विदेशी सहयोग: अर्थ और प्रभाव | Read this article in Hindi to learn about the meaning and impact of foreign collaboration in India.

विदेशी सहयोग का अर्थ (Meaning of Foreign Collaboration):

भारतीय कम्पनियों और विदेशी दलों के बीच प्रौद्योगिकी की बिक्री और अन्तिम उत्पादों के लिये विदेशी ब्राण्ड नाम सम्बन्धी सहयोग समझौते किये जाते हैं । 1980 के दोरान उदारीकरण की प्रवृत्तियों ने विदेशी सहयोगों को बहुत प्रोत्साहित किया । वर्ष 1984 से 1986 तक कुल 10881 विदेशी समझौते किये गये, उन में 4911 (मान लो 45 प्रतिशत) 1980 से 1986 के दौरान स्वीकार किये गये ।

अन्य शब्दों में 1984-85 के दौरान कुल 284 विदेशी सहयोग स्वीकार किये गये, 1956 से 60 के दौरान 796; 1961 से 65 के बीच 1643; 1966-70 के बीच 832, 1970 से 1975 के दौरान 1397; 1976 से 80 तक 1644 स्वीकार किये गये । परन्तु वर्ष 1981 में विदेशी समझौतों की स्वीकृतियां घट कर 389 रह गई जोकि 1980 में 526 थी । वर्ष 1982 में यह पुन: 590 तक बढ़ गई और 1983 में 673 हो गई ।

वर्ष 1980 से 1985 के दौरान विदेशी सहयोग समझौतों की अधिकतम संख्या (766) बिजली के सामान से सम्बन्धित थी । इसके पश्चात औद्योगिक मशीनरी (763), रसायन जिसमें औषधियां निर्माण सम्मिलित है, यातायात (297), उपकरण (223), धातुकर्मीय मशीनरी (190), यन्त्र उपकरण (223) और शीशा एवं कार्मिकस (141) । पुन: अक्तूबर 1987 तक 37 समझौते कम्प्यूटर से सम्बन्धित थे । इनमें 17 कम्प्यूटर प्रिंटर से सम्बन्धित तथा 23 कार्मिक ग्लेजड और अन्य ।

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विभिन्न देशों के साथ इन विदेशी सहयोग समझौतों के सम्बन्ध में अधिकतम सहयोग यू. एस. ए. एवं पश्चिमी जर्मनी के साथ है, परन्तु हाल ही के वर्षों में ये समझौते जापान के साथ हुये हैं । वर्ष 1986 तक कुल 6300 सहयोगों में यू.एस. ए. से 1262 दूसरे क्रम पर पश्चिमी जर्मनी 1196, यू.के. 1109, जापान 560, स्विटजरलैण्ड 360, फ्रांस 335, इटली 318 तथा स्वीडन के साथ 149 समझौटे हुये हैं ।

1980 के दशक में, उदारीकरण की प्रक्रिया के कारण विदेशी सहयोगों में बहुत वृद्धि हुई । तदानुसार, वर्ष 1948 से 1988 के बीच स्वीकृत हुए कुल 12760 विदेशी सहयोग समझौतों में से 6,165 अर्थात् (प्रतिशत) 1981 से 1988 के समय दौरान स्वीकृत हुये । पुन: वर्ष 1991 के पश्चात में विदेशी निवेश नीति के उदारीकरण के पश्चात भारत में विदेशी सहयोग समझौतों की संख्या में पर्याप्त वृद्धि हुई ।

अगस्त, 1991 से नवम्बर 1993 की अवधि के दौरान, सरकार द्वारा स्वीकृत विदेशी सहयोग प्रस्तावों की संख्या 3,467 थी जिसमें 1,565 सुझाव विदेशी इक्यूटी के थे जिसका मूल्य $122.9 बिलियन था । पुन: 1991 से सितम्बर 1995 के दौरान विदेशी प्रत्यक्ष निवेश कुल वास्तविक अन्तर्वाह $3.44 बिलियन (10,514 करोड़ रुपये) था ।

विदेशी सहयोगों का प्रभाव (Impact of Foreign Collaborations):

विदेशी सहयोगों का भारतीय अर्थव्यवस्था पर प्रभाव जानना निश्चित रूप में रुचिकर होगा । ‘इण्डियन इन्स्टीच्यूट ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन’ ने विदेशी सहायक शाखाओं का वर्ष 1975-76 के लिये भारत के भुगतानों के सन्तुलन पर प्रभाव का परीक्षण किया ।

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विदेशी सहयोगों के प्रभाव के मुख्य बिन्दु नीचे दिये गये हैं:

1. भारत में कार्यरत अधिकांश विदेशी सहायक शाखाएँ यू.के. और यू.एस.ए. से उत्पन्न हुई हैं । बड़ी विदेशी कम्पनियां बहु-उत्पादी स्वरूप प्राप्त कर रही हैं । उदाहरणतया, आई.टी.सी. ने अपनी गतिविधियों को होटल उद्योग तक विस्तृत कर दिया ।

2. विदेशी सहायक शाखाओं की सम्पत्ति जोकि वर्ष 1969 में 1129 करोड़ रुपये थी, 1976 में बढ़ कर 1626 करोड़ रुपये हो गई ।

3. वर्ष 1975-76 के दौरान, 133 विदेशी कम्पनियों द्वारा अर्जित विदेशी विनिमय का कुल मूल्य 120 करोड़ रूपये हो गई ।

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4. वर्ष 1975-76 में विदेशी मूल्यकरण व्यवहारों का कुल मूल्य और उनके द्वारा इस देश से अपने सहयोगियों को किये गये निर्यात इस देश में उत्पादन लागत 20 से 23 प्रतिशत से कम हैं ।

5. विदेशी कम्पनियों की अधिकांश ब्रांचों ने योजनाओं के भारतीयकरण को स्वीकार किया है और इसका भाग कम करने के लिये सहमत हुये हैं ।

भारत के भुगतनों सन्तुलन पर विदेशी सहयोगों का प्रभाव नकारात्मक रहा है । पी.एम.पिज्ञानी अनुसार, ”विदेशी विनिमय का शुद्ध बहिर्वाह (Outflow) निजी क्षेत्र की कम्पनियों के लिये वर्ष 1970-71 और 1979-80 में 1089 करोड़ रहा है ।”

इसी प्रकार डी.एस. स्वामी ने बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के भारतीयकरण की नीति के वास्तविक स्वरूप का अवलोकन किया । फेरा (FERA) के सैक्शन 29(1) के अन्तर्गत सभी विदेशी कम्पनियों से स्वामित्व को 74 प्रतिशत तक कम करने की अपेक्षा थी ।

विदेशी ज्ञान पर अधिक निर्भरता का स्थानीय पहलु पर बुरा प्रभाव हो सकता है । इसके अतिरिक्त पुरानी हो चुकी प्रौद्योगिकी के भी उदाहरण हैं । कुछ प्रकरणों में विदेशी सहयोग आवश्यकता से अधिक पूजी साज-सामान आयात करने के लिये उत्तरदायी रहा है ।

बहुराष्ट्रीय निगमों पर नियन्त्रण (Control Over Multinational Corporations):

भारत जैसे विकासशील देशों पर बहुराष्ट्रीय निगमों के हानिकारक प्रभाव को ध्यान में रखते हुये देश में बहुराष्ट्रीय निगमों की गतिविधियों को नियन्त्रित करने का दायित्व अनेक सरकारी अभिकरणों को सौंपा गया है ।

इन अभिकरणों में सम्मिलित हैं:

(क) भारतीय रिजर्व बैंक,

(ख) कम्पनी मामलों का मन्त्रालय,

(ग) ओद्योगिक विकास का मन्त्रालय और

(घ) वित्त मन्त्रालय ।

परन्तु, इन अभिकरणों में तालमेल के अभाव के कारण बहुराष्ट्रीय निगमों के कार्यों पर कोई व्यवस्थित नियन्त्रण नहीं है । ऐसे मामलों पर इन अभिकरणों द्वारा इनके गुणों के आधार पर कोई समन्वित मार्ग अपनाये बिना विचार किया जाता है । इन अभिकरणों के पास कोई निष्पक्ष मानक नहीं है जिसके द्वारा प्रार्थनाओं को स्वीकृत किया जाये तथा विभिन्न मन्त्रालय प्रायः लम्बे और जटिल मार्ग अपनाते हैं ।

भारत में विदेशी प्रौद्योगिकी को असंगत एवं महंगा समझा गया है तथा माना गया कि इससे विदेशी निर्भरता बढेगी । माइकल किडरन (Michael Kidron) के अध्ययन का विवरण प्रकाशित होने के पश्चात इस विश्वास को और भी दृढ़ता प्राप्त हुई जिसका शीर्षक था भारत में विदेशी निवेश (1965) और रिपोर्ट ऑफ इन्डस्ट्रीयल लाइसैंसिंग पॉलिसी इन्क्वायरी कमेटी (1968) ।

इसके परिणामस्वरूप सरकार की बहुराष्ट्रीय निगमों पर नीति और उनके कार्यों को क्रमिक निम्नलिखित ढंगों से कठोर किया गया:

(क) विदेशी प्रौद्योगिकी के आयात को पूर्णतया प्रतिबन्धित करना जो अनावश्यक वस्तुओं के उत्पादन से सम्बन्धित है तथा उन क्षेत्रों में जहां घरेलू प्रौद्योगिकी को पर्याप्त समझा जाता है ।

(ख) इजाजत वाली विदेशी प्रौद्योगिकी के अधिकतम रॉयल्टी दर को निर्धारित करना ।

(ग) कुछ पदनामित उद्योगों के सम्बन्ध में केवल नियम के रूप में विदेशी निवेशों की प्रकरण से प्रकरण के आधार पर प्रशासनिक अधिकारी की स्वीकृति से आज्ञा थी ।

(घ) समझौते की सामान्य आज्ञा अवधि 10 वर्षों से घटा कर 5 वर्ष कर दी गई ।

(ङ) निर्यातों और अन्य विक्रय मामलों में प्रतिबन्धों की आम तौर पर आज्ञा नहीं थी और उत्पादन के एक विशेष अनुपात के निर्यात पर बल दिया जाता था ।

(च) आयात करने वाले को प्रौद्योगिकी की उप-अनुज्ञा की इजाजत देने सम्बन्धी समझौते में एक धारा जोड़ना था ।

(छ) प्रौद्योगिकी के आयात के लिये स्वीकृति के प्रार्थना पत्र पर विचार करने के लिये, CSIR को इस पर गौर करने की इजाजत दी गई तथा यदि यह चाहे तो ऐसे प्रौद्योगिकी आयात को रोक सकता अथवा इसमें विलम्ब कर सकता है ।