तीसरी पंचवर्षीय योजना की रणनीतियां | Read this article in Hindi to learn about the strategies of third five year plan in India.

तीसरी पंचवर्षीय योजना पिछली योजना का शेष थी जिस का लक्ष्य भारत को सन 1975-76 तक स्व-उत्पादक एवं स्व-निर्भरता-पूर्ण अर्थव्यवस्था उपलब्ध करना था ।

तथापि, इसके अन्य लक्ष्य थे:

(क) राष्ट्रीय आय में 5 प्रतिशत प्रति वर्ष से अधिक वृद्धि प्राप्त करना, निवेश का ऐसा प्रतिमान निश्चित करना जिससे आने वाली योजनाओं में वृद्धि की यह दर बना रहे ।

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(ख) खाद्य अनाजों में आत्मनिर्भरता प्राप्त करना तथा उद्योग एवं निर्यातों की आवश्यकताएं पूरी करने के लिये कृषि उत्पादन को बढ़ाना ।

(ग) मूलभूत उद्योगों जैसे इस्पात, रसायनिक उद्योगों, ऊर्जा और मशीन निर्माण की क्षमता स्थापित करना ताकि अधिक औद्योगीकरण की आवश्यकताएँ देश के अपने स्रोतों से ही, लगभग दस वर्षों के भीतर पूरी की जा सकें ।

(घ) जन-शक्ति साधनों का अधिकतम सम्भव प्रयोग करना और रोजगार के अवसरों का अधिकतम सम्भव विकास सुनिश्चित करना ।

(ङ) अवसर की उत्तरोतर अधिक समानता स्थापित करना तथा आय और धन की असमानतात्रों में कमी लाना और आर्थिक शक्ति का समान वितरण सुनिश्चित करना ।

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योजना ने, इस प्रकार दूसरी योजना के सुझावों का अनुकरण किया । प्रतिवर्ष 5 प्रतिशत से सुस्थिर वृद्धि दर की कल्पना की गई । यह आशा थी कि अगले 15 वर्षों में जनसंख्या में दो प्रतिशत, प्रतिवर्ष की दर से वृद्धि होगी ।

इस समय के दौरान अर्थव्यवस्था से आशा की जायेगी कि अनेक क्षेत्रों में बड़ी तथा बढ़ती हुई मांग को पूरा करें जैसे-खाद्य अनाज, वस्त्र, इस्पात, कोयला शक्ति, परिवहन, रोजगार, शिक्षा और अन्य सामाजिक सेवाएं और प्रशिक्षित जन शक्ति । सार्वजनिक क्षेत्र में व्यय 7500 करोड़ रुपये था (निवेश 6300 करोड़ रुपये तथा चालू व्यय 1200 करोड़ रुपये) तथा निजी क्षेत्र में 4100 करोड़ रुपयों के निवेश की व्यवस्था की गई । परन्तु व्यय का भौतिक लक्ष्य 8000 करोड़ रुपयों के कुल व्यय के आधार पर बनाया गया ।

कृषि विकास पर बल के सम्बन्ध में तीसरी योजना अधिक स्पष्ट थी और इसके दस्तावेज में सर्वप्रथम प्राथमिकता कृषि विकास को दी गई । पहली दो योजनाओं के अनुभव ने दर्शाया कि कृषि उत्पादन में वृद्धि की दर भारतीय अर्थव्यवस्था में एक मुख्य बाधक कारक थी ।

फिर भी कृषि के दीर्घकालिक विकास के लिये आवश्यक है:

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1 तकनीकी परिवर्तन लाना विशेषतया वैज्ञानिक कृषि प्रथाओं को अपनाना और संशोधित उपकरणों और साज-सामान का प्रयोग ।

2. ग्रामीण क्षेत्र में श्रम शक्ति साधनों का पूर्ण उपयोग और अधिकतम स्थानीय प्रयत्नों को व्यवस्थित करना ।

3. ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सहकारी रेखाओं के साथ पुन व्यवस्थित करना, सेवाओं की व्यवस्था, साख, विक्रय, संसाधन और वितरण एवं सहकारी कृषि को सम्मिलित करना ।

4. उपलब्ध भूमि साधनों का व्यवस्थित भूमि प्रयोग आयोजन द्वारा सुधरा हुआ उपयोग, विविध प्रकार का फसलों और सुधरी हुई फसलों के प्रतिमान का आरम्भ ।

5. ग्रामीण क्षेत्रों में गैर-कृषि गतिविधियों का विस्तार ताकि व्यवसायिक संरचना का विविधीकरण किया जा सके तथा कृषि पर निर्भरता को कम किया जा सके ।

इसी प्रकार, औद्योगिक विकास के सम्बन्ध में विशेषतया मौलिक एवं भारी उद्योगों के विकास के सम्बन्ध में, इसे विकास की व्यापक परिकल्पना का भाग माना गया था, बड़े स्तर और लघु स्तरीय इकाई की अर्थव्यवस्था तथा मुख्य औद्योगिक केन्द्रों तथा छोटे शहरों और गांवों की अर्थव्यवस्था को एक दूसरे के समीप लाना इसका लक्ष्य था ।

इसलिये तीसरी पंचवर्षीय योजना, पहली और दूसरी योजना का प्रक्षेपण और शेष थी तथा यह चौथी अथवा आने वाली योजनाओं की ओर ले जायेगा । तीसरी योजना काल के दौरान, समाज के समाजवादी आदर्श के लहजे को सकारात्मक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये अपनाया गया जैसे-जीवन स्तरों को ऊपर उठाने, सब के लिये अवसरों का विस्तार करने, सुविधारहित वर्गों के बीच उद्यमों के संवर्धन तथा समाज के सभी वर्गों के बीच सहभागिता की भावना जागृत करना ।

संविधान में राज्य नीति के निर्देशात्मक सिद्धांतों ने प्रस्ताव की ओर उदार शब्दों में संकेत किया है, समाज का समाजवादी प्रतिमान इस धारणा का अधिक प्रत्यक्ष वर्णन है । आर्थिक नीति और संस्थानिक परिवर्तनों को इस प्रकार नियोजित किया जाये जिससे प्रजातान्त्रिक और समाजवादी प्रवृत्तियों के साथ आर्थिक प्रगति प्राप्त हो । प्रजातन्त्र को संस्थागत प्रबन्धों के विशेष समूह के स्थान पर जीवन की एक शैली कहा जाता है ।

समाजवादी प्रतिमान के सम्बन्ध में भी ऐसा ही कहा जा सकता है । अनिवार्य रूप में, समाज के समाजवादी प्रतिमान मुहावरे का अर्थ है कि उन्नति की दिशा निर्धारित करने की मौलिक कसौटी निजी लाभ बिल्कुल नहीं होनी चाहिये बल्कि सामाजिक लाभ होने चाहिये तथा विकास का प्रतिमान और सामाजिक आर्थिक सम्बन्धों का ढांचा ऐसे नियोजित किया जाना चाहिये कि उसके परिणामस्वरूप के केवल राष्ट्रीय आय और रोजगार में वृद्धि हो बल्कि आय और धन की समानता में भी वृद्धि हो ।

उत्पादन, वितरण, उपयोग और निवेश सम्बन्धी मुख्य निर्णय तथा वास्तव में सभी महत्वपूर्ण समाज-आर्थिक सम्बन्धों का निर्माण सामाजिक प्रयोजन द्वारा निर्मित अभिकरणों द्वारा किया जाये आर्थिक विकास के अधिक से अधिक लाभ सापेक्षतया समाज के कम सुविधा प्राप्त वर्ग को प्राप्त हो और आय, धन एवं आर्थिक शक्ति का कुछ ही हाथों में केन्द्रीकरण धीरे-धीरे कम हो ।

ऐसे वातावरण के निर्माण की आवश्यकता है जिसमें एक छोटा व्यक्ति पिसे अब तक व्यवस्थित प्रयत्न द्वारा विकास की अत्याधिक सम्भवताओं को देखने और उन के भाग लेने के बहुत कम अवसर प्राप्त हुये है । इस योग्य बने कि अपने लिये जीवन का उच्च स्तर प्राप्त करने और देश में खुशहाली की वृद्धि के लिये योगदान कर सके । समाज के समाजवादी प्रतिरुप को एक निश्चित अथवा कठोर प्रतिरूप नहीं माना जाना चाहिये । इस की जड़ किसी सिद्धान्त अथवा धर्म सिद्धान्त में नहीं है । प्रत्येक देश की अपनी प्रतिभा और परम्पराओं के अनुसार विकसित होना होता है ।

इसी प्रकार तीसरी योजना के प्रालेख पर विचार-विमर्श करते हुये डा. वी. के. आर. वी. राव ने कहा, ”मेरे मन में कोई सन्देह नहीं कि तीसरी योजना के बिना छोड़ना उसी प्रकार है जैसे युद्ध में युद्ध-चीख के बिना जाना सफलता के लिये अच्छा शगुन नहीं है, विशेषतया इन दिनों जब कि मनोवैज्ञानिक कारक युद्ध एवं संयुक्त प्रयत्न की रणनीति में इतना उच्च स्थान रखते हैं”, परंतु, दुसरी ओर महलेनोबिस मॉडल की विकास रणनीति में सच्चा विश्वास डगमगा गया ।

संक्षेप में, तीसरी योजना का निराशापूर्ण अन्त हुआ, असफलता के कारक न तो योजना निर्माताओं द्वारा नियन्त्रण योग्य थे और न ही उन लोगों के नियन्त्रण में थे जिन्हें विभिन्न कार्यक्रमों और नीतियों का कार्यान्वयन करना था । वर्ष 1962 में चीन के सीमा संघर्ष ने देश की सुरक्षा की दुर्बलता को प्रकट कर दिया, अतः देश की परिवर्तित परिस्थितियों के अनुसार योजना की प्राथमिकताओं को परिवर्तित करना पड़ा और निवेश को सुरक्षा सेवाओं की ओर निर्दिष्ट करना पड़ा ।

पुन: वर्ष 1965 में पाकिस्तान के साथ संघर्ष के कारण विदेशी सहायता रुक गई । वर्ष 1966 में सूखा पड़ गया जिस कारण देश के विभिन्न भागों में अकाल जैसी स्थितियां उत्पन्न हो गई ।

इस समय ने औद्योगिक मन्दी के आरम्भ और स्फीतिकारी स्थितियों का अनुभव किया जिससे आर्थिक समस्याएं और भी बढ़ गईं । इस समय के दौरान राष्ट्रीय आय केवल 12.5 प्रतिशत बड़ी जब कि इसके 25 से 30 प्रतिशत बढने का लक्ष्य था । विदेशी विनिमय का सकट न केवल जारी रहा बल्कि गहरा हो गया ।

योजना के अन्त में स्थिति इतनी निराशापूर्ण और अव्यवस्थित थी कि कुछ समय के लिये चौथी योजना के निर्माण को स्थगित करना पड़ा । अर्थव्यवस्था की तुरन्त समस्याओं की ओर ध्यान देना पड़ा । फलतः वार्षिक योजनाएं आरम्भ करनी पडी ताकि चालू परियोजनाओं पर काम जारी रखा जा सके अथवा पूरा किया जा सके और आने वाले वर्षों में विस्तार के निवेश व्ययों का स्थिरीकरण किया जाये ।

इस योजना अवकाश के दौरान औद्योगिक मन्दी थी । नई कृषि रणनीति जिसे हरित क्रान्ति कहा जाता था आरम्भ की गई । वर्ष 1966-68 के दौरान विशेषतया पंजाब प्रान्त में अच्छी फसल से नाटकीय राजनीतिक परिवर्तन हुआ जिसने समाज के निर्धन एवं निर्बल वर्गों के पक्ष में आर्थिक नीतियों के निर्माण किये, 14 मुख्य बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया ।

ये घटनाएं अर्थव्यवस्था की दृढ़ता में सहायक सिद्ध हुई, कुछ मात्रा में कीमत स्थायित्व हुआ और सरकार द्वारा योजनाओं के लिये साधन जुटाने की क्षमता में विश्वास उत्पन्न हुआ । पुन: इस पृष्ठभूमि में, चौथी पंचवर्षीय योजना ने पहली योजनाओं में निर्मित उद्देश्यों पर विश्वास प्रकट किया ।

ऐसी नीतियों और कार्यक्रमों में विश्वास प्रकट किया जो आत्मनिर्भरता की प्राप्ति और पर्याप्त वृद्धि दर प्राप्त करने में सहायक हुआ और समाजवादी समाज की उन्नति को प्रोत्साहन मिला ।

परन्तु महलनोबिस की विकास रणनीति की कटु आलोचना की गई, विशेषतया विश्व बैंक के अर्थशास्त्रियों द्वारा तीव्र आलोचना की गई जिन का मानना था कि अल्प विकसित देशों की मुख्य समस्याएं निर्धनता का उन्मूलन और विकास की प्राप्ति थी ।

योजना की विकास प्रवृतिक रणनीति पर अपनी अप्रसन्नता प्रकट करते हुये विश्व बैंक के अर्थशास्त्रियों ने कहा कि ”लोग ट्रैक्टर नहीं खा सकते” । उसी समय, भारतीय अर्थशास्त्रियों (दान्डेकर, रथ, प्रनब बर्धन और मिन्हास) ने विभिन्न अध्ययनों द्वारा स्पष्ट सकेत किया कि विकास का लाभ निर्धनों तक पहुंचा है ।