स्वामी दादू दयाल की जीवनी | Biography of Swami Dadu Dayal in Hindi Language!

1. प्रस्तावना ।

2. जीवन परिचय ।

3. उपसंहार ।

1. प्रस्तावना:

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जिस तरह कबीर, रहीम और भिखारीदास का सन्त कवियों में श्रेष्ठ स्थान है, उसी तरह दादूदयाल धर्म प्रचारक समाजसुधारक कवि थे । मध्यकालीन साधकों में उनका स्थान प्रमुख था । अपनी सीधी-सादी वाणी में लिखे उनके दोहे जहां आध्यात्मिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं, वहीं सामाजिक दृष्टि से उनमें मानवमात्र के प्रति सहानुभूति और एकता का सन्देश मिलता है ।

2. जीवन परिचय:

उनके जन्म के बारे में कहा जाता है कि एक ब्राह्मण को अहमदाबाद की साबरगती नदी में जो बहता हुआ बच्चा मिला, वह दादूदयाल था । दादू का अभिर्भाव 1601 में हुआ था । उनकी जाति के बारे में कहा जाता है कि वे मुसलमान थे । 12 वर्ष की अवस्था से सत्संग तथा योग-साधना करने के लिए निकल पड़े । वे विवाहित थे ।

उनके गरीबदास तथा मिस्कीनदास नामक दो पुत्र थे । सांसारिक जीवन का त्याग कर वे ईश्वरभक्ति में रम गये । 1660 में वे महाप्रस्थान कर गये । उनके दादू पंथ की गद्दी उनके दोनों पुत्रों ने संभाली । सन्त दादूदयाल ने धार्मिक एकता का पाठ लोगों को पढ़ाया । वे बड़े दयालु और साधु पुरुष थे । क्रोध उन्हें छू तक नहीं गया था ।

लोग उन्हें दयालु के नाम से जानते थे । कुछ दुष्ट लोगों ने उनकी दयालुता की परीक्षा लेने के लिए उन्हें साधना में लीन देखकर उनकी कोठरी को ईंटों से चुनवा दिया । लोगों को जैसे ही यह पता चला, तो उन्होंने फौरन दीवार गिराकर दुष्टों को सजा देनी चाही पर दादू ने उन्हें ऐसा करने से मना किया ।

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दादूदयाल ने 20 हजार पद और साखियों की रचना की, जिनमें “हरडे वाणी”, ”अंग वधू” आदि शिष्यों द्वारा संग्रहित हैं । उनकी भाषा सरल ब्रजभाषा है । ऐसी लोकमान्यता है कि अकबर बादशाह ने उन्हें फतेहपुर सीकरी बड़े आदर के साथ बुलाया था । बादशाह ने उनसे पूछा था कि खुदा की क्या जात है ?

दादू ने उत्तर दिया:

”इसक अलाह की जाति है, इसक अलाह को रंग ।

इसक अलाह मौजूद है, इसक अलाह को अंग ।।”

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अकबर बादशाह उनके इस उत्तर से बहुत खुश हुए ।

3. उपसंहार:

दादू ने श्रेष्ठ चारित्रिक गुणों के साथ-साथ ईश्वर भक्ति हेतु नम्रता को विशेष महत्त्व दिया ।

कबीर को अपना गुरु मानते हुए उन्होंने लिखा है:

“साचा सबद कबीर का, मीठा लागै मोहि ।

दादू सुनतां परम हित, कैसा आनन्द होहि ।।”

दादूपंथ के अनुयायी भगवा वस्त्र धारण कर हाथ में तुम्बा रखते हैं । उनकी याद में आज भी नारायणी गांव में वार्षिक मेला लगता है ।

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