विकासशील देशों में वित्तीय नीति की भूमिका | Read this article in Hindi to learn about the role of fiscal policy in developing countries.

राजकोषीय नीति के विभिन्न उपकरण जैसे बजट, कराधान, सार्वजनिक व्यय, सार्वजनिक कार्य और सार्वजनिक ऋण अल्प विकसित अर्थव्यवस्थाओं में स्फीतिकारी और अवस्फीतिकारी शक्तियों के बिना पूर्ण रोजगार बनाये रखने में बहुत सहायक होते हैं ।

स्पष्टतया, कराधान और सार्वजनिक व्यय, सार्वजनिक प्राधिकरण के हाथों में एक शक्तिशाली उपकरण है जो प्रयोज्य आय, उपभोग और निवेश में परिवर्तनों को बहुत प्रभावित करता । एक मन्दी विरोधी कर नीति व्यक्ति की प्रयोज्य आय को बढ़ाती है तथा उपभोग और निवेश का संवर्धन करती है ।

जिसका अन्तिम परिणाम व्यय गतिविधियों में वृद्धि होगी जो बदले में लोगों की प्रभावपूर्ण मांग को बढ़ायेगा । इसके विपरीत, स्फीति के दौरान स्फीति विरोधी नीति के उपाय स्फीतिकारी अन्तराल को भरने में सहायक होते हैं । स्फीति के दौरान ऐसे उपाय अपनाये जाते हैं जो अत्यधिक क्रय-शक्ति और उपभोक्ता मांग को समाप्त करते हैं । कर-भार को इस प्रकार बढ़ाया जाता है कि यह नये निवेश को अवरुद्ध न कर सके ।

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कराधान की भान्ति, सार्वजनिक व्यय का भी आय, रोजगार और उत्पादन पर बहुमुखी प्रभाव होता है । स्फीति के दौरान, सरकारी व्यय को कम करना सार्वजनिक व्यय नीति का लक्ष्य होना चाहिये ।

अनुत्पादक दिशाओं में घटाव, स्फीतिकारी दबावों को नियन्त्रित करने में बहुत सफल प्रमाणित होता है । जबकि मन्दी के दौरान सार्वजनिक व्यय अर्थव्यवस्था को स्थिरता की दलदल से ऊपर उठाने में सहायक होता है ।

सार्वजनिक व्यय की अतिरिक्त खुराकें तथा उनके साथ गुणक और त्वरण प्रभाव निम्न निजी व्यय के दबावकारी प्रभाव को निष्क्रिय कर देंगे और पुनरुत्थान मार्ग को प्रोत्साहित करेंगे । इसलिये, क्षतिपूरक व्यय और नया निवेश (Pump Priming) दो उपकरण हैं जो स्फीति और मन्दी के समय के दौरान बहुत प्रभावी होते हैं ।

तथापि, केन्ज़ विभिन्न सार्वजनिक कार्यों जैसे सड़कें, रेल मार्ग, स्कूल, पार्क, भवन, सिंचाई, नहरें, दवाई पर व्यय में दृढ़ विश्वास रखते थे तथा भत्ते व भुगतानों आदि के स्थानान्तरण जैसे सार्वजनिक ऋण पर ब्याज, वित्तीय सहायता, पैंशन, राहत भुगतान, बेरोजगारी बीमा और अन्य सामाजिक सुरक्षा लाभ आदि के पक्ष में थे ।

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अल्प विकसित देशों अथवा विकासशील देशों के आर्थिक विकास और स्थायित्व के संवर्धन के साधन के रूप में राजकोषीय नीति महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है ।

जैसा कि नीचे वर्णन किया गया है:

Role # 1. संसाधनों की गतिशीलता के लिये (To Mobiles Resources):

अल्प विकसित देशों में राजकोषीय नीति का परम उद्देश्य निजी और सार्वजनिक क्षेत्रों में संसाधनों को गतिशील करना है । बचतों के निम्न दर के कारण, प्राय: राष्ट्रीय आय और प्रति व्यक्ति आय भी बहुत नीची होती है ।

इसलिये, ऐसे देशों की सरकारें अनिवार्य बचतों द्वारा निवेश के दर और पूंजी निर्माण को बढ़ाती हैं जिससे आर्थिक विकास का दर तीव्र होता है । यह सार्वजनिक क्षेत्र में नियोजित निवेश की नीति भी आरम्भ करती है ।

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निजी निवेशों के निवेश बढ़ाने पर अनुकूल प्रभाव होते हैं, दिखावे के उपभोग को कम करना और अनुत्पादक दिशाओं में निवेश को रोकना अर्थव्यवस्था में स्फीतिकारी प्रवृत्ति को रोकने में सहायक होता है ।

इसके अतिरिक्त यह देश विदेशी पूंजी की समस्या भी अनुभव करते हैं । अत: उपचार वृद्धितात्मक बचत अनुपात, सार्वजनिक वित्त द्वारा बचत की सीमान्त प्रवृत्ति, कराधान और अनिवार्य ऋण की सहायता में निहित है ।

कुछ सीमा तक प्रगतिशील कराधान, विलासतापूर्ण आयातों पर भारी शुल्क, विलासतापूर्ण अथवा अर्द्ध विलासतापूर्ण वस्तुओं के उत्पादन का निषेध अन्य उपाय है जो साधनों को गतिशील बनाने में सहायक होते हैं ।

इसलिये अप्रत्याशित लाभों, अनर्जित आयों पर पूंजी लाभों पर, व्यय और भू-सम्पत्ति आदि पर प्रगतिशील कराधान धन के समान वितरण में बहुत सहायक सिद्ध हो सकता है । सार्वजनिक उद्यमों और सार्वजनिक ऋणों से आय सदा अपर्याप्त होती है ।

इसी प्रकार, घाटे की वित्त व्यवस्था स्फीतिकारी प्रवृत्तियों की ओर ले जाती है । इस प्रकार इसका क्षेत्र सीमित हो जाता है । फिर भी, विकास गतिविधियों के वित्तीय प्रबन्ध हेतु आय बढ़ाने के लिये कराधान एक अन्य सशक्त उपकरण है परन्तु इसकी अपनी समस्याएं और कठिनाइयां हैं ।

Role # 2. वृद्धि के दर को त्वरित करना (To Accelerate the Rate of Growth):

राजकोषीय नीति सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्रों में निवेश दर को बढ़ा कर आर्थिक विकास के दर को बढ़ाती है । इसलिये राजकोषीय नीति के विभिन्न उपकरणों जैसे कराधान, सार्वजनिक ऋण, घाटे की वित्त व्यवस्था और सार्वजनिक उद्यमों के अतिरेकों का संयुक्त रूप में प्रयोग किया जाना चाहिये ताकि वह उपभोग उत्पादन और धन के वितरण पर विपरीत प्रभाव न डाल सकें ।

अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में सन्तुलित विकास प्राप्त करने के लिये, जे. चेल्लिया के अनुसार उन्नति की अत्यधिक फलदायक रेखा कृषि और उद्योग के सन्तुलित विकास मार्ग के पास ही स्थित है ।

संक्षेप में, मौलिक एवं पूंजी वस्तुओं के उद्योगों में निवेश और सामाजिक संरचना में निवेश अल्प विकसित अर्थव्यवस्था में विकास के स्तम्भ होते हैं । अत: अर्थव्यवस्था के सर्वपक्षीय विकास के लिये ऐसे निवेशों को प्राथमिकता दी जानी चाहिये ।

Role # 3. सामाजिक रूप में अनुकूलतम निवेश का प्रोत्साहन (To Encourage Socially Optimal Investment):

अल्प विकसित देशों में, राजकोषीय नीति उन उत्पादक मार्गों में निवेश को उत्साहित करती है जिन्हें सामाजिक एवं आर्थिक रूप में अभीष्ट माना जाता है । इसका अर्थ यह है कि अनुकूलतम निवेश वह है जो आर्थिक विकास को बढ़ाते हुये व्यर्थतापूर्ण एवं अनुत्पादक निवेश की उपेक्षा करते हैं ।

संक्षेप में, राजकोषीय नीति का लक्ष्य सामाजिक और आर्थिक संरचना पर निवेश होना चाहिये जैसे यातायात, संचार, तकनीकी प्रशिक्षण, शिक्षा, स्वास्थ्य और भूमि संरक्षण आदि । इनसे उत्पादकता बढ़ेगी और बाजार विस्तृत होगा और बाहरी मितव्ययताएं प्राप्त होंगी । साथ ही, अनुत्पादक निवेश को रोक कर उत्पादक एवं सामाजिक रूप में वांछनीय दिशाओं की ओर मोड़ दिया जाता है ।

Role # 4. निवेश और पूंजी निर्माण के लिये प्रेरणा (Inducement to Investment and Capital Formation):

राजकोषीय नीति अल्प विकसित देशों में एक ओर सार्वजनिक उपयोगिता वाले युक्तियुक्त उद्योगों में निवेश करके महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है और दूसरी ओर नये उद्योगों को सहायता देकर निजी क्षेत्र में निवेश को प्रेरित करती है और उत्पादन की नई तकनीकों को आरम्भ करती है ।

अत: सामाजिक एवं आर्थिक ऊपरी खर्चे सामाजिक सीमान्त उत्पादकता बढ़ाने में सहायक होते हैं और जिससे निजी निवेश और पूंजी निर्माण की सीमान्त उत्पादकता बढ़ती है ।

जहां निवेश के अनुकूलतम नमूने आर्थिक विकास के फलदायक परिणाम देने में बहुत सहायक हो सकते हैं क्योंकि आर्थिक विकास सबसे अधिक गतिशील प्रक्रिया है जिसमें जनसंख्या के आकार और गुणवत्ता में अन्तर, रुचियां, ज्ञान और सामाजिक संस्थाएं सम्मिलित हैं ।

सभी कारकों को ध्यान में रखते हुये यदि सामाजिक रूप में अभीष्ट परियोजनाओं में सामाजिक सीमान्त उत्पादकता कम है तो ऐसी राजकोषीय नीति का निर्माण किया जाये जो सामाजिक सीमान्त उत्पादकता को बढ़ाये और साधनों को उन उत्पादक मार्गों में लगाये जहां सामाजिक सीमान्त उत्पादकता उच्चतम है ।

Role # 5. अधिक रोजगार अवसर उपलब्ध करने के लिये (To Provide More Employment Opportunities):

क्योंकि विकासशील देशों में जनसंख्या बहुत तीव्रता से बढ़ती है, ऐसे देशों में राजकोषीय नीति का लक्ष्य व्यय की उच्च खुराकें उपलब्ध करना होता है, जो रोजगार के अवसर बढ़ाने और अल्प रोजगार तथा अदृश्य बेरोजगारी को विशेषतया ग्रामीण क्षेत्रों में कम करने में सहायक है ।

राज्य को सामाजिक विकास कार्यक्रम आरम्भ करने के प्रयत्न करने चाहिये जिसमें अधिक श्रम और प्रति व्यक्ति कम पूंजी सम्मिलित हो । इसके अतिरिक्त, कर रियायतों, कर छूट, सस्ते ऋण और वित्तीय सहायताओं आदि द्वारा निजी उद्यमों को प्रोत्साहित करने के लिये कदम उठाये जाने चाहिये ।

यह प्रक्रिया घरेलू उद्योगों को उत्साहित करेगी तथा न केवल बेरोजगारी को कम करने में सहायक होगी बल्कि रोजगार के नये अवसर उत्पन्न करने में भी सहायता करेगी । इसके अतिरिक्त, राज्य को चाहिये कि परिवार नियोजन पर अधिक बल देते हुये अधिक सामाजिक सुविधाएं उपलब्ध करें । यदि जनसंख्या को नियन्त्रित नहीं किया जाता तो रोजगार के अवसरों को बढ़ाना व्यर्थ है ।

Role # 6. आर्थिक स्थायित्व का संवर्धन (Promotion of Economic Stability):

विकासशील देशों में राजकोषीय नीति द्वारा निभायी गई एक अन्य भूमिका न्यायसंगत आन्तरिक और बाहरी आर्थिक स्थायित्व कायम रखना है । सामान्यता, एक विकासशील देश अन्तर्राष्ट्रीय चाक्रिक उतार-चढ़ाव के प्रयत्नों के लिये अधोगामी होता है ।

ऐसे देश मुख्यत: आरम्भिक उत्पादों का निर्यात करते हैं और निर्मित तथा पूंजी वस्तुओं का आयात करते हैं । तथापि, अन्तर्राष्ट्रीय चाक्रिक उतार-चढ़ाव के प्रयत्नों को न्यूनतम बनाने के लिये राजकोषीय नीति को दीर्घकालिक परिदृश्य से देखा जाना चाहिये ।

इसे अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों के विविधीकरण का लक्ष्य रखना चाहिये । सन्तुलित विकास लाने तथा चाक्रिक उतार-चढ़ाव को कम करने के लिये, मन्दी के दौरान घाटे के बजटन की चाक्रिक विरोधी राजकोषीय नीति और स्फीति के दौरान अतिरेक बजटन अत्योचित उपाय है ।

मन्दी में, घाटे की वित्त व्यवस्था द्वारा सार्वजनिक कार्यक्रम फलदायक परिणाम उपलब्ध करते हैं । निःसन्देह, अतिरिक्त क्रय शक्ति डालने से स्फीतिकारी दबाव बढ़ेंगे जिन्हें प्रतिशोधक उपायों द्वारा नियन्त्रित किया जा सकता है । इसके विपरीत, ऐसी नीति की उचित मौद्रिक उपायों द्वारा सहायता की जानी चाहिये ।

Role # 7. स्फीतिकारी प्रवृत्तियों को रोकने के लिये (To Check Inflationary Tendencies):

स्फीतिकारी प्रवृत्तियां विकासशील देशों की अनेक समस्याओं में से एक है, क्योंकि यह देश विकास गतिविधियों के लिये निवेश की भारी खुराकें डालते हैं । इस प्रकार, वास्तविक साधनों की मांग और पूर्ति का असन्तुलन सदा बना रहता है ।

क्रय शक्ति की अतिरिक्त खुराक से मांग बढ़ती है परन्तु संरचनात्मक कठोरताओं के कारण पूर्ति लोचहीन रहती है, बाजार अशुद्धियां तथा अन्य अवरोध अर्थव्यवस्था को स्फीतिकारी स्थितियों की ओर ले जाते हैं ।

लोगों की आय बढ़ने के कारण कुल मांग कुल पूर्ति से बढ़ जाती है । पूंजी वस्तुएं एवं उपभोग वस्तुएं बढ़ती आय के साथ चलने में असमर्थ होती है । बढ़ती हुई कीमतों के कारण उच्च वेतनों की मांग बढ़ जाती है । किसी विकासशील देशों में हल्की सी स्फीति रोकी नहीं जा सकती और यह उत्पादन को प्रोत्साहित करने के लिये वांछनीय है, परन्तु अत्यधिक स्फीति अर्थव्यवस्था को बिगाड़ देती है ।

Role # 8. असमानता को कम करना (Reduction of Inequality):

क्योंकि अल्पविकसित देशों में आय और धन की असमानता अत्यधिक होती है, राजकोषीय नीति को असमानता कम करने की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी पड़ती है ।

आय और सम्पत्ति पर प्रगतिशील दरों पर करारोपण, समृद्ध वर्ग द्वारा उपभोग की जाने वाली वस्तुओं पर भारी कर लगाना, सामूहिक उपभोग वाली वस्तुओं का कर छूट अथवा कर रियायतें, राहत कार्यक्रमों पर सरकारी व्यय, लघु उद्योगों और कृषि फार्मों को आगतों (Inputs) की पूर्ति, निर्धन लोगों के लिये कम दरों पर आवश्यक वस्तुओं की व्यवस्था आदि कुछ ऐसे राजकोषीय उपाय हैं जिन्हें निर्धनता और समृद्धि के बीच के अन्तराल को कम करने के लिये प्रयुक्त किया जाता है ।

अत: राजकोषीय नीति की भूमिका ऐसी नीति बनाने में महत्ता प्राप्त कर लेती है जिससे आय की इन असमानताओं को दूर किया जा सके तथा दुरुपयोग होने वाले साधनों को आर्थिक विकास के लिये उत्पादक दिशाओं की ओर निर्देशित किया जा सके ।

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