आर्थिक विकास के केनेसियन विश्लेषण | Read this article in Hindi to learn about:- 1. जोन मेनार्ड कीन्ज की प्रस्तावना (Introduction to Keynesian Analysis) 2. कीन्ज के विश्लेषण की महत्ता (Importance of Keynesian Analysis) and Other Details.

जोन मेनार्ड कीन्ज की प्रस्तावना (Introduction to Keynesian Analysis):

जोन मेनार्ड कीन्ज का जन्म 1883 में हुआ । उनकी प्रारम्भिक शिक्षा Eton में हुई तथा केम्ब्रिज के किंग्स कालेज से उन्होंने स्नातक उपाधि प्राप्त की । उन्होंने अल्फ्रेड व्हाइट हैड से दर्शन एवं अल्फ्रेड मार्शल व ए.सी. पीगू से आर्थिक विश्लेषण का ज्ञान प्राप्त किया । उनकी पहली पुस्तक Treatise on Probability, 1921 में प्रकाशित हुई जिसमें अर्थशास्त्र के नियमों से सम्बन्धित व्यापक आर्थिक विश्लेषण प्रस्तुत किया गया ।

तदुपरान्त 1930 में A Treatise on Money तथा 1936 में उनका मुख्य ग्रन्थ The General Theory of Employment Interest and Money प्रकाशित हुआ । इसे एडम स्मिथ के ग्रन्थ Wealth of Nations, कार्ल मार्क्स के Das Capital, डारविन के The Origin of Species के समकक्ष रखा जा सकता है ।

कीन्ज ने प्रतिष्ठित विश्लेषण की वैधता पर सन्देह ही व्यक्त नहीं किया जो 1930 की महामंदी के समाधान में असफल एवं अप्रासंगिक हो गया था वरन् उन्होंने एक वैकल्पिक विश्लेषण भी प्रस्तुत किया । उन्होंने में मुख्यत तीन पक्षों को रेखांकित किया ।

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पहला रोजगार का निर्धारण जो बेरोजगारी की प्रवृति व उसके कारणों को स्पष्ट करता था, दूसरा ब्याज दर विश्लेषण तथा तीसरा अर्थव्यवस्था में मुद्रा की भूमिका । कीन्ज के अनुसार- बेरोजगारी समर्थ माँग की कमी से उत्पन्न होती है जिसका समाधान यह है कि समर्थ माँग का सृजन किया जाए । डिलार्ड के अनुसार- कीन्ज के अर्थशास्त्र का प्रारम्भिक बिन्दु ही समर्थ माँग विश्लेषण है ।

कीन्ज ने पूँजीवादी विकास की दशाओं का क्रमिक विवेचन नहीं किया पर उनकी व्याख्या अर्थव्यवस्था के प्रावैगिक स्वरूप व प्रकृति को ध्यान में रखती है । उन्होंने अपने लेख Economic Possibilities for our Grand Children में आर्थिक प्रगति की दर को मुख्यत: जनसंख्या नियन्त्रण, सामाजिक तनावों व युद्ध की विभीषिका से मुक्ति पाने की इच्छा, विज्ञान के सदुपयोग एवं पूँजी संचय की दर से सम्बन्धित किया ।

कीन्ज ने General Theory में स्थैतिक दृष्टिकोण पर निर्भरता प्रकट की पर प्रावैगिक समस्याओं के विवेचन की उसमें पर्याप्त सम्भावना विद्यमान है । उनके समर्थ माँग विश्लेषण पर आधारित रह कर कई अर्थशास्त्रियों ने विकास मॉडल प्रस्तुत किए ।

प्रभावपूर्ण माँग (Effective Demand):

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कीन ने राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में कुल उत्पादन को रोजगार के रूप में मापा । उत्पादन की मात्रा रोजगार के स्तर को प्रभावित करती है अर्थात् देश में जितना अधिक उत्पादन होगा रोजगार की मात्रा भी उतनी ही अधिक होगी । उत्पादन की मात्रा प्रभाव पूर्ण माँग पर निर्भर करती है । अत: रोजगार मात्रा भी प्रभावपूर्ण माँग पर निर्भर करेगी । स्पष्ट है कि पूर्ण रोजगार की स्थिति प्राप्त करने के लिए प्रभाव पूर्ण माँग में कमी नहीं होनी चाहिए । (देखें तालिका 1)

प्रभाव पूर्ण माँग से आशय है किसी वस्तु को क्रय करने की सामर्थ्य का होना । इसके दो पक्ष हैं- 1. उपभोग माँग जिसका सम्बन्ध उपभोग वस्तुओं की माँग से है तथा 2. विनियोग माँग जो पूँजीगत वस्तुओं की माँग है ।

प्रभावपूर्ण माँग का निर्धारण दो घटकों से होता है:

i. सामूहिक माँग फलन या ADF जो मुद्रा की विभिन्न मात्राओं की अनुसूची है जिसे उपक्रमी एष्क अर्थव्यवस्था में रोजगार के बदलते स्तरों पर अपने उत्पादन की बिक्री से प्राप्त होने की आशा करता है यह उपक्रमी की कुल प्राप्तियों को सूचित करता है ।

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ii. सामूहिक पूर्ति फलन या ASF मुद्रा की विभिन्न मात्राओं की अनुसूची जिसे उपक्रमी एक अर्थव्यवस्था में रोजगार के बदलते स्तरों पर अपने उत्पादन की बिक्री से अवश्य प्राप्त करता है । यह उपक्रम की कुल लागत है ।

यदि प्राप्तियाँ लागतों के सापेक्ष अल्प हों तब उपक्रमी उत्पादन नहीं करना चाहेंगे । उत्पादन न होने पर क्रमिकों को रोजगार से वंचित रहना पड़ेगा । दूसरी ओर यदि लागतें प्राप्तियों के सापेक्ष अल्प हों तब उपक्रमी अधिक उत्पादन करना चाहेंगे ।

अधिक उत्पादन होने पर अधिक श्रमिकों को रोजगार मिलेगा । स्पष्ट है कि प्राप्तियों या सामूहिक माँग फलन ADF एवं लागतों या सामूहिक पूर्ति फलन ASF के द्वारा रोजगार का निर्धारण होता है । ADF व ASF के अर्न्तछेदन द्वारा प्रभाव पूर्ण माँग का बिन्दु निर्धारित होगा । इस बिन्दु पर प्राप्तियाँ ठीक बराबर होंगी लागतों के । ADF व ASF के साम्य बिन्दु से यह अभिप्राय नहीं कि अर्थव्यवस्था अवश्य ही पूर्ण रोजगार की दशा प्राप्त करेगी । साम्य ऐसे बिन्दु पर भी सम्भव है जो पूर्ण रोजगार से न्यून या कम की दशा हो । (तालिका 15.1 एवं चित्र 15.1)

कीन्ज ने अल्पकाल में ASF को स्थिर माना है जिससे तात्पर्य है कि अल्प काल में लागतों में परिवर्तन सम्भव नहीं है । मात्र मुद्रा प्रसार की दशा में जब पूर्ण या पूर्ण से अधिक रोजगार हों, तब इसमें परिवर्तन सम्भव है अर्थात् इस स्थिति में लागत में कमी के प्रयास किए जाने चाहिएँ ।

प्रभावपूर्ण माँग अथवा रोजगार को सामूहिक माँग फलन के द्वारा निर्धारित किया जाता है यह मुख्यत: दो घटकों से सम्बन्धित है:

1. उपभोग की प्रवृत्ति,

2. विनियोग की प्रेरणा

1. उपभोग की प्रवृत्ति (Propensity to Consume):

उपभोग प्रवृति से अभिप्राय यह है कि आय में होने वाले परिवर्तन के साथ उपभोग व्यय में किस प्रकार परिवर्तन होता है । उपभोग प्रवृत्ति कुल राष्ट्रीय आय एवं कुल राष्ट्रीय उपभोग व्यय के मध्य सम्बन्ध को अभिव्यक्त करती है ।

उपभोग प्रवृत्ति को औसत उपभोग प्रवृत्ति या APC तथा सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति या MPC के द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है । औसत उपभोग प्रवृत्ति या APC से अभिप्राय है कुल आय (Y) एवं उपभोग व्यय (C) का अनुपात अर्थात् C/Y दूसरी ओर सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति या MPC, आय में होने वाले परिवर्तनों के प्रत्युत्तर में उपभोग व्यय के परिवर्तन के अनुपात द्वारा व्यक्त की जाती है ।

यदि परिवर्तन की दर ∆ हो, तब

कीन्ज के अनुसार- आय में वृद्धि होने पर APC व MPC में कमी आती है पर सापेक्षिकत: MPC अधिक तेजी से गिरती है । उपभोग प्रवृत्ति अनेक घटकों से प्रभावित होती है जैसे मौद्रिक आय, उपभोक्ता की रुचि, अधिमान व फैशन में होने वाले परिवर्तन, मितव्ययिता व बचत के प्रति उपभोक्ता का दृष्टिकोण, नकद परिसम्पत्तियों का संग्रह, ब्याज की दर, सम्पत्ति के वितरण का स्वरूप, देश में अपनायी गयी मौद्रिक व राजकोषीय नीतियां, सामाजिक बीमा तथा निगमों की व्यवसाय नीति इत्यादि ।

कीन्ज ने अधिकांश घटकों को अल्पकाल में स्थिर माना तथा विनियोग में होने वाली वृद्धि को अधिक महत्व प्रदान किया । संक्षेप में अल्पकाल में उपभोग क्रिया स्थिर मानी जा सकती है । अत: रोजगार वृद्धि हेतु प्रभावपूर्ण माँग के दूसरे निर्धारक विनियोग पर अधिक निर्भर रहना आवश्यक है ।

2. विनियोग की प्रेरणा (Inducement to Invest):

कीन्ज ने विनियोग की मात्रा को पूँजी की सीमान्त उत्पादकता तथा ब्याज की दर पर निर्भर बताया । चूँकि अल्पकाल में ब्याज की दर में अधिक परिवर्तन नहीं होते अत: विनियोग की मात्रा पूँजी की सीमान्त उत्पादकता पर निर्भर होती है । पूँजी की सीमान्त उत्पादकता पूँजीगत परिसम्पति से प्राप्त होने वाले लाभ को बताती है । अत: इसे लाभ की प्रत्याशित दर भी कहा जाता है ।

यह दो घटकों से प्रभावित होती है:

(i) पूँजी परिसम्पत्ति से होने वाली भावी प्राप्तियाँ:

जिससे अभिप्राय है कि नई पूँजीगत पारसम्पत्ति अथवा मशीन से उसके जीवन काल में प्राप्त होने वाला प्रतिफल अथवा वह शुद्ध प्राप्ति जो मशीन अपने जीवन काल में प्रदान करती है । कीन्ज के अनुसार- पूँजी की सीमान्त उत्पादकता बट्टे की वह दर है जो पूँजी परिसम्पत्तियों के जीवन काल में प्राप्त होने वाले प्रत्याशित प्रतिफलों के वर्तमान मूल्य को पूंजी परिसम्पत्तियों की पूर्ति कीमत के बराबर कर दें ।

(ii) पूँजी परिसम्पत्ति की पूर्ति कीमत (Supply Price of Capital Assets):

इससे अभिप्राय है पूँजी परिसम्पत्ति की लागत । इसे पुन: स्थापन या प्रतिस्थापन लागत के द्वारा भी अभिव्यक्त किया जाता है । पूँजी परिसम्पत्ति की लागत से उपक्रमी परिचित होता है लेकिन इसके द्वारा प्राप्त होने वाली प्रत्याशित प्राप्ति के बारे में वह अनिश्चित होता है ।

कीन्ज ने विनियोग को मुख्यत: दो घटकों से सम्बन्धित किया- (i) जो ब्याज की दर को प्रभावित करते हैं तथा (ii) जो पूँजी की सीमान्त उत्पादकता को प्रभावित करते हैं । यदि ब्याज की दर पूँजी की सीमान्त उत्पादकता से अधिक हो तब एक नयी परिसम्पत्ति का सृजन नहीं होगा ।

दूसरी ओर यदि पूँजी की सीमान्त उत्पादकता ब्याज की वर्तमान दर से अधिक हो तब उपक्रमी अधिक विनियोग करना चाहेगा । संक्षेप में, विनियोग की आवश्यक शर्त यह है कि नयी पूँजीगत परिसम्पत्ति की सीमान्त उत्पादकता व्याज दर से अधिक होनी चाहिए ।

कीन्ज ने स्पष्ट किया कि व्यक्तिगत पूँजी की सीमान्त उत्पादकता अल्पकाल में अस्थिर होती है लेकिन दीर्घकाल में इसमें हास होता है । इस प्रवृति को दीर्घकालीन वृद्धिरोध कहा गया । कीन्ज के अनुसार- निजी विनियोग पूँजी की सीमान्त उत्पादकता एवं व्याज की दर द्वारा प्रभावित होता है परन्तु सरकारी विनियोग किस सीमा तक इनसे अप्रभावित रहता है अर्थात् इसकी प्रवृति स्वायत्त होती है ।

कारण यह है कि सरकारी विनियोग सामाजिक उपरिमदों की स्थापना, अन्तसंरचना के निर्माण व देश के कल्याण में वृद्धि का उद्देश्य रखते है,जबकि निजी विनियोगों का मुख्य उद्देश्य लाभ प्रेरित होता है । विनियोग के उपयुक्त दो निर्धारकों में व्याज की दर सापेक्षिक रूप से स्थायी प्रवृति की होती है ।

व्याज की दर में परिवर्तन से विनियोग में वृद्धि सम्भव है । मुद्रा की माँग का निर्धारण तरलता पसन्दगी द्वारा होता है । तरलता पसन्दगी से अभिप्राय है कि व्यवित अपनी सम्पत्ति को नकद रूप में रखना चाहते हैं । मुद्रा को नकद या तरल रखने के तीन उद्देश्य हैं- i. हस्तान्तरण या लेन-देन उद्देश्य, ii. सावधानी या सतर्कता उद्देश्य एवं iii. सहा उद्देश्य ।

हस्तान्तरण एवं सतर्कता उद्देश्य के सापेक्ष सट्टा उद्देश्य का निर्धारण कठिन है । सट्टा उद्देश्य के अधीन मुद्रा की माँग पर व्यापक उच्चावचनों का प्रभाव पड़ता है, जबकि हस्तान्तरण तथा सतर्कता उद्देश्य के अधीन मुद्रा की माँग स्थिर रहती है व इसका अनुमान लगाया जा सकता है । कीन्ज ने तरलता पसन्दगी एवं ब्याज दर में प्रत्यक्ष सम्बन्ध बताया अर्थात् तरलता पसन्दगी जितनी अधिक होगी ब्याज की दर भी ऊँची होगी तथा तरलता पसन्दगी के निम्न होने पर ब्याज की दर भी कम होगी ।

मुद्रा की पूर्ति बैंकिंग प्रणाली के अधीन मौद्रिक एवं साख नीतियों द्वारा निर्धारित होती है । मुद्रा की पूर्ति एवं ब्याज की दर के मध्य विपरीत सम्बन्ध होता है । उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि ब्याज दर तरलता पसन्दगी एवं मुद्रा की पूर्ति द्वारा निर्धारित होती है ।

कीन्ज के रोजगार विश्लेषण का सार निम्न संकल्पनाओं द्वारा स्पष्ट है:

a. राष्ट्रीय आय कुल रोजगार के परिमाण के बराबर होती है जबकि कुल उत्पादन कुल आय ।

b. रोजगार का कुल परिमाण एक अर्थव्यवस्था में समर्थ माँग के स्तर पर निर्भर करता है ।

c. समर्थ माँग के दो घटक हैं:

(i) सामूहिक माँग फलन,

(ii) सामूहिक पूर्ति फलन ।

सामूहिक माँग फलन एवं सामूहिक पूर्ति फलन के अर्न्तछेदन से समर्थ माँग का निर्धारण होता है । (देखें तालिका व चित्र 15.1.)

d. सामृहिक पूर्ति फलन अल्पकाल में दिया हुआ तथा स्थिर है इसलिये कीन्ज की व्याख्या में प्रभावी घटक सामूहिक माँग फलन है ।

e. सामूहिक माँग फलन, उपभोग फलन एवं विनियोग फलन से मिलकर बना है ।

f. उपभोग फलन या उपभोग व्यय का निर्धारण:

आय के आकार एवं उपभोग की प्रकृति पर निर्भर करता है । कीम्स ने उपभोग फलन को अल्पकाल में स्थायी प्रवृति का माना ।

g. विनियोग फलन या विनियोग की प्रेरणा देश में विनियोग के आकार को निर्धारित करती है जो निर्भर करती है:

(i) पूँजी की सीमान्त कुशलता एवं

(ii) ब्याज की दर ।

h. पूंजी की सीमान्त कुशलता या क्षमता का निर्धारण:

(i) पूँजी परिसम्पत्तियों से प्राप्त होने वाले भावी लाभों एवं

(ii) परिसम्पत्तियों की पुर्नस्थापन लागतों या पूर्ति कीमत पर निर्भर करती है ।

i. ध्याज की दर निर्भर करती है:

तरलता पसन्दगी फलन एवं मुद्रा की मात्रा समुदाय की तरलता पसन्दगी तीन उद्देश्यों से निर्धारित होती है:

(i) हस्तान्तरण उद्देश्य,

(ii) सतर्कता उद्देश्य, एवं

(iii) सट्टा जनित उद्देश्य, जबकि मुद्रा की पूर्ति का नियमन मौद्रिक अधिकारी द्वारा किया जाता है । कीन्ज ने ब्याज की दर को सापेक्षिक रूप से स्थायी प्रकृति का माना ।

j. कीन्ज के अनुसार- विनियोग व्यय या विनियोग की अभिरुचि एक अर्थव्यवस्था में रोजगार के स्तर का मुख्य निर्धारक है जो कि पूँजी की सीमान्त कुशलता एवं ब्याज की दर पर निर्भर करती है । यह अन्तर जितना अधिक होगा विनियोग की प्रेरणाएँ भी उतनी ही अधिक होंगी । ब्याज की दर को अल्पकाल में स्थायी माना गया है इसलिए विनियोग फलन पर पूँजी की सीमान्त कुशलता का अधिक प्रभाव रहता है ।

k. कीन्ज के विश्लेषण का सार यह है कि एक अर्थव्यवस्था में रोजगार एवं आय के स्तर में वृद्धि हेतु यह आवश्यक है कि समर्थ माँग में वृद्धि की जाए जिससे विनियोग व्यय बड़े । विनियोग माँग की कमी से बेरोजगारी बढ़ेगी । इसलिए कीन्स के रोजगार विश्लेषण में विनियोग मुख्य घटक है ।

कीन्ज के विश्लेषण की महत्ता (Importance of Keynesian Analysis):

कीन्ज का रोजगार विश्लेषण मुख्यत: तीन पक्षों को रेखांकित करता है:

(i) रोजगार का निर्धारण जो बेरोजगारी की प्रकृति एवं उसके कारणों से सम्बन्धित है,

(ii) व्याज दर व्याख्या तथा

(iii) अर्थव्यवस्था में मुद्रा की भूमिका । कीन्ज के अनुसार- बेरोजगारी का एक मात्र कारण समर्थ माँग की कमी है तथा इसका समाधान समर्थ माँग का सृजन किया जाना है । कीन्ज ने अर्द्धरोजगार सन्तुलन की धारणा को विकसित किया जिसके अनुरूप समर्थ माँग के दो चरों सामूहिक माँग फलन व सामूहिक पूर्ति फलन के द्वारा रोजगार का निर्धारण होता है ।

कीन्ज का विश्लेषण स्पष्ट करता है कि रोजगार सन्तुलन सामान्यत पूर्ण रोजगार सन्तुलन से नीचे स्थापित होता है । यदि अनैच्छिक बेरोजगारी को दूर कर दिया जाए तो सामूहिक माँग सामूहिक पूर्ति में होने वाले वांछित परिवर्तनों के अनुरूप अल्पकाल में अवश्य बढ़ेगी ।

अत: बेरोजगारी को दूर करने की नीति सामूहिक माँग में वृद्धि पर केन्द्रित होनी चाहिए । चूँकि अल्पकाल में उपभोग की प्रवृति सापेक्षिक रूप से स्थायी होती है इसलिए सामूहिक माँग में केवल तब वृद्धि सम्भव है जब विनियोग के स्तर को बढ़ाया जाए । इसके लिए छूट या संस्थागत साख को सस्ती दर पर उपलब्ध कराना । सरकार सार्वजनिक परियोजना व निर्माण कार्यों में विनियोग कर पहल कर सकती है । इन क्रियाओं से सामूहिक माँग में वृद्धि होती है तथा रोजगार का एक उच्च स्तर प्राप्त होता है ।

कीन्ज के विश्लेषण की मुख्य विशेषताओं को संक्षेप में निम्नांकित बिन्दुओं के द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है:

i. कीन्ज ने उपभोग के मनोवैज्ञानिक नियम का प्रतिपादन किया जो एक उपभोक्ता या कुल समुदाय के मनोवैज्ञानिक व्यवहार को प्रकट करता है । उनके अनुसार- बढ़ी हुई आय एवं इसके प्रत्युत्तर में बढ़े हुए उपभोग के मध्य एक अन्तराल विद्यमान होता है । समुदाय के इस मनोवैज्ञानिक व्यवहार के द्वारा उत्पादन के निर्णय प्रभावित होते हैं, तब उत्पादन की दर भी अधिक होती है ।

विनियोग भी अल्पकाल में मनोवैज्ञानिक घटकों से अधिक तथा मौद्रिक चरों से कम प्रभावित होता है । अल्पकाल में ब्याज की दर अपरिवर्तित रहने के कारण विनियोग की दर पूँजी की सीमान्त उत्पादकता द्वारा नियमित होती है ।

ii. कीन्ज ने व्याज की दर को एक विशुद्ध मौद्रिक प्रवृति माना तथा रोजगार विश्लेषण को तरलता पसन्दगी पर आधारित किया । ब्याज की दर एक दिए हुए आय के स्तर पर मुद्रा की माँग अनुसूची तथा पूर्ति अनुसूची के द्वारा निर्धारित होती है । कीन्ज का विचार था कि ब्याज की दर के द्वारा विनियोग निर्णय प्रभावित होते है पर सीमित रूप से । यदि भविष्य की सम्भावना अधिक आशाप्रद न हो, तब ब्याज की न्यून सम्भावित दरें उपक्रमों को विनियोग की प्रेरणा प्रदान नहीं कर पाएंगी लेकिन जब भविष्य में लाभ प्राप्ति की सम्भावनाएँ अधिक हों, तब ब्याज की उच्च दरों पर भी मुद्रा की माँग की जाएगी, क्योंकि विनियोग से अधिक प्रतिफल प्राप्त होने की आशा होती है ।

iii. कीन्ज का विश्लेषण अर्थव्यवस्था में मुद्रा की पूर्ति एवं सामान्य कीमत स्तर के मध्य के सम्बन्धों का विश्लेषण किया । कीन्ज के अनुसार, जब तक बेरोजगारी विद्यमान रहेगी, रोजगार मुद्रा की मात्रा के समान अनुपात में परिवर्तित होगा रोजगार की स्थिति जा जाएगी, तब कीमतें मुद्रा की मात्रा के समान अनुपात में बदलेगी ।

iv. कीन्ज की व्याख्या उस अर्थव्यवस्था से सम्बन्धित है जहाँ अस्वैच्छिक बेकारी, आदाओं की पूर्ण लोचदार पूर्ति तथा मुद्रा की पूर्ति की प्रत्युत्तरयुक्त समर्थ माँग विद्यमान होती है मुद्रा की मात्रा में होने वाली वृद्धि से ब्याज की दर गिरती है जिससे उपक्रमी को अधिक विनियोग की प्रेरणा प्राप्त होती है । विनियोग में होने वाली वृद्धि आय, रोजगार व उत्पादन में वृद्धि करती है । अर्थव्यवस्था में विस्तार की प्रक्रिया तब तक चलेगी जब तक कि पूर्ण रोजगार की प्राप्ति न हो जाए । पूर्ण रोजगार का स्तर प्राप्त होने पर इस विस्तार में रुकावट आती है अर्थात् इस स्तर पर मुद्रा की पूर्ति में होने वाले परिवर्तन के प्रत्युतर में उत्पादन की पूर्ति लोच छ गिर जाती है तथा मुद्रा प्रसार प्रारम्भ हो जाता है ।

कीन्ज के कीमतों में होने वाली वृद्धि का वास्तविक कारण मुद्रा की मात्रा में होने वाले परिवर्तनों से सम्बन्धित नहीं है । यह तो आय एवं उत्पादन के स्तर में होने वाले परिवर्तनों से उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार कीन्ज का मुद्रा एवं कीमतों का विश्लेषण व्यापक आर्थिक सिद्धान्त में इस दृष्टि से महत्वपूर्ण बन जाता है, क्योंकि यह मौद्रिक विश्लेषण को मूल्य व उत्पादन के साथ सफलतापूर्वक संयोजित करता है तथा अर्थव्यवस्था में कीमत उच्चावचनों की व्याख्या करता है ।

v. कीन्ज ने पूर्ण रोजगार विश्लेषण में राजकोषीय नीति को महत्वपूर्ण माना उन्होंने बेरोजगारी को दूर करने के लिए सार्वजनिक कल्याण कार्यक्रमों में किए जाने वाले विनियोग को बेहतर उपाय स्वीकार किया ।

अर्द्धविकसित देशों में कीन्ज के सिद्धान्त की सार्थकता (Relevance of Keynesian Theory to Underdeveloped Countries):

अर्द्धविकसित देशों में कीन्ज का विश्लेषण सीमित महत्व का है । इसका कारण कीन्ज के सिद्धान्त की वह विशेषताएँ है जो पूँजीवादी अर्थव्यवस्था हेतु प्रासंगिक बनती है, जैसे- बचत कर्ता व विनियोग कर्त्ताओं का भिन्न-भिन्न होना, श्रमिक व पूंजी को पृथक-पृथक रखा जाना, उत्पादन में शुद्ध प्रतिफल को ध्यान में रखा जाना ।

अर्थव्यवस्था में मुद्रा के अधिक लेन-देन होना, मजदूरी या पारिश्रमिक का मौद्रिक निर्धारण किया जाना तथा मजदूरी का जीवन निर्वाह से उच्च स्तर पर नियत किया जाना । अर्द्धविकसित देशों में आर्थिक दशाएँ भिन्न स्वरूप की होती हैं । अत: कीन्ज का विश्लेषण इनके सन्दर्भ में अप्रासंगिक बन जाता है । प्रो. शम्पीटर ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि कीन्ज का व्यावहारिक विश्लेषण ऐसा बीज है जिसे विदेशी भूमि में नहीं लगाया जा सकता ।

प्रो.ए.के. दास गुप्त ने अपने लेख Keynesian Economics and Underdeveloped Countries 1956 में स्पष्ट किया कि अर्द्धविकसित देशों की समस्याओं को मात्र समर्थ माँग की कमी से सम्बन्धित नहीं किया जा सकता एवं न इसे पूँजी संसाधनों की अतिरिक्त क्षमता के सन्दर्भ में देखा जा सकता है ।

दास गुप्त के अनुसार- अर्द्धविकसित देशों में विद्यमान पूँजी स्टाक उपलब्ध श्रम को रोजगार देने में सक्षम नहीं होता । कीन्ज के मॉडल की अप्रासंगिकता इस तथ्य से स्पष्ट होती है कि उन्होंने श्रम की अतिरिक्त पूर्ति को पूँजी यन्त्रों की उपयोग में न लायी गयी क्षमताओं से सम्बन्धित किया परन्तु अर्द्धविकसित देशों में ऐसी अतिरिक्त क्षमताएं उपलब्ध ही नहीं होती ।

विचारणीय बिन्दु यह भी है कि विकशित देशों में वास्तविक मजदूरी दर न्यूनतम जीवन-स्तर के सापेक्ष अधिक होती है पर अर्द्धविकसित देशों में वास्तविक मजदूरी न्यूनतम जीवन निर्वाह स्तर पर स्थिर रहती है ।

विकसित देशों में पूँजी की प्रचुरता होती है अत: तीव्र गति से बढ़ती माँग को पूर्ण करने में औद्योगिक क्षमता का विस्तार सम्भव होता है । इन देशों में कार्यकारी पूँजी की गतिशीलता भी अधिक होती है पर अर्द्धविकसित देशों में पूँजी की न्यूनता मुख्य समस्या है । अर्द्धविकसित देशों में पूर्ति दशाएँ विकसित देशों से भिन्न होती है । विकसित देशों में पूर्ति वक्र काफी अधिक लोचदार होता है जिससे अभिप्राय है कि अपने उत्पादन की माँग में होने वाली वृद्धि के प्रत्युत्तर में उत्पादक वस्तु की पूर्ति करने में सक्षम होते हैं । अत: इस स्थिति में मुद्रा प्रसार भी नहीं होता ।

कीन्ज ने उपभोक्ता वस्तु क्षेत्र में अप्रयुक्त क्षमता की संकल्पना ध्यान में रखी । तात्पर्य यह है कि विकसित देशों में जब समर्थ माँग का अभाव होता है तब उपभोक्ता वस्तु उद्योगों में कुछ अप्रयुक्त क्षमता विद्यमान रहती है । विनियोग की वृद्धि द्वारा अतिरिक्त आय के सृजन से उपभोग में भी वृद्धि की जानी सम्भव है ।

इस स्थिति में उत्पादक अप्रयुक्त क्षमता के प्रयोग से उत्पादन बढ़ाते है ऐसे में कोई मुद्रा प्रसारिक दबाव उत्पन्न नहीं होता तथा कीमत स्तर स्थायित्व में रहता है । उपभोक्ता वस्तु क्षेत्र में अप्रयुक्त क्षमता की मान्यता अर्द्धविकसित देशों के सन्दर्भ में लागू नहीं हो पाती, क्योंकि विशेष रूप से कृषि क्षेत्र में न तो अप्रयुक्त क्षमता विद्यमान होती है तथा न ही अल्पकाल में उपभोक्ता मांग के अनुरूप पूर्ति में वृद्धि की जानी सम्भव होती है ।

विकसित देशों में सरकार द्वारा न्यूनता वित्त प्रबन्ध की नीति तब अपनायी जाती है, जब बाजार की शक्तियाँ यथोचित माँग के सृजन में असफल हो जाती हैं । अर्द्धविकसित देशों में न्यूनता वित्त प्रबन्ध द्वारा सरकार उत्पादन एवं रोजगार को बढ़ाने में समर्थ नहीं हो पाती बल्कि इससे मुद्रा प्रसार की सम्भावना अधिक हो जाती है ।

मुद्रा प्रसार को नियन्त्रित करने के उपाय उत्पादन के प्रयासों पर विपरीत प्रभाव डालते है । इन देशों में अतिरिक्त विनियोग करने से आय तो बढ़ती है पर उसी अनुपात में कृषि उत्पादन नहीं बढ़ता । उपक्रमी और अधिक विनियोग करना चाहते हैं पर मुद्रा प्रसार के भय से इसमें बाधा आती है ।

अर्द्धविकसित देशों में किए गए विनियोग से उन कृषकों की मौद्रिक आय बढ़ती है जो अपने उत्पादन अतिरेक का बाजार में विक्रय करते हैं । चूँकि इन देशों में उपभोग की सीमान्त प्रवृति उच्च होती है । अत: मौद्रिक आय में होने वाली वृद्धि उपभोग वस्तुओं की ओर झुक जाती है । अधिकांश कृषक अपनी खाद्यान्न आवश्यकताओं को स्वयं के द्वारा किए उत्पादन द्वारा पूर्ण करते है ।

अत: कृषि उत्पादन के दिए होने पर कृषक के उपभोग बाजार अतिरेक में कमी होगी । इस स्थिति में अर्थव्यवस्था का गैर कृषि क्षेत्र खाद्यान्नों की ऊँची कीमतें चुकाएगा । यह भी देखा जाता है कि आय में वृद्धि होने पर मोटे अनाजों के स्थानों पर श्रेष्ठ अनाज का उपभोग बढ़ता है । इससे गैर कृषि क्षेत्र में खाद्यान्न पूर्ति सीमित होती है व उसकी कीमतें बढ़ती हैं ।

अर्द्धविकसित देशों में गैर कृषि क्षेत्र में किया जाने वाला विनियोग भी बाधाओं का अनुभव करती है । उपभोक्ता वस्तु उद्योगों में संरचनात्मक दुर्बलताएँ विद्यमान होती हैं जिससे वह उत्पादन में अधिक वृद्धि नहीं कर पाते । उद्योगों की विस्तार क्षमता सीमित होती है जिससे अल्प उत्पादन प्राप्त होता है तथा पूर्ति की कमी रहती है । ऐसे में वस्तु कीमतें अधिक होंगी व कृषकों को गैर कृषि वस्तुओं के अधिक मूल्य चुकाने पड़ेंगे । अत: कृषकों की वास्तविक आय में वृद्धि नहीं हो पाती । इसका कृषि उत्पादन पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है ।

कीन्ज का रोजगार सिद्धान्त अनैच्छिक बेरोजगारी की दशा को ध्यान में रखता है । अनैच्छिक बेकारी विकसित पूंजीवादी देशों में दिखाई देती है । जहाँ अधिकांश उत्पादन बाजार के लिए किया जाता है । इन देशों में स्वयं उपभोग के लिए किया गया उत्पादन अत्यन्त अल्प होता है । श्रमिकों के पास स्वयं के उत्पादन साधन नहीं होते तथा वह उद्योगपतियों को अपना श्रम बेचते हैं । यह प्रवृत्तियाँ अर्द्धविकसित देशों में दिखायी नहीं देती । वास्तव में अर्द्धविकसित देश छद्म बेकारी से पीड़ित होते हैं ।

डॉ॰ बी.के. आर.वी.राव. ने छद्म बेरोजगारी को अनैच्छिक बेकारी से दो आधारों पर भेद करते हैं:

(i) छद्‌म रूप से बेकार व्यक्ति यह नहीं जानता कि वह बेकार है इसलिए तह किसी वैकल्पिक रोजगार के प्रयास नहीं करता ।

(ii) वस्तुत: उसे कुछ वास्तविक आय प्राप्त होती है जिसे वह किसी अन्य स्त्रोत से प्राप्त न करने की आशा कर सकता है ।

इसी कारण छद्म रूप से बेकार व्यक्ति वैकल्पिक रोजगार के अवसर तक स्वीकार करते है जब उन्हें उस आय से अधिक मजदूरी दी जाए जिसे वह वर्तमान समय में प्राप्त कर रहे हैं । यह अनैच्छिक बेकारी से भिन्न दशा है । इन स्थितियों में कीन्ज का विश्लेषण अर्द्धविकसित देशों हेतु सार्थक नहीं रह जाता । प्रो.वी.के. आर.वी.राव के अनुसार- कीन्ज का गुणक विश्लेषण अर्द्धविकसित देशों के सन्दर्भ में व्यावहारिक नहीं है ।

इसका कारण यह है कि गुणक की कार्यशीलता निम्न दशाओं से सम्बन्धित जिनका अर्द्धविकसित देशों में अभाव पाया जाता है:

i. किसी प्रकार की बेकारी का विद्यमान न होना सिवाय कीन्ज द्वारा विश्लेषित अनैच्छिक बेकारी के ।

ii. अर्थव्यवस्था का स्वरूप प्राथमिक रूप से औद्योगिक हो तथा उपभोक्ता वस्तुओं के पूर्ति वक्र का ढाल धनात्मक हो ।

iii. उपभोक्ता वस्तु उद्योगों में अतिरिक्त क्षमता विद्यमान हो जिससे माँग में वृद्धि होने के प्रत्युत्तर में उत्पादन में वृद्धि हो सके ।

iv. देश में पूँजी की अधिकता हो अर्थात् उत्पादन में वृद्धि के लिए चाही जाने कार्यकारी पूँजी की पूर्ति लोचदार बनी रहे ।

लीजनहुफड द्वारा कीन्ज के सिद्धान्त का मूल्यांकन (Critical Evaluation of the Theory by Leijonhuvued):

1968 में लीजनहुफड की पुस्तक “On Keynesian Economics and the Economics of Keynes: A Study in Monetary Theory” के प्रकाशन में कीन्ज की प्रसिद्ध पुस्तक The General Theory (1939) पर सार्थक बहस आरम्भ हुई । लीजनहुफड का अध्ययन मुख्यत: क्लोवर के लेख “The Keynesian Counter-Revolution: A Theoretical Appraisal” की व्यावहारिक उपादेयता पर था ।

लीजनहुफड ने तर्क दिया कि:

(1) कीन्ज का अर्थशास्त्र सन्तुलन अर्थशास्त्र नहीं है ।

(2) कीन्ज ने पूर्ण सूचनाओं से कम के विश्व की कल्पना की । फलत: बाजारों के सम्मुख आने वाली बाधाएँ पहले मात्राओं में होने वाले परिवर्तन से तथा बाद में कीमतों में होने वाले परिवर्तन से समायोजित होती हैं ।

(3) कीन्ज ने दृढ़ मजदूरी दरों को नहीं माना परन्तु काफी हद तक सभी कीमतें बहुत धीमे बदलती हैं ।

(4) कीन्ज का मॉडल आवश्यक रूप से एक द्विक्षेत्रीय मॉडल है जिसमें बेरोजगारी का मुख्य कारण यह है कि सापेक्षिक कीमतें गलत हैं- ब्याज की दरें काफी उच्च हैं तथा दीर्घकालीन परिसम्पत्ति कीमतें इतनी कम हैं जिससे पूर्ण रोजगार का सृजन सम्भव नहीं हो पाता ।

लीजनहुफड का विवेचन क्लोवर के निष्कर्षों के साथ दोहरी-निर्णय संकल्पना पर आधारित रहा । उनके अनुसार कीन्जियन मॉडल की कमी यह है कि मानक मॉडल में एक बाजार, कीमत संरचना, विनियोग वस्तुओं व उपभोक्ता वस्तुओं को एकल उत्पादन चर के साथ संयोजित कर दिया जाता है । परन्तु कीन्ज पूँजीगत वस्तुओं व उपभोक्ता वस्तुओं को एक साथ संयोजित नहीं करते । वह पूँजीगत वस्तुओं व बौन्ड को एक एकल अमौद्रिक परिसम्पत्ति के रूप में संयोजित करते है । इस प्रकार वह ब्याज की दर पर ध्यान केन्द्रित कर इसे गैर मौद्रिक परिसम्पित्ति की कीमत के व्युत्क्रम रूप में लेते हैं ।

कीन्ज के लिए पूर्ण रोजगार ब्याज की दर एवं मजदूरी इकाई के मध्य सही सम्बन्ध पर निर्भर करता है तथा पूर्ण रोजगार को ब्याज की दर में कमी करके प्राप्त किया जाता है । कीन्ज के अनुसार बेरोजगारी का केन्द्रीयकरण दीर्धकालीन ब्याज की दर है जो काफी ऊँची है तथा इस दर में कमी करने की बाधाएँ कुछ तो मुद्रा की सट्‌टा जनित माँग में बेलोचदार ब्याज की प्रत्याशाएँ एवं कुछ सरकारी प्रतिभूतियों में खुले बाजार के क्रयों में आने वाली संस्थागत बाधाएँ हैं ।

लीजनहुफड के अनुसार कीन्जियन अर्थशास्त्र अपूर्ण व महंगी सूचनाओं, सुस्त व धीमे कीमत समायोजन कीमत की जगह मात्रा समायोजन दोहरे निर्णय की परिकल्पना आय परिसीमाएँ अथवा गुणक प्रक्रिया एवं गैर सन्तुलन कीमतों पर कपटपूर्ण व्यवहार है ।