विकास के कारक: आर्थिक और गैर-आर्थिक | Read this article in Hindi to learn about the economic and non-economic factors of development.

अनार्थिक घटक एक विस्तृत शब्द है जिसे अधीन विभिन्न कारकों को सम्मिलित किया जाता है । इन विभिन्न घटकों को चुनने या निर्दिष्टीकरण की समस्या अत्यन्त महत्व रखती है अर्थात् यह जानना आवश्यक है कि ऐसे अनार्थिक घटक कौन-से हैं जो आर्थिक वृद्धि हेतु सर्वाधिक महत्व के है ।

जे.आर.हिवस के अनुसार- अनार्थिक घटकों पर समुचित ध्यान दिये बिना हम नीतियों को प्रस्तावित नहीं कर सकते । नीति वास्तव में सामाजिक, राजनीतिक सांस्कृतिक एवं आर्थिक पक्षों को ध्यान में रखती है । प्रो. बोल्डिंग का मत है कि आर्थिक समस्याओं को सुलझाने के लिए समाज विज्ञान सर्वाधिक उपयोग का है ।

प्रो. अमर्त्य सेन अपनी पुस्तक ‘आर्थिक विकास एवं स्वातन्त्र्य’ में विकास के अनार्थिक घटकों को एक नवीन परिप्रेक्ष में विश्लेषित करते हैं । उनके अनुसार-आज हम एक अप्रत्याशित रूप से समृद्धिशील विश्व में रह रहे है । समृद्धि के इस स्तर की पहले कल्पना भी नहीं की गई थी । ये परिवर्तन केवल आर्थिक पक्ष तक ही सीमित नहीं रह गए हैं- जीवन के अनेक आयामों में आज भारी बदलाव दिखाई दे रहा है । बीसवीं शताब्दी ने लोकतन्त्र एवं भागीदारीपूर्ण प्रशासन को राजनीतिक तंत्र के प्रमुख प्रतिमान के रूप में स्थापित कर दिया है ।

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आज के युग में सामान्य संवाद में मानवीय अधिकार और राजनीतिक स्वातन्त्रय सम्बन्धी विचार भी अपना स्थान बना चुके है । जनसामान्य की दीर्घायुता के स्तर भी पहले से कहीं अधिक समृद्ध हो चुके है । विश्व के दूर-दूर के क्षेत्र-उपक्षेत्र भी पहले की अपेक्षा एक-दूसरे के बहुत अधिक निकट आ चुके है । यह निकटता केवल व्यापार-वाणिज्य एवं संचार तक ही सीमित नहीं रही है ।

विचारों और आदर्शों में भी अब यह पारस्परिकता दिखाई देने लगी है ।

किन्तु दुर्भाग्यवश हमारे इसी विश्व में अभाव, दारिद्रय व दमन की समस्यायें भी विकराल रूप से विद्यमान हैं:

(i) आज भी गरीबी और बुनियादी आवश्यकताओं का बोलबाला है ।

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(ii) आज भी विश्व के किसी न किसी भाग में अकाल और व्यापक स्तर पर भूख का साम्राज्य फैला दिखाई देता है ।

(iii) मौलिक, राजनीतिक एवं सामाजिक स्वातन्त्रय के हनन से आज भी संसार के बहुल विशाल जनसमुदाय मुक्त नहीं हो पाए है ।

(iv) अभी भी नारी की वृहतर भूमिका ही नहीं वरन् उसके सामान्य हितों तक की व्यापक पैमाने पर अवहेलना हो रही है ।

(v) पर्यावरण के बढ़े हुए संकट के कारण हमारे वर्तमान जीवन के स्तर एवं शैली को बनाए रख पाने के विषय में गम्भीर आशंकाएँ उत्पन्न हो रही हैं ।

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(vi) अनेक प्रकार के अभाव तो केवल निर्धन देशों में ही नहीं, अमीर देशों में भी दिखाई पड़ जाते हैं ।

प्रो. अमर्त्य सेन के अनुसार इन सभी सामाजिक व्याधियों के निदान एवं निराकरण में विविध प्रकार के स्वातन्त्रयों की भूमिका को समझा एवं स्वीकार किया जाना चाहिए । इन समस्याओं के समाधान में व्यक्ति के अपने प्रयास एवं योगदान ही सबसे महत्वपूर्ण सिद्ध होने वाले हैं ।

वैयक्तिक भूमिका एवं सामाजिक व्यवस्थाओं के बीच एक गहरी पारस्परिकता रहती है । अत: व्यक्ति के स्वातन्त्रय एवं उस स्वातन्त्रय के प्रभाव क्षेत्र व प्रभावोत्पादकता पर पड़ रहे सामाजिक दबावों की शक्ति के महत्व को समझना आवश्यक है । अत: आज विकास की प्रक्रिया में आने वाली समस्याओं के निराकरण के लिए वैयक्तिक स्वातन्त्रय को एक सामाजिक प्रतिबद्धता के धरातल तक पहुंचाना होगा ।

इस परिप्रेक्ष्य में स्वातन्त्रय का संवर्धन-प्रसार विकास का प्राथमिक ध्येय एवं प्रमुख माध्यम भी बन जाता है । विकास उन अस्वातन्त्रयों का निराकरण बन जाता है जिनके कारण जनसामान्य अपनी सुविचारित भूमिका निभाने एवं चयन आदि करने के अवसरों से वचित रह जाते हैं । सेन के अनुसार विविध स्वातन्त्रय विहीनताओं की समाप्ति ही अन्तत: विकास की रचना करती है ।

यदि स्वातन्त्रय को ही विकास के मुख्य ध्येय के रूप में स्वीकार करना हो तो फिर विकास प्रक्रिया में स्वातन्त्रयवादी दृष्टिकोण आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक गतिविधियों के समन्वित विश्लेषण की आवश्यकता की रूपरेखा प्रस्तुत करता है ।

इसके अधीन:

(i) व्यक्तियों को परिवर्तन का सक्रिय कर्त्ता माना गया है, किसी अन्य के द्वारा प्रदान हित लाभों को भोगने वाला निष्क्रिय जीव नहीं ।

(ii) इसमें आर्थिक सुअवसर, राजनीतिक स्वातन्त्रय, सामाजिक सुविधाओं सुस्पष्ट नीतियों व संरक्षणात्मक सुरक्षा के अन्तर्सम्बन्धों पर विचार किया जाता है ।

(iii) सरकार, बाजार, कानूनी व्यवस्था, राजनीतिक दल, संचार माध्यम, सार्वजनिक हित समूह व सार्वजनिक विचार मन्थन के साथ सामाजिक जीवन में मानवीय स्वतन्त्रता के संवर्धन व सुनिश्चितता में योगदान व उनका मूल्यांकन । इस प्रकार प्रो. सेन विकास का प्रमुख लक्ष्य व उद्देश्य स्वातन्त्रय को मानते हैं ।

अनार्थिक घटक- आशय (Non-Economic Factors):

अनार्थिक घटकों पर दिया गया विशेष ध्यान वस्तुत: प्रतिस्पर्द्धा की दशा एवं आय के विषम वितरण के विरूद्ध प्रतिक्रिया के रूप में हुआ ।

अनार्थिक घटकों को विकास का मुख्य कारक मानते हुए विभिन्न अर्थशास्त्रियों द्वारा व्याख्या प्रस्तुत की गयी जिनमें निम्न के विचार मुख्य हैं:

1. एरिक फ्रोम, होजलिट्ज तथा रोस्टव ने संस्थागत घटकों को आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण स्थान दिया । रोस्टव के अनुसार- एक उचित संस्थागत ढाँचा स्वयं स्फूर्ति की पूर्व दशा है ।

2. प्रो. मीड के अनुसार- आर्थिक विकास में सामाजिक इकाई का आकार की विशेष महत्ता है ।

3. मैक्स वेबर एवं टाउने ने अनार्थिक घटक के रूप में धर्म को विशेष महत्व प्रदान किया ।

4. राल्फ लिंटन का विश्वास था कि अधिकांश घटक जो समाज में नये विचारों के अपनाये जाने व एकीकरण को प्रभावित करते हैं, उन्हें सांस्कृतिक रूप से अभिव्यक्त किया जा सकता है । सोल ने आर्थिक हस्तान्तरण की प्रक्रिया में संस्कृति को विशेष महत्व दिया ।

5. डेनिसन के अनुसार- सामाजिक घटक में शिक्षा का स्थान सर्वोपरि है ।

6. होजलिट्‌स व वूल्फ ने संस्थाओं एवं मूल्यों की महत्ता पर विचार किया ।

7. एडलमेन एवं मौरिस ने अनार्थिक घटकों को एक व्यापक आधार देते हुए इनकी व्याख्या निम्नांकित बिन्दुओं के आधार पर की:

(i) द्वैतता की सीमा,

(ii) शहरीकरण की सीमा,

(iii) आधारभूत सामाजिक संगठन का चरित्र,

(iv) सामाजिक गतिशीलता की सीमा,

(v) साक्षरता की सीमा,

(vi) जनसंचार की सीमा,

(vii) दृष्टिकोण एवं आधुनिकीकरण की सीमा,

(viii) राष्ट्रीय एकता की समझ,

(ix) राजनीतिक शक्तियों के केन्द्रीयकरण की सीमा,

(x) जनतांत्रिक संस्थाओं की शक्ति,

(xi) राजनीतिक विपक्ष एवं प्रेस की स्वतन्त्रता का अंश,

(xii) राजनीतिक पार्टियों में प्रतिस्पर्द्धा का अंश,

(xiii) श्रम गतिशीलता की शक्ति,

(xiv) परम्परागत लोक समूह की राजनीतिक शक्ति,

(xv) प्रशासनिक कुशलता का अंश,

(xvi) आर्थिक विकास के लिए नेतृत्व प्रतिबद्धता की सीमा एवं राजनीतिक स्थायित्व की सीमा ।

मुख्य समस्या (Basic Problem):

अर्थशास्त्री इस प्रश्न से लम्बे समय तक सम्बन्धित रहे कि क्या सामाजिक, सांस्कृतिक घटक आर्थिक विकास द्वारा निर्धारित होते हैं या इन्हें निर्धारित करते हैं ? कार्ल मार्क्स ने अपने ग्रन्थ पूँजी में लिखा कि उत्पादन का तरीका ही सामाजिक, राजनीतिक संरचना का आधारभूत निर्धारक होता है जो संस्थागत ढाँचे को निर्धारित करता है ।

हेगन ने अपने ग्रन्थ में विश्वास किया कि आर्थिक विकास में आधारभूत व्याख्या कारक चर सांस्कृतिक व्यक्तित्व है । हेमन ने आर्थिक चरों को प्राचल माना जो ऐसी परिस्थितियों को अभिव्यक्त करते हैं जिनके अधीन आर्थिक विकास की प्रक्रिया में सांस्कृतिक परिवर्तन सम्भव होता है ।

केटोना ने Psychological Analysis of Economic Behaviour में यह संकल्पना ली कि आर्थिक प्रक्रियाएँ व्यक्तियों के व्यवहार का फल होती हैं तथा व्यवहार के विभिन्न रूपों द्वारा प्रभावित होती हैं । टिनबर्जन एवं रोस्टव यह मान कर चले कि आर्थिक एवं अनार्थिक घटकों के मध्य के सम्बन्ध एक-दूसरे से अन्तर्क्रिया करते हैं ।

अनार्थिक घटकों का विकास में योगदान:

आर्थिक विकास की प्रक्रिया में अनार्थिक घटकों का प्रभावी योगदान है । आर्थिक विकास हेतु अनार्थिक घटकों का निर्दिष्टीकरण कई अर्थशास्त्रियों द्वारा किया गया तथा आर्थिक व अनार्थिक घटकों के मध्य के आपसी सम्बन्ध भी सुगमता से स्थापित किए जा सकते हैं ।

अर्थशास्त्री दो मुख्य विधियों पर आश्रित रहे हैं:

i. हिवम, टिनबर्जन, जैकोबवाइनर, मारशाक एवं बोल्डिंग ने विकास की व्याख्या में अनार्थिक चरों को सम्मिलित किया ।

ii. आर्थिक सिद्धान्त को उन पक्षों से पूरित किया गया जो अन्य सामाजिक विज्ञानों द्वारा विकसित किए गए तथा जिनकी प्रवृत्ति अनार्थिक है । ऐसी व्याख्या रोस्टव द्वारा की गयी । लर्नर, मैवलैण्ड तथा एडलमन व मोरिस ने शैक्षिक उपलब्धियों, साक्षरता राजनीतिक स्थायित्व एवं n स्तर की सफलता को मापने के प्रयास किये ।

सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक चरों के मध्य सम्बन्ध की दिशा को ध्यान में रखते हुए सामान्य रूप से यह माना जाता है कि आर्थिक एवं अनार्थिक चर एक-दूसरे पर प्रभाव डालते हैं । प्रो. गुन्नार मिरडल ने अपने ग्रन्थ Asian Drama जैकोब वाइनर ने International Trade and Economic Development, मारशाक ने Measurement for Policy and Prediction एवं बोल्डिंग ने Reconstruction of Economics में ऐसे ही प्रयास किये ।

सैद्धान्तिक रूप से आर्थिक एवं अनार्थिक चरों की अन्तर्क्रिया की दो विभिन्न विधियाँ हैं । कुछ मनोवैज्ञानिकों एवं अर्थशास्त्रियों के अनुसार- व्यवित की आन्तरिक अवस्था जिसमें उसकी आवश्यकताएँ, उद्देश्य, अभिवृत्तियाँ व व्यवितत्व शामिल हैं मानव व्यवहार व क्रियाओं का सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारक है । कुंकल ने अपने ग्रन्थ Society and Economic Growth में इन्हें मनोवैज्ञानिक प्रावैगिक मॉडल कहा है ।

दूसरी ओर वातावरण जो मूल्यों एवं मापों द्वारा अभिव्यक्त होता है मानव व्यवहार का विश्लेषण प्रस्तुत करता है । इन्हें व्यवहार सम्बन्धी मॉडल कहा जाता है । व्यवहार मॉडल सैद्धान्तिक रूप से व्यवहार में होने वाले परिवर्तन को काफी सीमा तक किसी अवस्था में समझा सकते हैं । व्यवहार के मुख्य निर्धारक कुछ निश्चित क्रियाओं में पुरस्कार एवं दल्ट से सम्बन्धित होते हैं । इनका निर्धारण आर्खिक ख्त सामाजिक पर्यावरण के द्वारा ही सम्मव बनता है । चूँकि पुरस्कार एवं दण्ड की प्रक्रिया परिवर्तनशील है । अत: सामाजिक व्यवहार आर्थिक रूपान्तरण की आवश्यकताओं के अनुरूप बदला जा सकता है ।

प्रो. अमर्त्य सेन का विश्लेषण (Analysis of Prof. Amartya Sen):

प्रो. अमर्त्य सेन ने आर्थिक विकास की प्रक्रिया में अनार्थिक घटकों को महत्त्वपूर्ण समझा ।

उनके अनुसार विकास वस्तुत: जनसामान्य को सुलभ स्वातन्त्रय के प्रसार-संवर्धन की प्रक्रिया का ही दूसरा नाम है । मानवीय स्वतबता को मखपूर्ण समझना विकास के विचार को अधिक विस्तृत कर देता है । संकीर्ण अर्थों में, आर्थिक विकास को सकल राष्ट्रीय उत्पाद या तकनीकी प्रगति या समाज के आधुनिकीकरण तक ही सीमित कर दिया जाता है ।

सकल राष्ट्रीय उत्पाद या व्यक्तिगत आयों में होने वाली वृद्धि निश्चय ही समाज के सदस्यों को मिलने वाले स्वातन्य की वृद्धि का महत्वपूर्ण साधन होती है किन्तु स्वातन्य के और भी निर्धारक कारक होते हैं ।

इन कारकों में:

(1) सामाजिक एवं आर्थिक व्यवस्थाएँ,

(2) राजनीतिक व नागरिक आधार,

(3) औद्योगिकीकरण व,

(4) सामाजिक आधुनिकीकरण मुख्य हैं:

(i) सामाजिक एवं आर्थिक व्यवस्थाओं में शिक्षा, स्वास्थ्य व चिकित्सा सुविधाओं का महत्वपूर्ण स्थान है ।

(ii) राजनीतिक एवं नागरिक अधिकारों में सार्वजनिक चर्चा एवं सरकारी नीतियों एवं क्रिया-कलापों की विवेचना में भागीदारी की स्वतन्त्रता ।

(iii) मानवीय स्वातन्य के संवर्धन में औद्योगीकरण या तकनीकी प्रगति की महत्त्वपूर्ण भूमिका ।

(iv) सामाजिक आधुनिकीकरण का योगदान ।

स्वातन्त्रय इनके अतिरिक्त और भी अनेक कारकों के प्रभावों पर निर्भर करता है । विकास के लिए आवश्यक है कि स्वातन्त्रविहीनता या अस्वातन्त्रय के प्रमुख कारकों को निर्दिष्ट किया जाये ।

ऐसे मुख्य कारक निम्न हैं:

(1) गरीबी तथा दमन,

(2) आर्थिक अवसरों की कमी,

(3) सामाजिक व्यवस्था का अभावग्रस्त होना,

(4) सामाजिक सुविधाओं की अनदेखी,

(5) असहिष्णु राजतन्त्र की अति सक्रियता ।

अनुभवसिद्ध अवलोकन से विकास का जो चित्र उभरता है वह विश्व में जनता के बहुत बड़े भाग को मूलभूत स्वातन्त्रय से वंचित दिखाता है:

(1) कहीं लोग अपनी भूख मिटा पाने में असमर्थ हैं ।

(2) कहीं कुपोषण ग्रस्त जनता है ।

(3) रोग व्याधि का बाहुल्य और चिकित्सा सुविधा का अभाव है ।

(4) तन ढकने, सर छुपाने की जगह का अभाव है ।

(5) पीने के साफ पानी, दैनिक क्रियाओं से निवृत होने की सुविधा का अभाव ।

(6) साफ-सुथरे परिवेश का अभाव है ।

(7) संक्रामक रोगों से बचाव, टीकाकरण का अभाव या वंचना ।

(8) विगलित शिक्षा व्यवस्था ।

इसी प्रकार अनेक अन्य मामलों में सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक जीवन में भागीदारी पर प्रतिबन्ध या निरंकुश शासन व्यवस्था द्वारा राजनीतिक एवं सामाजिक स्वतन्त्रताओं का दमन ही प्रत्यक्ष रूप से स्वातन्त्रय वंचना का कारण बन जाता है ।

विकास की प्रकिया में स्वातन्त्रय का प्रत्यक्ष महत्व दो स्पष्ट कारणों से हैं:

(1) मूल्यांकन की दृष्टि से- विकास का प्राथमिक लक्ष्य ही इस मापदण्ड पर टिका है कि जनता के सहज सुलभ स्वातन्त्रय में कहाँ तक वृद्धि हुई है ।

(2) प्रभावोत्पादकता की दृष्टि से- अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए प्रयास कर पाने की स्वतन्त्रता ही किसी समाज के सदस्यों के लिए विकास कर पाने की कसौटी है । यदि व्यक्ति इस प्रयास के लिए स्वतन्त्र है तो समाज में प्रभावपूर्ण ढंग से विकास हो पाया है, अन्यथा नहीं ।

स्वातन्त्रय पर ध्यान देने का एक कारण उसे विकास की कसौटी मानना ही है । दूसरा कारण, प्रभावोत्पादकता का सम्बन्ध विविध प्रकार के स्वातन्त्रयों के बीच परस्पर सम्बन्ध है जो व्यावहारिक हैं ।

व्यक्तिगत स्वतन्त्रता तथा सामाजिक विकास की प्राप्ति के बीच का सम्बन्ध सारभूत रचनाकारी सम्बन्ध से अधिक गहरा है । सारभूत रचनाकारी सम्बन्ध काफी महत्त्वपूर्ण है । आर्थिक अवसरों, राजनीतिक स्वतन्त्रता, सामाजिक शक्तियों’ अधिकारी तथा अच्छे स्वास्थ्य, बुनियादी शिक्षा तथा विभिन्न प्रकार के नवीन उद्योग को प्रोत्साहित करने वाली प्रवृतियों का इस बात पर बहुत गहन प्रभाव पड़ता है कि व्यक्ति क्या कुछ कर पाने में सफल रहते है ।

इन अवसरों हेतु जो संस्थागत प्रबन्ध किये गए हैं उन पर जनता के स्वातन्त्रय के व्यवहार का प्रभाव पड़ता है । यह प्रभाव इन अवसरों को उत्पन्न करने तथा विकास हेतु अनुकूल सामाजिक निर्णय प्रक्रिया के निर्धारण में एवं सामाजिक चयन की प्रक्रिया में भागीदारी की स्वतन्त्रता के माध्यम से मुखरित होता है । निष्कर्ष रूप में सेन पाँच प्रकार के साधन स्वरूप स्वातन्त्रयों को महत्वपूर्ण मानते हैं ।

ये हैं:

(I) राजनीतिक स्वातन्त्रय,

(II) आर्थिक सुविधाएँ,

(III) सामाजिक अवसर,

(IV) पारदर्शिता या स्पष्टता का भरोसा, तथा

(V) संरक्षात्मक सुरक्षा ।

यह सामान्य व्यक्ति की योग्यता-क्षमता का विकास करती हैं । ये विविध स्वातन्त्रय विकास के प्राथमिक ध्येय ही नहीं है ये विकास के मुख्य साधन थी हैं ।

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