आर्थिक विकास को प्रभावित करने वाली अनुसंधान और विकास गतिविधियां | Read this article in Hindi to learn about:- 1. शोध एवं विकास एवं वृद्धि की दशाओं के मध्य सम्बन्ध (Growth Conditions of Research and Development Activity) 2. शोध एवं विकास की क्रियाओं पर अनुकूलतम व्यय (Optimal Expenditure on Research and Development Activity) 3. कार्य करते हुए सीखने का तकनीकी प्रगति फलन (Learning by Doing Technical Progress Function).

शोध एवं विकास एवं वृद्धि की दशाओं के मध्य सम्बन्ध (Growth Conditions of Research and Development Activity):

बाजार अर्थव्यवस्थाओं के सन्दर्भ में नवप्रवर्तन एवं विनियोग एक-दूसरे से अर्न्तसम्बन्धित हैं । जहाँ लाभपूर्ण नवप्रवर्तन विनियोग को तीव्र करने में सहायक होते है वहीं विनियोग का उच्च स्तर तकनीकी उन्नति हेतु नवप्रवर्तन को उत्साह प्रदान करता है ।

बी॰ आर॰ विलियम अपने अध्ययन Technology Investment and Growth (1967) में लिखता हैं कि यूनाइटेड किंगडम एवं संयुक्त राष्ट्र अमेरिका ने 1950 के दशक में शोध एवं विकास पर काफी अधिक निवेश किया लेकिन इस समय अवधि में उनकी आर्थिक वृद्धि दरों में कोई महत्वपूर्ण परिवर्तन नहीं दिखाई दिया, जबकि जापान एवं पश्चिम जर्मनी इस समय अवधि में काफी अधिक वृद्धि दरों का प्रदर्शन कर रहे थे यद्यपि उन्होंने शोध एवं विकास पर सापेक्षिक रूप से अल्प निवेश किया था ।

इससे यह स्पष्ट होता है कि शोध एवं विकास व्यय तथा प्राप्त उत्पादन के मध्य कोई स्पष्ट सम्बन्ध विद्यमान नहीं होता । इस सह-सम्बन्ध का अभाव इस तथ्य से प्रभावित है कि शोध एवं विकास के प्रयास नवप्रवर्तन की प्रक्रिया के मात्र भाग है ।

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वस्तुतः जापान एवं पश्चिमी जर्मनी को छोडकर विकसित देशों ने सैन्य एवं अन्तरिक्ष अनुसन्धान पर काफी अधिक व्यय किया था । जापान एवं पश्चिम जर्मनी में शोध एवं विकास पर अल्प व्यय हुआ, जबकि उद्योगों में विनियोग आवण्टन सकल राष्ट्रीय उत्पाद के अनुपात के रूप में काफी उच्च रहा । विनियोग के उच्च स्तर से उत्पादकता में भी वृद्धि हुई ।

संक्षेप में विनियोग एवं तकनीकी एवं तकनीकी प्रगति की दर के मध्य एक धनात्मक सम्बन्ध इस तथ्य पर आधारित है कि विनियोग की एक उच्च दर खोज एवं उन्नत तकनीक को विकसित करने की लाभदायकता से सम्बन्धित है ।

उच्च तकनीक से प्राप्त होने वाले लाभ को हम दो पक्षों के अध्ययन से समझ सकते है । पहला लागत पक्ष है जो खोज एवं वस्तु के उत्पादन की उच्च विधियों को विकसित करने की दिशा में किए जा रहे प्रयासों पर आ रही लागत का निरुपण करता है । दूसरी ओर लाभ का पक्ष है जो उत्पादन की लागत में होने वाली कमी से सम्बन्धित होगा । लागत में कमी तब होगी जब नए यन्त्र व उपकरणों का प्रयोग कर उत्पादन किया जाएगा ।

शोध एवं विकास के परिणामस्वरूप उत्पादन लागतों में कमी होती है । इसे हम चित्र 68.1 द्वारा स्पष्ट करते हैं । चित्र में लागत में होने वाली कमी की वार्षिक दर को X-अक्ष के द्वारा तथा शोध एवं विकास पर होने वाले वार्षिक व्यय को Y-अक्ष में दिखाया गया है ।

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वक्र RR उन विविध योगों को प्रदर्शित करता है जो नई तकनीक की प्रस्तावना हेतु शोध एवं विकास पर व्यय किया जाता है जिससे विभिन्न आनुपातिक दरों पर उत्पादन की लागतों में कमी सम्भव हो सके ।

नई तकनीक की प्रस्तावना के लिए शोध एवं विकास पर प्रारम्भ में एक न्यूनतम व्यय करना आवश्यक होगा इसलिए RR वक्र X-अक्ष में मूल बिन्दु से आरम्भ न होकर कुछ ऊपर से आरम्भ होता है । लागत में कमी हेतु शोध एवं विकास पर क्रमश: बढ़ते हुए वार्षिक विनियोग की आवश्यकता होती है ।

एक निश्चित बिन्दु के उपरान्त शोध एवं विकास पर गिरता हुआ प्रतिफल भी लागू होता है । अतः उत्पादन की लागतों में और अधिक कमी करने के लिए शोध एवं विकास पर होने वाला व्यय और अधिक महंगा होता जाता है ।

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गणितीय निर्वचन हेतु माना कि शोध एवं विकास पर होने वाला वार्षिक व्यय E तथा लागत में कमी की तत्सम्बन्धित वार्षिक दर X है । हम यह पाते हैं कि E व X के मध्य एक धनात्मक विद्यमान होता है जिसे dE/dX > 0 के द्वारा व्यक्त किया जाता है । शोध एवं विकास पर होने वाले व्यय की दर के उच्च होने से जैसे-जैसे लागतों में कमी की दर बढ़ेगी तब इस दशा में d2E/dX2 > 0 होगा ।

ज्यामितीय रूप से यह मान्यताएँ इस तथ्य पर आधारित हैं कि RR वक्र का ढाल बढ़ती हुई दर से ऊर्ध्व गति करता है । इससे अभिप्राय है कि RR वक्र लागत के गिरने पर ऊपर को बढ़ेगा जैसा चित्र 68.1 से स्पष्ट है ।

शोध एवं विकास की क्रियाओं पर अनुकूलतम व्यय (Optimal Expenditure on Research and Development Activity):

लागत में कमी करने की आशा में नवप्रवर्तक शोध एवं विकास पर होने वाले व्यय की दरें निश्चित करता है । शोध रख विकास पर विनियोग इस उद्देश्य से किया जाता है कि इसके परिणामस्वरूप तकनीकी प्रगति होगी जिससे संभावित लाभ बढ़ेंगे । लाभों में वृद्धि की प्रत्याशा का कारक शोध एवं विकास की क्रिया पर होने वाले लाभ का आकार निर्धारित करता है ।

नवप्रवर्तक को प्राप्त होने वाले सम्भावित लाभ की दशा को हम चित्र 68.2 से प्रदर्शित कर सकते है जो शोध एवं विकास व्यय के परिणामस्वरूप फर्म को प्राप्त होने वाले सम्भावित लाभ की सूचना देता है । चित्र में DD एक ऐसा ही वक्र है । माना कि फर्म एक ऐसा पूंजी सयम लेती है जो उत्पादन की प्रति इकाई लागत में X अनुपात की कीमत में कमी कर देता है ।

अब उत्पादक ऐसी कीमत वसूल करेगा जो क m.X अनुपात में वृद्धि करेगा । यहाँ m एक अचर राशि है । माना फर्म इस यन्त्र के लगने से जो वार्षिक लाभ प्राप्त करती है वह 1.m है । इस दशा में सीधी रेखा DD जो मूल बिन्दु से प्रारम्भ होती है तथा जिसका ढाल 1.m है अतिरिक्त लाभ को प्रकट करेगा ।

इससे तात्पर्य है कि शोध और विकास कार्य पर होने वाले व्यय के परिणामस्वरूप जो अतिरिक्त लाभ प्राप्त होते है वह एक तरफ प्रतिशत लागत ह्रास के समानुपाती होते हैं तो दूसरी ओर समग्र प्रत्याशित बिक्री के अनुयायी होते है । संक्षेप में तात्पर्य यह है कि लागत में होने वाली एक विशिष्ट कमी का सम्बन्ध अतिरिक्त लाभ की प्राप्ति से होता है ।

अब प्रश्न यह है कि फर्म अपने शोध एवं विकास के व्यय को किस सीमा तक बढ़ाएगी । लाभ में अधिकतमीकरण करने वाली फर्म के लिए शोध एवं विकास व्यय में होने वाली वृद्धि उस सीमा तक की जाएगी जहाँ अतिरिक्त लाभ एवं श्रेष्ठ संयन्त्र को विकसित करने का अन्तराल अधिकतम सम्भव होगा ।

चित्र में DD व RR के मध्य का अन्तराल F पर सर्वाधिक है । इसलिए FG, फर्म द्वारा शोध एवं विकास पर किए जा रहे अनुकूलतम व्यय को प्रदर्शित करेगा । अब हम एक ऐसी दशा पर विचार कर रहे हैं जहाँ पूंजी वस्तुओं की प्रत्याशित बिक्री I के बजाय 2I है ।

ऐसी दशा में फर्म की अतिरिक्त लाभ अनुसूची DD के बजाय D’D’ होगी । लेकिन इस फर्म के RR वक्र वहां रहेगा, क्योंकि यह फर्म मात्रा में ही पूंजीगत वस्तुओं की बिक्री कर रही है । ऐसी दशा में लाभ को अधिकतम करने की दशा बिन्दु F’ से सूचित होगी । इस फर्म के द्वारा शोध एवं विकास पर किया जाने वाला अनुकूलतम व्यय F’G’ है जो FG से अधिक है ।

लाभ को अधिकतम कर रही फर्म के लिए शोध एवं विकास पर उस सीमा तक व्यय किया जाएगा जहाँ RR वक्र पर खींची गई स्पर्श रेखा DD के समानान्तर हो । इससे तात्पर्य है कि श्रेष्ठ फलन तब प्राप्त होंगे जब X, DE/DX के समानुपाती होगा अर्थात् D2E/DE2 एक स्थिर राशि है ।

E एवं X के मध्य फलनात्मक सम्बन्ध (Functional Relationship):

E तथा X के मध्य एक सम्भावित फलनात्मक सम्बन्ध जो हर के बारे में हमारी मान्यता अर्थात् DE/DX तथा D2E/DX2 < 0 को स्थापित करता है तथा जिससे यह निष्कर्ष निकलता है कि E = A + BX2 इस फलन में A, y-अक्ष में RR का intercept है तथा B कोई अन्य अचर है ।

इससे निम्न निष्कर्ष प्राप्त होता है:

 

उपर्युक्त के आधार पर हम निम्न दशाओं को स्पष्ट करते हैं:

(1) उपर्युक्त फलन में तकनीकी प्रगति √E होने वाले परिवर्तन से परिवर्तित होती है जिससे शोध एवं विकास के फलस्वरूप ह्रासमान प्रतिफल की दशाएँ बढ़ जाती हैं । दूसरा यह फलन इस निष्कर्ष के साथ भी संगति रखता है कि यदि संयन्त्र की बाजार बिक्री में दुगनी वृद्धि हो तो इसके परिणामस्वरूप तकनीकी प्रगति की दर भी बढ़कर दुगनी हो जाएगी ।

जब संयंत्र की प्रत्याशित वृद्धि में दुगनी वृद्धि होने से तकनीकी प्रगति की दर दुगनी हो तब शोध एवं विकास पर किया जाने वाला तत्सम्बन्धी परिवर्तन दुगने से अधिक बढ़ेगा ।

(2) एक उद्योग में विनियोग की दर तकनीकी प्रगति की दर को निर्धारित करती है । एक अर्थव्यवस्था में विनियोग की समग्र दर मुख्यतः तकनीकी प्रगति की समूची दर का निर्धारण करती है ।

(3) जब विनियोग मजदूरी इकाइयों के सन्दर्भ में स्थिर रहे तो तकनीकी प्रगति की दर भी स्थिर हो जाती है ।

(4) तकनीकी प्रगति की दर प्रत्यक्ष रूप से श्रम-शक्ति के आकार एवं विनियोग के अंश के अनुरूप परिवर्तित होती है ।

उपर्युक्त व्याख्या के आधार पर हम तकनीकी प्रगति के फलन का निर्धारण कर सकते हैं जो शोध एवं विकास व्यय का तकनीकी प्रगति पर पडने वाले प्रभाव को ध्यान में रखे ।

तकनीकी प्रगति, Si जो राष्ट्रीय उत्पाद में विनियोग का शेयर है तथा रोजगार के स्तर L जिसे स्थिर माना गया है, के अनुपाती या अनुपाती से कम होगी ।

यदि अर्थव्यवस्थाओं में रोजगार के विभिन्न स्तरों के मध्य अन्तरों को ध्यान में न रखा जाये तो तकनीकी प्रगति की दर का एकमात्र निर्धारक Si होता है तथा निम्न फलन तकनीकी प्रगति के फलन को अभिव्यक्त करता है:

तकनीकी वृद्धि का फलन- Xr = Ar + BrSi

जहाँ Xr = शोध एवं विकास के कारण हुई तकनीकी प्रगति की दर

Ar तथा Br स्थिर राशियाँ

Ar धनात्मक या ऋणात्मक हो सकता है ।

Ar जब धनात्मक होता है तो Xr, Si के अनुपात में कम परिवर्तित होता है ।

यह तकनीकी प्रगति फलन ऐसी अर्थव्यवस्थाओं में लागू होता है जहाँ विनियोग का स्थिर शेयर एवं रोजगार की स्थिर मात्रा उपलब्ध होती है लेकिन उस अर्थव्यवस्था में जहाँ विनियोग का स्थिर शेयर हो लेकिन रोजगार की मात्रा में वृद्धि हो रही हो तब RR अनुसूची जिसका मापन मजदूरी इकाइयों के रूप में किया गया है, समय रहते स्थिर रहेगी लेकिन श्रम-शक्ति के बढ़ने पर DD अनुसूची ऊपर की ओर बढेगी । इस प्रकार सन्तुलन के बिन्दु भी ऊपर दाएँ की ओर बढेंगे । सन्तुलन उस बिन्दु पर स्थापित होगा जहाँ DD तथा RR एक-दूसरे को अर्न्तछेदित करेंगे ।

कार्य करते हुए सीखने का तकनीकी प्रगति फलन (Learning by Doing Technical Progress Function):

विनियोग एवं तकनीकी प्रगति के मध्य एक अन्य अर्न्तजात सम्बन्ध उस प्रक्रिया से सम्बन्धित है जिसके अधीन कार्य करते हुए सीखने के प्रभाव विद्यमान रहते है ।

ऐरो ने अपने अध्ययन The Economic Application of Learning Technical Progress by Doing में स्पष्ट किया है कि प्लांट एवं मशीनरी की डिजाइन में दोषी का निवारण तब किया जा सकता है जब एक विशिष्ट प्रकार की मशीन का निर्माण किया जाये ।

यदि N = मशीन का सीरियल नम्बर

b = अचर राशि

J = अचर राशि

H = इकाई लागतें हों

तब

अब यदि यह मान्यता ली जाए कि मजदूरी का अंश स्थिर है तब श्रम लागतें इकाई लागतों से एक स्थिर अनुपात रखेंगी अर्थात् श्रम लागतें H से एक स्थिर अनुपात में होंगी तथा JN–b से एक स्थिर अनुपात रखेंगी । चूंकि श्रम उत्पादकता उत्पादन में प्रति इकाई लगे श्रम की मात्रा का व्यूत्क्रम होता है इसलिए श्रम उत्पादकता (Q) का JN–b से विपरीत सम्बन्ध होगा, अर्थात्-

चित्र 54.3 समीकरण (3) का ज्यामितीय प्रदर्शन करता है । इससे स्पष्ट होता है कि श्रम उत्पादकता एक दोहरे Log Scale पर एक सीधी Log Line पथ पर बढती है ।

यह एक दोहरे Log Scale का प्रदर्शन करती है जिससे अभिप्राय है कि उत्पादन की नवीन तकनीकों को अपनाने से श्रम उत्पादकता में भी उत्तरोत्तर वृद्धि होती है तथा यह वृद्धि अंकगणितीय (1, 2, 3, 4…….) क्रम से होती है । तकनीक 1 में जब विनियोग किया जाता है तो इससे दूसरी तकनीक पर भी प्रभाव पड़ता है तथा इस प्रकार अगली तकनीकें अपनाये जाने की प्रेरणाएँ प्राप्त होती हैं ।