वित्तीय नीति के शीर्ष 5 उपकरण | Top 5 Instruments of Fiscal Policy. Read this article in Hindi to learn about the top five instruments of fiscal policy. The instruments are:- 1. बजट (Budget) 2. कराधान (Taxation) 3. सार्वजनिक व्यय (Public Expenditure) 4. सार्वजनिक कार्य (Public Works) 5. सार्वजनिक ऋण (Public Debt).

अर्थव्यवस्था में स्फीतिकारी एवं अवस्फीतिकारी शक्तियों के बिना पूर्ण-रोजगार की स्थिति बनाये रखने में चक्रीय-विरुद्ध राजकोषीय नीति मुख्य स्थान रखती है ।

अत: विभिन्न उपकरण अथवा उपाय जो किसी अर्थव्यवस्था के आर्थिक स्थायित्व को प्रभावित करते हैं उनका वर्णन नीचे किया गया है:

Instrument # 1. बजट (Budget):

किसी अर्थव्यवस्था में उतार-चढ़ाव का अनुमान लगाने के लिये राष्ट्र का बजट एक लाभप्रद उपकरण है ।

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अर्थशास्त्रियों द्वारा विभिन्न बजटीय नियमों का निर्माण किया गया है जो मुख्यत: इस प्रकार जाने जाते हैं:

(1) वार्षिक सन्तुलित बजट,

(2) चक्रीय सन्तुलित बजट,

(3) पूर्णतया प्रबन्धित क्षतिपूरक बजट ।

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इनका संक्षिप्त वर्णन नीचे किया गया है:

 

(1) वार्षिक सन्तुलित बजट (Annual Balanced Budget):

परम्परावादी अर्थशास्त्रियों ने वार्षिक सन्तुलित बजट प्रस्तुत किया । उन्होंने सन् 1930 के गहरे संकट तक इसका सशक्त समर्थन किया तथापि इस नियम पर कुछ आपत्तियां की गई हैं ।

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डर्नबर्ग (Dernburg) ओर मैकडोगल (Mc Dougall) ने यह कहते हुये इस नियम से किनारा किया कि- ”स्फीति द्वारा परिणामित बढ़ती हुई कर आय सरकारी व्यय को बिल्कुल उस समय बढ़ा सकती है जब निजी अर्थव्यवस्था पर्याप्त साधनों की खोज में कठिन स्थिति में होती है, अत: यह विश्वास करना वास्तव में बहुत कठिन है कि व्यापारिक विश्वास को तथा-कथित दृढ़ राजकोषीय नीति से थोड़ा सा भी सहारा प्राप्त होगा ।”

(2) चक्रीय रूप में सन्तुलित बजट (Cyclically Balanced Budget):

चक्रीय सन्तुलित बजट को ”स्वीडिश बजट” कहा जाता है । ऐसे बजट का अर्थ समृद्ध काल में बजटीय अतिरेक और अतिरेक आय प्राप्तियों का सार्वजनिक ऋण निवृत्ति के लिये प्रयोग है ।

मन्दी काल के दौरान, घाटे वाले बजट इस प्रकार से तैयार किये जाते हैं कि स्फीति काल से पहले समय के दौरान के बजट अतिरेक घाटों से सन्तुलित किये जाते हैं । आय से अधिक सार्वजनिक व्यय की व्यवस्था सार्वजनिक ऋणों द्वारा की जाती है ।

चक्रीय सन्तुलित बजट व्यापारिक गतिविधि के स्तर को स्थायी कर सकता है । स्फीति और समृद्धि के दौरान, अत्यधिक व्यय गतिविधियों को बजटीय अतिरेकों द्वारा प्रतिबन्धित किया जाता है जबकि मन्दी के दौरान बजटीय घाटों को अतिरिक्त क्रय शक्ति बढ़ा कर प्रतिबन्धित किया जाता है ।

इस नीति का निम्नलिखित आधारों पर समर्थन किया जाता है:

(i) सरकार सरलतापूर्वक अपने वित्त का आवश्यकतानुसार समन्वय कर सकती है ।

(ii) यह नीति सभी समयों जैसे मन्दी, स्फीति, तेजी और आगमन के दौरान निर्विघ्न कार्य करती है ।

(iii) चक्रीय रूप में सन्तुलित बजट केवल स्थायित्व सुनिश्चित करता है परन्तु इस सम्बन्ध में कोई गारंटी नहीं देता कि व्यवस्था पूर्ण रोजगार के स्तर पर स्थायित्व प्राप्त कर लेगी ।

3. पूर्णतया प्रबन्धित क्षतिपूरक बजट (Fully Managed Compensatory Budget):

इस नीति का अर्थ है, करों, व्ययों, आय और सार्वजनिक ऋणों में स्फीति रहित पूर्ण रोजगार प्राप्त करने के लक्ष्य से जानबूझ कर किया गया समन्वय । यह बजटीय सन्तुलन को द्वितीयक भूमिका प्रदान करता है । यह पूर्ण-रोजगार को कायम रखने तथा कीमत स्तर के स्थायित्व पर बल देता है ।

इस नियम के साथ सार्वजनिक ऋण में वृद्धि और ब्याज भुगतान की समस्या से सरलतापूर्वक निपटा जा सकता है । इस प्रकार, नियम को ‘प्रकार्यात्मक वित्त’ (Functional Finance) भी कहा जाता है । पूर्णतया प्रबन्धित क्षतिपूरक बजट को अर्थशास्त्रियों और व्यापारियों से भरपूर समर्थन प्राप्त हुआ । इसे संयुक्त राज्य अमरीका के रोजगार अधिनियम 1946 में सम्मिलित किया गया ।

Instrument # 2. कराधान (Taxation):

कराधान, सार्वजनिक प्राधिकरण के हाथों में राजकोषीय नीति का एक सशक्त उपकरण है जो प्रयोज्य आय, उपभोग और निवेश में परिवर्तनों को बड़े रूप में प्रभावित करता है । एक मन्दी-विरुद्ध कर नीति व्यक्ति की प्रयोज्य आय को बढ़ाती है, उपभोग और निवेश का संवर्धन करती है ।

स्पष्ट है कि करों को घटाने पर लोगों के पास उपभोग एवं निवेश कार्यों के लिये अधिक कोष होगा जिससे व्यय गतिविधियां बढ़ेगी अर्थात् इससे प्रभावी मांग बढ़ेगी और अवस्फीतिकारी अन्तराल कम होगा ।

इस सम्बन्ध में कभी-कभी वस्तु पर करों की दरों को घटाने के सुझाव दिये जाते हैं । जैसे- उत्पादन शुल्क, बिक्री कर और आयात शुल्क । इनका रियायतों के परिणामस्वरूप उपभोग का संवर्धन होता है ।

हेनसेन और मुसग्रेव (Hansen and Musgrave) जैसे अर्थशास्रियों ने, निजी निवेश बढ़ाने को ध्यान में रखते हुये, निगमित और व्यक्तिगत आय कराधान को कम करने पर बल दिया है ताकि अर्थव्यवस्था में संकुचनकारी प्रवृत्तियों से निपटा जा सके । नि:सन्देह इससे प्रयोज्य आय बढ़ेगी फिर भी निवेश पर उनका प्रभाव अनिश्चित है ।

कालेक्की (Kalaeki) के मतानुसार- जब मन्दी के समय में सामान्य आर्थिक स्थिति हतोत्साहित होती है तो करों को घटाना भी इतना दृढ़ प्रोत्साहन उपलब्ध नहीं करता जो उद्यमियों को अधिक निवेश करने के उनके निर्णय को बदलने में मार्गदर्शन करें । इसलिये कालेक्की ने निजी उपभोग और निवेश को तीव्र करके कर घटाने की विधि को पूर्णतया अस्वीकार किया है ।

Instrument # 3. सार्वजनिक व्यय (Public Expenditure):

आर्थिक गतिविधियों में सरकार द्वारा सक्रिय भाग लिये जाने के कारण राजकोषीय उपकरणों में सार्वजनिक व्यय को उच्च स्थान प्राप्त हो गया है । सार्वजनिक व्यय में प्रासंगिक बदलाव का आर्थिक गतिविधि पर करों से भी अधिक सीधा प्रभाव पड़ सकता है ।

बढ़ा हुआ सार्वजनिक व्यय, आय, उत्पादन और रोजगार पर बिल्कुल उसी प्रकार बहुमुखी प्रभाव डालेगा जैसे कि बढ़े हुये निवेश के उन पर प्रभाव होते हैं । इसी प्रकार, सार्वजनिक व्यय में एक घटाव सरकारी व्यय गुणक के विपरीत संचलन द्वारा आर्थिक गतिविधि के स्तर को कम कर सकता है ।

स्फीति के दौरान सार्वजनिक व्यय (Public Expenditure during Inflation):

स्फीति काल के दौरान, स्फीतिकारी दबावों का मुख्य कारण अत्यधिक समग्र व्यय होता है । निजी उपभोग और निवेश व्यय दोनों ही असाधारण रूप में ऊंचे होते हैं । इन परिस्थितियों में, सार्वजनिक व्यय नीति को कुछ समय के लिए सरकारी व्यय कम करने का लक्ष्य रखना चाहिये ।

अन्य शब्दों में, कुछ योजनाओं को त्याग दिया जाना चाहिये तथा कुछ को स्थगित कर दिया जाना चाहिये । इस बात का विशेष ध्यान रखा जाये कि उत्पादक प्रवृत्ति का सरकारी व्यय नहीं रोका जाना चाहिये क्योंकि उससे स्फीतिकारी संकट और भी बढ़ जायेंगे ।

तथापि, अनुत्पादक दिशाओं में व्यय को कम करना, अर्थव्यवस्था में स्फीतिकारी दबावों को प्रतिबन्धित करने में सहायक होगा । परन्तु इस प्रकार का निर्णय लेना आर्थिक और राजनीतिक दृष्टिकोण से बहुत कठिन होता है । फिर भी यह सत्य है कि कुछ सीमा तक स्फीतिकारी दबावों से निपटने के लिये राजकोषीय प्राधिकरण अपने व्यय को परिवर्तित कर सकता है ।

मन्दी के दौरान सार्वजनिक व्यय (Public Expenditure in Depression):

मन्दी के दौरान सार्वजनिक व्यय अति महत्वपूर्ण रूप में सामने आता है । यह अर्थव्यवस्था को स्थिरता की दलदल से ऊपर उठाने में सहायक होता है । इस समय के दौरान मांग की कमी मन्द निजी उपभोग और निवेश व्यय के परिणामस्वरूप होती है ।

इसलिये, इसका सामना अवस्फीतिकारी अन्तराल के बराबर सार्वजनिक व्यय की अतिरिक्त खुराकों से लिया जा सकता है । सार्वजनिक व्यय का गुणक एवं त्वरण प्रभाव निम्न निजी व्यय के दबावकारी प्रभावों को निष्क्रिय कर देगा और पुनर्लाभ पथ को प्रोत्साहित करेगा ।

सार्वजनिक व्यय की दो धारणाएं हैं:

(i) क्षतिपूरक सार्वजनिक व्यय और

(ii) निजी निवेश में वृद्धि ।

(i) क्षतिपूरक सार्वजनिक व्यय (Compensatory Public Spending):

इसका अर्थ है कि सार्वजनिक व्यय का आरम्भ स्पष्टतया निजी निवेश में कमी की क्षतिपूर्ति के लिये किया जाता है । आधारभूत विचार यह है कि जब निजी निवेश कम होता है तो सार्वजनिक व्यय विस्तृत होता है तथा जब तक निजी निवेश सामान्य से नीचे रहता है, सार्वजनिक क्षतिपूरक व्यय जारी रहेगा ।

इन व्ययों के गुणक और त्वरण प्रभाव होंगे, जो बदले में आय उत्पादन और रोजगार के स्तर को बढ़ा देंगे । अन्य शब्दों में, सार्वजनिक व्यय का अर्थ है कि सरकार द्वारा अतिरिक्त व्यय का आरम्भ, इस विशेष उद्देश्य से करना चाहिये कि कुल मांग की क्षतिपूर्ति हो सके । क्षतिपूरक सार्वजनिक व्यय भिन्न-भिन्न रूप धारण कर सकता है जैसे राहत व्यय, आर्थिक सहायता, सामाजिक बीमा भुगतान और सार्वजनिक कार्य ।

(ii) निजी निवेश में वृद्धि (Pump Priming):

पम्प प्राइमिंग जल की वह थोड़ी सी मात्रा के अनुरूप है जिसे अधिक जल निकालने के लिये पम्प में डाला जाता है, इससे अनन्त जल प्रवाह प्राप्त हो सकता है । आय धारा में नई क्रय शक्ति के एक इन्जेक्शन द्वारा निजी निवेश को बढ़ाती है ।

यह विश्वास किया जाता है कि सार्वजनिक व्यय आर्थिक गतिविधि के आरम्भण और पुनर्जीवन में सहायक होगा जो बाद में मन्दी की स्थितियों से उभरने की प्रक्रिया को आरम्भ कर सकता है । अत ऐसे व्यय द्वारा, अर्थव्यवस्था स्वयं को एक सन्तोषजनक स्तर पर अधिक सरकारी सहायता के बिना चला सकती है ।

इसी प्रकार, यदि सरकार एक बार कुछ धन खर्च कर देती है तो आर्थिक जीवन का बहाव सदा के लिये निर्विघ्न चलता रहेगा । इसलिये, पम्प प्राइमिंग की राशि के निर्धारण की मुख्य कसौटी यह है कि बाद में व्यवस्था अपनी ही लक्ष्य शक्ति के आधार पर निरन्तर संचालित रह पाये ।

Instrument # 4. सार्वजनिक कार्य (Public Works):

केन्ज़ की ‘जनरल थ्यूरी’ ने सार्वजनिक कार्यों के कार्यक्रम को अति महत्वपूर्ण मन्दी विरोधी उपकरण के रूप में प्रस्तुत किया । व्यय के दो रूप हैं अर्थात् सार्वजनिक कार्य और स्थानान्तरण भुगतान ।

जे. एम. कलार्क के अनुसार- सार्वजनिक कार्य एक, मुख्यत: अचर ढांचा है और ऐसी टिकाऊ वस्तुएं हैं जिनकी रचना सरकार द्वारा की गई है । इनमें सार्वजनिक कार्यों पर व्यय जैसे सड़कें, रेल मार्ग, स्कूल, पार्क, भवन, हवाई अड्डे, पोस्ट-आफिस, अस्पताल, सिंचाई, नहरें आदि सम्मिलित हैं ।

स्थानान्तरण भुगतान वह भुगतान है जैसे सार्वजनिक ऋण पर ब्याज, वित्तीय सहायता, पैंशन, राहत भुगतान, बेरोजगारी, बीमा एवं सामाजिक सुरक्षा के लाभ आदि । पूंजी परिसम्पत्ति (सार्वजनिक कार्य) पर व्यय पूंजी व्यय कहलाता है ।

सार्वजनिक कार्यों का निम्नलिखित आधारों पर एक मन्दी विरोधी उपकरण के रूप में समर्थन किया जाता है:

(i) वे अब तक के बेरोजगार श्रमिकों का समावेशन कर लेते हैं ।

(ii) वे समाज की क्रय शक्ति बढ़ाते हैं जिससे उपभोक्ता वस्तुओं की मांग तीव्र होती है ।

(iii) वे आर्थिक एवं सामाजिक रूप में लाभप्रद पूंजी परिसम्पत्ति की रचना में सहायक होते हैं जैसे सड़कें, नहरें, बिजली संयंत्र, भवन, सिंचाई, प्रशिक्षण केन्द्र और सार्वजनिक उद्यान आदि ।

(iv) वे उन उद्योगों के विकास के लिये दृढ़ प्रोत्साहन उपलब्ध करवाते हैं जो प्राय: मन्दी की स्थिति में क्षतिग्रस्त हुये होते हैं ।

(v) वह श्रम शक्ति का मनोबल और आत्म-सम्मान बनाये रखने में सहायक होते हैं और बेरोजगार लोगों के कौशल का प्रयोग करते हैं ।

(vi) सार्वजनिक कार्यों का निजी निवेश पर प्रतिकारी प्रभाव नहीं होता क्योंकि इन्हें तब आरम्भ किया जाता है जब निजी निवेश नहीं आ रहा होता ।

सार्वजनिक कार्यों पर व्यय की सीमाएं (Limitations of Expenditure on Public Works):

1. कठिन पूर्वानुमान (Difficult Forecasting):

सार्वजनिक कार्यों के कार्यक्रमों का प्रभाव सदैव आने वाली मन्दी अथवा तेजी के ठीक पूर्वानुमान पर टिका होता है परन्तु ठीक पूर्वानुमान की भविष्यवाणी बहुत कठिन है ।

2. सार्वजनिक कार्यों का समय (Timings of Public Works):

एक अन्य गम्भीर समस्या सार्वजनिक कार्यों के चक्र के साथ चलन के समय से सम्बन्धित है । ठीक पूर्वानुमान की अनुपस्थिति के कारण उचित समय न व्यवहार्य है और न ही सम्भव । अत: यह अकेला कारण सार्वजनिक कार्य के महत्व को स्थायित्व के उपकरण के रूप में क्षीण कर देता है ।

3. आरम्भ करने में विलम्ब (Delay in Starting):

सार्वजनिक कार्य कोई ऐसा कार्य नहीं है जिसे तुरन्त आरम्भ किया जा सके । वास्तव में यह दीर्घकालिक कार्यक्रम है जिसे वित्त एवं इंजीनियरिंग के सम्बन्ध में उचित नियोजन की आवश्यकता होती है ।

इसलिये विलम्ब एक प्राकृतिक कारण है । डर्नबर्ग और मैकडॉगल (Dernberg and Mc Dougall) ने ठीक ही कहा है की- “संक्षेप में, सार्वजनिक कार्य भद्दे और धीमी गति से चलने वाले होते हैं जिन्हें तैयारी और बन्द करने के लिये समय की आवश्यकता होती है ।”

4. साधनों की दुर्लभता (Scarcity of Resources):

सार्वजनिक कार्यों के कार्यक्रमों का आरम्भण साधनों की दुर्लभता के कारण गम्भीर संकट की स्थिति उत्पन्न कर सकता है । सम्भव है कि साधनों की दुर्लभता, कार्य की निर्विघ्न सम्पन्नता के स्थान पर संकट को और गम्भीर कर दे ।

 

5. रोजगार की सीमित सम्भावना (Limited Scope of Employment):

सार्वजनिक कार्यों के कार्यक्रम इस योग्य नहीं कि सब प्रकार के बेरोजगार श्रमिकों को रोजगार उपलब्ध कर सके । इन कार्यों को केवल अप्रशिक्षित अथवा अर्द्ध-प्रशिक्षित श्रमिकों को काम देने के लिये आरम्भ किया जाता है न कि विशेषज्ञों की नियुक्ति के लिये ।

6. साधनों, का गलत आबंटन (Misallocation of Resources):

जब मन्दी की स्थिति गहराती है, तो जन शक्ति और संरचना की विस्तृत बेरोजगारी फैल जाती है । सार्वजनिक कार्य कुछ चयनित स्थानों तक ही सीमित रहते हैं । वे आवश्यकता से बहुत कम होते हैं । पुन: उत्पादन कारकों की गतिहीनता ही उपलब्ध साधनों के आर्थिक उपभोग को प्रतिबन्धित करती है, फलत: सार्वजनिक कार्यों की दक्षता घट जाती है ।

7. सार्वजनिक ऋण का बोझ (Burden of Public Debt):

सार्वजनिक कार्यों के कार्यक्रमों की मन्दी के दौरान वित्त व्यवस्था ऋणों द्वारा की जाती है जिससे देश पर ऋण की मूल राशि तथा उस पर ब्याज चुकाने का बोझ बढ़ जाता है ।

8. लागत कीमत का कुसमंजन (Cost Price Maladjustment):

सार्वजनिक कार्यों के कार्यक्रम भारी उद्योगों में लागत कीमत कुसमंजन को बढ़ा सकते हैं जहां सार्वजनिक व्यय केन्द्रित होता है । तेजी के समय में निर्माण उद्योगों वेतन और कीमतों में वृद्धि की दृढ़ प्रवृत्ति होती है, जबकि मन्दी के समय में कीमतें नीचे आ जाती और वेतन एवं लागतें सापेक्षतया स्थिर रहती हैं । संक्षेप में, लागत कीमत ढांचे में इस प्रकार की विकृति, अर्थव्यवस्था में अधिक अस्थायित्व लाती है ।

9. निजी उद्यमों पर प्रभाव (Effect of Private Enterprise):

कुछ क्षेत्रों में सार्वजनिक अभिकरणों द्वारा आरम्भ किये गये निर्माण कार्यक्रम निजी निवेश द्वारा टक्कर लेते हैं । परिणामस्वरूप, निजी निवेश वाले व्यापार से बाहर हो जाते हैं । ऐसे प्रकरणों में, सार्वजनिक कार्य व्यर्थ प्रमाणित होंगे और समग्र मांग बढाने में असफल रहेंगे ।

10. सार्वजनिक कार्यों पर नियन्त्रण (Control over Public Works):

सार्वजनिक कार्यों की सफलता प्राय: इन पर नियन्त्रण की प्रकृति पर निर्भर करती है । यदि सार्वजनिक कार्य केन्द्रीय प्राधिकरण के नियन्त्रण में होते हैं तो चयनित परियोजनाओं में विलम्ब हो सकता है ।

11. राजनैतिक विचारों द्वारा प्रेरित (Political Considerations):

प्रजातान्त्रिक देशों में कुछ क्षेत्रों में सार्वजनिक कार्य आर्थिक कारणों से आरम्भ नहीं किये जाते बल्कि वे राष्ट्रीय, प्रांतीय अथवा स्थानीय स्तर पर राजनैतिक दबावों के कारण आरम्भ किये जाते हैं । परिणामस्वरूप, इन सार्वजनिक कार्यों की आर्थिक उपयोगिता बहुत सीमित होती है ।

Instrument # 5. सार्वजनिक ऋण (Public Debt):

सार्वजनिक ऋण स्फीति और अवस्फीति के विरुद्ध लड़ाई का एक सुदृढ़ राजकोषीय शस्त्र है । यह अर्थव्यवस्था में आर्थिक स्थिरता और पूर्ण रोजगार को आमन्त्रित करता है ।

सरकारी उधार निम्नलिखित में से कोई भी रूप धारण कर सकता है:

(i) गैर-बैंक लोगों से उधार (Borrowing from Non-Bank Public):

जब सरकार बाण्डों की बिक्री द्वारा गैर-बैंक लोगों से उधार लेती है तो धन का आगमन उपभोग अथवा बचत अथवा निजी निवेश अथवा जमा राशि से होता है । फलत: राष्ट्रीय आय पर ऋण संचालनों के प्रभाव भिन्न-भिन्न स्थितियों में भिन्न-भिन्न होंगे । यदि सरकार की बॉण्ड बिक्री योजना आकर्षक है तो लोग अपने उपभोग को कम करने के लिये प्रेरित होंगे और ऋण गैर-स्फीतिकारी होगा ।

यदि सरकारी बाण्डों का क्रय गैर-बैंक व्यक्तियों और संस्थाओं द्वारा जमा किये हुए धन को निकाल कर किया जाता है, तो व्यय के चक्रीय बहाव में शुद्ध वृद्धि होगी जिसके परिणामस्वरूप स्फीतिकारी दबावों की रचना की सम्भावना होगी, परन्तु इन स्रोतों से कोष की उपलब्धता प्राय: बड़ी मात्रा में नहीं होती ।

इसका मुख्य तात्पर्य यह है कि गैर-बैंक लोगों से लिया गया उधार स्फीति काल में अधिक लाभप्रद होता है परन्तु मन्दी के दौरान यह वांछनीय नहीं होता । संक्षेप में, गैर-बैंक लोगों से प्राप्त ऋण का आकार अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं होता, चाहे यह उपभोग और बचतों से आये या फिर निजी निवेश अथवा जमा की हुई पूंजी से ।

(ii) बैंक व्यवस्था से ऋण (Borrowing from Banking System):

सरकार बैंक संस्थाओं से भी ऋण ले सकती है । मन्दी के दौरान ऐसे ऋण बहुत प्रभावी होते हैं । इस काल में बैंकों के पास अत्यधिक नगदी आरक्षित होती है तथा निजी व्यापारिक समुदाय बैंकों से उधार लेने में रुचि नहीं रखता क्योंकि वह उसे लाभप्रद नहीं समझता ।

जब बैंकों के पास पड़ी हुई अप्रयुक्त नगदी सरकार को उधार दे दी जाती है तो इससे मुद्रा के प्रचलित बहाव में शुद्ध वृद्धि हो जाती है जिससे राष्ट्रीय आय और रोजगार बढ़ते हैं । इसलिये बैंकों से ऋण लेने के प्रभाव अभीष्ट और हितकर हैं विशेषतया मन्दी के दौरान जब उधार लिये गये धन को सार्वजनिक कार्यों के कार्यक्रमों पर व्यय किया जाता है ।

इसके विपरीत आर्थिक गतिविधियों में तेजी के दौरान इस स्रोत से ऋण लगभग पूर्ण रूप में समाप्त हो जाता है क्योंकि स्फीति काल के दौरान धन की मांग बहुत बढ़ जाती है क्योंकि व्यापार में उच्च लाभों की प्रत्याशा होती है ।

बैंक जो पहले ही बहुत ऋण दे चुके होते हैं और नगदी की सुरक्षित राशि समाप्त कर चुके होते हैं सरकार को ऋण देने में कठिनाई अनुभव करते हैं । यदि वे ऋण देते हैं तो किसी अन्य स्थान से ऋण कम करके सरकार को ऋण देते हैं ।

इस कारण निजी निवेश में गिरावट आती है क्योंकि सरकारी व्यय को निजी निवेश में कमी व्यर्थ कर देती है, फलत: राष्ट्रीय आय और रोजगार पर कोई शुद्ध प्रभाव नहीं पड़ेगा । संक्षेप में, बैंक संस्थाओं से लिये गये ऋण का केवल मन्दी के दौरान ही वांछनीय प्रभाव होगा तथा स्फीति काल के दौरान यह अवांछनीय होगा अथवा इसका प्रभाव निष्क्रिय होगा ।

(iii) खजाने से निकालना (Drawing from Treasury):

सरकार खजाने में पड़ी शेष नकदी से भी धन निकाल सकती है । जोकि बजटीय घाटे की वित्त व्यवस्था के लिये रखी होती है । क्योंकि यह जमाखोरी के विरुद्ध परिस्थिति का प्रदर्शन करती है, इससे मुद्रा की पूर्ति में शुद्ध वृद्धि होती है, इसका स्वरूप स्फीतिकारी होने की सम्भावना होती है ।

परन्तु प्राय: सामान्य दैनिक आवश्यकताओं के लिये वांछित धन राशि से ऊपर थोड़ी ही शेष राशि होती है । अत: खजाने से ऐसे ऋण का कोई विशेष परिणाम नहीं होता ।

(iv) मुद्रा का मुद्रण (Printing of Money):

मुद्रा का मुद्रण अथवा घाटे की वित्त व्यवस्था सार्वजनिक व्यय का एक अन्य ढंग है, इसके द्वारा सरकार को अतिरिक्त साधन प्राप्त हो जाते हैं । नई मुद्रा के मुद्रण से संचारित मुद्रा के बहाव में शुद्ध वृद्धि हो जाती है । अत: इस प्रकार के सार्वजनिक ऋण को उच्च स्फीतिकारी कहा जाता है ।

घाटे की वित्त व्यवस्था के मन्दी के दौरान अनुकूल प्रभाव होते हैं क्योंकि यह आय और रोजगार का स्तर बढ़ाने में सहायक होती है । परन्तु स्फीति अथवा तेजी की स्थिति में इसके प्रयोग पर एतराज किया जाता है ।

यहां यह वर्णन करना आवश्यक है कि इस उपकरण द्वारा, सरकार न केवल न्यूनतम लागत पर अतिरिक्त साधन प्राप्त करती है बल्कि उचित मौद्रिक प्रभावों की रचना भी कर सकती है । जैसे- निम्न ब्याज दर और सरल मुद्रा पूर्ति जिसके परिणामस्वरूप अर्थव्यवस्था में शीघ्र पुनरूत्थान होगा ।

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