निजी विदेशी पूंजी: योग्यता और डेमिटिट्स | Read this article in Hindi to learn about the merits and demerits of private foreign capital.

निजी विदेशी पूंजी के लाभ/महत्व (Merits of Private Foreign Capital):

यह विवाद-रहित प्रश्न है कि निजी विदेशी पूंजी किसी अल्प विकसित देश के आर्थिक विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है ।

“सीधा विदेशी निवेश प्राप्तकर्त्ता देश के लिये न केवल पूंजी और विदेशी विनिमय लाता है बल्कि प्रबन्धकीय योग्यता, तकनीकी कर्मचारी, प्रौद्योगिकी ज्ञान, प्रशासनिक संगठन और उत्पाद एवं उत्पादन तकनीकों में नवप्रवर्तन लाता है ।” -मायर

अत: निजी विदेशी निवेश के मुख्य लाभों को नीचे संक्षिप्त किया गया है:

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1. नई प्रौद्योगिकी, उद्यमीय निपुणताएं और नये विचारों की रचना (Creation of New Technology, Entrepreneurial Skills and New Ideas):

स्पष्ट निजी विदेशी निवेश का महत्त्वपूर्ण लाभ यह है कि यह केवल पूंजी और विदेशी विनिमय ही नहीं लाता बल्कि साथ ही आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी के फल भी लाता है ।

नई तकनीक निजी पूंजी के साथ आती है और उनके द्वारा प्रस्तुत उदाहरण से विदेशी फर्में अर्थव्यवस्था में तकनीकी उन्नति के प्रसार को बढ़ाती हैं । यह लाभ निर्धन देश के लिये उच्च महत्व रखता है क्योंकि वहां के स्थानीय उद्यमी नवप्रवर्तन के लिये असमर्थ होते हैं ।

अत: निजी विदेशी पूंजी से मुख्य लाभ विदेशी ज्ञान तक पहुंच है जो निजी विदेशी निवेश उपलब्ध करवा सकता है और जो ऐसे अल्प विकसित देशों में प्रबन्धकीय एवं तकनीकी अन्तराल को भरने में सहायक हो सकता है ।

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2. स्थानीय निवेश एवं उद्यम को प्रोत्साहन (Encouragement to Local Investment and Enterprise):

निजी विदेशी निवेश प्राप्तकर्त्ता देश में अतिरिक्त घरेलू निवेशों को प्रोत्साहित कर सकते हैं । एक प्रकार से यह स्थानीय निवेश को दो प्रकार से प्रोत्साहित कर सकता है । एक-स्थानीय उद्यमियों के साथ सांझेदारी में प्रवेश द्वारा तथा दूसरे-गौण अथवा सहायक उत्पादों की मांग की रचना द्वारा ।

इस तथ्य के सम्बन्ध में मायर और बाल्डविन के अनुसार- “अनेक स्थितियों में, सीधा विदेशी निवेश अधिक घरेलू निवेश प्रोत्साहित करने में सहायक हो सकता है या तो विदेशी पूंजी से भागीदारी में या स्थानीय सहायक उद्योगों में जो विदेशी उद्यम ने स्पष्टतया स्थापित किये हैं ।”

इसलिये यदि विदेशी पूंजी का उपभोग किसी देश की संरचना को विकसित करने के लिये किया जाता है तो यह अल्प विकसित देशों में अधिक निवेश को सुविधाजनक बनाता है ।

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3. पूंजी निर्माण के लिये सहायक (Useful for Capital Formation):

निजी विदेशी पूंजी का एक अन्य लाभ यह है कि ऐसी पूंजी द्वारा अर्जित लाभों के बड़े भाग को कल्याण उद्योगों के विस्तार के लिये अथवा नये उद्योगों की स्थापना के लिये पुन: निवेश कर दिया जाता है ।

यह अल्पविकसित देशों में पूंजी निर्माण के दर को बढ़ाने में पर्याप्त सहायता करता है । दूसरी ओर, यदि निजी विदेशी निवेशकों को उनके लाभों के पुनर्निवेशन के लिये उत्साहित किया जा सके तो यह इन देशों में पूंजी निर्माण का महत्वपूर्ण स्रोत बन सकते हैं ।

4. भुगतानों के शेष पर बोझ कम करने में सहायक (Helpful to Reduce Burden on the Balance of Payments):

विकास की आरम्भिक स्थितियों में पूंजी का आगमन आयात वाले देश के भुगतानों के शेष पर कोई विशेष दबाव नहीं डालता क्योंकि इसकी कोई देश प्रत्यावर्तन वचनबद्धताएं नहीं होती, परन्तु बाद में ऐसी पूंजी द्वारा अर्जित लाभों का देश-प्रत्यावर्तन करना होता है जिससे भुगतानों के शेष के लिये कठिनाइयां उत्पन्न हो सकती हैं ।

5. जोखिम उठाना (Risk Taking):

निजी विदेशी पूंजी का मुख्य लाभ यह है कि यह उत्पादन के नये उद्यमों को विकसित करने का आरम्भिक जोखिम उठाती है । अल्पविकसित देशों में स्थानीय नवप्रवर्तकों के अभाव के कारण यह बहुत महत्व रखती है ।

इसके विपरीत, विदेशी पूंजी के साथ अनुभव, पहल करने की प्रवृत्ति और नई दिशाओं को खोजने के साधन होते हैं । यह इन्हीं गुणों के कारण है कि बहुत से उद्योग जैसे पैट्रोलियम परिष्करण और परिष्कृत इंजीनियरिंग उद्योग आदि देशों में आरम्भ किये गये हैं ।

6. उच्च मानक (High Standards):

निजी विदेशी पूंजी अपने साथ वस्तुओं की गुणवत्ता, कर्मचारियों को वेतन एवं मजदूरी, व्यापारिक व्यवहार आदि के उच्च मानक रखने की परम्परा साथ लाती है । ये वस्तुएं न केवल इन उद्यमों के हित की रक्षा करती हैं बल्कि अन्य स्थानीय कारखानों के उत्पादों की गुणवत्ता बढ़ाने के महत्त्वपूर्ण कारक का कार्य करती हैं, अपने कर्मचारियों के वेतनों का सुधार करने तथा व्यापारिक व्यवहारों के आधुनिकीकरण में सहायक होती है । इस प्रकार, निजी विदेशी पूंजी न केवल मुद्रा और जानकारी लाती है बल्कि उन्नत देशों की औद्योगिक संस्कृति भी उपलब्ध करवाती है ।

7. विपणन सुविधाएं (Marketing Facilities):

एक बड़ा महत्वपूर्ण लाभ है विदेशी निवेश द्वारा उपलब्ध करवाये गये सुरक्षित बिक्री के निकाय । विदेशी बहुराष्ट्रीय निगम विभिन्न देशों में अपनी ही इकाईयों के बीच आयात और निर्यात करते हैं । वास्तव में, इस समय, विश्व व्यापार के बड़े भाग का संचालन इन निगमों की इकाईयों के बीच हो रहा है ।

यह इकाइयां विविध प्रकार की वस्तुएं और सेवाएं भारी मात्रा में खरीदती और बेचती है । उनकी विशेषज्ञता और साधन अत्यधिक होते हैं तथा समग्र विश्व में फैले होते हैं । इस प्रकार वे उन वस्तुओं का विक्रय सुनिश्चित करते हैं जिनके उत्पादन और व्यापार में उनकी विशेषज्ञता होती है ।

यह सुविधा केवल निजी विदेशी निवेशकों के पास उपलब्ध होती है । यह भारत जैसे देश के लिये अत्यावश्यक है जिसे अपने निर्यात तीव्र गति से बढ़ाने की अत्यधिक इच्छा है । यह देश को अपनी अर्थव्यवस्था खोलने और शेष विश्व के साथ जोड़ने में भी सहायता करता है ।

निजी विदेशी पूंजी की हानियां (Demerits of Private Foreign Capital):

इन लाभों के बावजूद, हम इस तथ्य से सहमत हैं कि निजी विदेशी पूंजी का मुक्त बहाव विकासशील देशों के हित में नहीं है । अधिकांश विकासशील देशों ने नियोजित विकास की तकनीकें अपनायी हैं तथा स्पष्ट विदेशी निवेश का नियोजित अर्थव्यवस्था में कोई स्थान नहीं है ।

अर्थव्यवस्था में निजी विदेशी पूंजी की निन्दा करते हुये एच. डब्ल्यू. सिंगर ने कहा है- “यह विकास संवर्धन में बहुत थोड़ा अथवा कुछ नहीं करती बल्कि कभी-कभी ऋण लेने वाले देश के आर्थिक विकास में बाधा बनती है ।”

उसने आगे अवलोकन किया है कि अतीत में भी इसने पिछड़े कृषि देशों के औद्योगिक विकास के लिये कुछ विशेष नहीं किया परन्तु इसने मुख्यत: उन्नत देशों की ओर निर्यात के लिये आरम्भिक उत्पादन पर ध्यान दिया है ।

निजी विदेशी पूंजी से निम्नलिखित हानियों का वर्णन किया गया है:

1. अर्थव्यवस्था के विकास के नमूने का विरुपण (Distortion of Pattern of Development Economy):

जिन देशों ने नियोजित विकास योजना अपनायी है वहां के लिये यह प्रासंगिक नहीं है । निवेश परियोजनाओं सम्बन्धी निर्णय लेते समय विदेशी पूंजीपति लाभों को अधिकतम बनाने में रुचि रखेंगे, न कि देश की नियोजित प्राथमिकताओं में । अन्य शब्दों में यह सदा अर्थव्यवस्था की निम्न प्राथमिकताओं में निवेश करते हैं ।

2. घरेलू बचत पर विपरीत प्रभाव (Adverse Effect on Domestic Saving):

इस प्रकार के निवेश से ऐसे आय प्रभाव की प्रत्याशा की जा सकती है जो घरेलू बचतों के उच्च स्तर की ओर ले जायेगा । उसी समय, यदि निजी विदेशी निवेश घरेलू उद्योगों के लाभों को कम करता है तो यह लाभ अर्जन की आय पर विपरीत प्रभाव डालेगा तथा घरेलू बचतों को और भी कम कर देगा ।

3. प्राप्तकर्त्ता देश के भुगतानों के सन्तुलन पर प्रतिकूल प्रभाव (Adverse Effect on Balance of Payments of the Recipient Country):

विदेशी निवेशक भारी लाभ अर्जित कर सकते हैं जिसका समयानुसार देश प्रत्यावर्तित करना पड़ता है । परन्तु इससे प्राप्तकर्त्ता देश के भुगतानों के सन्तुलन में गम्भीर असन्तुलन आ जाता है ।

4. राजनीतिक आधार पर लाभप्रद नहीं (Not Useful on Political Grounds):

अल्पविकसित देशों में निजी विदेशी निवेश का भय केवल आर्थिक कारणों से ही नहीं बल्कि राजनीतिक आधारों पर भी है । यह भी भय रहता है कि कहीं इससे प्राप्तकर्त्ता देश की स्वतन्त्रता भी जोखिम में न पड़ जाये ।

5. सीमित प्रच्छन्नता (Limited Coverage):

निजी पूंजी प्राय: स्वयं को आर्थिक जीवन के कुछ एक सीमित क्षेत्रों तक ही सीमित रखती है । उदाहरणतया, यह उन उद्योगों का चयन करती है जहां यह शीघ्र बड़े स्तर पर लाभ प्राप्त कर सकती है । इस बात का ध्यान नहीं रखा जाता कि उन उद्योगों के विकास का सामान्य विकास के साथ सम्बन्ध है भी या नहीं ।

यह उद्योग प्राय: उपभोक्ता वस्तुओं के उद्योग होते हैं या फिर वे उद्योग जहां उत्पादन काल अधिक लम्बा नहीं होता । यही कारण है कि स्वतन्त्रता से पहले भारत में विदेशी पूंजी मुख्यता इंग्लैण्ड की पूंजी का प्रयोग प्राय: बागान जैसे उद्योगों में किया जाता था ।

6. अधिक निर्भरता (More Dependence):

विदेशी पूंजी का प्रयोग प्राय: विदेशी साधनों पर निर्भरता को बढ़ाता है । यह कम-से-कम दो कारणों से होता है- एक तो यह कि उन्नत देशों की साधन-सम्पन्नताओं के अनुकूल विदेशी तकनीक स्थानीय तकनीक को विकसित नहीं होने देती जो प्राप्तकर्त्ता देश की स्थितियों के अनुकूल हो ।

इसके विपरीत यह अपने से प्रतिस्पर्द्धा में, ऐसी तकनीक के विकास को निश्चित रूप में हतोत्साहित करती है । इसका अर्थ है कि विचाराधीन देश निरन्तर विदेशी तकनीक के आयात पर निर्भर रहेगा ।

दूसरे-प्रयुक्त विदेशी तकनीक की सम्भाल और पुनर्स्थापना के लिये वस्तुएं आयात करने की आवश्यकता बनी रहेगी जिससे भुगतानों के सन्तुलन की कठिनाइयां आती रहेंगी । भारत इस समय ऐसी कठिनाइयों का सामना कर रहा है ।

7. प्रतिबन्धक शर्तें (Restrictive Conditions):

अनेक प्रकरणों में विदेशी सहयोग समझौतों में निर्यात और वस्तुओं से सम्बन्धित कुछ प्रतिबन्धक धाराएं होती हैं । उदाहरणतया, विदेशी सहयोगकर्त्ता भारतीय बाजार के शोषण के लिये निवेश करते हैं क्योंकि वे बाहर से इस बाजार के साथ सम्पर्क साधना कठिन मानते हैं ।

परन्तु यह सहयोगी भारतीय कम्पनियों से यह आशा नहीं करते कि वे अपनी वस्तुएं अन्य देशों को निर्यात करेंगी, जिन्हें विदेशी सहयोगी अन्य देशों में स्थित अपनी कम्पनियों द्वारा पहले से उपलब्ध करवा रहे हैं । स्पष्ट है कि, ऐसे समझौते देश के लिये प्रतिबन्धक शर्तें रखते हैं ।