वित्तीय नीति: वित्तीय नीति के सात मुख्य उद्देश्य | Read this article in Hindi to learn about the seven main objectives of fiscal policy for developing economies. The objectives are:- 1. पूर्ण रोजगार (Full Employment) 2. कीमत स्थायित्व (Price Stability) 3. आर्थिक वृद्धि के दर को त्वरित करना (To Accelerate the Rate of Economic Growth) 4. साधनों का अनुकूलतम निर्धारण (Optimum Allocation of Resources)  and a Few Others.

विकसित अर्थव्यवस्थाओं में राजकोषीय नीति का उद्देश्य पूर्ण रोजगार की स्थिति और आर्थिक स्थायित्व को कायम रखना और वृद्धि दर को स्थायी करना है । किसी अल्प विकसित अर्थव्यवस्था के लिये राजकोषीय नीति का मुख्य कार्य पूंजी निर्माण और निवेश के दर को त्वरित करना है ।

”राजकोषीय नीति मुख्यत: समग्र मांग को नियन्त्रित करने का लक्ष्य रखती है और निजी उद्यम के लिये इसका परम्परागत क्षेत्र-साधनों का वैकल्पिक प्रयोगों में निर्धारण छोड़ती है ।” -आर्थर स्मिथीज

इसलिये अल्प विकसित देशों में राजकोषीय नीति के उद्देश्य उन्नत देशों से भिन्न है । किसी विकासशील देश में जहां मौद्रिक नीति अकेले में, अल्प विकसित मुद्रा और पूंजी बाजारों के कारण प्रभावी नहीं हो सकती वहां राजकोषीय नीति और मौद्रिक नीति विकास दर बढ़ाने तथा अर्थव्यवस्था में स्थायित्व लाने में महत्त्वपूर्ण एवं व्यापक भूमिका निभा सकती है ।

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“वित्तीय योजना के कार्यान्वयन तथा वास्तविक और धन के सन्दर्भ में सन्तुलनों की प्राप्ति को स्पष्टतया अधिकतर राजकोषीय उपायों पर निर्भर करना पड़ेगा ।” -राजा जे. चेल्लिया

उपरोक्त परिचर्चा के आधार पर हम किसी विकासशील अर्थव्यवस्था में राजकोषीय नीति के उद्देश्यों को निम्नलिखित अनुसार स्पष्ट कर सकते हैं:

Objective # 1. पूर्ण रोजगार (Full Employment):

लरनर ने पूर्ण रोजगार के महत्व का वर्णन करते हुये कहा है- ”पूर्ण रोजगार के अत्यधिक लाभ हैं । पूर्ण रोजगार व्यक्तिगत सुरक्षा प्रदान करता है, सुरक्षा प्रगति का संवर्धन करती है । पूर्ण-रोजगार मानवीय प्रतिष्ठा में योगदान करता है, गैर प्रकार्यात्मक विवेक को दुर्बल बनाता है, यह प्रजातान्त्रिक समाज को समानाधिकारवाद (Fascism) तथा साम्प्रदायिकवाद (Communalism) से सुरक्षित करने के लिये आवश्यक है । यह युद्ध को रोक कर उदारवाद की भावना जागृत करने में सहायक है ।”

किसी विकासशील अर्थव्यवस्था में राजकोषीय नीति का सर्वप्रथम तथा आवश्यक कार्य पूर्ण रोजगार को प्राप्त करना और उसे कायम रखना है । ऐसे देशों में, यदि पूर्ण रोजगार की प्राप्ति नहीं भी होती, तो इसका मुख्य लक्ष्य बेरोजगारी दूर करना और लगभग पूर्ण रोजगार के समीप की स्थिति को प्राप्त करना होता है ।

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इसलिये बेरोजगारी और अल्प-रोजगारी कम करने इसलिये राज्य को सामाजिक एवं आर्थिक ऊपरिव्ययों पर पर्याप्त खर्च करना चाहिये । इन खर्चो से अधिक रोजगार के अवसर उत्पन्न होंगे और अर्थव्यवस्था की उत्पादक दक्षता बढ़ेगी । इस प्रकार, सार्वजनिक व्यय तथा सार्वजनिक क्षेत्र के निवेश को आधुनिक राज्य में विशेष भूमिका निभानी होती है ।

एक सुनियोजित निवेश न केवल आय, उत्पादन और रोजगार को बढ़ायेगा बल्कि गुणक प्रक्रिया द्वारा प्रभावपूर्ण मांग को भी बढ़ायेगा और अर्थव्यवस्था स्वयं पूर्ण रोजगार की ओर अग्रसर होगी ।

केन्ज़ ने किसी अर्थव्यवस्था में पूर्ण रोजगार की प्राप्ति के लिये निम्नलिखित सुझाव दिये है:

(क) अत्यधिक क्रय शक्ति को अधिकार में लेना और निजी व्यय को नियन्त्रित करना,

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(ख) निजी निवेश में कमी की सार्वजनिक निवेश द्वारा क्षतिपूर्ति करना,

(ग) अधिक-से-अधिक निजी उद्यमियों को आकर्षित करने के लिये सस्ती मुद्रा नीति अथवा ब्याज की कम दर ।

Objective # 2. कीमत स्थायित्व (Price Stability):

इस बात पर सामान्य सहमति है कि आर्थिक वृद्धि और स्थायित्व अल्प विकसित देशों द्वारा खोज किये जाने वाले संयुक्त उद्देश्य हैं, परन्तु इसका अर्थ कीमत स्तर की पूर्ण स्थिरता नहीं है । किसी विकासशील देश में, आर्थिक अस्थायित्व स्फीति के रूप में प्रकट होता है ।

इसलिये, विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में स्फीति एक स्थायी दृश्य है क्योंकि सार्वजनिक व्यय की बढ़ती हुई प्रवृत्ति के कारण कीमतें बढ़ती रहती हैं । आय में वृद्धि के कारण, कुल मांग कुल पूर्ति से बढ़ जाती है । पूंजी वस्तुएं और उपभोक्ता वस्तुएं बढ़ती हुई आय के साथ नहीं चल पातीं । फलत: स्फीतिकारी अन्तराल आता है ।

मांग बढ़ने से उत्पन्न कीमत वृद्धि लागत धक्के द्वारा प्रबलित स्फीति अन्तराल को और भी विस्तृत कर देती है । कीमतों में वृद्धि अधिक वेतनों के लिये मांग को जन्म देती है, जो पुन: वेतन-कीमत वृद्धि को और बढ़ाता है । यदि इस स्थिति को प्रभावी ढंग से नियन्त्रित नहीं किया जाता तो यह अत्यधिक स्फीति में परिवर्तित हो सकता है ।

संक्षेप में, राजकोषीय नीति को बाधाओं एवं संरचनात्मक कठोरताओं को दूर करने के प्रयत्न करने चाहिये जो अर्थव्यवस्था के भिन्न क्षेत्रों में असन्तुलनों को जन्म देते हैं । इसके अतिरिक्त, इसे आवश्यक वस्तुओं पर भौतिक नियन्त्रण को दृढ़ करना चाहिये और अर्थव्यवस्था में रियायतें, आर्थिक सहायताएं और सुरक्षा देनी चाहिये ।

Objective # 3. आर्थिक वृद्धि के दर को त्वरित करना (To Accelerate the Rate of Economic Growth):

मुख्यत: किसी विकासशील देश में राजकोषीय नीति को आर्थिक वृद्धि के त्वरित दर की प्राप्ति का लक्ष्य रखना चाहिये । परन्तु अर्थव्यवस्था में आर्थिक वृद्धि की उच्च दर की प्राप्ति एवं सम्भाल स्थायित्व के बिना सम्भव नहीं है ।

इसलिये, राजकोषीय उपायों जैसे कराधान, सार्वजनिक ऋण और घाटे की वित्त व्यवस्था आदि का उचित प्रयोग किया जाना चाहिये ताकि उत्पादन उपभोग और वितरण पर विपरीत प्रभाव न पड़े । इससे समग्र अर्थव्यवस्था का विकास करना चाहिये जिससे राष्ट्रीय आय और प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि को सहायता मिलेगी ।

इस सम्बन्ध में उरसुला हिक्स के विचारों का वर्णन महत्व रखता है जिनमें कहा गया है कि- “उच्च राजकोषीय नीति सरकार के एक सुस्थापित आर्थिक कार्य के रूप में विकसित हो चुकी है, प्रत्येक देश स्थायित्व और विकास के जुड़वा लक्ष्यों की खोज में अपने सार्वजनिक वित्त को काम में लाने के लिये उतावला है परन्तु उनका सापेक्ष महत्व एक देश से दूसरे देश में बहुत भिन्नता से जाना जाता है । विकास का एक सुस्थिर दर होने वाले उतार-चढ़ाव की हिंसा को कम कर देगा, एक सफल पूर्ण रोजगार नीति एक ऐसा वातावरण उपलब्ध करवायेगी जो विकास के लिये अनुकूल है ।”

Objective # 4. साधनों का अनुकूलतम निर्धारण (Optimum Allocation of Resources):

राजकोषीय उपाय जैसे कराधान और सार्वजनिक व्यय कार्यक्रम विभिन्न व्यवसायों और क्षेत्रों में साधनों के आबंटन को बहुत प्रभावित करते हैं क्योंकि यह सत्य है कि अल्प विकसित देशों में राष्ट्रीय आय और प्रति व्यक्ति आय बहुत कम होती है ।

इसलिये विकास योजनाओं के लिये वित्तीय प्रबन्ध सरकार के लिये गम्भीर संकट उत्पन्न करता है । अर्थव्यवस्था को त्वरित करने के लिये सरकार राजकोषीय उपायों द्वारा सामाजिक ढांचे को आगे बढ़ा सकती है । सार्वजनिक व्यय, वित्तीय सहायताएं तथा प्रोत्साहन साधनों के आबंटन को वांछित दिशाओं को ओर अनुकूल प्रभावित कर सकते हैं । कर छूट तथा कर रियायतें साधनों को अनुकूल उद्योगों की ओर आकर्षित करने में सहायता कर सकती हैं ।

आर. एन. त्रिपाठी बचत अनुपात को बढ़ाने के लिये निम्नलिखित सुझाव देते हैं जो विकासात्मक योजनाओं के लिये वांछित वित्त उपलब्ध करते हैं:

(i) स्पष्ट भौतिक नियन्त्रण,

(ii) वर्तमान करों की दर को बढ़ाना,

(iii) नये करों का शुरू करना,

(iv) गैर-स्फीतिकारी स्वरूप का सार्वजनिक ऋण,

(v) घाटे की वित्त व्यवस्था ।

Objective # 5. आय और धन का उचित वितरण (Equitable Distribution of Income and Wealth):

बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था में आय और धन के न्यायसंगत वितरण के महत्व पर बल देना व्यर्थ है । विकास के आरम्भिक सोपानों पर धन की असमानता प्राय: बनी रहती है तथा धन कुछ ही हाथों में जमा हो जाता है ।

यह इसलिये भी है क्योंकि निजी स्थायित्व अर्थव्यवस्था के सम्पूर्ण ढांचे पर प्रभुत्व रखता है । इसके अतिरिक्त अत्यधिक असमानताएं राजनीतिक और सामाजिक असन्तोष को जन्म देती हैं जिससे आर्थिक अस्थिरता उत्पन्न होती है ।

यह सत्य है कि आय और धन के वितरण में अत्यधिक असमानताएं आर्थिक विकास के लिये तब तक घातक होती हैं जब तक वे पोषण, स्वास्थ्य तथा लोगों के जीवन स्तर को घटाती हैं । इसके लिये सरकार को उचित राजकोषीय नीति का प्रबन्ध करना चाहिए जिससे समाज के विभिन्न वर्गों की आय के बीच का अन्तराल भरा जा सके ।

असमानताओं को कम करने के लिये तथा वितरणात्मक न्याय करने के लिये सरकार को उन उत्पादक दिशाओं में निवेश करना चाहिये जो कम आय वर्ग के लोगों को लाभ पहुंचाती हैं और उनकी उत्पादकता और प्रौद्योगिकी को बढ़ाने में सहायक हैं ।

Objective # 6. आर्थिक स्थिरता (Economic Stability):

राजकोषीय उपाय एक बड़ी सीमा तक, लघुकालिक अन्तर्राष्ट्रीय चक्रीय उतार-चढ़ाव के सम्मुख आर्थिक स्थायित्व को बढ़ाते हैं यह उतार-चढ़ाव व्यापार की शर्तों में विविधता का कारण बनते हैं जो विकसित देशों के लिये अति अनुकूल और विकासशील देशों के लिये प्रतिकूल होती हैं ।

अत: आर्थिक स्थायित्व लाने के प्रयोजन से, राजकोषीय ढंगों को बजटीय प्रणाली में निर्मित लचीलापन को सम्मिलित करना चाहिए ताकि सरकार की आय और व्यय, राष्ट्र की वृद्धि अथवा गिरावट पर अपने आप क्षतिपूरक प्रभाव उपलब्ध कर सके । इसलिये राजकोषीय नीति आन्तरिक और बाहरी शक्तियों के सम्मुख आर्थिक स्थायित्व बनाये रखने में प्रमुख भूमिका निभाती है ।

बाहरी शक्तियों द्वारा निर्मित अस्थायित्व का सुधार सामूहिक राजकोषीय नीति की अपेक्षा एक ऐसी नीति द्वारा किया जाता है जो ‘सीमा शुल्क नीति’ के रूप में प्रसिद्ध है । संक्षेप में, राजकोषीय नीति का अवलोकन एक विस्तृत परिदृश्य में अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों के सन्तुलित विकास को ध्यान में रखते हुये किया जाना चाहिये ।

अन्तर्राष्ट्रीय चक्रीय उतार-चढ़ाव से छुटकारा पाने के लिये, मन्दी में घाटे के बजटन व चक्रीय-विरुद्ध और स्फीति के दौरान अतिरेक बजटन की आवश्यकता है । अन्य विकृत शक्तियों का सामना क्षतिपूरक कराधान, सार्वजनिक व्यय, सार्वजनिक ऋण, बजटीय लोच और ऋण प्रबन्धन द्वारा किया जा सकता है ।

Objective # 7. पूंजी निर्माण और आर्थिक विकास (Capital Formation and Economic Growth):

एक देश में किसी भी विकासात्मक गतिविधि में पूंजी को केन्द्रीय स्थान प्राप्त होता है और पूंजी निर्माण के उच्चतम सम्भव दर की प्राप्ति के लिये एक अत्यावश्यक उपकरण के रूप में राजकोषीय नीति को अपनाया जा सकता है ।

एक नई विकासशील अर्थव्यवस्था में पूंजी निर्माण के उच्चतम सम्भव दर की प्राप्ति के लिये एक अत्यावश्यक उपकरण के रूप में राजकोषीय नीति को अपनाया जा सकता है । एक नई विकासशील अर्थव्यवस्था में पूंजी के अभाव के कारण ‘निर्धनता का कुचक्र’ विद्यमान होता है ।

अत: इस कुचक्र को तोड़ने के लिये सन्तुलित विकास की आवश्यकता होती है जो केवल पूंजी निर्माण की उच्च दर से ही सम्भव है । एक बार देश के पिछड़ेपन की पकड़ से बाहर आ जाने पर निवेश तीव्रता प्राप्त करता है और पूंजी निर्माण प्रोत्साहित होता है ।

एक संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार- “एक राकेट अथवा चन्द्र यान के लिये आवश्यक है कि धरती के गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र से बाहर निकलने और स्वतन्त्र उड़ान वाली खगोलीय वस्तु बनने के लिये निश्चित रूप में स्थापित ‘उड़ान की गति’ प्राप्त करें ।”

प्रो. राजा जे. चेल्लिया प्रस्तावित करते हैं कि तीव्र आर्थिक विकास की प्राप्ति के लिये राजकोषीय नीति को निम्नलिखित की प्राप्ति का लक्ष्य रखना चाहिये:

(i) उपभोग को नियन्त्रित करके आय से बचत का अनुपात बढ़ाना,

(ii) निवेश की दर बढ़ाना,

(iii) व्यय के बहाव के, उत्पादन मार्गों की ओर प्रोत्साहित करना,

(iv) आय और धन की स्पष्ट असमानताओं को कम करना ।

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