एक देश का आर्थिक विकास: 3 मुख्य मूल्य | Read this article in Hindi to learn about the three main values of economic development. The values are:- 1. जीवन-पुष्टि (Life Sustenance) 2. आत्म-सम्मान (Self-Esteem) 3. पराधीनता से स्वतन्त्रता (Freedom from Servitude).

प्रो. गाउलैट (Prof. Goulet) और अन्यों अनुसार- तीन मुख्य मौलिक संघटक हैं जिन्हें विकास के “आन्तरिक” अर्थ को समझने के लिये प्रत्ययात्मक आधार और व्यवहारिक मार्ग-दर्शक का कार्य करना चाहिये ।

वह है:

(क) जीवन-पुष्टि (Life Sustenance):

आधारभूत आवश्यकताएं उपलब्ध करने की योग्यता-सभी लोगों की कुछ मौलिक आवश्यकताएं होती हैं जिनके बिना जीवन असम्भव होता है । उनमें सम्मिलित हैं-आहार, आश्रय, स्वास्थ्य और सुरक्षा ।

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इसलिये सभी आर्थिक गतिविधियों का आधारभूत कार्य है कि जितने लोगों को सम्भव हो सके आहार, आश्रय, स्वास्थ्य और सुरक्षा के अभाव से उत्पन्न होने वाले असहायपन तथा विपत्ति से छुटकारा पाने के साधन उपलब्ध कराये । अत: जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाने के लिये आर्थिक विकास एक आवश्यक शर्त है ।

(ख) आत्म-सम्मान (Self-Esteem):

अच्छे जीवन का दूसरा सार्वभौम संघटक हैं- आत्म सम्मान अपने महत्व ओर आत्म-सम्मान की भावना तथा ऐसी योग्यता कि अन्य लोग आप को अपने स्वार्थ के लिये एक उपकरण के रूप में प्रयोग न कर सकें । आत्म-सम्मान की प्रकृति और रूप एक समाज से दूसरे समाज तथा एक संस्कृति से दूसरी संस्कृति में भिन्न-भिन्न हो सकती हैं ।

(ग) पराधीनता से स्वतन्त्रता (Freedom from Servitude):

तीसरा सार्वभौम मूल्य है स्वतन्त्रता की धारणा । स्वतन्त्रता का यह आधारभूत अर्थ है जीवन की संक्रमण भौतिक स्थितियों से मुक्ति और विपत्ति तथा अन्धविश्वासों से स्वतन्त्रता ।

आर्थर ल्यूस ने आर्थिक विकास और पराधीनता से स्वतन्त्रता के बीच सम्बन्धों पर बल दिया, और निष्कर्ष में कहा- “आर्थिक वृद्धि का लाभ यह नहीं है कि सम्पदा, प्रसन्नता को बढ़ाती है बल्कि यह है कि यह मानवीय चयन के विस्तार को बढ़ाती है ।”

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धन व्यक्ति को प्रकृति और उसके भौतिक वातावरण पर अधिक नियन्त्रण के योग्य बनाता है, निर्धन होते हुये वह ऐसा नहीं कर सकता । यह उसे अधिक फुर्सत, अधिक वस्तुएं और सेवाएं चयन करने की स्वतन्त्रता देता है, अथवा उन भौतिक आवश्यकताओं के महत्व से इन्कार करने और आध्यात्मिक चिन्तन का जीवन जीने की स्वतन्त्रता देता है ।

संक्षेप में विकास एक भौतिक वास्तविकता तथा मस्तिष्क की एक दशा है जिसमें समाज ने सामाजिक, आर्थिक और संस्थागत प्रक्रियाओं के संयोग द्वारा बेहतर जीवन प्राप्त करने के साधन प्राप्त किये हैं ।

सभी समाजों में बेहतर जीवन और विकास के कम-से-कम तीन निम्नलिखित उद्देश्य होने चाहिए:

1. जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं जैसे आहार, आश्रय, स्वास्थ्य और सुरक्षा की उपलब्धता को बढ़ाना तथा उनके वितरण को विस्तृत करना ।

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2. जीवन स्तर ऊंचा उठाना जिसमें उच्च आय के अतिरिक्त, अधिक रोजगार की व्यवस्था, बेहतर शिक्षा, सांस्कृतिक और मानवीय मूल्यों की ओर अधिक ध्यान देना सम्मिलित हैं । जो न केवल भौतिक कल्याण को बढ़ायेंगे बल्कि अधिक व्यक्तिगत और राष्ट्रीय आत्म-सम्मान उत्पन्न करेंगे ।

3. व्यक्तियों और राष्ट्रों को दासता और निर्धनता से मुक्त करके उनके लिये आर्थिक और सामाजिक चयन को विस्तृत करना, यह न केवल अन्य लोगों और राज्यों के सम्बन्ध में ही लागू नहीं होना चाहिये बल्कि अज्ञानता और मानवीय विपत्ति के सम्बन्ध में भी उतना ही सार्थक है ।

स्वतन्त्रता के रूप में विकास (सेन के विचार):

प्रो. अमृत्या सेन (Prof. Amartya Sen) के अनुसार विकास को ”वास्तविक स्वतन्त्रता बढ़ाने की प्रक्रिया के रूप में देखा जा सकता है जिसका लोग आनन्द ले सकें ।”

विकास का कुल राष्ट्रीय उत्पाद की वृद्धि अथवा वैयक्तिक आय की वृद्धि या औद्योगिकीकरण अथवा तकनीकी उन्नति या सामाजिक आधुनिकीकरण के साथ पहचान को विकास का संकीर्ण दृश्य माना जाता है । मानवीय स्वतन्त्रता पर बल इस विचार के विपरीत है ।

यद्यपि स्वतन्त्रताओं में विस्तार जी. एन. पी. अथवा प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि द्वारा भी लाया जा सकता है, परन्तु स्वतन्त्रता अन्य सामाजिक और आर्थिक निर्धारकों अर्थात् शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं तथा राजनैतिक व नागरिक अधिकारों अर्थात् सार्वजनिक चर्चाओं में भाग लेने की स्वतन्त्रता और जांच-परख पर भी निर्भर करती है ।

इसलिये, यह आवश्यक है कि विकास दासता, निर्धनता निरंकुश शासन, दुर्बल आर्थिक अवसरों तथा व्यवस्थित सामाजिक वंचन, सार्वजनिक सुविधाओं की उपेक्षा और असहिष्णुता अथवा दमनकारी राज्यों की अधिक क्रियाशीलता को समाप्त करें ।

अत: स्वतन्त्रता दो कारणों से विकास प्रक्रिया की केन्द्र है:

1. मूल्यांकन कारण अर्थात् उन्नति का अनुमान मुख्यता इस बात से लगाया जाता है कि क्या लोगों की स्वतन्त्रताएं बढ़ गई हैं ।

2. प्रभावी कारण अर्थात् विकास की प्राप्ति पूर्णतया लोगों की स्वतन्त्र एजेंसी पर निर्भर है ।

एक समाज की सफलता का मूल्यांकन मुख्यता समाज के सदस्यों द्वारा भोगी गई पर्याप्त स्वतन्त्रताओं से किया जाता है ।

कार्य करने के लिए बड़ी स्वतन्त्रता का मूल्य दिये जाने के कारण है:

(i) व्यक्ति की सम्पूर्ण स्वतन्त्रता में यह अपने आप में महत्व रखता है ।

(ii) मूल्यवान परिणामों की प्राप्ति के लिये व्यक्ति के अवसर दृढ़ करने के लिये महत्व । समाज के सदस्यों की स्वतन्त्रता का मूल्यांकन करने के लिये दोनों प्रासंगिक हैं । यह समाज के विकास का सार भाग है ।

स्थानापन्न स्वतन्त्रता लेने का दूसरा कारण बहुत महत्व रखता है क्योंकि स्वतन्त्रता केवल सफलता और असफलता के मूल्यांकन का आधार नहीं है । यह व्यक्तिगत पहल और सामाजिक प्रभावीपन का मुख्य निर्धारक है । अधिक स्वतन्त्रता लोगों को स्वयं अपनी सहायता करने की शक्ति देती है ।

स्वतन्त्रता की किस्में (Types of Freedom):

प्रो. सेन स्वतन्त्रता की पांच भिन्न किस्मों का वर्णन करते हैं:

(क) रचनात्मक स्वतन्त्रता (Creative Freedom):

लोग तर्कसंगत, उचित एवं विवेकशील ढंग से सोचने के लिये स्वतन्त्र होने चाहिये । इसके लिये उनके शिक्षित एवं संचारशील होने के साथ-साथ समाज में खुलेपन की भावना का होना आवश्यक है । अत: यह वह दशा है जो नागरिकों को रचनात्मक स्वतन्त्रता का आनन्द लेने के योग्य बना सकती है ।

(ख) सहभागी स्वतन्त्रता (Participating Freedom):

नागरिकों के लिये प्रजातन्त्र सरकार का सबसे अच्छा रूप है जिसके द्वारा वे सब प्रकार की चर्चाओं तथा सार्वजनिक वाद-विवाद में भाग ले सकते हैं जिससे राजनीतिक स्वतन्त्रता सुनिश्चित होती है ।

नागरिक और प्रैस दबाव वर्गों के रूप में कार्य करके सरकार को मानवीय कल्याण को अधिकतम करने, निर्धनता उन्मूलन, क्षमताओं की समानता और सतत विकास को सम्भव बनाने के लिये सचेत एवं उत्तरदायी बना सकते हैं ।

(ग) कार्य-सम्पादन की स्वतन्त्रता (Transactional Freedom):

बाजार अर्थव्यवस्था में भाग लेने और क्षमताओं के विनिमय की स्वतन्त्रता होनी चाहिये । इसमें व्यक्तिगत अवसरों को बढ़ाने तथा आर्थिक और सामाजिक प्रबन्धों की दक्षता बढ़ाने की व्यवस्था सम्मिलित है । राज्य के लोगों को उपलब्ध सामाजिक-आर्थिक चयनों के विकल्पों की जानकारी अवश्य बढ़ानी चाहिए । उन्हें पूर्ण सूचना और ज्ञान उपलब्ध किया जाये ।

(घ) विधिक स्वतन्त्रता (Procedural Freedom):

किसी भी प्रकार का भेदभाव अथवा असमानता नहीं होनी चाहिये । ऊपर के भारी प्रशासन को स्थानीय भ्रष्टाचार रहित प्रशासन में परिवर्तित कर दिया जाना चाहिये । विधिक विलम्बों को समाप्त करना आवश्यक है ।

(ङ) सुरक्षात्मक स्वतन्त्रता (Protective Freedom):

सम्भव है कि कभी कभार व्यक्ति स्वयं अपनी सहायता करने में असमर्थ हो, ऐसी स्थिति में राज्य के लिये यह आवश्यक है कि वंचित व्यक्तियों को सुरक्षा उपलब्ध करें ।

प्रो. सेन के अनुसार ये सभी स्वतन्त्रताएं आनुभाविक सम्बन्ध द्वारा एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं । राजनैतिक स्वतन्त्रता (बोलने और चुनाव की स्वतन्त्रता के रूप में) आर्थिक सुरक्षा के संवर्धन में सहायता करती है । सामाजिक अवसर (शिक्षा और स्वास्थ्य के रूप में) आर्थिक भागीदारी को सुविधापूर्ण बनाते हैं ।

आर्थिक सुविधाएं (व्यापार और उत्पादन में सहभागिता के अवसरों के रूप में) व्यक्तिगत बहुलता और सामाजिक सुविधाओं के लिये सार्वजनिक साधन उत्पन्न करने में सहायक होती हैं । इसके विपरीत इन स्वतन्त्रताओं की असफलताएं निरक्षरता, लिंग असमानता, बाल श्रम, बन्धुआ श्रम, श्रम-शोषण तथा भ्रष्टाचार जैसी बुराइयों को जन्म देती हैं ।

पर्याप्त स्वतन्त्रता का अभाव प्रत्यक्षत: आर्थिक निर्धनता से सम्बन्धित होता है, जो लोगों को भूख मिटाने अथवा पर्याप्त पोषण उपलब्ध करने तथा ठीक हो सकने वाले रोगों का उपचार प्राप्त करने तथा पर्याप्त वस्त्रों और आश्रय की उपलब्धता और साफ जल एवं सफाई की सुविधाओं का आनन्द उठाने से वंचित रखता है ।

इससे निर्धन और वंचित श्रेणी के लोग समृद्ध और साधनयुक्त वर्ग के विरुद्ध विद्रोह कर देते हैं । अत: सेन कहते हैं कि बाजार व्यवस्था के अधीन वृद्धि यह स्वतन्त्रताएं नहीं ला सकती ।

विकासशील राष्ट्र विकास से लाभ नहीं उठा सकते यदि वह बाजार के पूर्ण अनियमन प्रचलित निजीकरण, बेलगाम वैश्वीकरण तथा व्यापार और विनिमय नियन्त्रण के उदारीकरण के मार्ग का अनुकरण करते हैं ।

सामाजिक पूंजी में निवेश उनके लिये अत्यावश्यक है ताकि वह निपुण एवं शिक्षित श्रम शक्ति का निर्माण कर सकें और ऐसी समाज-आर्थिक व्यवस्था की रचना कर सके जो निर्धनता, असमानता, बेरोजगारी, वंचन और भेदभाव से मुक्त हो जो उन्हें सतत विश्व स्तरीय मानवता की ओर ले जा सके-जोकि विकास का अन्तिम सोपान है ।