आर्थिक विकास का शास्त्रीय मॉडल | Read this article in Hindi to learn about the classical model of economic growth.

पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में विकास एवं वृद्धिरोध की स्थितियों का विश्लेषण एडम स्मिथ, रिकार्डो, माल्थस एवं जे.एस. मिल द्वारा किया गया । वृद्धि के प्रतिष्ठित सिद्धान्त की व्याख्या प्रो. बेजामिन हिगिन्स ने गणितीय रूप से की । हिगिन्स के अनुसार- प्रतिष्ठि अर्धशास्त्रियों के लिए पूँजीवादी अर्थव्यवस्थाओं का विकास तकनीकी प्रगति एवं जनसंख्या वृद्धि के मध्य एक दौड़ थी ।

इस दौड़ में कुछ समय तक तकनीकी प्रगति हावी रही लेकिन इसका अन्त एम्स स्थिर अवस्था या वृद्धिरोध के रूप में सामने आया । हिगिन्स ने स्पष्ट किया कि तकनीकी प्रगति पूंजी संचय पर निर्भर करती है जो बढ़ते हुए मशीनीकरण एवं श्रम विभाजन को जन्म देती है तथा पूँजी संचय की दर लाभ के स्तर एवं प्रवृति पर निर्भर करता है ।

प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों ने सामान्य रूप से पूँजी संचय को आर्थिक विकास का मुख्य आधार माना । उनके अनुसार- लाभ के अधिक होने पर पूँजी संचय के लिए प्रतिस्पर्द्धा बढ़ती है तब इनमें कमी देखी जाती है । इन अर्थशास्त्रियों ने सरकारी हस्तक्षेप को अनुचित माना अर्थात् इन्होंने अबंध नीति का समर्थन किया ।

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प्रतिष्ठित विश्लेषण की आधारभूत मान्यताओं को आपसी रूप में संगत एवं अक्रिया करती संकल्पनाओं के रूप में बैंजामिन हिगिन्स ने युगपत समीकरणों के एक समुच्चय या गणितीय रूप में निम्न प्रकार प्रस्तुत किया ।

उत्पादन फलन (Production Function):

एडम स्मिथ, माल्थस एवं मिल के अनुसार- कुल उत्पादन, O श्रम शक्ति के आकार, L, पूँजी स्टाक Q एवं उपलब्ध भूमि की मात्रा K, जिसे ज्ञात संसाधनों की पूर्ति के दास समझा जा सकता है तथा तकनीक के स्तर T पर निर्भर करता है । यदि ƒ को फलन के द्वारा निरूपित किया जाये तब 0 = ƒ (L, K, Q, T) समीकरण से स्पष्ट है कि कुल उत्पादन, श्रम शक्ति के आकार, भूमि की पूर्ति पूँजी के स्टाक, वह अनुपात जिन पर उत्पादन के यह साधन मिलाए जाते हैं तथा तकनीक के स्तर पर निर्भर करता है ।

प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों ने भूमि को “ज्ञात एवं आर्थिक रूप से उपयोगी संसाधनों” के द्वारा अभिव्यक्त किया । इसने ऐसे संसाधन शामिल नहीं किए गए जिन्हें खोजा जाना बाकी है या जो तकनीक में होने वाले किसी भावी परिवर्तन के उपरांत उपयोगी होंगे । यह ध्यान रखा जाना आवश्यक है कि प्रतिष्ठित अर्थशास्तियों ने साधन खोज को तकनीकी प्रगति का भाग माना । अत: किसी एक समय बिन्दु पा भूमि की पूर्ति स्थिर मानी गई ।

प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री उपक्रमशीलता के महत्व से परिचित थे लेकिन उन्होंने इसे प्रणाली का आवश्यक हिस्सा समझा तथा उपक्रमशीलता एवं प्रबंध में कोई महत्वपूर्ण भेद नहीं किया ।

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अधिकांश प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों ने उत्पादन फलन को रेखीय एवं समरूप माना । इससे अभिप्राय यह है कि यदि उत्पादन के समस्त संसाधनों की मात्रा को दुगना कर दिया जाये तो प्राप्त उत्पादन भी दुगना हो जाएगा ।

यदि भूमि स्थिर हो तथा श्रम पूर्ति में वृद्धि हो तब उत्पादन फलन की प्रवृति को स्पष्ट किया जा सकता है । इसकी चार स्थितियाँ हैं, जो क्रमश: बढ़ते हुए सीमांत प्रतिफल, ह्रासमान सीमात प्रतिफल, ह्रासमान औसत प्रतिफल एवं ह्रामान कुल प्रतिफल की सूचना देती है ।

बेंजामिन हिगिन्स के अनुसार- यह स्पष्ट है कि प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों के अनुसार यूरोप उस समय तीसरी स्थिति में था, जिसमें भूमि पर रोजगार प्राप्त कर रहे श्रमिकों की संख्या में वृद्धि से उत्पादन में कुछ वृद्धि होती है लेकिन प्रतिव्यक्ति उत्पादन में कमी दिखाई देती है ।

पूंजी संचय एवं तकनीकी प्रगति:

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प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों के अनुसार- तकनीकी प्रगति को पूर्णत: स्वायत्त घटक नहीं माना जा सकता । उनके अनुसार- तकनीकी प्रगति पूँजी का अवशोषण करती है । स्पष्ट है कि वस्तुओं के उत्पादन के लिए तकनीक हमेशा उपलब्ध रहती है परन्तु इनका उपयोग पूँजी की उपलब्धता तथा विनियोग की मात्रा पर निर्भर करता है । अत: तकनीक का स्तर विनियोग के स्तर पर निर्भर करता है या T = T (I)

जहाँ T = तकनीकी प्रगति तथा I = विनियोग की मात्रा ।

स्पष्ट है कि तकनीकी प्रगति तब संभव होती है जब विनियोग किए जा रहे हों अत: उन्होंने पूँजी संचय एवं बचतों को महत्वपूर्ण माना ।

लाभ, श्रम की पूर्ति एवं तकनीक के स्तर पर निर्भर करता है (Profits Depend on Labour Supply and the Level of Techniques):

प्रतिष्ठित विश्लेषण में लाभ के स्तर को निर्धारित करने वाले दो मुख्य घटक हैं, श्रम शक्ति की पूर्ति जो जनसंख्या वृद्धि एवं तकनीकी प्रगति पर निर्भर करती है । प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों के अनुसार- समय के साथ जनसंख्या बढ़ती है । अत: श्रम की पूर्ति में भी वृद्धि होगी । भूमि पूर्ति को स्थिर माना गया है । अत: जब श्रम की पूर्ति बढ़ती है तब इससे कृषि में गिरते हुए प्रतिफल प्राप्त होते है ।

इससे श्रम लागतों में वृद्धि होती है तथा लाभ गिरते हैं । प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों ने कृषि प्रविधि में सुधार के बावजूद कृषि में बढ़ते हुए प्रतिफलों की आशा नहीं की । उनका मत था कि औद्योगिक क्षेत्र ही बढ़ते हुए प्रतिफल प्राप्त करने की प्रवृति रखते हैं ।

अधिकांश प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों का मत था कि इंग्लैण्ड में अठाहरवीं व उन्नीसवीं शताब्दी में तकनीकी प्रगति की दर इतनी तीव्र रही कि उसने जनसंख्या वृद्धि के कुप्रभाव को उत्पन्न नहीं होने दिया तथा लाभ की दर में कमी की प्रवृति नहीं दिखाई दी लेकिन यह आवश्यक नहीं कि ऐसी प्रवृति भविष्य में भी विद्यमान रहे ।

संक्षेप में यदि लाभों का स्तर R, तकनीक का स्तर T तथा L श्रम शक्ति का आकार हो, तब

R = R (T, L) …(4)

स्पष्ट कि लाभों का स्तर तकनीक के स्तर एवं श्रम शक्ति के आकार पर निर्भर करता ।

प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों के अनुसार, जनसंख्या की वृद्धि एवं बेरोजगार एक दूसरे के साथ गति करते हैं । जनसंख्या में होने वाली वृद्धि दर हमेशा प्रतिव्यक्ति उत्पादन में कमी लाती है, जब तक तकनीकी वृद्धि की दशा इसमें सुधार न हो । तकनीकी वृद्धि का स्तर निर्भर करता है विनियोग के स्तर पर तथा विनियोग लाभ पर निर्भर करता है । लाभ आशिक रूप से तकनीक के स्तर पर निर्भर करते है ।

इस चक्रीय कार्यकरण संबंध को निम्न समीकरण से स्पष्ट किया जा सकता है जहाँ समीकरण 2 में समीकरण 3 व 4 को प्रतिस्थापित किया गया है:

समीकरण (4a) प्रदर्शित करता है कि तकनीकी प्रगति की तीव्र दर विनियोग के स्तर में वृद्धि करती है जिससे तीव्र तकनीकी प्रगति को नियमित रखना संभव बनता है ।

श्रम शक्ति का आकार मजदूरी बिल के आकार पर निर्भर करता है । प्रतिष्ठित विश्लेषण में जनसंख्या वृद्धि श्रम पूर्ति को मजदूरी के लौह नियम के द्वारा स्पष्ट किया गया । यदि श्रम की पूर्ति की मात्रा L तथा मजदूरी बिल W हो तो

मजदूरी बिल विनियोग के स्तर पर निर्भर करता है प्रतिष्ठित विचारकों के अनुसार- पूँजी या इसका कम से कम एक भाग, एक मजदूरी कोष को समाहित करता है । मजदूरी कोष को बचतों के द्वारा स्थापित किया जाता है । एडम स्मिथ एवं रिकार्डो का यह विश्वास था कि बचतें स्वचालित रूप से विनियोग में परिवर्तित होती हैं । अत: मजदूरी बिल या कोषों में शुद्ध बचत या विनियोग के द्वारा वृद्धि संभव है, या

कुल उत्पादन लाभ एवं मजदूरी के बराबर होता है, यदि कुल उत्पादन O, लाभ की मात्रा R, तथा मजदूरी बिल W हो, तब

दीर्घकालीन संतुलन यदि न्यूनतम मजदूरी की दर W हो, जिसे स्थिर माना जाये तब दीर्घकालीन संतुलन की दशा निम्न समीकरण द्वारा प्रदर्शित की जाती है ।

सार संक्षेप प्रतिष्ठित मॉडल को संक्षेप में निम्न समीकरणों द्वारा प्रदर्शित किया गया ।

उपर्युक्त से अभिप्राय है कि कुल वास्तविक आय बराबर होती है लाभ धन मजदूरी के प्रतिष्ठित ने इस प्रकार एक चक्रीय कार्यकरण संबंध स्थापित किया । उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि इस चक्रीय प्रवाह को कहीं पर भी खंडित किया जा सकता है व यह प्रदर्शित किया जा सकता है कि प्रणाली विभिन्न दशाओं में किस प्रकार विकास करेगी ।

पूँजीवादी प्रणाली में विकास का मुख्य आधार यदि लाभ माना जाये तो विकास क्रय निम्न होगा:

dR → dI → dQ → dT, dW → dL → dR

अर्थात् लाभों में वृद्धि → विनियोग में वृद्धि → पूँजी की मात्रा में वृद्धि एवं तकनीकी विकास, मजदूरी में वृद्धि → श्रम पूर्ति में वृद्धि → लाभ की मात्रा में वृद्धि लाभों में होने वाली वृद्धि विनियोग में वृद्धि करती है, जिससे पूँजी स्टाक बढ़ता है ।

पूंजीपति सुधरी हुई तकनीक का लाभ उठाते हैं तथा मजदूरी कोष में वृद्धि करते हैं । इससे जनसंख्या में त्वरित वृद्धि होती है जो भूमि पर श्रमिक को गिरता हुआ प्रतिफल प्रदान करते हैं, श्रम लागतें बढ़ती है तथा लाभ कम होता है । स्पष्ट है कि गिरते हुए लाभों से अभिप्राय गिरता हुआ विनियोग है जिससे तकनीकी प्रगति पर विपरीत प्रभाव पड़ता है, मजदूरी कोष कम होते है तथा जनसंख्या वृद्धि की दर मन्द पड़ जाती है ।

प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों ने स्पष्ट किया कि जब जनसंख्या सापेक्षिक रूप से अल्प होती है, भूमि द्वारा प्राप्त प्रतिफल उच्च होते है । जब जनसंख्या बढ़ती है, तब निरन्तर घटता हुआ प्रतिफल प्राप्त होता है । तकनीकी प्रगति एक अविरत दर प्राप्त करती है, जबकि काफी अधिक पूँजी का प्रयोग किया जाये । इस प्रकार एक उन्नत या परिपक्व अर्थव्यवस्था में भूमि पर गिरते प्रतिफलों की प्राप्ति होती है तथा श्रम लागतों में वृद्धि होती है, इससे तकनीकी प्रगति पर विपरीत प्रभाव पड़ता है । लाभ गिरना प्रारम्भ होते हैं ।

अत: विनियोग भी कम होता है, तकनीकी प्रगति अवरूद्ध होती है, मजदूरी कोषों में वृद्धि दिखायी देती है तथा जनसंख्या भी बढ़ती है । प्रतिष्ठित मॉडल में पूँजीवबी विकास का अन्तिम परिणाम वृद्धिरोध के रूप में दिखायी देता है ।