आर्थिक नीति का उपयोग कर देश के आर्थिक विकास में तेजी कैसे करें | Read this article in Hindi to learn about how to accelerate economic growth of a country using economic policy.

अब हम उन विभिन्न तरीकों पर ध्यान देंगे जिनके अधीन आर्थिक नीति के द्वारा आर्थिक वृद्धि को प्रोत्साहित एवं संवर्धित किया जाना सम्भव होता है ।

इस विचार-विमर्श में हम 4 दशाओं को ध्यान में रखते हैं जो विश्व की वर्तमान परिस्थितियों हेतु प्रासंगिक हैं:

1. कीमती एवं व्यापार का उदारीकरण ।

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2. स्थायीकरण ।

3. निजीकरण ।

4. शिक्षा स्वास्थ्य एवं वितरण

5. प्राकृतिक संसाधन एवं भौगोलिक स्थिति

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उपर्युक्त में विद्यमान समस्याओं को मानवीय प्रयासों के द्वारा समाधान की ओर ले जाया जाना सम्भव है । स्वतन्त्र व्यापार, स्थिर कीमतों, निजी उपक्रम एक सुशिक्षित व स्वस्थ मानव-शक्ति तथा विविधीकृत निर्यात (जो कुछ प्राथमिक उत्पादों के प्रभुत्व तक ही सीमित न हों) बढती हुई आर्थिक कुशलता व आर्थिक वृद्धि हेतु अपरिहार्य है ।

1. उदारीकरण (Liberalisation):

सर्वप्रथम हम विदेश व्यापार के खुलेपन या उदारीकरण से आरम्भ करते है ।

जिस रणनीति पर हम चल रहे हैं, उसके तीन कदम है:

a. पहले हम बढते हुए व्यापार के गुणात्मक क्षमता बढाने वाले प्रभाव को शेष विश्व के सापेक्ष प्रदर्शित करेंगे ।

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b. पुन: यह गुणात्मक प्रश्न सामने आएगा कि इन प्रभावों के उत्पन्न होने की सम्भावना कितनी अधिक होग?

c. अन्त में, अनुभवसिद्ध अवलोकन द्वारा उक्त दोनों पक्षों की जाँच करेंगे ।

i. पुर्नआवंटन (Reallocation):

एक ऐसे देश को ध्यान में रखें जहाँ दो क्षेत्रों में आर्थिक गतिविधि सम्पन्न हो रही है- पहला परम्परागत क्षेत्र व दूसरा आधुनिक क्षेत्र । देश में भूमि, पूंजी एवं श्रम की बहुलताएँ दो हुई हैं जिन्हें उत्पादन सीमा DEFG के द्वारा प्रदर्शित किया गया है । यह परम्परागत व आधुनिक उत्पादन के उन बण्डलों को प्रदर्शित करता है जिन्हें उपलब्ध भूमि, पूंजी व श्रम के द्वारा उत्पादित किया जा सकता है ।

यह उत्पादन सीमा नतोदर है जिसका कारण साधन प्रयोग में ह्रासमान प्रतिफल या गिरती हुई सीमान्त उत्पादकता का प्राप्त होना है । जितने अधिक साधन परम्परागत क्षेत्र से आधुनिक क्षेत्र की ओर हस्तान्तरित होंगे, आधुनिक क्षेत्र के उत्पादन में उतनी ही सीमित वृद्धि होगी ।

अब माना सरकार परम्परागत क्षेत्र को संरक्षण वस्तुओं के आयातों द्वारा प्रदान करती है जो परम्परागत उत्पादन से प्रतिस्पर्द्धा करते है । वस्तुओं के आयातों पर प्रशुल्क लगा दिया जाता है । इससे परम्परागत उत्पादन की सापेक्षिक कीमत बढती है । परम्परागत क्षेत्र में अधिक साधन आकृष्ट होते है । घरेलू कीमत अनुपात प्रशुल्क के कारण विरूपित हो जाता है ।

इसे चित्र 71.4 में बिन्दु E से गुजरती कीमत रेखा द्वारा दिखाया गया है जो उत्पादन परिसीमा पर स्थित है । परम्परागत एवं आधुनिक कीमतों के इस अनुपात में, घरेलू उत्पादकों के लिए परम्परागत उत्पादन की OH इकाइयाँ व आधुनिक उत्पादन की OC इकाइयों को उत्पादित करना लाभप्रद रहता है, परन्तु यह कीमत अनुपात प्रशुल्क के द्वारा विरूपित हो जाता है । विश्व कीमत अनुपात अब EQA रेखा के ढाल द्वारा प्रदर्शित है ।

क्षैतिज अक्ष पर CA दूरी उस परम्परागत उत्पादन की मात्रा को प्रदर्शित करती है जिसे E बिन्दु पर उत्पादित किया जा रहा है । इसे आधुनिक उत्पादन की इकाइयों के रूप में मापा गया है । साथ ही आधुनिक व परम्परागत उत्पादन OC धन CA का योग जो OA के बराबर होता है, परिभाषानुसार कुल राष्ट्रीय उत्पादन के बराबर होता है ।

जब सरकार व्यापार को उदार करने का निर्माण लेती है तथा इसके लिए परम्परागत उत्पादन पर प्रशुल्क को हटा देती है तब विरूपित कीमत रेखा अब घरेलू उत्पादकों के लिए प्रासंगिक नहीं है, क्योंकि अब वह विदेशी बाजारों में प्रतिस्पर्द्धा कर रहे हैं । स्वतन्त्र व्यापार में वह कीमत अनुपात जिससे उन्हें अब मतलब है, अब विश्व कीमत अनुपात है । ऐसे में पूर्व की भाँति, बिन्दु ट पर उत्पादन नहीं होगा ।

परम्परागत क्षेत्र में संरक्षण के हटने तथा परम्परागत उत्पादन की सापेक्षिक कीमतों के गिरने से, परम्परागत क्षेत्र से आधुनिक क्षेत्र की ओर साधनों का स्थानान्तरण होता है जिससे परम्परागत क्षेत्र के सापेक्ष आधुनिक क्षेत्र में अधिक उत्पादन होता है ।

संसाधनों का यह पुर्नआवंटन तब तक जारी रहता है, जब तक नया सन्तुलन बिन्दु F प्राप्त नहीं हो जाता जहाँ नई विश्व कीमत रेखा उत्पादन परिसीमा को छूती है । बिन्दु F पर, राष्ट्रीय उत्पादन में अधिकतम वृद्धि सम्भव होती है जिसे क्षैतिज अक्ष में AB दूरी के द्वारा दिखाया गया है अर्थात् उत्पादन OA से बढकर OB हो जाता है ।

चित्र में परम्परागत उत्पादन हट मात्रा के बराबर गिरता है तथा आधुनिक उत्पादन LF के बराबर बढता है । इस प्रकार F बिन्दु जो स्पर्शता का बिन्दु है पर अनुकूलता प्राप्त होती है ।

तीन अन्य बिन्दुओं को यहाँ स्पष्ट किया जा सकता है:

(i) सर्वप्रथम, आर्थिक नीति में होने वाले परिवर्तन से या संरक्षणात्मक प्रशुल्क के हटाए जाने से, आर्थिक नीति में एक परिवर्तन आता है जिससे पूर्ण रोजगार पर राष्ट्रीय उत्पादन बढ़ता है ।

यह उत्पादन में श्रम, पूंजी व भूमि की मात्रा में प्रयोग में वृद्धि से नहीं बल्कि उपलब्ध संसाधनों को अधिक समर्थ रूप से प्रयोग किए जाने के द्वारा सम्भव होता है । देश दी हुई आदाओं या साधनों से अधिक उत्पादन कर पाने में सक्षम होता है जो बढ़ती हुई कुशलता का द्योतक है ।

(ii) दूसरा विदेशी व्यापार से यह सम्भव होता है कि उपभोग उत्पादन से भिन्नता रखे । इससे देश इस योग्य बनता है कि वह अपनी उत्पादन सम्भावनाओं से आगे जाये । यदि देश बिन्दु F पर, स्वतन्त्र व्यापार के अन्तर्गत उत्पादन कर रहा है तो वह बिन्दु J पर उपभोग करने के लिए स्वतन्त्र होता है ।

इससे अभिप्राय है कि आधुनिक क्षेत्र में किए गए उत्पादन का JK भाग विदेश को निर्यात किया जाएगा तथा परम्परागत क्षेत्र में किए उत्पादन का FK भाग आयात किया जाएगा । JK का ढाल, विश्व कीमत अनुपात के बराबर है अर्थात् निर्यात का मूल्य बराबर है आयातों के मूल्य के, इससे व्यापार सन्तुलित रहता है ।

चित्र से स्पष्ट है कि नया उपभोग बिन्दु J मूल उपभोग बिन्दु E के उत्तर-पूर्व में स्थित है अर्थात् स्वतन्त्र व्यापार में पूर्ण रोजगार के अधीन साधनों का अधिक कुशल आवंटन, एक देश को इस योग्य बनाता है कि वह हर वस्तु का अधिक उपभोग करें ।

विशेषतः उस वस्तु का जिसका घरेलू उत्पादन गिर रहा है । उदारीकरण से होने वाला कल्याण लाभ चित्र में बिन्दु E से J की दूरी द्वारा प्रदर्शित है, जबकि उत्पादन लाभ AB दूरी द्वारा दिखाया गया है ।

(iii) तीसरा मूल व्यापार सन्तुलन बिन्दु E से अन्तिम स्वतन्त्र व्यापार सन्तुलन बिन्दु F की ओर होने वाले रूपान्तरण में कई कष्ट व परेशानियाँ सामने आती हैं । परम्परागत उत्पादन के सीमित होने पर परम्परागत क्षेत्र में रोजगार की हानि होती है ।

कारण यह है कि आधुनिक क्षेत्र परम्परागत क्षेत्र में बेकारी झेल रहे लोगों को तुरन्त रोजगार नहीं दे पाता । परम्परागत क्षेत्र में रोजगार विहीन श्रमिकों को आधुनिक क्षेत्र में अवशोषित करने के लिए समुचित प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है । इसके साथ ही परम्परागत क्षेत्र में रोजगार व आय में होने वाला संकुचन इस अर्थ में संक्रमणकारी होता है कि यह आधुनिक क्षेत्र में भी संकुचन लाता है ।

कारण यह है कि, परम्परागत क्षेत्र से हटे श्रमिक आधुनिक क्षेत्र के उत्पादन को खरीद पाने में समर्थ नहीं होते । ऐसे में उत्पादन का पथ चित्र में 71.4 में EMNQF की भाँति होता है ।

चित्र में बिन्दु M पर, आधुनिक क्षेत्र पुनरुत्थान के बिन्दु पर होता है जहाँ संसाधन युक्त उपकमी उस श्रम व पूँजी को पुर्नरोजगार देने में समर्थ होता है जो परम्परागत क्षेत्र में फालतू व बेकार हो गए थे ।

बिन्दु N पर, आधुनिक उत्पादन अपने आरम्भिक स्तर पर पूर्व स्थिति में आता है । बिन्दु F पर, स्वतन्त्र व्यापार के लाभ प्राप्त होने लगते हैं तथा पूर्ण रोजगार की प्राप्ति होती है ।

उदारीकरण के उपरान्त उत्पादन पथ चित्र 71.5 में प्रदर्शित किया गया है । समय t1 तक राष्ट्रीय आर्थिक उत्पादन (GNP) स्थिर है, जब उदारीकरण की प्रक्रिया आरम्भ होती है ।

उत्पादन अपने आरम्भिक सन्तुलन स्तर E से गिरता है तथा M, N व Q बिन्दुओं से होता हुआ नए सन्तुलन की ओर बढता हुआ F पर पहुँचता है । F बिन्दु पर उत्पादन अपने आरम्भिक बिन्दु E से अधिक है । EMNQ का भाग उदारीकरण से होने वाले संचयी अल्पकालीन उत्पादन ह्रास की सूचना देता है ।

उदारीकरण की प्रक्रिया में दिए हुए संसाधनों से उत्पादन की मात्रा के बढ़ने की आर्थिक कुशलता की अवस्था से धीरे-धीरे अर्थिक शुद्धि त्वरित होना सम्भव होती है । अत: उत्पादन t2 समय से बिन्दु के आगे तेजी से बढ़ता है ।

अतः अब उत्पादन का पथ EMNQFI हो जाता है, जबकि पहले यह EMNQFK था । उदारीकरण के उपरान्त वृद्धि का बोनस इस प्रकार FIK है । स्पष्ट है कि आर्थिक उदारीकरण का अनुसरण करता उत्पादन का पथ हंसिये के आकार का होता है ।

ii. पुर्नसंगठन (Reorganisation):

उदारीकरण के पुर्नआवंटन प्रभावों को हमने समझ लिया है । यह उत्पादन में होने वाले उन लाभों द्वारा सूचित होते थे जो विश्व बाजार कीमतों के अधीन विद्यमान संसाधनों का पुर्नआवंटन वैकल्पिक उपयोगों के मध्य समर्थ व कुशल रूप में करते हुए प्राप्त होते थे, परन्तु कहानी यहीं पर समाप्त नहीं हो जाती, क्योंकि अब उदारीकरण पूर्व में संरक्षण प्राप्त फर्मों को अपने उत्पादन को पुर्नसंगठित करने की प्रेरणा प्रदान करता है ।

ऐसा करने के लिए उत्पादन की नई व बेहतर तकनीकों का प्रयोग किया जाता है । इन्हें कुशलता लाभ कहा गया । प्रो॰ हार्वे लीबिंस्टीन के अनुसार यह X कुशलता में वृद्धि द्वारा निरूपित किए गए ।

पुर्नसंगठन प्रभाव को चित्र 71.6 के द्वारा निरूपित किया गया है । चित्र में उत्पादन परिसीमा में DE FG से JHG की ऊर्ध्वगामी वृद्धि होती है । उत्पादन अब बिन्दु F के स्थान पर बिन्दु H पर होता है ।

कुल उत्पादन लाभ को अब क्षैतिज अक्ष पर AC भाग के द्वारा दिखाया गया है जिसमें AB भाग पुर्नआवंटन के द्वारा प्राप्त होने वाला लाभ है तथा हट पुर्नसंगठन के द्वारा प्राप्त होने वाला अतिरिक्त लाभ है । उपभोग भी पहले की तुलना में बढ़ता है जिसे पुराने उपभोग सन्तुलन बिन्दु E की तुलना में नए उपभोग सन्तुलन बिन्दु J के द्वारा देखा जा सकता है ।

चित्र 71.6 में वृद्धि के बोनस को व्यापार के त्रिभुज JKH के द्वारा दिखाया गया है, ठीक वैसे ही जैसे पूर्व चित्र 71.4 में त्रिभुज JKF के द्वारा दिखाया गया था । परम्परागत तथा आधुनिक दोनों ही उत्पादन क्षेत्रों में अब अधिक उत्पादन किया जाता है । नया उत्पादन बिन्दु H, मूल उत्पादन बिन्दु E के उत्तर-पूर्व में उच्च दशा पर स्थित है ।

कोएस्टर के अनुसार ठीक ऐसी ही दशा न्यूजीलैंड में दिखाई दी जहां 1984 से कृषि क्षेत्र में सुधारवादी उदारीकरण हुआ । कुछ ही वर्षों के बाद वहाँ का फार्म क्षेत्र बहुत सुदृढ बन गया, भले ही कृषक कम थे लेकिन उत्पादकता वृद्धि की दृष्टि से बहुत सुसंगठित व शक्तिशाली थे ।

iii. अनुभवसिद्ध प्रमाण (Empirical Evidence):

प्रश्न यह है कि उदारीकरण के द्वारा कितने अधिक लाभ प्राप्त होते हैं ।

वास्तव में उत्पादन लाभों का आकार दो चरों का फलन होता है:

(I) मूल कीमत वक्रताएँ तथा

(II) अन्तिम समय में आधुनिक क्षेत्र का शेयर ।

पालो कोचीनी एवं रिचर्ड बाल्डविन ने उदारीकरण से प्राप्त होने वाले स्थैतिक लाभों पर विवेचन प्रस्तुत किया । यह भी देखा गया कि बचत की दर जितनी अधिक होगी, उदारीकरण से प्राप्त होने वाली कुशलता में दी हुई वृद्धि के परिणामस्वरूप प्रावैगिक उत्पादन के लाभ भी उतने ही अधिक होंगे ।

सैचेज एवं वार्नर ने आर्थिक सुधार एवं वैश्विक एकीकरण की प्रक्रिया को समझाया तथा यह प्रमाणित किया कि खुलेपन का आर्थिक वृद्धि पर धनात्मक प्रभत्व पड़ता है ।

विकासशील देशों के लिए खुलेपन के बेहतर धनात्मक प्रभावों का विवेचन डेविड डालर, विलियम इस्टरली, सेबिस्टन एस्वार्डस, जोंग-वॉ-ली द्वारा किया गया । इन अर्थशास्त्रियों ने बाह्य पहचान, कीमत वक्रताओं, प्रशुल्क व अन्य हस्तक्षेपों को ध्यान में रखते हुए यह निष्कर्ष प्रदान किया कि अधिक खुलेपन तथा कम वक्रताओं से आशय है अधिक आर्थिक वृद्धि ।

व्यापार के द्वारा प्राप्त होने वाले लाभ मात्र वस्तु व सेवाओं तक ही सीमित नहीं । पूंजी में होने वाला व्यापार केवल पूंजी आयात के कुशलता लाभ व वृद्धि प्रभावों से ही सम्बन्ध नहीं रखता बल्कि अन्य प्रकार के व्यापार प्रवाहों को भी नए विचारों व नवीनतम टेक्नोलोजी के द्वारा सम्भव बनाता है ।

यह ध्यान रखना आवश्यक है कि व्यापार की वक्रताएँ न केवल कुशलता व आर्थिक वृद्धि को सीमित कर, केवल अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार पर ही लागू नहीं होती, बल्कि लोक वित्त पर भी लागू होती है । घरेलू कर की वक्रताएँ से कुशलता में हानि होती है जिससे आर्थिक वृद्धि पर विपरीत प्रभाव पड़ता है ।

यह समानता एक महत्वपूर्ण निष्कर्ष से सम्बन्धित है कि एक कर वक्रता को हटाने पर प्राप्त होने वाला कल्याण लाभ आनुपातिक होता है प्रारम्भिक वक्रता के वर्ग के, जो कल्याण अर्थशास्त्र का एक जाना पहचाना निष्कर्ष है ।

2. स्थायीकरण (Stabilisation):

स्थायीकरण के अन्तर्गत हम कीमत स्थायित्व को ध्यान में रखते है । अत: मुद्रा प्रसार भले ही वह द्रुतगामी हो या परिवर्ती आर्थिक वक्रताएँ उत्पन्न करता है । इसके विशेष प्रभाव उत्पादन में व साथ ही उपभोग पर पडते हैं ।

व्याख्या हेतु हम ऐसे देश को ध्यान में रखते हैं जहाँ उत्पादक दो प्रकार की पूंजी को ध्यान में रख रहे हैं:

(a) वास्तविक पूंजी । एवं

(b) वित्तीय पूंजी अर्थात् मुद्रा ।

वास्तविक पूंजी से अभिप्राय है- मशीनरी, संयन्त्र, फैक्ट्री इत्यादि ।

वित्तीय पूंजी में आवश्यक रूप से नकदी शामिल होती है जिसे तरल रूप या हाथ में रखते हुए बिना किसी बाधा के उत्पादन किया जाना सम्भव होता है । उदाहरण हेतु हम ऐसे कृषक को ध्यान में रखते है जो कृषि करने के लिए खाद एवं अन्य आदाओं का क्रय करने हेतु बैंक से नकदी उधार लेता है ।

उपज प्राप्त होने पर बैंक को ऋण की वापसी करता है । दूसरी ओर, ऐसा कृषक है जो अपने ट्रैक्टर (या वास्तविक पूंजी) के लिए ईंधन या स्पेयर पार्ट खरीदने के लिए नकद मुद्रा हाथ में रखता है ।

मुद्रा प्रसार उत्पादक को नकद रखने के लिए प्रेरित करता है,क्योंकि कीमतों में वृद्धि के बाद इसका मूल्य गिरता है, जबकि ट्रैक्टर व अन्य वास्तविक पूँजी का मूल्य मुद्रा प्रसार से प्रतिरक्षित होता है । अतः मुद्रा प्रसार कृषकों द्वारा प्रयोग किए जा रहे साधनों या आदाओं के प्रयोग में वक्रता लाता है । वह वित्तीय पूंजी को शुद्ध पूंजी से प्रतिस्थापित करता है जिससे वह स्वयं को मुद्रा-प्रसार से बचा सके ।

लोकन इसकी एक लागत होती है । यदि किसान के हाथ में तरल या नकद मुद्रा कम है तो वह अपने ट्रैक्टर के खराब पुजें बदल नहीं पाएगा या ट्रैक्टर में ईधन नहीं भरा पाएगा । इससे अकुशलता उत्पन्न होती है जो आर्थिक वृद्धि को हतोत्साहित करती है ।

चित्र 71.7 द्वारा इस दशा को स्पष्ट किया गया है । आरम्भिक सन्तुलन दशा E है जहाँ कीमत रेखा तप्त सम-उत्पाद रेखा को छूती है । पूर्व सन्तुलन बिन्दु G है जहाँ पूर्व उत्पादन की सम-उत्पाद रेखा, पूर्व की कीमत रेखा AC को स्पर्श करती है ।

सम-उत्पाद रेखा, परिभाषानुसार प्रदर्शित करती है कि उत्पादन की एक दी हुई मात्रा किस प्रकार ऊर्ध्व अक्ष पर वास्तविक पूंजी व क्षैतिज अक्ष पर वित्तीय पूंजी के विभिन्न योगों द्वारा उत्पादित होगी ।

EH रेखा का ढाल वित्तीय पूंजी के सापेक्ष शुद्ध पूंजी के कीमत अनुपात को प्रदर्शित करता है तथा इसका मापन एक धन मुद्रा-प्रसार की दर के द्वारा किया जाता है । मुद्रा-प्रसार की दर जितनी अधिक होती है कीमत रेखा उतनी ही प्रपाती होगी जो यह बताएगी कि वित्तीय पूंजी का प्रतिस्थापन शुद्ध पूंजी के द्वारा किया जा रहा है ।

अब यदि सरकारी प्रयासों से मुद्रा-प्रसार को समाप्त कर दिया जाये तो इससे साधन-कीमत अनुपात बदल कर एक-से-एक का रह जाएगा जिसे 45° रेखा DEFB के द्वारा दिखाया गया है ।

कीमतों में होने वाले स्थायित्व से उत्पादकों के लिये यह लाभदायक होता है कि वह अपनी नकदी को E से बढाकर F कर लेते हैं जिससे उनकी वास्तविक पूंजी का प्रयोग कम होता है तथा वह एक उच्च सम-उत्पाद रेखा पर जाते हैं जो नई कीमत रेखा को बिन्दु F पर स्पर्श करता है ।

कुल उत्पादन अब चित्र में क्षैतिज अक्ष पर मापते हुए OB है, जबकि पहले यह OA था । चित्र में हम देख रहे है कि बिन्दु E तथा G समान सम-उत्पाद रेखाओं पर है जो आरम्भिक उत्पादन को प्रदर्शित करता है ।

यह विवरण भी वैसा ही है जैसा चित्र 71.4 में उदारीकरण के सन्दर्भ में समझा था । अन्तर बस यह है कि चरों के नाम यहाँ बदल गए हैं ।

मुद्रा-प्रसार की वक्रताओं को नई कीमत रेखा व पुरानी कीमत रेखा के मध्य कोण द्वारा प्रदर्शित किया जाता है । आर्थिक स्थायित्व के परिणामस्वरूप होने वाला उत्पादन लाभ जिसे वित्तीय पूंजी की इकाइयों द्वारा मापा जाता है, क्षैतिज अक्ष में न्छ भाग के द्वारा मापा जाता है जो कि प्रत्यक्ष रूप से समानुपाती होता है मुद्रा-प्रसार की वक्रता के वर्ग के यह ठीक वैसी ही दशा है जैसी व्यापार की वक्रता के अधीन देखी गयी थी ।

अब यदि, एक दिये हुए साधनों या आदाओं के बण्डल द्वारा उत्पादित उत्पादन की मात्रा में वृद्धि कर दें जिसे चित्र में बिन्दु E के द्वारा दिखाया गया है तो स्थायीकरण के द्वारा आर्थिक कुशलता में वृद्धि होती है तथा आर्थिक वृद्धि भी साथ-साथ बढ़ती है ।

यहाँ यह ध्यान रखना है कि कम मुद्रा-प्रसार से आशय है, सरकार को प्राप्त होने वाला कम मुद्रा-प्रसार कर आगम । यदि आगम में हो रही कमी को व्यर्थ के अनुत्पादक व्ययों में कमी करते हुए पूरा कर लिया जाये तो स्थायीकरण से होने वाले कुशलता लाभ काफी अधिक होंगे ।

यदि सरकार मुद्रा प्रसारिक कर आगम में हुई कमी की भरपाई करने के लिए अन्य करों में वृद्धि कर दे अर्थात् यदि वह आय कर लगाए या मूल्य वर्धित कर लगाए तो एक कर की वक्रता दूसरे के द्वारा प्रतिस्थापित होगी । इसकी मात्रा भी कम होगी, कम इस कारण कि उच्च मुद्रा-प्रसार स्वयं में विशेष रूप से करारोपण की रुक्ष एवं असमर्थ विधि है ।

फिर यह भी ध्यान रखना है कि उत्पादन के एक साधन के रूप में मुद्रा का प्रयोग ऐसे विवरण में ब्याज की वास्तविक दर तथा मुद्रा-प्रसार की दर के बीच में एक विपरीत सम्बन्ध को जन्म देता है । बढ़ता हुआ मुद्रा-प्रसार फर्मों को इस बात के लिए प्रेरित करता है कि वह मुद्रा को वास्तविक पूंजी की तरफ खींचे जिससे पूंजी का सीमान्त उत्पाद गिरता है तथा ब्याज की वास्तविक दर भी ।

यह प्रभाव पूंजी बाजार की अपूर्णताओं से और अधिक धना होता जाता है जिससे शुद्ध व्याज की दर में ह्रास होता है । यह भी सम्भव है कि बढ़ते हुए मुद्रा-प्रसार के दौर में यह शून्य से भी नीचे हो जाए ।

अनुभव सिद्ध प्रमाण (Empirical Evidence):

प्रश्न यह है कि मुद्रा-प्रसार व वृद्धि के अनुभवसिद्ध साक्ष्य क्या है ? राबर्ट बैरो, ब्रूनों एवं ईस्टरली, ग्रिगोरियो, फिशर, लाइल्फ्सन, रोबिनी व मार्टिन के द्वारा किए गए अध्ययन यह प्रमाणित करते है कि मुद्रा-प्रसार को समाप्त किए जाने पर उत्पादन में आनुपातिक वृद्धि होती है ।

इन अध्ययनों में मुद्रा प्रसार की दर व उत्पादन वृद्धि की दर के जो अनुमान लगाए गए हैं उनमें मुद्रा-प्रसार की लागत को उत्पादन की वक्रता के रूप में देखा जाता है । परन्तु मुद्रा-प्रसार के कुछ अन्य प्रभाव भी पडते हैं, वैसे उपभोग व बचत पर ।

वस्तुत: इन अनुभवों से यह संकेत तो मिलता है कि उच्च मुद्रा-प्रसार वृद्धि को हानि पहुंचाता है परन्तु उच्च एवं न्यून मुद्रा-प्रसार के मध्य का वह स्तर या आरम्भ बिन्दु इस प्रसंग में कितना हो ? 40 प्रतिशत वार्षिक, 20 प्रतिशत या 10 प्रतिशत वार्षिक ? यह ज्ञात नहीं है ।

3. निजीकरण (Privatisation):

निजीकरण की दशा को समझने के लिए हम ऐसे स्थान को ध्यान में रखते हैं, जहां उत्पादन दो तरीकों से किया जाता हैं- पहला निजी क्षेत्र में एवं दूसरा सार्वजनिक क्षेत्र में जहाँ राज्य के द्वारा चलाए जाने वाले उपक्रम है ।

(a) पुर्नआवंटन:

माना कि निजी एवं सार्वजनिक क्षेत्र के द्वारा किया जाने वाला उत्पादन समान है पर इसकी गुणवत्ता भिन्न-भिन्न है । इसी क्रम में यह माना कि निजी उत्पादन सापेक्षिक रूप से बेहतर है । अतः सार्वजनिक क्षेत्र में किए माने वाले उत्पादन के सापेक्ष इसकी कीमत अधिक है ।

निजीकरण द्वारा आर्थिक कुशलता में वृद्धि होने की दशा को हम चित्र 71.8 के द्वारा स्पष्ट कर रहे हैं, जहाँ DEFG उत्पादन परिसीमा सार्वजनिक व निजी उत्पादकों के विभिन्न संयोगों को प्रदर्शित करती है । यह देश के दिए हुए संसाधनों के पूर्ण प्रयोग के साथ संगति रखती है ।

यदि निजी उत्पादन पर कर लगाया जाए तथा सार्वजनिक उत्पादन को अनुदान दिया जाये तब दोनों की सापेक्षिक कीमत में विरूपण होगा तथा यह सार्वजनिक क्षेत्र के पक्ष में जाएगी । ऐसे में अधिक सार्वजनिक उत्पादन किया जाएगा व निजी उत्पादन कम होगा ।

उत्पादन बिन्दु E पर होगा जहाँ विरूपित कीमत रेखा उत्पादन की परिसीमा को छूती है । सार्वजनिक उत्पादन OH के द्वारा तथा निजी उत्पादन ON के द्वारा प्रदर्शित किया जाता है ।

अब माना कि कर व अनुदानों को निरस्त कर दिया जाता है या हटा दिया जाता है । ऐसे में वक्रता या विरूपण रहित EA कीमत रेखा EA के द्वारा दिखाई गई है । नीतियों में होने वाले परिवर्तन से साधन सार्वजनिक क्षेत्र से निजी क्षेत्र की ओर हस्तान्तरित होंगे ।

यह निजीकरण की प्रक्रिया है जिससे उत्पादन बिन्दु E से बिन्दु F की ओर जाएगा । उत्पादन OA से बढकर OB हो जाएगा अत कुल उत्पादन में AB की वृद्धि होगी ।

उत्पादन में होने वाला लाभ पुन आरम्भिक कीमत वक्रता या विरूपण के वर्ग के समानुपाती होगा जिसे दोनों कीमत रेखाओं के मध्य के कोण द्वारा दिखाया गया है अर्थात् विरूपित कीमत अनुपात की रेखा व विरूपण रहित कीमत अनुपात की रेखाओं के मध्य का कोण पुर्नआवंटन प्रभाव है जिसमें हम पुर्नसंगठन के प्रभाव को जोड़ सकते है । यदि निजीकरण से निजी क्षेत्र की या सार्वजनिक क्षेत्र या दोनों की कुशलता में वृद्धि होती है, तो उत्पादन की परिसीमा बाहर की ओर जाएगी ।

(b) पुर्नसंगठन:

पुर्नसंगठन की दशा को समझने के लिए माना कि निजी क्षेत्र की उत्पादकता में वृद्धि होती । एसी दशा में उत्पादन सम्भावना परिसीमा DEFG से DLM हो जाती है जिसे चित्र 71.9 में प्रदर्शित किया गया है । उत्पादन बिन्दु F से बिन्दु L पर आ जाता है । कुल उत्पादन में होने वाला लाभ ग्ट है जो बराबर होता है पुर्नआवंटन लाभ AC पुर्नसंगठन लाभ AB+ के । यह चित्र 71.6 में की गई व्याख्या जैसा ही तर्क है ।

(c) निजीकरण से होने वाली कुशलता प्राप्तियाँ:

निजीकरण से होने वाली कुशलता प्राप्तियों पर जाइल्फॉसर हरबर्टसन व जोइगा का अध्ययन महत्वपूर्ण है । हम इस बात को ध्यान में रखकर चर्चा कर रहे है कि उत्पादन के तरीकों के सम्बन्ध में निजी बनाम सार्वजनिक उपक्रमों का स्वामित्व समस्या का एक पक्ष है ।

सरकार के स्वरूप, प्रशासनिक ढाँचे, वित्त व कर के प्रबन्ध, सार्वजनिक सेवाओं की दशा जैसी कई स्थितियों को ध्यान में रखना आवश्यक है । सामान्यतः यह कह पाना तो सम्भव नहीं है कि सरकार का छोटा आकार वृद्धि के लिए बेहतर होता है । देखना यह है कि सरकार आर्थिक कुशलता व वृद्धि के लिए किस प्रकार का वातावरण निर्मित करती है ।

ऐसी दशाएँ भी देखने में आई है कि सरकारी आगम में वृद्धि हेतु सरकार द्वारा कर का भार इतना अधिक कर दिया गया जिससे समूची आर्थिक कुशलता व वृद्धि के सामने गम्भीर खतरे उठ खडे हुए । स्वीडन देश इसका एक उदाहरण है । दूसरी अतिरंजित दशा हैटी देश में देखी गई जहाँ सार्वजनिक सेवाएँ अपर्याप्त व बहुत कम मात्रा में उपलब्ध थीं ।

वास्तव में विचार तो इस पक्ष पर करना होगा कि सरकार जिस कर आगम की प्राप्ति कर रही है उसे वह व्यय कहीं करती है । यदि सरकार भारी कर वसूली कर उसे अकुशल व सफेद हाथी बने सार्वजनिक प्रतिष्ठानों पर व्यय करें तब आर्थिक वृद्धि व सरकारी व्यय के मध्य विपरीत सम्बन्ध ही दिखाई देगा ।

परन्तु कर की उच्च दर भी वृद्धि के लिए बेहतर व सकारात्मक हो सकती है यदि सरकार अपने का आगम को कुशलता व चतुराई से स्वास्थ्य व शिक्षा पर व्यय करें जिससे मानव संसाधन प्रबन्ध सम्भव बने व प्रतिभाओं का पलायन न हो ।

4. शिक्षा स्वास्थ्य एवं वितरण (Education, Health and Distribution):

शिक्षा एवं आर्थिक वृद्धि के मध्य निकट सम्बन्ध की स्वीकारोक्ति एडम स्मिथ एवं उनके अनुयायियों जिनमें जान स्टुअर्ट मिल व अलफ्रेड मार्शल सम्मिलित थे, के लेखन में मिलती है । जीन स्टुअर्ट मिल में अपना विश्वास प्रकट करते हुए लिखा कि, अबंध नीति सामान्य व्यवहार की किया है इससे हटना जब तक और किसी अच्छाई से न जुड़ा हो, आवश्यक रूप से एक बुराई है ।

क्लासिकल अर्थशास्त्री इसी सन्दर्भ में बच्चों की नियमित स्कूल उपस्थिति का समर्थन करते थे । भले ही बच्चों के अभिभावक इसके प्रति उदासीन रहें या विरोध करें बच्चों की प्रारम्भिक शिक्षा को प्राथमिकता मिलनी राष्ट्र के प्रति अनुकूल होगी यह उनका दृढ विश्वास था । परिणामतः उनके समय में ही 1870 का ‘शिक्षा एक्ट विधान’ लागू हुआ जिसने इंग्लैण्ड में सरकार द्वारा अनिवार्य वित्त पोषित प्रारम्भिक शिक्षा का शुभारम्भ किया । मिल के अनुसार यह स्पष्ट आर्थिक व सामाजिक आवश्यकता थी ।

वृद्धि को प्रभावित करने वाले चरों में आर्थिक व सांख्यिकीय रूप से गुणवत्तापूर्ण व स्वस्थ निर्धारकों का चयन किया जाता रहा । लेवीन व रेनाल्ड के द्वारा किए अनुभवसिद्ध अध्ययनों में पाया गया कि वृद्धि के महत्वपूर्ण निर्धारकों में केवल प्रति व्यक्ति आरम्भिक आय तथा बचत की दर स्वस्थ निर्धारकों की श्रेणी में आते हैं ।

मार्टिन ने स्वस्थ निर्धारकों के चयन में चेतावनी दी कि स्वस्थ निर्धारक के लिए अत्यन्त कठोर मापदण्ड भविष्य के लिए योजनाएँ बनाने की हमारी क्षमता व दृष्टि को बाधित कर सकता है । उन्होंने तर्क दिया कि वृद्धि के स्वस्थ निर्धारकों में अधिक चरों को सम्मिलित किया जाना चाहिए ।

वास्तव में समस्या यह है कि आर्थिक कुशलता का निरीक्षण करना कठिन है । इसका प्रतिनिधित्व तो अनुभवसिद्ध अध्ययनों में इसके निकट के निर्धारकों के द्वारा ही किया जाना सम्भव है तथा कुशलता के सम्भावित निर्धारक वस्तुतः काफी अधिक है ।

इनमें से कुशलता के कुछ मापक ऐसे हैं जिनका मापन किया जाना श्रमसाध्य है व काफी लम्बे समय तक निरीक्षण की आवश्यकता के बाद ही निश्चित निष्कर्ष दे पाने में सक्षम होता है । उदाहरणार्थ शिक्षा की गुणवत्ता जो कई कारकों से निकट रूप से अर्न्तसम्बन्धित होता है । ऐसे में अर्थमितीय विधियों से इसका वृद्धि पर मात्रात्मक प्रभाव तो किसी सीमा तक गत किया जा सकता है पर गुणात्मक प्रभाव प्राप्त करना कठिन है ।

ऐसे व्याख्यात्मक या स्पष्टीकरणात्मक चर जिन्हें शैक्षिक प्राप्तियों हेतु प्रतिनिधित्व के विविध चरों द्वारा निरुपित किया जाता है- मुख्यत पढाई के वर्षों, स्कूल नामांकन दरों, लड़के व लड़कियों के अनुपात, बीच पढ़ाई में स्कूल छोड़ने वाले, बच्चों की संख्या, शिक्षा पर किए जा रहे विनियोग के प्रभाव इत्यादि से सम्बन्धित हैं ।

यह अपूर्ण प्रतिनिधित्व ही कर पाते हैं, क्योंकि यह उत्पादन का मापन मात्र सम्मिलित आदाओं या साधनों के द्वारा करते है । इसमें, इस पक्ष का ध्यान नहीं रखा जाता कि स्कूल में प्राप्त होने वाली शिक्षा का स्तर क्या है?

कुछ अनुभवसिद्ध अध्ययनों से यह सामान्य प्रवृति ज्ञात हुई कि आर्थिक वृद्धि हेतु माध्यमिक व उच्च शिक्षा में लडकों की सहभागिता अच्छी है । किसी भी स्तर पर कन्याओं, बालिकाओं व युवतियों की शिक्षा एवं शिक्षा पर सरकारी व्यय के प्रभाव को आर्थिक व सांख्यिकीय रूप से स्थापित नहीं किया जा सका ।

सम्भावित रूप से इनसे बस यह पता चलता है कि जिन स्पष्टीकरण या प्रतिनिधि चरों का प्रयोग किया गया उनकी गुणवत्ता कमजोर थी, जबकि पता यह लगना चाहिए था कि शिक्षा व आर्थिक वृद्धि के मध्य अर्न्तनिहित सम्बन्ध क्या हैं?

मैनकिव, रोमर एवं वेल के द्वारा किए अध्ययन में प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय उत्पाद एवं प्राइमरी स्कूल नामांकन के मध्य एक प्रत्यक्ष सम्बन्ध देखा गया । यह भी पाया गया कि जैसे-जैसे प्रति व्यक्ति आय अधिक होती जाती है, माध्यमिक स्कूल की उपस्थिति भी अधिक होती रहती है अर्थात् प्रति व्यक्ति आय की वृद्धि से माध्यमिक स्कूल नामांकन दर भी बढती है ।

इस प्रकार मानव पूंजी स्टॉक के निकट निर्धारक हेतु माध्यमिक शिक्षा का नामांकन महत्वपूर्ण रहा । यह निष्कर्ष भी दिया गया कि श्रम, भौतिक पूंजी व मानवीय पूंजी एक देश में आर्थिक वृद्धि की दर पर एक तिहाई भाग प्रत्येक का योगदान करती है ।”

शिक्षा एवं आर्थिक वृद्धि के मध्य सम्बन्धों का मानव पूंजी विश्लेषण उन अन्य कारकों को भी ध्यान में रखने की जरूरत महसूत करता है जो पात्र पूंजी के स्टाक में सुधार करते हैं । इनमें राष्ट्रीय स्वास्थ्य के निकट निर्धारक में जीवन प्रत्याशा को लेते हुए कई अध्ययनों में आर्थिक वृद्धि पर दीर्घ जीवन के स्पष्ट प्रभावों का विश्लेषण किया गया । इस प्रकार आर्थिक वृद्धि हेतु स्वास्थ्य एवं दीर्घ जीवन महत्वपूर्ण सिद्ध हुए ।

मानव पूंजी का एक और पस ध्यान आकर्षित करता है जो आय व सम्पत्ति के वितरण की समानता है । एलफ्रेड मार्शल का विचार था कि सुवितरित सम्पत्ति के साथ मानव पूंजी वृद्धि के लिए प्रभावकारी घटक है ।

शिक्षा के प्रति सार्वजनिक एवं निजी प्रतिबद्धता विश्वभर में निश्चित रूप से समानता एवं वृद्धि हेतु महत्वपूर्ण बन जाती है । रोडरिक के अनुसार सकल असमानता की प्रवृति सामाजिक व आर्थिक प्रतिकूलता उत्पन्न करती है जिससे आर्थिक कुशलता एवं वृद्धि में अवरोध आते हैं ।

स्टिगलिट्ज पर्ससन एवं टेबिलिनी, एलीसिना व पेरोटी तथा रोलैण्ड बीना बाउ द्वारा पूर्वी एशियाई देशों में 1965 के उपरान्त हुई तीव्र आर्थिक वृद्धि के अध्ययन यह निष्कर्ष प्रदान करते हैं कि इसे आर्थिक समानता की कीमत पर प्राप्त किया गया ।

कहने का तात्पर्य है कि अचानक होने वाली आर्थिक वृद्धि ने आर्थिक व सामाजिक समानता हेतु अड़चन एवं बाधा ही उत्पन्न की । अनुभवसिद्ध प्रमाणों से यह प्रदर्शित होता है कि हांगकाँग, इण्डोनेशिया, फिलीपाइंस, सिंगापुर व थाइलैण्ड में आय या उपभोग का वितरण यूरोपीय व अन्य विकसित देशों के सापेक्ष काफी अधिक असमानता प्रदर्शित करता है ।

मानव पूंजी के परिप्रेक्ष्य में आर्थिक समस्याओं को जानते हुए एक अन्य महत्वपूर्ण व गम्भीर पक्ष पर ध्यान जाता है । यह संहार, विध्वंस व आतंक है । कुछ देशों में सत्ता पक्ष के द्वारा काफी लोमहर्षक आर्थिक संहार किए गए । जैसे कि कम्बोडिया में पॉल पट तथा यूगांडा में ईदी अमीन ने मानव पूँजी की अपूरणीय क्षति की ।

ईदी अमीन ने शिक्षित बुद्धिजीवी वर्ग को निर्वासित किया व कइयों को मौत के घाट उतार दिया । पॉल पीट ने भी ऐसा ही नरसंहार किया । सोवियत संघ में भी पतन की पराकाष्ठा के पीछे वह अक्षमताएँ व अकुशलताएं थीं जिनका जन्म जोसेफ स्टालिन की सत्ता व उसके बाद मानव पूंजी के कुआवंटन, अर्द्धविकास व ह्रास के परिणामस्वरूप हुआ ।

हाल के वर्षों में धार्मिक संकीर्णताओं से प्रतिफलित आतंकवाद की समस्या पी विकराल रूप से गई है जिससे आर्थिक संसाधनों की गतिशीलता गलत दिशाओं में मुड गई है इससे आस्था, विश्वास, परम्परा व सौहार्द पर गहरा आघात लगा है तथा सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक अस्थायित्व की स्थितियाँ उत्पन्न हो गई हैं ।

राजनीतिक अस्थायित्व से निजी सम्पत्ति के अधिकार को खतरा पैदा होता है तथा बचत विनियोग की प्रेरणाएँ धीमी पड़ जाती है । निस्संदेह ही धीमी आर्थिक वृद्धि राजनीतिक असन्तुष्टि को जन्म देती है जिससे तनाव व सन्ताप और अधिक गहरा जाते है । लोकहित के निहितार्थ कहीं लुप्त हो जाते हैं ।

5. प्राकृतिक संसाधन एवं भौगोलिक स्थिति (Natural Resources and Geographical Location):

एडम स्मिथ ने अपने महत्वपूर्ण ग्रन्थ Wealth of Nations में यह सुझाव दिया था कि एक देश की सम्पत्ति की वृद्धि-जिसे उन्होंने आर्थिक वृद्धि कहा- मुख्यतः निर्भर करती है उसकी मिट्टी जलवायु एवं दशा की प्रकृति पर हाल ही में जेफ्री सैश और एंड्रज वार्नर, जिलफेसर हरबर्टसन व जोएगा ने विभिन्न देशों में आर्थिक वृद्धि पर भौगोलिक चरों के प्रभाव का परीक्षण किया ।

उन्होंने जिन चरों का प्रयोग किया उनमें प्राकृतिक संसाधन सम्पन्नता, विविध प्रकार की भूमियों के क्षेत्र का अनुपात व ध्यान में रखे जा रहे देश के उष्ण कटिबन्ध अथवा समशीतोष्ण होने की दशा मुख्य थीं ।

प्राकृतिक संसाधन एवं भौगोलिक स्थिति के साथ आर्थिक वृद्धि के प्रतिरूपों के अध्ययन से कुछ विचारणीय पक्ष सामने आते है । ऐसे देश जो उष्णकटिबन्ध में स्थित है वहाँ प्रति व्यक्ति आर्थिक वृद्धि की वार्षिक दरों में, अन्य बातों के समान रहने पर 1 प्रतिशत बिन्दु की कमी देखी गई ।

यहाँ की मुख्य समस्या भयानक गर्मी व उमस है । होंगकोंग, मारीशस व सिंगापुर जैसे अपवादों को छोड दें तो अधिकांश उष्ण कटिबन्ध देश निर्धन हैं जहाँ मलेरिया व अन्य संक्रामक बीमारियों का प्रकोप बना रहता है ।

राबर्ट हाल व चार्ल्स जोन ने अपने शोथपत्र, The Productivity of Nations (1996) में लिखा है कि आइसलैण्ड, फिनलैण्ड, नार्वे, स्वीडन व डेनमार्क जैसे देशों ने अपनी बेहतर भौगौलिक स्थिति के कारण प्रति श्रमिक उत्पादकता में 14.5 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि प्राप्त की ।

जैफ्री सैचेज तथा एर्ण्ड्रज वारनर ने अपने शोधपत्र ‘Natural Resources Abundance and Economic’ एवं जिलफेसन, हरबर्टसन व जोएगा ने अपने शोधपत्र ‘A Mixed Blessing : Natural Resources and Economic Growth’ में स्पष्ट किया कि प्राकृतिक संसाधनों, जैसे- तेल, खनिज, वन, मछली व अन्य समुद्री उत्पादों इत्यादि पर अत्यधिक निर्भरता भी वृद्धि के लिए हानिकारक होती है ।

भले ही ऐसी निर्धनता का मापन कुल निर्यातों में प्राथमिक क्षेत्र में लगी श्रम-शक्ति के अंश के रूप में हो या सकल राष्ट्रीय उत्पाद के रूप में । यह पाया गया कि कुल निर्यातों में प्राथमिक निर्यातों के अंश में होने वाली 25 प्रतिशत वृद्धि से वार्षिक प्रति व्यक्ति में 1 प्रतिशत की कमी देखी गई ।

उपर्युक्त अध्ययनों से स्पष्ट होता है कि प्राकृतिक संसाधनों की बहुलता एवं वृद्धि के आर्थिक परिणामों के मध्य विपरीत सम्बन्ध विद्यमान है ।

इसके तीन सम्भावित कारणों पर विचार किया जा सकता है:

पहला कारण यह कि प्राकृतिक साधनों का प्रबंध बहुत कमजोर व अकुशल तरीकों से किया जाता है । विश्व में वन सम्पदा, खनिज साधनों, दुर्लभ जड़ी बूटी, दुर्लभ प्रजाति के जीवों, समुद्री उत्पाद व अति मतस्य दोहन के साथ पेट्रोलियम पदार्थों के गिरते हुए स्टाक अन्धाधुन्ध दोहन व कमजोर प्रबन्ध के साथ

अचानक ही प्राप्त होने वाले भारी लाभों की स्वार्थलिप्सा का कारण रहे है । अफ्रीका के कई भागों में प्राथमिक उद्योगों में अकुशल राज्य उपक्रमों की उपस्थिति एवं सरकार द्वारा चलाए गए निर्यात बोर्डो की अकुशलता से आर्थिक वृद्धि पर घातक विपरीत प्रभाव पडे हैं । लाने व टॉरमेल द्वारा किए गए अध्ययन बताते है कि वह देश जो प्राकृतिक संसाधनों में धनी रहे हैं वहाँ गैर प्राथमिक आर्थिक क्रियाओं व निर्यातों की अनदेखी व भेदभाव किया जाता है ।

दूसरी दशा में प्राकृतिक संसाधनों की तेजी, घरेलू करेंसी के मूल्य में वास्तविक क्य में वृद्धि करती है जिससे गैर प्राथमिक निर्यातों की लाभदायकता कम हो जाती है लेकिन जब तेजी समाप्त हो जाती है तो कोई क्षतिपूरक शुद्ध विनिमय दर सुधार नहीं होता ।

इसे तथाकथित, ‘डज व्याधिं’ कहते है जिसका नामकरण 1960 के दशक में नीदरलैण्ड में प्राकृतिक गैसों की खोजों के परिणामस्वरूप हुआ । प्राथमिक निर्यातों के विस्तार से गैर प्राथमिक निर्यात हतोत्साहित होता है तथा इसका प्रभाव कुल निर्यातों, आयातों एवं आर्थिक वृद्धि पर भी पडता है ।

ऐसे गैर प्राथमिक उत्पाद व सेवाएँ जो पहले लाभ प्रदान कर रहे थे, तेजी के बाद बाजार निर्धारित साम्य वास्तविक विनिमय दरों पर विश्व बाजार में लम्बे समय तक प्रतिस्पर्द्धा कर पाने में असमर्थ होती है । उदाहरण के लिए, नीदरलैण्ड में सकल राष्ट्रीय उत्पाद में निर्यातों का अंश 170 के 43 प्रतिशत से 1995 में 53 प्रतिशत हो गया ।

इसी प्रकार नौर्वे में उत्तरी महासागर में, 1970 के दशक में तेल के विशाल भण्डार मिले जिसने इसे सऊदी अरब के बाद दूसरा बडा तेल निर्यातक देश बना दिया । पर 1970 से 1995 की समय अवधि में नौवें के निर्यातों का अनुपात गिरने लगा । उसके तेल निर्यात सीमित होते-होते गैर तेल निर्यातों की दशा में आ गए ।

आज भी कई ऐसे देश है जो प्राकृतिक संसाधनों के निर्यात से अपनी अर्थव्यवस्था का प्रबन्ध कर रहे है, जैसे- आइसलैण्ड अपनी निर्यात प्राप्तियों का आधे से अधिक व सकल राष्ट्रीय उत्पाद का एक बटा छह (1/6) भाग मछली के निर्यात से प्राप्त करता है । इसी प्रकार बुरकीना फासो, बुरुंडी, नाइजर, व सियरालेओने, ऐसे देश हैं जो प्राथमिक वस्तुओं के मुख्य निर्यातकर्त्ता हैं व उनकी अर्थव्यवस्था निर्यातों पर निर्भर है । अति विदोहन से उत्पन्न कष्ट यह देश भोगने लगे है ।

तीसरा हमें इस प्रकृति एवं प्रवृत्ति पर ध्यान देना होगा कि प्राकृतिक संसाधन आधारित आर्थिक किया पर भारी निर्भरता जिसमें कृषि, वानिकी, मतस्य खनन शामिल हैं प्राय: उन देशों से संबन्धित हैं जहाँ न केवल बचत व विनियोग के स्तर न्यून है बल्कि शिक्षा का स्तर भी कमजोर है ।

इससे यह स्वीकार किया जा सकता है कि प्राकृतिक संसाधनों की अधिकता तथा तत्सम्बन्धित प्राथमिक उत्पादों की प्रधानता वृद्धि को परिसीमित करती है जिसका कारण है मानवीय पूंजी के साथ-साथ भौतिक पूंजी में किए जाने वाले विनियोग को निरुत्साहित करने वाला वातावरण विद्यमान होना ।

वस्तुतः सेवा व विर्निमाण, प्रबन्ध एवं तकनीकी क्षेत्र की तुलना में प्राथमिक क्षेत्र कम भौतिक व अकुशल मानव पूंजी के साथ सम्बन्धित किया जाता है जिससे प्राप्त होने वाले प्रतिफल भी न्यून होते है ।

लेकिन जब कृषि खनन व वानिकी जैसे क्षेत्रों में बेहतर व कारगर तथा उच्च तकनीक का प्रयोग किया जाने लगता है व प्रौद्योगिकी-प्रबन्ध पर दिया गया अधिक ध्यान शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार करता है, तब जल-जमीन व जंगल को बनाए रखने के प्रति चेतना, जागरुकता व संवेदनशीलता भी उत्पन्न होती है ।

प्राकृतिक संसाधनों व भौगोलिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए अब हम एक विशिष्ट स्थानिक दशा पर विचार करते हैं जो अफ्रीका जैसे देश की है । इसका विकास अवरूद्ध हो रहा है । यहाँ मुख्य समस्या यह है कि वह गरीब देशों से सिरा है । यह गरीब देश कम क्रय-शक्ति व आय की न्यूनता के रहते उसके निर्यातों को खरीद पाने में समर्थ नहीं हैं ।

यह बात एडम स्मिथ के इस कथन को स्पष्ट रूप से चरितार्थ करती है कि पड़ोसी राष्ट्र की सम्पत्ति निश्चित रूप से व्यापार हेतु लाभप्रद होती है । इसी कारण वृद्धि के महत्वपूर्ण निर्धारकों में अफ्रीका के लिए डमी चर की प्रस्तावना रखी जाती है जिससे यह आशय है कि यह डमी प्राथमिक निर्यातों व सम्बन्धित चरों के लिए प्रतिनिधि या प्राक्सी का कार्य करती है ।

प्राकृतिक संसाधनों व उनका प्रबन्ध आर्थिक वृद्धि के लिए एक-दूसरे दृष्टिकोण से भी विचारणीय बनता है । कई देशों ने अपने प्राकृतिक पर्यावरण की परवाह किए बिना अस्थायी रूप अपनी आय को उन स्तरों पर बनाए रखने के प्रलय किए ।

उदाहरण के लिए पूर्व सोवियत संघ में औद्योगीकरण की अंधी से उत्पन्न अनियमित प्रदूषण ने पर्यावरण व पारिस्थितिकी तन्त्र का क्षय किया इससे आर्थिक क्षति के अप्रिय व अनचाहे खतरे उत्पन्न हुए । इसके लिए सोवियत संघ की राष्ट्रीय आय लेखांकन प्रणाली को दोष दिया जाता है, जहाँ पर्यावरण की स्वच्छता के लिए किए जा रहे व्यय को उत्पादन की भाँति नहीं देखा गया ।

अन्य कई देशों में भी इसी प्रकार पर्यावरण के रख-रखाव से साधनों को विवर्तित करते हुए उसे चालू व्यय व शुद्ध भौतिक उत्पाद की ओर प्रवाहित किया गया । वर्तमान में पर्यावरण सन्तुलन को बनाए रखने की लागत की अवहेलना की गई जिससे इस लागत का बोझ भावी पीढ़ी की ओर सरका दिया जाता रहा ।

ऐसे में न्यूक्लीयर पावर प्लांट में रिसाव को दूर करने व अराल समुद्र का आकार कम होने व इसके विलुप्त होने जैसे खतरों की भी चिन्ता नहीं की गई । अराल समुद्र 64,000 वर्ग किमी॰ क्षेत्र तक विस्तृत था । उजबेकिस्तान के राजनीतिक रूप से शक्तिशाली कपास उत्पादकों के बाहुबल द्वारा अराल समुद्र से अति सिंचाई की गई जिससे यह समुद्र अपने मूल आकार से एक-तिहाई बैठ गया ।

इससे नमक निकलने लगा व तटीय क्षेत्रों में भयावह बीमारियाँ फैल गई । भारत में भी पर्यावरण की गम्भीर समस्याएँ विद्यमान हैं । चरागाह नष्ट हो रहे हैं । पशुपालक उजड़ रहे हैं । किसान आत्महत्या कर रहे है । परंपरागत उद्योग-धन्धे दम तोड़ गए हैं । शहरों की ओर बढ़ता प्रवास जारी है । हर साल लगभग 8 लाख हैक्टेयर जमीन बीहड बनती जा रही है ।

पिछले दशक में खनिज उत्पादन 50 गुना बड़ा कर इसके कारण लाखों हैक्टेयर फसल और वन चौपट हुए है व अनेक गाँव वीरान । ग्लेशियर सिमट रहे हैं, मौसम चक्र बदल रहा है, नित नई बीमारियाँ बढ़ रही हैं ।

कहीं बाढ तो कहीं सूखे का कोप भुगत रहा है देश । नदी, तालाब, झील व नदियाँ, कूड़े-करकट व हानिकारक रसायनों के कचड़े का प्रवाह ढो रही हैं । सार्वजनिक संसाधनों का ह्रास हो रहा है ।

अश्चौर व मौरी ने अर्न्तसंरचना व सरकारी संस्थाओं की गुणवत्ता जिनमें भ्रष्टाचार की अनुपस्थिति मुख्य है को वृद्धि के लिए आवश्यक बताया गया है । हाल एवं जोन्स ने प्राकृतिक पर्यावरण के साथ-साथ सामाजिक व सांस्कृतिक पर्यावरण के वृद्धि पर सकारात्मक प्रभाव स्पष्ट किए । इनके अभाव में विकास व पर्यावरण की भयावह समस्याएँ उत्पन्न होती है । चिन्ताएँ बढ़ती हैं ।

भारत में पर्यावरण के प्रति चिन्ता काफी बड़ी है । आजादी के बाद नियोजित विकास के क्रम में ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के क्रियान्वयन के बावजूद साधनों के इष्टतम प्रयोग में असमंजस बना है । विकास व पर्यावरण सन्तुलन की यह चिन्ताएँ दिनों-दिन मानवीय भी होती जा रही है ।

पर्यावरण का महत्व, अपनी संस्कृति, अपनी परम्परा और अपने समाज से उसके सम्बन्ध या कहें उसके विच्छेद की समझ बढने से पर्यावरण की चिन्ता का स्वरूप भी बदलता जा रहा है ।

वर्षों पहले भोपाल काण्ड ने प्रदूषण नियन्त्रण के लिए जिम्मेदार लोगों को, भले ही कुछ समय के लिए सकते में डाल दिया था व लाखों औद्योगिक मजदूरों व कारखानों के पास रहने वालों के मन में डर पैदा किया था । लेकिन भोपाल आज भी घट रहे है ।

रंग, रोगन, तेजाब, रसायन, औद्योगिकी व टेक्नोलोजी के विविध यन्त्र-उपकरण बनाने की कई सूक्ष्म व अदृश्य प्रक्रियाएँ, धरती पर खाद व कीटनाशक के नाम पर पड रहे विषाक्त पदार्थ, हमारी पूरी उपेक्षा करती हुई हमारी पूरी प्राकृतिक सम्पदा को लूटे जा रही है ।

विकास के लिए ‘सेज’ और ‘सिंगूर’ के विवाद भ्रम और अविश्वास पैदा कर रहे हैं । देश की हजारों हैक्टेयर उपजाऊ भूमि साल दर साल परती बनती जा रही है । खेती की, वन की चरागाह की मिट्‌टी पर अब सीमेन्ट के, कंक्रीट के जंगल उभर आए है । कवि जिस माटी के गुण गाते थकते नहीं थे आज वह माटी ही थक चली है सुजला, सुफला शस्य श्यामला धरती बंजर बनती जा रही है ।

पर्यावरण की कीमत पर होने वाला विकास जिस डाल पर बैठे है, उसी को काटने जैसी हालत में ले आया है । भारत जैसे देश की धरती को सौन्दर्यविहीन करने में पश्चिमी जगत की, और विकास के बारे में पश्चिमी विचारों की बहुत बड़ी भूमिका संसाधन सम्पन्न इस देश को परती भूमि में बदलने की प्रक्रिया औपनिवेशिक शासन अंग्रेजी राज से शुरू हुई ।

आजादी के बाद भी यह सिलसिला जारी है । इसका सबसे बड़ा व बुरा असर लोगों की सामूहिक सम्पत्ति हक-हकूक पर पड़ा । जंगल, चरागाह, नदी, तालाब, झील, जड़ी-बूटी, वन्य-जीव, मिट्‌टी-पत्थर-खनिज का दुरुपयोग संगठित रूप से होता रहा और सरकार ने इसे बढ़ावा ही दिया ।

नेता, अफसर, माफिया व अवसर-सुविधा-समझौता या फिर तटस्थता से क्षुद्र स्वार्थों के पीछे भागने वाले तमाम लोग… आर्थिक उन्नति व वैज्ञानिक प्रबन्ध के नाम पर प्रकृति को लूटने व इसके शोषण की मंजूरी लेते रहे ।

जब तक राष्ट्र में समाज अपनी प्राकृतिक सम्पदा के साथ अपने सम्बन्ध फिर से परिभाषित नहीं करेगा और उससे जुड़े लोग प्रकृति की सम्भाल अपने हाथों में नहीं लेंगे तब तक उसकी रक्षा सम्भव नहीं दिखती । पहले प्राकृतिक सम्पदा का संचालन सामाजिक नियन्त्रण की अलग-अलग प्रक्रियाओं के माध्यम से होता था ।

लेकिन इस सामूहिक सम्पदा को राज्य की सम्पत्ति में बदल देने की नीति ने प्रशासनिक नियन्त्रण के घेरे खडे कर दिए हैं । प्रशासन इन्हें ताकतवर हाथों के हवाले कर देता है फिर चाहे नए उद्योगों के नाम पर हरियाली बरसाने वाले किसानों की हजारों एकड कृषि भूमि हो या खनन के नाम जारी पट्‌टा या सार्वजनिक निर्माण के ठेके-प्रशासन इन्हें ताकतवर हाथों के हवाले कर देता है ।

अभी कुछ ही समय पहले तक देश के शहर और गाँव, खेत, जंगल, तालाब, कुएँ, पनघट और बावडियों से समृद्ध रहे है पर सरकारी विकास कार्यक्रमों ने समाज के इस ‘सामाजिक चरित्र’ को छिन्न-भिन्न करके रख दिया है ।

आज की अपेक्षा है कि सरकार की इस भूमिका की पुर्नव्याख्या की जाये । यह एक बड़ी चुनौती है- सिर्फ राजनीतिक नेतृत्व के लिए नहीं, पूरे समाज के लिए । पिछले कुछ वर्षों में कुछ संस्थाओं और आन्दोलनों ने यह सिद्ध किया है कि सब तरह की कठिनाइयों, वक्रताओं एवं विचलनों के बावजूद चीजें सुधारी जा सकती हैं और इसके लिए समर्पण व साधना हो तो साधन भी जुट जाते है ।

प्रश्न उस संकल्पना से सम्बन्धित है कि हमारी जनसंख्या क्या इतनी अधिक बढ गई है कि हमारी प्राथमिक जरूरतें पूरी नहीं की जा सकतीं ? क्या इस बोझ को धरती वहन नहीं कर पा रही ? क्या उसकी धारक क्षमता चुक गई है ? तो क्या यह सत्य नहीं कि बढती जनसंख्या, देश की धरती पर नहीं बल्कि अक्षम सरकारों पर बढता बोझ है ।

क्या सरकारी नीतियों ही विषमता में वृद्धि नहीं कर रहीं ? क्या हर वस्तु व सेवा के उत्पादन की अभिवृद्धि के साथ उसके समुचित वितरण को सामाजिक कल्याण की दृष्टि से परखा जाना अनिवार्य नहीं है ?

यह तब ही हो सकता है जब समाज के विभिन अंगों की मर्यादाएँ, कर्त्तव्य व अधिकार फिर से निश्चित किए जाएँ । हमारी प्राकृतिक सम्पदा की पूरी उपेक्षा करने वाले नए राजकर्ताओं, नियोजकों ने अपने विकास कार्यक्रमों के जरिये पर्यावरण को दुह कर कुछ ही लोगों की जरूरतें पूरी करते हुए उसकी क्षमता बढाने के बजाय दिनों-दिन घटाई ही है । ऐसी विकट परिस्थिति में पर्यावरण के संवर्धन का सरकारी प्रयत्न भी लोगों के लिए उतना ही कष्टकारी बन जाता है, जितना उसका दोहन ।

ये सभी बातें हमारे नेतृत्व पर गम्भीर प्रश्न तो उठाती ही है, हमें सम्भलने के मौके भी देती है । आज भय, असुरक्षा, आतंक, विषमता, बेकारी, अनिश्चितता के तनाव दबाव व कसाव की समस्याओं से जूझने के साध-साथ इतने बड़े पैमाने पर हम सभी में उतना आत्मविश्वास नहीं भर सकता जितना कि पर्यावरण को बचाने का काम । अलगाव भरे आज के वातावरण में पर्यावरण की चुनौती पूरे देश को एक सूत्र में बाँधने वाला रक्षा-धागा सिद्ध हो सकती है ।

नि:सन्देह अर्न्तराष्ट्रीय दबाव कड़ी परीक्षा लेंगे । विकसित औद्योगिक देशों में बडी तेजी से व्यापक तकनीकी परिवर्तन हो रहे हैं । इन परिवर्तनों से टेक्नोलोजी के ढाँचे में जबर्दस्त बदलाव आया है जिसका असर दुनिया के अन्य देशों पर भी पड रहा है । भारत जैसे देशों में, जहाँ विकास पश्चिम की नकल के लिए अन्धी दौड भर है, इन तकनीकी परिवर्तनों ने कई नई गम्भीर समस्याएँ खडी की है ।

भूमण्डलीकरण एवं उदारीकरण की लहर से स्थानिक विशिष्टताओं को गहरा आघात लगा है । अर्न्तराष्ट्रीय संस्थाओं के द्वारा कई कठोर रातों पर सहायता प्रदान की जा रही है । न्यूकिलीय संधि के भावी प्रभाव अभी संदिग्ध ही है ।

इसलिए सोचना ही पड़ेगा कि हम इस तकनीकी दौड़ में बने रहने के लिए और पश्चिम की शर्तों पर 21वीं सदी में प्रवेश पाने के लिए ऐसा ही ‘विकास’ करते रहें या अपनी भूमि, जल, वन सम्पदा और चरागाहों पर ध्यान केन्द्रित कर वह ज्ञान वह विज्ञान अपनाएं जिससे पर्यावरण का यह असन्तुलन समाप्त हो सके और उस पर आधारित हम सबका जीवन फिर से पा सकें ।