वित्तीय नीति: अर्थ और केनेस के विचार | Read this article in Hindi to learn about:- 1. राजकोषीय नीति का अर्थ (Meaning of Fiscal Policy) 2. राजकोषीय नीति पर केन्ज़ के विचार (Keynes’s Views on Fiscal Policy) 3. राजकोषीय-मौद्रिक मिश्रण (Fiscal-Monetary Mix).

राजकोषीय नीति का अर्थ (Meaning of Fiscal Policy):

सरल शब्दों में, राजकोषीय नीति का सम्बन्ध सरकारी व्यय के समग्र प्रभावों और आय पर कराधान, उत्पादन और रोजगार से होता है । दूसरे शब्दों में, इसका सम्बन्ध उन उपकरणों से है जिनके द्वारा एक सरकार कुछ तथ्यों को ध्यान में रखते हुये अपनी अर्थव्यवस्था के आर्थिक मसलों को नियमित अथवा संशोधित करने का प्रयत्न करती है ।

पुन: यह कहा जा सकता है कि राजकोषीय नीति सरकार के आर्थिक उपायों का एक पैकेज हैं जो इसके सार्वजनिक व्यय, सार्वजनिक आय और सार्वजनिक ऋण अथवा सार्वजनिक साख से सम्बन्धित है । यह अर्थव्यवस्था में कुल उपभोग और निवेश व्यय के स्तर को प्रभावित करके साधन-उपभोग के कुल मांग स्तर पर प्रभाव की रूपरेखा बनाता है ।

इसके अतिरिक्त यह अर्थव्यवस्था के उतार-चढ़ाव के नियन्त्रण के उपाय भी प्रस्तावित करता है जो हिंसक होकर समाज-आर्थिक संरचना में बहुत बड़ी उथल-पुथल का कारण बन सकते हैं ।

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राजकोषीय नीति को विभिन्न अर्थशास्त्रियों द्वारा निम्नलिखित ढंग से परिभाषित किया गया है:

”राजकोषीय नीति उस ढंग से सम्बन्धित है जिसमें सार्वजनिक वित्त के सभी भिन्न तत्वों को मुख्यत: अपने ही कर्त्तव्यों को पूरा करने से सम्बन्धित होते हुये (क्योंकि किसी कर का प्रथम कर्त्तव्य आय बढ़ाना है), सांझे रूप में आर्थिक नीति के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये तैयार किया जा सकता है ।” –उरसुला हिक्स

“गतिविधि के नमूने और स्तर को प्रभावित करने के लिये सरकारी व्यय और कराधान में किया गया परिवर्तन ।” -हार्वे तथा जॉनसन

“हम राजकोषीय नीति को कीमत स्तर में परिवर्तित करने के किसी अभिकल्प, सरकारी व्यय का संघटन अथवा समय अथवा बोझ के परिवर्तन के लिये, कर भुगतानों की बारम्बारता के ढांचे में परिवर्तन को सम्मिलित करने के लिये परिभाषित करते हैं ।” –जी. के. शॉ

राजकोषीय नीति पर केन्ज़ के विचार (Keynes’s Views on Fiscal Policy):

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राजकोषीय नीति का विकास जे. एम. केन्ज़ के महान् प्रभाव के अधीन किया गया । केन्ज़ के पश्चात् राजकोषीय नीति की लोकप्रियता इसलिये बढ़ गई क्योंकि मौद्रिक नीति, बेरोजगारी और मन्दी को विशेषतया तीस के दशक के रूप में दूर करने के उपकरण के रूप में प्रभावी सिद्ध नहीं हुई ।

इसलिये, आर्थिक स्थायित्व और नियन्त्रण के रूप में राजकोषीय नीति के महत्व पर बल सबसे पहले उसके सुप्रसिद्ध कार्य “The General Theory-Employment, Interest and Money” में दिया गया ।

मुख्यता केन्ज़ ने, परम्परावादी राजकोषीय निष्क्रियता की नीति से मौलिक अलगाव का रास्ता अपनाया । उसका विचार था कि अर्थव्यवस्था में रोजगार एवं आय का उच्च स्तरीय स्थायित्व लाने के लिये सरकार को राजकोषीय उपकरण के साथ हस्तक्षेप करना चाहिये ।

तथापि केन्ज़ निजी निवेश और उद्यम को हतोत्साहित नहीं करना चाहते थे । वे चाहते थे कि राज्य ‘सन्तुलनकारी भूमिका’ निभाये और सार्वजनिक व्यय द्वारा निजी निवेशकों की गतिविधियों की सहायता करें ।

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केन्ज़ ने प्रस्तावित किया कि राजकोषीय नीति में प्रगतिशील कराधान, बढ़ा हुआ सार्वजनिक व्यय और घाटे की वित्त व्यवस्था सम्मिलित होनी चाहिये । वह प्रगतिशील कर नीति के पक्ष में थे क्योंकि इसके उच्च उपभोग के पक्ष में और उच्च बचत वर्गों के विरुद्ध पुनर्वितरणात्मक प्रभाव है जिससे उपभोग की प्रवृत्ति बढ़ती है ।

व्यापारिक करों के सम्बन्ध में, केन्ज़ इनमें सुधारों के पक्ष में थे । वह इसमें नये निजी निवेश शामिल करना और व्यापारिक बचतों को हतोत्साहित करना चाहते थे । केन्ज़ ने वस्तु और सेवाओं की वर्तमान खरीद पर अधिक सार्वजनिक व्यय का दृढ़तापूर्वक समर्थन किया ।

इसके अतिरिक्त वित्तीय सहायताओं और सामाजिक बीमा कार्यक्रम भी प्रस्तावित किये । उसने आय और रोजगार के स्तर पर छोटे सार्वजनिक व्यय के विस्तारवादी प्रभावों का भी समर्थन किया क्योंकि इनका गुणक और त्वरित (Acceleration) प्रभाव था ।

विभिन्न समष्टि तत्व जैसे निवेश, आय, उपभोग और बचतें, व्यापार चक्रों के यन्त्रवाद और राजकोषीय नीतियों की भूमिका को अधिक स्पष्टता पूर्वक देखने के योग्य बनाते हैं ।

परम्परावादी अर्थशास्त्रियों के विपरीत, केन्ज़ ने अनुत्पादक सार्वजनिक परियोजनाओं को आरम्भ करने पर बल दिया जैसे गड्‌ढे खोदना और पत्ते बटोरना आदि । इन सब का मुख्य उद्देश्य आय और रोजगार का उच्च स्तर प्राप्त करना था ।

राजकोषीय-मौद्रिक मिश्रण (Fiscal-Monetary Mix):

विभिन्न राजकोषीय उपकरणों में से चयन करने के अतिरिक्त, राजकोषीय एवं मौद्रिक नीतियों के उचित मिश्रण का चयन करना भी आवश्यक है । इन उपायों का प्रयोग कुल मांग के स्तर को नियन्त्रित करने के लिये किया जा सकता है परन्तु वह अनेक प्रकार से भिन्न है ।

मौद्रिक नीति मुख्यत: व्यापारिक निवेश और गृह व्यवस्था को प्रभावित करती है जबकि राजकोषीय उपाय विस्तृत रूप से मांग को प्रभावित करते हैं जिसमें सरकारी क्रय, उपभोग और निवेश सम्मिलित है । अत: नीतियों का उचित मिश्रण अर्थव्यवस्था की संरचनात्मक स्थिति पर निर्भर करता है ।

दोनों नीतियों में समय की भिन्नता है और दोनों की अपनी-अपनी सीमाएं हैं । अत्यधिक मौद्रिक प्रतिबन्ध मुद्रा बाजार को अस्थिर कर सकते हैं तथा मौद्रिक सुगमता का कड़ी मन्दी के दौरान सीमित मूल्य होगा जब साख की मांग धीमी है । अन्य सीमाएं राजकोषीय उपायों पर लागू होती हैं ताकि दोनों के बीच उचित सन्तुलन प्राप्त किया जा सके ।

इसलिये दोनों मार्गों के बीच सीधे सम्बन्ध हैं । राजकोषीय उत्तोलन का प्रभाव इस बात पर निर्भर करता है कि क्या इसको सहायक मौद्रिक नीति का साथ प्राप्त है या नहीं, बिल्कुल वैसे जैसे राजकोषीय प्रतिबन्ध का प्रभावीपन मौद्रिक सुगमता कायम रखने से कम कर दिया जाता है ।

क्योंकि घाटे अथवा अतिरेक नीतियों में सार्वजनिक ऋण के स्तर में परिवर्तन सम्मिलित होते हैं, परिणामित ऋण लेन-देन का द्रवता ढांचे और मुद्रा पूर्ति पर सीधा प्रभाव होता है तथा इसलिये यह मौद्रिक नीति के क्षेत्र से निकटता से सम्बन्धित है । अन्त में, उचित राजकोषीय-मौद्रिक मिश्रण, आर्थिक वृद्धि और अर्थव्यवस्था के बाहरी भुगतानों की स्थिति के दीर्घकालिक विचारों से प्रभावित होता है ।

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