आर्थिक विकास कैसे मापा जाता है? | Read this article in Hindi to learn about how is economic development measured.

आर्थिक विकास का मापन एक महत्वपूर्ण लेकिन जटिल समस्या है । अर्थशास्त्रियों ने आर्थिक वृद्धि एवं विकास के जिन सूचकों एवं मापकों पर अधिक ध्यान दिया उनमें सकल राष्ट्रीय उत्पाद, शुद्ध राष्ट्रीय उत्पाद एवं प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय आय मुख्य थे ।

हाल ही के वर्षों में सकल राष्ट्रीय उत्पाद से अधिक व्यापक सूचकों को विकास के मापन का आधार बनाने की दिशा में पहल की गयी । इनमें आर्थिक कल्याण के मापन की धारणा महत्वपूर्ण है । प्रो. पाल ए. सेमुअलसन ने इसे शुद्ध आर्थिक कल्याण कहा ।

इसके साथ ही अन्य समुन्नत धारणाएं मापन हेतु ध्यान में रखी गयीं । मानव विकास मापन हेतु मानव विकास निर्देशांक निर्मित किये गये जिनका उल्लेख मानव विकास रिपोर्ट में हैं । आर्थिक विकास के मापक सामान्यत: प्रतिष्ठित मापदण्ड एवं आधुनिक मापदण्ड के अधीन रखे जा सकते हैं । इनमें पहले मापदण्ड में वणिकवादियों, एडम स्मिथ, जे. एस. मिल एवं कार्ल मार्क्स के विचार उल्लेखनीय हैं ।

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वाणिकवादियों ने आर्थिक वृद्धि का मापदण्ड देश में उपलब्ध बहुमूल्य धातुओं (सोने-चाँदी के कोष) एवं विदेश व्यापार को माना जिससे एक देश के कल्याण में वृद्धि सम्भव है । एडम स्मिथ ने प्रकृतिवादियों द्वारा वर्णित अबन्ध नीति का आश्रय लेते हुए शुद्ध राष्ट्रीय उत्पादन की मात्रा के अधिक होने को आर्थिक विकास का सूचक माना ।

पूँजीवादी व्यवस्था में व्याप्त शोषण, बेरोजगारी एवं गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा जैसी विकृतियों को ध्यान में रखते हुए जे.एम. मिल ने आर्थिक विकास के मापदण्ड के रूप में सहकारिता को महत्व दिया । मार्क्स के अनुसार मनुष्यों का अधिकतम कल्याण समाजवादी व्यवस्था में सम्भव है । अत: समाजवाद आर्थिक विकास की कसौटी है ।

आधुनिक मापदण्ड में आर्थिक विकास के मापन हेतु मुख्यत: सकल राष्ट्रीय उत्पाद  प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रिय उत्पाद तथा कल्याण एवं सामाजिक निदर्शकों पर ध्यान आकृष्ट किया ।

विकास के मापक के रूप में सकल राष्ट्रीय उत्पाद एवं प्रति व्यक्ति आय (GNP and Per Capita Income as Measures of Development):

आर्थिक विकास को ऐसी प्रक्रिया के रूप में व्याख्यायित किया जा सकता है जहाँ एक देश की वास्तविक प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय उत्पाद या आय एक लम्बी समय अवघि में प्रति व्यक्ति उत्पादकता की नियमित वृद्धि के द्वारा बढ़नी सम्भव होती है । यह एक स्वीकृत संक्षिप्त परिभाषा इस कारण मानी गयी, क्योंकि सकल राष्ट्रीय उत्पाद या प्रति व्यक्ति एकल राष्ट्रीय उत्पाद के आंकड़े आसानी से उपलब्ध हो जाते है । परन्तु यह मापदण्ड मापन की सैद्धान्ति एवं व्यावहारिक समस्याएँ उत्पन्न करता है ।

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1. वास्तविक राष्ट्रीय आय:

वास्तविक राष्ट्रीय आय देश में अन्तिम रूप से तैयार वस्तु व सेवाओं के कुल उत्पादन को शुद्ध रूप में अभिव्यक्त करता है । वास्तविक राष्ट्रीय आय का मापन करते हुए कीमतों में होने वाले परिवर्तनों को ध्यान में नहीं रखा जाता । वस्तुत: कीमतें परिवर्तनशील हैं । अत: यह मापन अवास्तविक है ।

देश की वास्तविक राष्ट्रीय आय में होने वाले परिवर्तनों को अपेक्षाकृत एक लम्बी समय अवधि के अधीन ध्यान में रखा जाता है । अत: यदि राष्ट्रीय आय में कुछ कारणों से अल्पकालीन वृद्धि होती है; वैसे व्यापार चक्र में तेजी की दशा, तो क्या इसे आर्थिक विकास कहना अनुचित होगा ?

सकल राष्ट्रीय आय का माप जनसंख्या में होने वाली वृद्धि के परवर्तनों को ध्यान में नहीं रखता । इसके साथ ही यह औद्योगीकरण, शहरीकरण, पर्यावरण प्रदूषण के प्रभावों एवं देश की आय के वितरण सम्बन्धी पक्षों को भी ध्यान में नहीं रखता ।

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2. प्रति व्यक्ति शुद्ध राष्ट्रीय उत्पादन:

कुछ अर्थशास्त्रियों ने आर्थिक वृद्धि के मापन हेतु एक देश के प्रति व्यक्ति शुद्ध राष्ट्रीय उत्पादन या प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय उत्पाद का आभार लिया अर्थात् प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय आय में होने वाले परिवर्तन के द्वारा आर्थिक वृद्धि का मापन किया गया । आलोचकों के अनुसार प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय आय में वृद्धि का सूचक कल्याण के मापन हेतु उपयुक्त मापदण्ड नहीं है ।

क्योंकि इसकी निम्न सीमाएँ हैं:

(a) प्रति व्यक्ति आय के आंकड़े देश में उत्पादित वस्तु व सेवाओं के बारे में कुछ नहीं बताते न ही इन वस्तु व सेवाओं खरा व्यक्तियों को प्राप्त होने वाले कल्याण के बारे में कोई सूचना मिलती है । यह भी सम्भव है कि प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय आय में होने वाली वृद्धि की सामाजिक लागत काफी उच्च हो; जैसे आर्थिक विकास के साथ प्रति व्यक्ति आय तो बढ़े पर शहरों में भीड़-भाड़ बड़े, पर्यावरण के प्रदूषण से व्यक्ति को साफ पानी, हवा प्राप्त न हो, आय को बढ़ाने के प्रयासों में व्यक्ति अत्यधिक तनाव का शिकार बन जाए उसकी आय तो बढ़े पर पारिवारिक जीवन व घरेलू सुख शान्ति समाप्त होती जाये, वह अलगाव का शिकार बन जाए ।

(b) प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय आय में होने वाली वृद्धि की दर के अनुमान प्राकृतिक संसाधनों के शोषण एवं दुरुपयोग के बारे में कोई क्या नहीं देते । एक देश की राष्ट्रीय आय में उसके प्राकृतिक व मानवीय संसाधनों का महत्वपूर्ण योगदान होता है । प्राय: यह देखा गया है कि अधिक आय प्राप्त करने के लिए प्राकृतिक संसाधनों, यथा वन, खनिज सम्पदा का भरपूर दोहन किया जाता है जिससे पारिस्थितिकी पर विपरीत प्रभाव पड़ता है ।

(c) प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय आय में होने वाली वृद्धि देश में आय के वितरण पर कोई प्रकाश नहीं डालती । एक देश में राष्ट्रीय आय का वितरण आर्थिक कल्याण के स्तरों को प्रभावित करता है । ऐसे सभी देश जहाँ आय के स्तरों में तेजी से वृद्धि हुई वहाँ असमानताएँ भी बड़ी । कुछ गिने चुने, शक्तिशाली, समृद्ध कुलक, नव धनाढ़य वर्ग की स्थिति मजबूत होती गयी और दूसरी तरफ जनसंख्या का बहुल भाग जीवन निर्वाह स्तर पर बना रहा । भारत जैसे देश में यह ‘असमानता’ प्रो. अमर्त्य सेन के अध्ययनों में वर्णित है ।

(d) कई वस्तुएँ जिनका देश में उत्पादन होता है बाजार से होकर नहीं गुजरतीं । कम विकसित देशों में बाजार की अपूर्णताएँ विद्यमान होती हैं । अत: सभी उत्पादित वस्तु व सेवाएँ राष्ट्रीय आय के अनुमानों में सम्मिलित नहीं हो पातीं ।

(e) विभिन्न देशों के राष्ट्रीय आय के आंकड़ों को उनके आर्थिक कल्याण का मापन करने हेतु तुलना का आधार नहीं बनाया जा सकता । उदाहरणार्थ पश्चिमी देशों में राष्ट्रीय आय की न्यूनाधिक एक जैसी धारणा प्रचलित है लेकिन समाजवादी देशों में राष्ट्रीय आय का मापन भिन्न मापदण्डों के आधार पर होता है ।

पश्चिमी देशों में राष्ट्रीय आय में वस्तु व सेवाओं के उत्पादन में होने वाली वृद्धि सम्मिलित है, जबकि समाजवादी देशों में यह केवल पदार्थ उत्पादन (Material Production) को सम्मिलित करती है । राष्ट्रीय आय की धारणाओं के सैद्धान्तिक अन्तर के साथ ही विनिमय दरकी समस्या तथा विभिन्न देशों की घरेलू सापेक्षिक कीमत संरचना में भिन्नता भी तुलना हेतु समस्या उत्पन्न करती है ।

3. राष्ट्रीय शुद्ध सकल या प्रति व्यक्ति आय:

द्वतीय विश्व युद्ध की अवधि के उपरान्त विकास अर्थशास्त्रियों एवं नियोजकों द्वारा राष्ट्रीय शुद्ध सकल या प्रति व्यक्ति आय की गतियों को अर्थिक विकास के माप हेतु माता दी गयी ।

वास्तविक राष्ट्रीय आय को वृद्धि या विकास का सर्वाधिक उपयुक्त सूचक मानने के दो तर्क दिये गये:

(a) राष्ट्रीय आय में होने वाली गति सामान्य रूप से यह बताती है कि किस प्रकार अन्य चरों में भी गति होती है । अर्थात् आय के परिवर्तन अन्य चरों के साथ घनिष्ठता से जुड़े अथवा सहसम्बन्धित होते हैं । उदाहरण के लिये प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय आय में होने वाली वृद्धि उत्पादकता, पूँजी स्टॉक, उपभोग स्तर इत्यादि पर निश्चित प्रभाव डालती है ।

(b) दूसरा तर्क यह है कि वास्तविक राष्ट्रीय आय को अन्य घटकों जैसे पूंजी स्टॉक व तकनीक के स्तरों की गणना की अपेक्षा अधिक सापेक्षिक सुगमता से परिकलित किया जा सकता है । यह अनुभव किया गया कि वृद्धि विकास की प्रक्रिया के अन्तिम नतीजे प्राप्त करने के लिये एक व्यक्तिगत निर्देशांक चुना जाये तो इसके लिये राष्ट्रीय आय में होने वाली वृद्धि सर्वाधिक उपयुक्त होगी ।

4. कुल राष्ट्रीय वास्तविक आय तथा प्रति व्यक्ति वास्तविक आय:

वृद्धि व विकास के साहित्य में यह बात स्पष्ट रूप से सामने आती है कि अर्थशास्त्रियों का एक वर्ग जिसका प्रतिनिधित्व साइमन कुजनेट्‌स, जे.ई. मीड, जेकोब वाइनर, व फ्रेंकल करते हैं, इन सब ने कुल राष्ट्रीय वास्तविक आय को विकास का उचित सूचक माना ।

दूसरी तरफ आर्थर लेविस, हेबरलर, हावें लीबिन्स्टीन एवं जी.एम. मेयर ने वृद्धि के मापन हेतु प्रति व्यक्ति वास्तविक आय को उपयुक्त आधार माना । कुल वास्तविक राष्ट्रीय आय के द्वारा विकास का मापन करते हुये यह कहा गया कि विभिन्न समय अवधियों में दो या अधिक देशों के विकास की तुलना करते हुये कुल वास्तविक आय के निर्देशांक का आधार अधिक उचित है ।

मेयर एवं बाल्डदिन के अनुसार- ”राष्ट्रीय आय में होने वाली वृद्धि धनी एवं निर्धन दोनों देशों में विकास का सर्वाधिक उपयुक्त एकल माप है ।”

प्रो.ए.जे. यंगसन ने भिन्न शर्तों के अधीन कुल राष्ट्रीय आय में वृद्धि को आर्थिक वृद्धि या विकास का मापदण्ड स्वीकार किया:

I. कुल राष्ट्रीय आय का विचार मात्र आर्थिक परिवर्तनों से सम्बन्धित हो ।

II. राष्ट्रीय आय की वृद्धि, समाज के पूर्व प्रचलित व स्वीकृत आदर्शों को ठेस पहुँचा सकती है तथा इसमें होने वाली वृद्धि वर्तमान पीढ़ी के प्रतिमानों को परिवर्तित कर सकती है ।

III. राष्ट्रीय आय में परिवर्तन से वितरण प्रणाली में भी परिवर्तन होते है लेकिन सामान्यत: इन्हें ध्यान में नहीं रखा जाता ।

IV. विभिन्न व्यक्तियों के उद्देश्य भिन्न-भिन्न होते है । अत: राष्ट्रीय आय की वृद्धि में व्यक्तिगत उद्देश्यों को ध्यान में नहीं रखा जाता ।

प्रो. साइमन कुजनेट्‌स के अनुसार आर्थिक विकास को मापने के उद्देश्य से हम उसकी परिभाषा या तो सम्पूर्ण राष्ट्रीय आय में वृद्धि के रूप में कर सकते हैं अथवा स्थिर कीमतों पर सम्पूर्ण जनसंख्या के उत्पादन अथवा प्रति व्यक्ति आय एवं प्रति व्यक्ति उत्पादन के रूप में । आर्थिक वृद्धि अथवा विकास के मापन हेतु राष्ट्रीय आय को एक महत्वपूर्ण माना गया ।

इसके पक्ष में निम्न तर्क दिये गये:

1. वास्तविक राष्ट्रीय आय में होने वाली वृद्धि से प्रति व्यक्ति आय में मृद्धि सम्भव बनती है । मेयर और बाल्डविन के अनुसार प्रति व्यक्ति आय के सापेक्ष विशुद्ध राष्ट्रीय उत्पादन को आर्थिक विकास का सूचक मानना अधिक युक्ति संगत है, क्योंकि प्रति व्यक्ति वास्तविक आय में वृद्धि हेतु बढ़ी हुई राष्ट्रीय आय एक पूर्व आवश्यकता है ।

2. राष्ट्रीय आय के द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विकास की तुलनात्मक स्थिति का विवरण प्रदर्शित किया जा सकता है ।

3. राष्ट्रीय आय का मापदण्ड एक विस्तृत परिप्रेक्ष्य को प्रस्तुत करता है इसके अर्न्तगत जनसंख्या में होने वाली वृद्धि, विभिन्न क्षेत्रों की प्रगति एवं विभिन्न क्षेत्रों में तुलनात्मक परिवर्तन से सम्बन्धित पक्षों को भी ध्यान में रखा जाता है, जबकि प्रति व्यक्ति आय का सूचक आर्थिक विकास में जनसंख्या की वृद्धि को अधिक महत्व देता है |

सीमाएँ (Limitations):

आर्थिक विकास के मापन हेतु राष्ट्रीय आय के मापदण्ड की निम्न सीमाएँ हैं:

1. इसके द्वारा आय के वितरणात्मक पक्ष की व्याख्या नहीं की जा सकती । राष्ट्रीय आय में होने वाली वृद्धि आर्थिक कल्याण के बढ़ने की सूचक नहीं है जब तक कि आय का समान वितरण न हो रहा हो । यदि राष्ट्रीय आय का विषम वितरण हो तब धनी वर्ग अधिक समृद्ध तथा निर्धन और अधिक निर्धन होता जाता है ।

2. राष्ट्रीय आय का मापदण्ड देश में होने वाली जनसंख्या वृद्धि के परिवर्तनों को ध्यान में नहीं रखता । यदि राष्ट्रीय आय के साथ जनसंख्या भी तीव्र गति से बड़े, तब प्रति व्यक्ति आय में शून्य वृद्धि की स्थिति उत्पन्न हो सकती है । ऐसी स्थिति में व्यक्तियों के जीवन-स्तर एवं आर्थिक कल्याण में कोई वृद्धि नहीं होती ।

3. किसी देश में सकल राष्ट्रीय उत्पादन की मात्रा के साथ यह देखा जाना आवश्यक है कि देश में उत्पादन की प्रवृतियाँ कैसी हैं । यदि जीवनोपयोगी वस्तुओं के उत्पादन के सापेक्ष देश में हथियारों-मादक द्रव्यों का अधिक उत्पादन हो, कालाबाजार, स्मगलिंग से काले धन की समान्तर अर्थव्यवस्था पनप रही हो तो यह एक उपर्युक्त माप नहीं बनता । सम्भव है कि राष्ट्रीय आय में वृद्धि प्राकृतिक संसाधनों के तीव्र विदोहन द्वारा हो रही हो जिससे देश का पर्यावरण सन्तुलन बिगड़ता जाये और भावी पीढ़ी को देने के लिये कुछ न बचे ।

किसी देश के उत्पादन की प्रवृतियों पर विचार करते हुये उत्पादन की मात्रा ही नहीं बल्कि उसके गुणात्मक स्वरूप को भी ध्यान में रखा जाना होगा । इसका अभिप्राय है कि उत्पादन किस प्रकार किया जा रहा है । यदि राष्ट्र का वास्तविक उत्पादन बढ़े व साथ ही वास्तविक लागत अर्थात् समाज के कष्ट एवं त्याग में वृद्धि हो तब राष्ट्रीय आय की वृद्धि देश के विकास को अभिव्यक्त नहीं करेगी ।

4. कम विकसित एवं विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में राष्ट्रीय आय की गणना में कई कठिनाइयाँ आती हैं:

(अ) राष्ट्रीय आय को हमेशा मुद्रा के रूप में मापा जाता है लेकिन कई वस्तु व सेवाएँ ऐसी है जिनका मौद्रिक माप सम्भव नहीं ।

(ब) यदि मध्यवर्ती एवं अन्तिम रूप से निर्मित वस्तुओं के मध्य अन्तर न स्थापित किया जाये तब राष्ट्रीय आय की दोहरी गणना की समस्या उत्पन्न होती है ।

(स) अवैधानिक क्रियाओं से प्राप्त आय राष्ट्रीय आय में सम्मिलित नहीं हो पाती । इस प्रकार राष्ट्रीय आय में हस्तान्तरण भुगतानों को सम्मिलित करने की कठिनाई सामने आती है ।

स्पष्ट है कि आर्थिक विकास के मापक के रूप में सकल राष्ट्रीय उत्पाद की धारणा विकसित देशों की स्थितियों के लिये अधिक प्रासंगिक है । कम विकसित देशों में देखा गया है कि सकल राष्ट्रीय उत्पाद एवं प्रति व्यक्ति एकल राष्ट्रीय उत्पाद में होने वाली वृद्धि से निर्धनता बेरोजगारी व असमानताओं में वृद्धि हुई है ।

ऐसे सभी अर्थशास्त्री जिन्होंने जो आर्थिक विकास के माप हेतु शुद्ध आय की वृद्धि (भले ही कुल या प्रति व्यक्ति) का आधार लिया, यह स्वीकार करते है कि यह आर्थिक कल्याण का संतोषप्रद सूचक नहीं है तथा न ही यह विकास की प्रक्रिया को स्पष्ट कर पाता है । जब वास्तविक राष्ट्रीय आय को वृद्धि के संकेतक की तरह प्रयोग किया जाता है तब हमें यह सावधानी रखनी होगी कि यह आवश्यक रूप से कल्याण से सम्बन्धित स्तर या दशा की जानकारी प्रदान करता है ।

वहीं प्रति व्यक्ति वास्तविक आय में वृद्धि, कुछ बातों को स्पष्ट रूप से नहीं समझाती; जैसे उपभोग के ढंग एवं तरीके, आय की असमानताओं में कमी, निर्धनता रेखा से नीचे निवास करने वाली जनसंख्या का प्रतिशत, बेकारी एवं अर्द्ध बेकारी में होने वाली कमी एवं वह सभी उद्देश्य जिन्हें विकासशील देश द्वारा विकास हेतु आवश्यक माना जा रहा है । इन्हीं सीमाओं के कारण सकल राष्ट्रीय उत्पादन का सूचक माने जाने का विरोध हुआ है ।

लेस्टर पीयरसन लिखते हैं कि विकास की त्रासदी व असफलता यह है कि यह सार्थक रोजगार सृजित करने में असफल रहा है । अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार-विकासशील देशों द्वारा प्राप्त आर्थिक वृद्धि की सापेक्षिक रूप से उच्च दरें जिन्हें सकल राष्ट्रीय उत्पादन में वृद्धि के द्वारा प्रदर्शित किया जाता है, जनसंख्या के एम्स बड़े समूह के जीवन-स्तर में तत्सम्बन्धित सुधार करने के साथ तादातम्य स्थापित नहीं कर पायी है । हुआ तो यह है कि कई देशों में आर्थिक वृद्धि के लाभ जनसंख्या के छोटे समूह तक ही केन्द्रित रहे हैं ।

विकास के उचित माप के रूप में सकल राष्ट्रीय उत्पाद को उचित मापदण्ड मानने के प्रति निराशा बढ़ती जा रही है । क्रिश्चेन साइन्स मानीटर में छपे एक लेख में यह कहा गया कि यह समय है कि सकल राष्ट्रीय उत्पाद को राजगद्दी से उतार दिया जाये । वस्तुत: यह एक वैकल्पिक उपाय सुझाने की समस्या ही नहीं बल्कि विकास की रणनीति की सम्पूर्ण प्रक्रिया है जो जनसमूह के जीवन में सुधार के गुणात्मक पक्ष को ध्यान में रखती है ।

आर्थिक कल्याण का मापन या शुद्ध आर्थिक कल्याण (Measure of Economic Welfare or Net Economic Welfare):

अर्थशास्त्रियों ने सकल राष्ट्रीय उत्पाद की धारणा के आधार पर आर्थिक विकास का मापन दोषपूर्ण पाया । ई.एफ. शूमाखर ने अपनी पुस्तक में लिखा कि “सफलता का सामान्य माप जिसे सकल राष्ट्रीय उत्पाद की वृद्धि कहा गया मात्र एक बहकावा है ।”

अर्थशास्त्रियों द्वारा आर्थिक विकास के उन वैकल्पिक उपायों को निर्दिष्ट करने का प्रयास किया जो जीवन-स्तर में होने वाले परिवर्तनों को सूचित कर सके । हाल ही के वर्षों में जीवन के गुणात्मक पक्षों के मात्रात्मक निरूपण की दिशा में प्रयास किये जा रहे हैं । सकल राष्ट्रीय उत्पाद के साथ-साथ सामाजिक स्थितियों के अवलोकन को भी ध्यान में रखना आवश्यक समझा जा रहा है ताकि विकास नियोजन के सामाजिक लक्ष्यों को भी ध्यान में रखा जा सके ।

इस दिशा में विलियम नोरधोस एवं जेम्स टोबिन ने अपने महत्वपूर्ण अध्ययन Is Growth Obsolete में सकल राष्ट्रीय उत्पाद में सुधार करते हुए आर्थिक कल्याण के माप को प्रस्तुत किया । इस माप को प्रो. सेमुअलसन ने शुद्ध आर्थिक कल्याण कहा ।

शुद्ध आर्थिक कल्याण ज्ञात करने के लिए सकल राष्ट्रीय उत्पाद GNP में कुछ निश्चित मदों जैसे आराम एवं घरेलू महिलाओं की सेवाओं को जोड़ा जाता है तथा सकल राष्ट्रीय उत्पाद में से प्रदूषण की अनिवारित लागत एवं आधुनिकीकरण शहरीकरण की असुविधाओं जैसी मदें घटायी जाती हैं ।

बढ़ते हुए आराम के लिए किये समायोजन के प्रति व्यक्ति शुद्ध आर्थिक कल्याण के स्तर पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है, जबकि शहरों में बढ़ता प्रदूषण शुद्ध आर्थिक कल्याण के स्तर को कम करता है ।

एक देश के नियोजित विकास हेतु महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि सकल राष्ट्रीय उत्पाद में होने वाली कितनी वृद्धि पर मानव समुदाय जीवन की गुणवत्ता एवं शुद्ध आर्थिक कल्याण को बढ़ाने हेतु त्याग करने को तत्पर रहता है । उदाहरणार्थ- यदि देश काफी समृद्ध है तो व्यक्ति अधिक आराम प्राप्त करने के लिये कम घण्टा कार्य करना चाहेंगे ।

अत: सकल राष्ट्रीय उत्पाद GNP की वृद्धि दर तो कम होगी पर शुद्ध आर्थिक कल्याण NEW बढ़ेगा । अभिप्राय: यह है कि व्यक्ति जीवन के गुणात्मक पक्ष का अनुभव करने के लिए वस्तु एवं सेवाओं की निश्चित मात्रा का त्याग करना चाहेंगे ।

संक्षेप में कहा जा सकता है कि विकास नियोजन हेतु NEW की धारणा GNP की तुलना में अधिक सार्थक है, जबकि नियोजित विकास का उद्देश्य जीवन की गुणवत्ता में सुधार करना हो तथा NEW इसका मापन करने में सहायक हो ।

सकल सामाजिक उत्पाद की धारणा: कार्ल फोक्स की व्याख्या (Concept of Gross Social Product : Explanation of Karl A. Fox):

विकास के मापन की एक अन्य धारणा कार्ल ए. फोक्स ने प्रस्तुत की । उन्होंने सकल राष्ट्रीय आय या उत्पाद GNP की धारणा का विस्तार करते हुये सकल सामाजिक उत्पाद की विचार प्रस्तुत किया । इस सन्दर्भ में उन्होंने समाजशास्त्र में टेलकॉट पारसन, मनोविज्ञान में एरिक बर्न, हैरी लेविंसन एवं हेडले केन्ट्रिल तथा परिस्थितिकी मनोविज्ञान में रोजर बारकर के सिद्धान्तों का समावेश किया ।

कार्ल फोक्स की सकल सामाजिक उत्पाद GSP की धारणा सकल राष्ट्रीय उत्पाद को समाहित करते हुये आर्थिक व अनार्थिक सामाजिक उत्पादों का यथा प्रमाणिक विश्लेषण करती हैं । उन्होंने आर्थिक व अनार्थिक घटकों पर ध्यान देते हुये एक दिये समय में अर्न्तसामाजिक तुलनाओं को सम्भव बनाया ।

कार्ल फोक्स के अतिरिक्त विलफर्ड बेकरमेंन ने आर्थिक विकास एवं जीवन के गुणात्मक पक्षों के माप हेतु संश्लिष्ट सूचकांक का प्रयोग किया ।

मानव संसाधन विकास को महत्वपूर्ण मानते हुये हारबिसन, मारहनिक एवं रेसनिक ने Qualitative Analysis of Modernization and Development (1970) में चालीस चरों का प्रयोग करते हुये गुणात्मक घटकों के योगदान को स्पष्ट किया ।

हेगन ने A Framework for Analyzing Economic and Political Development में सामाजिक सूचकों एवं विकास का एक समान निर्देशांक बनाने के प्रयास किये । निवियारोस्की ने The Level of Living of Nations : Meaning and Measurement (March 1965) में चौदह सूचकों का प्रयोग किया ।

इरमा एडलमेन एवं मौरिस की व्याख्या (Analysis of Irma Adelman and Moris):

एडलमेन एवं मारिस ने कुछ सामाजिक निर्देशकों के मापन सम्बन्धी व्याख्या की ।

एडॅलमेन एवं मारिस ने 74 देशों में 48 गुणात्मक आधारों के आधार पर आर्थिक वृद्धि को मापने का प्रयास किया । इसके लिये उन्होंने गणनात्मक संख्या पद्धति का प्रयोग किया । यह संकल्पना ली गयी कि आर्थिक वृद्धि माप के समान वितरण एवं जनसमूह की राजनीतिक सहभागिता को उत्पन्न करेगी । यद्यपि कई देशों में धनात्मक आर्थिक वृद्धि होने के बावजूद आय का असमान वितरण एवं जनसमूह में सहयोग की अनुपस्थिति पाई गई ।

एडलमैन एवं मारिस द्वारा वर्णित सामाजिक-राजनीतिक आर्थिक विकास के 48 गुणात्मक निदर्शक निम्नांकित हैं:

(I) सामाजिक-सांस्कृतिक निदर्शक:

1. परम्परागत कृषि क्षेत्र का आकार

2. द्वेतता की सीमा

3. शहरीकरण की दशा

4. घरेलू मध्यवर्ग की महत्ता

5. सामाजिक गतिशीलता की दशा

6. साक्षरता की स्थिति

7. जनसंचार की स्थिति

8. सांस्कृतिक एवं जाति सम्बन्धी समरूपता का अंश

9. सामाजिक तनाव का अंश

10. जनन दर

11. दृष्टिकोण का आधुनिक होना

12. धर्म का विद्यमान स्वरूप

13. सामाजिक आर्थिक विकास का स्तर

(II) राजनीतिक निदर्शक:

14. राष्ट्रीय एकीकरण एवं राष्ट्रीय एकता का अंश

15. राजनीतिक सत्ता के केन्द्रीयकरण का अंश

16. राजनीतिक सहभागिता की दशा

17. राजनीतिक दलों के मध्य प्रतिस्पर्द्धा

18. राजनीतिक दलों का विद्यमान स्वरूप

19. श्रम संघों की स्थिति

20. परम्परागत लोक समूह की राजनीतिक शक्ति

21. सेना की राजनीतिक शक्ति

22. धार्मिक संगठनों का राजनीतिक व सामाजिक प्रभाव

23. राजनीतिक विपक्ष एवं प्रेस की स्वतन्त्रता

24. प्रशासनिक कुशलता का अंश

25. आर्थिक विकास के लिये प्रतिबद्ध नेतृत्व

26. प्रत्यक्ष सरकारी आर्थिक क्रियाओं की दशा

27. औपनिवेशिक अनुभव की दशा

28. स्वायत्त शासन की नवीनता

29. राजनीतिक स्थायित्व की दशा

30. औपनिवेशिक अनुभव का प्रकार ।

(III) अर्थिक सूचक:

31. प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय उत्पाद GNP (1961 में)

32. 1950-51 से 1963-64 तक वास्तविक प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय उत्पाद की वृद्धि दर

33. प्राकृतिक संसाधनों की बहुलता

34. समग्र विनियोग दर

35. उद्योगों का आधुनिकीकरण (1950 से 1963 तक)

36. भौतिक उपरिमद पूँजी की पर्याप्तता

37. कर प्रणाली की समर्थता

38. कर प्रणाली में सुधार

39. 1950 से 1963 की अवधि में हुआ औद्योगीकरण

40. कृषि संगठन की विशेषताएँ

41. कृषि तकनीकों का आघुनिकीकरण

42. कृषि उत्पादकता में सुधार (1950 से 1963 तक)

43. वित्तीय संस्थाओं की समर्थ दशा

44. वित्तीय संस्थाओं में सुधार

45. मानवीय संसाधनों में सुधार

46. विदेशी व्यापार की संरचना

47. जनसंख्या वृद्धि की दर

48. देश का आकार एवं विकास रणनीति ।

UNRISD के निदर्शकों का समूह:

संयुक्त राष्ट्र के सामाजिक विकास शोध संस्थान ने ऐसे सूचकों के समूह को विकसित किया जिसकी सहायता से सामाजिक विकास के स्तरों की तुलना सम्भव है । यह माप GNP या प्रति व्यक्ति आय से अधिक श्रेष्ठ माना गया ।

इन्हें UNRISED के 16 Core Indicator के नाम से जाना जाता है जो निम्न हैं:

1. जन्म के समय जीवन की आशा

2. 20,000 एवं अधिक आबादी वाले क्षेत्रों में जनसंख्या का घनत्व

3. प्रति व्यक्ति, प्रति दिन उपभोग किया गया पशु प्रोटीन

4. प्राथमिक एवं माध्यमिक स्कूलों में प्रवेश की स्थिति

5. व्यावसायिक पंजीकरण दर

6. प्रति कमरे में निवास करने वाले औसत व्यक्तियों की संख्या

7. प्रति हजार जनसंख्या में समाचार पत्र वितरण

8. विद्युत, गैस एवं पानी की सुविधा युक्त जनसंख्या का प्रतिशत

9. प्रति कृषि श्रमिक द्वारा किया गया उत्पादन

10. विद्युत शक्ति का उपभोग प्रति व्यक्ति किलो वाट

11. प्रति व्यक्ति इस्पात का उपभोग

12. ऊर्जा उपभोग प्रति व्यक्ति किलोग्राम कोयले के समकक्ष

13. विनिर्माण क्षेत्र से उत्पादित सकल राष्ट्रीय उत्पाद

14. प्रति व्यक्ति विदेशी व्यापार (1960 के यू.एस. डालर के आधार पर)

15. आर्थिक रूप से सक्रिय नौकरी पेशा व मजदूरी प्राप्त कर्त्ताओं का प्रतिशत

16. जनसंख्या ।

जीवन सूचकांक का भौतिक गुण (Physical Quality of Life Index):

आर्थिक विकास के मापन हेतु मौरिस ने जीवन सूचकांक के भौतिक गुण या PQLI की व्याख्या की ।

PQLI के तीन मुख्य घटक हैं:

1. प्रत्याशित आयु

2. शिशु मृत्यु दर

3. साक्षरता

प्रत्येक देश में इनमें से प्रत्येक घटक को उनकी स्थितियों के आधार पर सूचक अंक प्रदान करते हुये क्रम में रखा गया । यह सूचकांक आधारभूत स्तर पर व्यक्ति की आवश्यकताओं एवं इच्छाओं को प्रदर्शित करते हैं ।

एक देश में उच्च सूचकांक यह प्रदर्शित करता है कि उस देश में राष्ट्रीय उत्पाद का प्रयोग ऐसा है कि उपर्युक्त तीन घटकों के आधार पर आधारित अधिकाधिक व्यक्तियों को लाभ प्राप्त हो रहा है । सामान्य रूप से अधिक PQLI से अभिप्राय है ।

उपर्युक्त तालिका से स्पष्ट है कि निम्न आय वाले देश जिनकी औसत प्रति व्यक्ति आय 150 डालर है में औसत PQLI-39 है । उच्च आय वाले देशों में औसत PQLI-95 है । यह कहा जा सकता है कि जीवन की उच्च गुणवत्ता तब भी प्राप्त की जा सकती है, जबकि प्रति व्यक्ति आय का स्तर न्यून हो ।

यह तब सम्भव होगा, जबकि व्यक्तियों की आधारभूत आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए उचित नीतियों को अपनाया जाये । इससे यह भी स्पष्ट होता है कि प्रति व्यक्ति GNP का उच्च होना प्रत्याशित आयु, शिशु मृत्यु दर एवं साक्षरता के संतोष प्रद स्तरों का सूचक नहीं है ।

जीवन की गुणवत्ता (Quality of Life):

विकास के मापकों में जीवन की गुणवत्ता को महत्वपूर्ण माना जा रहा है तथा यह भी स्वीकार किया जा रहा है कि यह गुणवत्ता प्रति व्यक्ति आय वृद्धि के सूचकांक द्वारा निर्दिष्ट नहीं हो सकती ।

सुब्रत घटक ने जीवन की गुणवत्ता मापन हेतु मुख्यत: जिन घटकों को चुना वह निम्नांकित हैं:

1. शिक्षा एवं साक्षरता दर

2. प्रत्याशित आयु

3. पोषण का स्तर जिसे प्रति व्यक्ति को आपूर्ति किए गए कैलोरी स्तर या किसी अन्य सूचक द्वारा मापा जायेगा

4. प्रति व्यक्ति उपभोग की गई ऊर्जा

5. लोहा एवं इस्पात का प्रति व्यक्ति उपभोग

6. प्रति व्यक्ति टिकाऊ उपभोक्ता वस्तुओं का प्रयोग

7. प्रति हजार जनसंख्या में शिशु मृत्यु दर का अनुपात

8. रेडियो एवं टेलिविजन का स्टाक, भेजे गये पत्रों की संख्या |