दूध प्रसंस्करण और विपणन विकास कार्यक्रम | Read this article in Hindi to learn about the programmes undertaken for milk processing and marketing development.

Establishment of Government Milk Colonies:

पशु विकास के साथ-साथ यह भी महसूस किया गया कि देश में दूध के संसाधन तथा परिवहन की भी भारी समस्या है । दूध का उत्पादन मुख्य रूप से गांवों में होता है जबकि उपभोक्ता मुख्य रूप से शहरों में रहते है । गांव में दूध की अधिकता के कारण किसानों द्वारा उत्पादित दूध उचित दामों पर नहीं बिक पाता है तथा दूसरी तरफ शहरी उपभोक्ता को उचित दाम पर अच्छा दूध उपलब्ध नहीं होता है ।

गांवों में दूध के संसाधन, परिवहन, विपणन तथा संग्रहण की भी भारी समस्या है । यद्यपि 1920 में नगरपालिका द्वारा सरकारी दुग्ध बस्तियाँ (Government Milk Colonies) स्थापित की जा चुकी थी जो अपर्याप्त थीं ।

अतः सरकार ने बड़े-बड़े शहरों में दुग्ध बस्तियाँ (Milk Colonies) बनाने का निश्चय किया:

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1. दुग्ध बस्तियाँ (Milk Colonies):

इस योजना के अन्तर्गत बम्बई के पास ऐरे (Aarey), कलकत्ता के पार हैरिंगगाटा तथा मद्रास के पास माधेवरम (Madhavaram) में दुग्ध बस्तियां बनाकर उनका विकास किया गया । यहां पर दुग्ध व्यवसाय सम्बन्धी सभी सुविधाएँ जैसे कृत्रिम गर्भाधान, स्वास्थ रक्षा, गृह-प्रबन्ध, चारा, पानी तथा दूध की बिक्री की सुनिश्चितता प्रदान की गयी ।

बडे-बडे दुग्ध संसाधन संयंत्र लगाये गये । दुग्ध उत्पादन में काफी बढ़ौतरी हुई परन्तु दूध की गुणवत्ता में कोई सुधार नहीं आया । सन 1945 में आर.ऐ.पेपराल महोदय, तत्कालीन भारत सरकार का दुग्ध विपणन सलाहकार (Milk Marketing Advisor to the Government of India) का कथन था कि ”भारत के शहरों में बिकने वाले दूध में सूक्ष्म जीवाणुओं की संख्या लन्दन के नाले के पानी में जीवाणुओं की संख्या से कही अधिक है ।”

सन् 1950 में कृषि पर नीति समिति की दुग्ध उप समिति (Milk Sub-Committee of the Policy Committee on Agriculture) ने दूध के विपणन पर पूरा सरकारी एकाधिकार तथा विपणन को दुग्ध नियंत्रण परिषद (Milk Control Board) के अधीन करने की संस्तुति दी ।

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2. शहरी दुग्ध योजना (City Milk Schemes):

कृषि पर नीति समिति की दुख उपसमिति की संस्तुति पर 1950 में सरकार ने शहरी दुग्ध योजनाओं की घोषणा की । इसके अन्तर्गत 1954 में दिल्ली दुग्ध योजना (Delhi Milk Scheme) स्थापित की गयी । जिसके लिए ग्रामीण क्षेत्रों में बनाये गये ग्रामीण दुख अवशीतन केन्द्रों (Rural Milk Chilling Centers) की स्थापना करके उनके माध्यम से दूध का एकत्रीकरण शुरू किया गया ।

इसके तुरन्त बाद ही यह योजना लगभग 1000 कस्बों व शहरों में लागू की गयी । सन् 1960 के अन्त तक यह स्पष्ट हो गया कि शहरी दुग्ध योजनाएँ सफल नहीं हो रही थी जिसका मुख्य सम्भव कारण ग्रामीण दुग्ध व्यवसायियों (Local Unorganised Milk Traders) के साथ प्रतियोगिता था जो दूध के कमी के दिनों (Lean Season) में गांवों का लगभग सारा दूध सीधा उपभोक्ता को पहुचाते थे ।

अतः दुग्ध संयन्त्र (Milk Plants) इस मौसम में दूध न मिलने के कारण भारी नुक्सान में आ जाये । सरकार के क्रय मूल्य की अपेक्षा दूधिया गाँव में उत्पादकों को अधिक मूल्य भुगतान का लालच देकर अधिकतम दूध खरीद लेते थे । ये दूधिया उपभोक्ताओं को कच्चा दूध सरकारी भाव से कम दाम पर उपलब्ध कराते थे । अतः इससे उत्पादक व उपभोक्ता दोनों ही इन दुग्ध योजनाओं से दूर होते चले गये ।

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शहरी दुग्ध योजना के अन्तर्गत बनी डेरियों के पास एकत्र होने वाले दूध की मात्रा लगातार कम होती गयी तथा उपभोक्ता को दूधियों से कम कीमत पर दूध मिलने के कारण वे इन योजनाओं से दूर होने लगे । सरकार ने इस समस्या का समाधान करने के लिए आयातित दुग्ध चूर्ण का प्रयोग कर पुनः सयोजित दूध (Recombined Milk) का उत्पादन प्रारम्भ किया ताकि अधिक दूध का उत्पादन कर उपभोक्ता को दूधियों की अपेक्षा कम दाम पर दूध उपलब्ध कराया जा सके ।

परन्तु इस योजना से सरकार शहरी दुग्ध योजनाओं के लिए पूर्ण रूप से आयातित वसा रहित दुग्ध चूर्ण (Imported S.M.P.) पर निर्भर हो गयी । यह सस्ता पडता था किसानों को दिया जाने वाला कच्चे दूध का मूल्य दूधियों की अपेक्षा और कम कर दिया गया । परिणाम यह हुआ किसानों का ध्यान सरकारी योजनाओं से हट कर असंगठित क्षेत्र के दुग्ध व्यवसायियों (Unorganised Milk Traders) में अधिक लग गया ।

3. सैनिक दुग्ध फार्म (Military Dairy Farms):

सरकार ने सेना के लिए दूध की आवश्यकता पूर्ति हेतु दुग्ध प्रक्षेत्र (Dairy Farms) खोले जहां पर दुधारु पशुओं का अच्छा प्रबन्धन किया गया । संकरण के लिए आयरशायर, शोर्टहोर्न, जर्सी तथा होलैस्टीन-फीजीयन आदि विदेशी नस्लों का प्रयोग किया ।

उन्नत किस्म के देशी पशुओं को भी इन प्रक्षेत्रों पर पाला गया इन प्रक्षेत्रों पर दुग्ध संयन्त्र (Dairy Plants) भी लगाये गये । इन सब प्रयासों को बावजूद भी डेरी उद्योग में प्रभावकारी ढंग से सामान्य सुधार नहीं हो सके ।

भारत में दुग्ध सहकारिता का विकास (Development of Dairy Cooperatives in India):

किसानों को उनके दूध की उचित कीमत नहीं मिल पा रही थी । दुग्ध उत्पादन व्यवसाय लगातार घाटे में जा रहा था किसानों से बिचौलिया कम कीमत पर दूध खरीद कर या तो सीधे उपभोक्ता को या सरकारी दुग्ध संयंत्र को बेचते थे । प्रथम विश्वयुद्ध के समय 1915 में पालसन नामक अंग्रेज ने बम्बई में औद्योगिक स्तर पर सेना की आपूर्ति के लिए मक्खन व चीज का उत्पादन शुरू किया था ।

इसके लिए दूध व क्रीम वह आस-पास के गांवों से खरीदता था उस समय बम्बई के पास आनन्द मुख्य दुग्ध उत्पादक क्षेत्र था । अतः 1930 में पालसन ने अपनी डेरी को बम्बई से आनन्द में स्थानंन्त्रित कर स्थापित किया जिसमें मक्खन तथा संसाधित दूध का उत्पादन करके वह बम्बई भेजता था ।

उस समय बम्बई में दूध का अच्छा बाजार था तथा पालसन को भारी मुनाफा प्राप्त हो रहा था सन् 1940 ई. में गुजरात के खेडा क्षेत्र के उत्पादकों ने पालसन से उसके मुनाफे में से अपना हिस्सा माँगना प्रारम्भ किया परन्तु पालसन ने मुनाफे का हिस्सा तो क्या दूध का मूल्य भी बढाने से मना कर दिया ।

भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के नेता सरदार वल्लभ भाई पटेल की सलाह पर खेडा जिला सहकारी दुग्ध उत्पादक संघ (Kaira District Cooperative Milk Producers Union) का पंजीकरण 1946 में हुआ जो अब अमूल (Anand Milk Union Limited – AMUL) के नाम से जाना जाता है ।

उस समय इस संघ में मात्र 2 समितियाँ थीं जिनका दुग्ध संग्रह मात्र 250 लीटर प्रतिदिन था । 1946 से 1952 तक अमूल का लक्ष्य बम्बई के दुग्ध बाजार पर अपना एकाधिकार जमाना रहा । संघ को इस कार्य में पूर्ण सफलता मिली । 1952 में बम्बई सरकार ने पालसन से अपना दुग्ध संविदा (Milk Contract) निरस्त करके अमूल को दे दिया । सर्दी के मौसम में बम्बई दुग्ध योजना (Bombay Milk Scheme) की दूध की आपूर्ति केवल ऐरे दुग्ध बस्ती (Aarey Milk Colony) से पूरी हो जाती थी ।

अतः इस मौसम से अमूल के पास फालतू दूध (Surplus Milk) की समस्या उत्पन्न होने लगी । अतः 1954 में अमूल ने एक दुग्ध उत्पाद संयंत्र (Milk Product Factory) की स्थापना की जिसमें मक्खन, घी तथा दुग्ध चूर्ण का उत्पादन प्रारम्भ किया गया ।

इस संयन्त्र के लिए अमूल को यूनिसेफ (United Nations Children Emergency Fund) से सहायता मिली अमूल ने दूसरा दुग्ध संयन्त्र 1965 में स्थापित किया तथा 1971 में एक दुग्ध उत्पाद इकाई (Milk Product Unit) बनायी गयी । 1993 में अमूल के पहले संयन्त्र के बिल्कुल समीप एक पूर्णतया स्वचालित आधुनिक डेरी की स्थापना की गयी है ।

अमूल पर आधारित सहकारिता को आनन्द प्रतिमा डेरी सहकारिता (Anand Pattern Dairy Cooperatives) के नाम से जाना गया । इस तरह की सहकारिता का विकास सम्पूर्ण देश में श्वेत क्रान्ति योजना (Operation Flood Programme) के अन्तर्गत किया गया ।

राष्ट्रीय डेरी विकास बोर्ड (National Dairy Development Board):

अक्तूबर 1964 में अमूल के पशु खाद्य संयन्त्र (Cattle Feed Plant) का उद्‌घाटन करने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. श्री लाल बहादुर शास्त्री जी गये । वे आनन्द के पास एक ग्रामीण दुग्ध सहकारी समिति (Village Milk Cooperatives Society) के कार्यालय में ठहरे ।

आनन्द में दुग्ध सहकारिता द्वारा आये आर्थिक परिवर्तन को देख कर वे बहुत अधिक प्रभावित हुए तथा आनन्द प्रकार की आदर्श डेरी सहकारिता (Anand Type Model Dairy Cooperatives) पूरे भारत में बनाने की आवश्यकता पर बल दिया ।

फलस्वरूप 1965 में N.D.D.B. का पंजीकरण किया गया । इस बोर्ड का मुख्यालय आनन्द में बनाया गया । राष्ट्रीय डेरी विकास परिषद के संचालक मंडल के सदस्यों को भारत का राष्ट्रपति मनोनीत करता है । N.D.D.B. के प्रथम अध्यक्ष Dr. Verghese Kurien थे जिनकी देख-रेख में श्वेत क्रान्ति योजना (Operation Flood Programme) प्रारम्भ किया गया ।

प्रारम्भ में N.D.D.B. को भारत सरकार-डेनिश सरकार तथा अमूल ने आर्थिक सहायता प्रदान की । इसे शिक्षण सामग्री के रूप में यूनिसेफ से भी आर्थिक सहायता प्राप्त थी ।

सन् 1969 में भारत सरकार ने श्वेत-क्रान्ति कार्यक्रम का प्रस्ताव पास किया । इस कार्यक्रम के लिए आर्थिक सहायता के रूप में विश्व खाद्य कार्यक्रम (World Food Programme) के अन्तर्गत उपहार स्वरूप दुग्ध पदार्थ मिले इनके प्रयोग में एक कठिनाई आयी कि जिस नियम के अन्तर्गत का पंजीकरण हुआ है वह उसे सरकारी धन के प्रयोग की अनुमति नहीं देता था ।

अतः उपरोक्त सरकारी धन को उपयोग करने हेतु 1970 में भारतीय डेरी निगम (Indian Dairy Corporation) की स्थापना की गयी । इस निगम को श्वेत क्रांति कार्यक्रम के लिए उपहार स्वरूप मिले दुग्ध पदार्थों को प्राप्त करना, उनका परीक्षण, गुणवत्ता, संग्रहण, प्रयोग करने वाली डेरी तक परिवहन तथा डेरियों से उस पाउडर के मूल्य को प्राप्त करने का कार्य सौंपा गया ।

जबकि श्वेत क्रान्ति कार्यक्रम को तकनीकी सहायता (Technical Support) का कार्य N.D.D.B कर रहा था । अतः दोनों के कार्यों में कुछ समानता व गहरा सम्बन्ध होने के कारण I.D.C को 1987 में N.D.D.B. के साथ मिला दिया गया ।

भारत में दुग्ध ग्रिड योजना (Milk Grid Scheme in India):

सामान्यतया दूध ग्रामीण क्षेत्रों में सीमान्त एवं लघु दुग्ध उत्पादकी द्वारा उत्पादित किया जाता है जबकि दूध का उपभोग मुख्यतया शहरी परवेश के उपभोक्ता द्वारा किया जाता है । अतः दूध को उत्पादन प्रक्षेत्र से उपभोक्ता तक स्थानान्त्रित करना आवश्यक है । दूध का उत्पादन देश के सभी क्षेत्रों से समरूप नही है जबकि उपभोग सभी शहरों में लगभग समान स्तर का है ।

अतः विभिन्न क्षेत्रों में बसे शहरों के उपभोक्ताओं को उचित मूल्य पर दूध उपलब्ध कराने तथा उत्पादक को उसकी उत्पादन लागत के साथ उचित लाभ दिलवाने के उद्देश्य से दुग्ध परिवहन की यह योजना ”दुग्ध मिड योजना” के नाम से निर्मित तथा संचालित की गयी है । इस योजना के अन्तर्गत दुग्ध उत्पादन क्षेत्रों से दुग्ध उपभोक्ता केन्द्रों तक की दूरी को सडक या रेल मार्गो द्वारा जोडा गया है ।

दुग्ध एकत्रीकरण व वितरण में समरूपता लाने के लिए राज्यों के अन्दर या राज्यों के मध्य लम्बा दुग्ध परिवहन सुलभ बनाने के उद्देश्य से Milk Grid Scheme का प्रादुर्भाव ग्रामीण दुग्ध उत्पादकों तथा शहरी उपभोक्ताओं के हितों को दृष्टिगत रखते हुए किया गया है ।

इस योजना के चलने पर डेरी संयन्त्रों (Dairy Plants) के सुचारु एवं नियमित संचालन में सामान्यता आयी है । उपभोक्ता को पूरे देश में उचित मूल्य पर दूध की आपूर्ति सम्भव हुई है । इस योजना के अन्तर्गत दूध का परिवहन पश्चिम से पूर्व तथा उत्तर से दक्षिण सुदूर क्षेत्रों तक सम्भव हुआ है ।

दुग्ध ग्रिड योजना को दो स्तरों पर चालू किया गया है:

1. राज्य दुग्ध ग्रिड योजना (State Milk Grid Scheme):

 

इस योजना के अन्तर्गत दूध का परिवहन प्रदेश के अन्दर एक जिला क्षेत्र से दूसरे जिला क्षेत्र में होता है जैसे माना उत्तर प्रदेश के मेरठ जिला क्षेत्र में दूध अधिक है तथा वाराणसी जिला क्षेत्र को दूध की आवश्यकता है तो मेरठ का दुग्ध संघ प्रादेशिक कोपरेटिव डेरी फैडरेशन, उ.प्र. (Pradeshik Cooperative Dairy Federation U.P.) के निर्देश पर वाराणसी दुग्ध सघ को दूध की आपूर्ति करेगा ।

इस प्रकार राज्य विशेष में विभिन्न जिला क्षेत्रों के मध्य फैडरेशन के निर्देश पर दूध का आदान-प्रदान SMG (State Milk Grid) योजना के अन्तर्गत होता है ।

2. राष्ट्रीय दुग्ध ग्रिड योजना (National Milk Grid Scheme):

राष्ट्रीय स्तर पर बनी राष्ट्रीय सहकारी दुग्ध फेडरेशन ऑफ इंडिया (National Cooperative Dairy Federation of India, N.C.D.F.I.) के सदस्य राज्य फैडरेश (State Federations) होते हैं । इस प्रकार NCDFI देश की सभी फैडरेशनों की शीर्ष समिति (Apex Body) होती है जो देश भरके लिए NMG बनाती तथा चलाती है ।

विभिन्न प्रदेशों की फेडरेशन अपने द्वारा उत्पादित, एकत्रित, प्रसंस्करित, विपणित तथा फालतू दूध (Surplus Milk) की सूचना NCDFI को भेजती है । विभिन्न प्रदेशों की फैडरेशन अपने राज्य के लिए दूध की वह आवश्यकता जो S.M.G द्वारा पूरी नहीं हो पा रही है, को NCDFI को भेजती है ।

यह राष्ट्रीय संघ अपनी सदस्य इकाइयों में से पूर्ति की इच्छुक राज्य इकाइयों को आपूर्ति का निर्देश देती है । तथा वह आपूर्ति करता है । कार्यक्रम को सुचारु रूप से चलाने के लिए N.C.D.F.I. ने चार क्षेत्रीय कार्यक्रम समिति (Regional Programming Committee) बनायी हुई है जो अपने क्षेत्र में समय-समय पर अपनी बैठक करके आपूर्ति सम्बन्धी कार्यक्रम बनाते हैं ।

इस प्रकार ये समितियाँ विभिन्न फैडरेशनों को अपना व्यापार बढाने तथा दूध के प्राप्तिकरण (Procurement), प्रसंस्करण (Processing) तथा विपणन (Marketing) सम्बन्धी अपने अनुभवों के आदान-प्रदान का अवसर प्रदान करती है । इन चार क्षेत्रीय समितियों के कार्य में सामजस्य स्थापित करने के लिए एक केन्द्रीय कार्यक्रम समिति (Central Programming Committee) बनायी गयी है ।

N.C.D.F.I. देश में राज्य फैडरेशनों के सहकारी दुग्ध विपणन प्रणाली (Cooperative Milk Marketing System) को मजबूत बनाने तथा उनको आर्थिक मार्गदर्शन के लिए उचित निर्देश भी प्रदान करती है ।

उत्तर प्रदेश में डेरी विकास (Dairy Development in U.P.):

उत्तर प्रदेश में डेरी विकास का कार्यक्रम सन् 1889 ई. में प्रारम्भ हुआ जब इलाहाबाद में सैनिक दुग्ध प्रक्षेत्र (Military Dairy Farms) की स्थापना हुई । इसी नगर में सन् 1931 में प्रदेश का प्रथम दुग्ध सहकारी संघ भी प्रारम्भ हुआ । आज प्रदेश के अधिकतर जिलों में दुग्ध संघ बन चुके है जो राज्य स्तर पर डेरी फैडरेशन की देख-रेख में कार्य कर रहे हैं ।

ये संघ गाव के स्तर पर बनी समितियों द्वारा दूध एकत्र करके जिला स्तर पर प्रशीतन या प्रसंस्करण का कार्य सम्पन्न करते है । प्रसंस्करित दूध तथा दुग्ध पदार्थों का उपभोक्ताओं में वितरण करने का कार्य भी संघों द्वारा ही किया जाता है । राज्य दुग्ध ग्रेड या राष्ट्रीय दुग्ध ग्रेड योजनाओं के अन्तर्गत संघ प्रदेश स्तर की फैडरेशन (P.C.D.F.) के निर्देश पर विभिन्न जिला क्षेत्रों या विभिन्न प्रदेशों में दूध का आदान-प्रदान भी करते हैं ।

उत्तर-प्रदेश का प्रादेशिक कोपरेटिव डेरी फैडरेशन प्रदेश भर में डेरी विकास के कार्यक्रम चला रहा है प्रदेश में डेरी विकास योजनाएँ सहकारी विभाग द्वारा त्रिपदीय स्तर पर चल रही हैं जिसमें ग्रामीण स्तर पर दुग्ध सहकारी समितियाँ, जिला स्तर पर दुग्ध संघ तथा राज्य स्तर पर P.C.D.F. बना हुआ है । P.C.D.F. का मुख्य कार्यालय लखनऊ में है जबकि दुग्ध संघों के कार्यालय जिला मुख्यालयों पर बने है । प्रदेश में फैडरेशन श्वेत क्रान्ति के कार्यक्रमों को लागू कर उन्हें चला रहा है ।

प्रदेश में दुग्ध अवशीतन का प्रसंस्करण की 29 से अधिक इकाइयां है जिनमें से कुछ संयंत्र तो काफी बड़े स्तर पर कार्य कर रहे हैं ।

जैसे:

1. Feeder Balancing Dairy, Partapur, Meerut.

2. Feeder Balancing Dairy, Varanasi.

3. Infant Milk Food Factory, Dalpat Pur. (Maradabad)

इनके अतिरिक्त प्रदेश में प्रजनन केन्द्र (रायबरेली तथा दलपतपुर) तथा पशु खाद्य संयन्त्र (परतापुर) भी फैडरेशन द्वारा चलाये जा रहे हैं ।

सन् 1960 में अलीगढ में 25,000 टन दुग्ध चूर्ण व एवं 1 लाख टन प्रतिदिन पास्चुरीकरण क्षमता वाली गलैक्सो फैक्ट्री चल रही हैं । सन् 1963 में मुजफ्फरनगर में इन्डोजन तथा 1964 में हिन्दुस्तान लीवर की सहायता से ऐटा में दुग्ध फैक्ट्री स्थापित की गयी ।

मेरठ में फीडर बैलेन्सिंग डेरी पूर्ण लाभ पर कार्य कर रही है । यह तरल दुग्ध पदार्थों को पोलीथीन की थैलियों में मशीन द्वारा पैक करके वितरित करती है । इस प्रकार बाजार में मिलावट की सम्भावना समाप्त होकर दूध उपभोक्ताओं को शुद्ध रूप में प्राप्त होता है ।

यह डेरी तरल दूध पदार्थों में Fat Corrected Milk, Standardized Milk, Toned Milk तथा थोड़ी मात्रा में Double Toned Milk का निर्माण कर रही है । इनके अतिरिक्त यह डेरी मक्खन, घी, स्किम दुग्ध चूर्ण तथा थोडी सी मात्रा में पनीर का निर्माण कार्य भी करती है ।

फैडरेशन द्वारा नियन्त्रित शिशु दुग्ध आहार निर्माणशाला, दलपतपुर में सन् 1970 से बेबीफूड का उत्पादन होने के साथ-साथ Lean Season में तरल दुग्ध पदार्थों (विपणीत दूध) का निर्माण भी होता है । जबकि मक्खन, घी, सुगन्धित दूध, पनीर एवं दुग्ध केक (Milk) का उत्पादन आमतौर पर Flush Season में किया जाता है ।

फैडरेशन के द्वारा उत्पादित पदार्थों का विपणन ‘पराग’ व्यापारिक नाम से होता है जो दूसरे अर्थों में शुद्धता का प्रतीक है । यह फैडरेशन हर दृष्टि से इस बात के लिए प्रयत्नशील है कि दुग्ध उत्पादन के माध्यम से गरीब किसानों व खेतीहर मजदूरों का आर्थिक उत्थान हो उपभोक्ता को शुद्ध पदार्थ उचित कीमत पर उपलब्ध हो तथा उत्तम सेवा उपलब्ध हो ।

राज्य दुग्ध परिषद (Rajya Dugdh Parishad):

उत्तर प्रदेश राज्य के वे भाग जिनमें आपरेशन फल्ड योजना के अन्तर्गत डेरी विकास का कार्य नहीं हो पाया या कम हुआ है, उनमें डेरी विकास के लिए 1990 में राज्य दुग्ध परिषद का गठन किया । अब तक यह परिषद लगभग 42 जनपदों में 35 दुग्ध संघ बना कर डेरी विकास कार्यक्रम लागू कर चुकी है । इन दुग्ध संधों के अन्तर्गत वर्ष 1999-2000 तक 5381 ग्राम विकास समितियों गठित की जा चुकी हैं । जिनमें लगभग 2.75 लाख सदस्य हैं ।

डेरी विकास में प्राइवेट क्षेत्र का योगदान:

डेरी विकास में प्राइवेट क्षेत्र भी सामान्य जन की डेरी के प्रति जागरुकता के कारण काफी सहयोग दे रहा है । वर्तमान में राज्य के विभिन्न जनपदों में 25 पंजीकृत प्राइवेट डेरी प्लाट कार्य कर रहे है ।

डेरी विकास से सबन्धित राज्य में चल रही अन्य योजनाएं:

उत्तर प्रदेश का डेरी विकास विभाग राज्य में डेरी विकास के लिए विभिन्न सहायक कार्यक्रम चला रहा है जिनमें निम्नलिखित प्रमुख है:

1. सघन मिनी डेरी योजनाएँ (Intensive Mini Dairy Project):

डैरी के माध्यम से जनता में रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने के उद्देश्य से यह परियोजना दीन दयाल रोजगार योजना के अन्तर्गत वर्ष 1991 में राज्य के 17 जनपदों में लागू की गयी । सरकारी स्तर पर इस परियोजना को पहले विशेष रोजगार योजना तथा 1997-98 में अबेडकर विशेष रोजगार योजना के नाम से जाना गया ।

इस परियोजना के अन्तर्गत वर्ष 1999-98 तक राज्य के 73 जनपदों में 18500 मिनी डेरी स्थापित कर ग्रामीण जनता को रोजगार के अवसर उपलब्ध कराये गये ।

2. महिला डेरी परियोजना (Women Dairy Project):

यह योजना 1991-92 में प्रदेश के 5 जनपदों में लागू की गयी । वर्ष 2000 तक राज्य के 59 मैदानी जनपदों में लगभग 2100 महिला दुग्ध उत्पादक सहकारी समितियाँ गठित करके ग्रामीण महिलाओं को लाभान्वित किया गया । इस परियोजना में स्टैप योजना के अन्तर्गत विभिन्न जनपदों को वित पोषित भी किया जा रहा है ।

3. ग्रामीण परिवार कल्याण कार्यक्रम (Rural Family Welfare Programme):

डेरी सहकारी समितियों द्वारा चलाया जा रहा यह परिवार कल्याण कार्यक्रम 1993 में प्रारम्भ किया गया था । अभी तक यह कार्यक्रम 13 जनपदों में चल रहा है ।

4. स्तर प्रदेश डाईवर्सिफाइड कृषि सहायक परियोजना (Uttar Pradesh Diversified Agriculture Support Project – UPDASP):

विश्व बैंक से सहायता प्राप्त यह योजना प्रदेश में दुग्ध अभिलेखन तथा नस्ल संरक्षण की दिशा में कार्य करने के लिए चलाई जा रही है । सन् 2000 तक इस योजना का विस्तार 7 जनपदों तक हो चुका था ।

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