तों को प्रभावित कर सकें ।