वाणिज्यिक बैंक: प्रगति और विफलता | Read this article in Hindi to learn about the progress and failure of commercial banks in India.

भारत में व्यापारिक बैंकों की प्रगति (Progress of Commercial Banks in India):

भारत में व्यापारिक बैंकों की प्रगति का सबसे महत्वपूर्ण कदम 9 अगस्त, 1969 को उठाया गया जब प्रमुख 14 व्यापारिक बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया । इसी क्रम में 15 अप्रैल, 1980 को 6 निजी बैंकों का पुनः राष्ट्रीयकरण किया गया । राष्ट्रीयकरण के बाद से ही देश में व्यापारिक बैंकों ने अभूतपूर्व प्रगति की ।

व्यापारिक बैंकों की इस प्रगति को निम्न प्रकार समझा जा सकता है:

(1) बैंक शाखाओं का विस्तार (Expansion of Bank Branches):

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राष्ट्रीयकरण के बाद से ही बैंक शाखाओं में तेजी से विस्तार हुआ । नई शाखाएँ मुख्यतः अर्धशहरी एवं ग्रामीण क्षेत्रों में खोली गई । बैंक शाखाओं के इस विस्तार को तालिका-9 में दर्शाया गया है ।

तालिका-9 से स्पष्ट है कि सन् 1969 (राष्ट्रीयकरण के समय) में सभी प्रकार की व्यापारिक बैंक शाखाओं की संख्या केवल 8262 भी जो बढ्‌कर 1999 में 65,153 एवं 2005 में 68,500 हो गई अर्थात् 8 गुने से भी अधिक बढ़ गई । इस अवधि में स्टेट बैंक, राष्ट्रीयकृत बैंक एवं क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक सभी ने अपनी शाखाओं में तेजी से विस्तार किया ।

(2) जमा राशि में वृद्धि (Increase in Deposits):

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भारतीय व्यापारिक बैंकों की जमा राशि में भी तेजी से वृद्धि हुई है । सन् 1950- 51 में अनुसूचित व्यापारिक बैंकों की कुल जमा राशि केवल 880 करोड रु. थी जो बढ्‌कर मार्च 1992 में 2,42,067 करोड रु. एवं दिसम्बर 2004 में 19,37,761 करोड रु. हो गई । स्पष्ट है कि इस अवधि में ग्रामीण क्षेत्रों में भी बडी मात्रा में जमा राशि प्राप्त हुई है ।

(3) अग्रिम एवं निवेशों में वृद्धि (Increase in Advances and Investment):

स्वतंत्रता के बाद से भी व्यापारिक बैंकों के अग्रिमों एवं निवेशों ने काफी वृद्धि की है यह वृद्धि राष्ट्रीयकरण के बाद और अधिक तेज हुई है । अनुसूचित व्यापारिक बैंकों ने वर्ष 1950-51 में कुल 5469 करोड़ के अग्रिम दिये थे जो बढकर मार्च 2004 तक 5,60,819 (कुल बकाया) करोड रु हो गए । इस अवधि में प्राथमिकता वाले क्षेत्र यथा- छोटे कृषक शिल्पकार फुटकर विक्रेता शिल्पकार आदि को रियायती ब्याज दरों पर ऋण दिये गये और इस प्रकार के ऋणों के प्रतिशत में क्रमशः वृद्धि हुई है ।

(4) उपेक्षित वर्गों को वित्तीय सहायता (Financial Aid to the Neglected Sections):

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राष्ट्रीयकरण से पूर्व व्यापारिक बैंक अपने अधिकांश ऋण बडे-बडे उद्योगपतियों एवं व्यवसायियों को ही दिया करते थे किन्तु अब व्यापारिक बैंक कृषकों लघु उद्योगों फुटकर व्यापारियों स्वनियोजित व्यक्तियों (Self-Employed Persons) आदि को भी ऋण प्राप्त होने लगा है । उदाहरणार्थ 1969 में व्यापारिक बैंकों ने केवल 162 करोड रु. के ऋण कृषकों को दिये थे लेकिन मार्च 2004 तक यह राशि बढकर 84,435 करोड़ रु. हो गई । स्पष्ट है कि राष्ट्रीयकरण के बाद उपेक्षित वर्ग को भी व्यापारिक बैंकों से लाभ हुआ है ।

(5) बेरोजगार युवकों को वित्तीय सहायता (Financial Aid to Unemployed Youths):

अब प्रायः सभी व्यापारिक बैंक युवकों को अपना व्यवसाय स्वयं चलाने के लिये वित्तीय सहायता प्रदान करती है । सन् 1986 से भारत सरकार ने स्व-नियोजन योजना (Self-Employment Scheme) प्रारम्भ की है, तभी से व्यापारिक बैंकों ने इस दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दिया है । वर्ष 2003-04 में इस योजना के अन्तर्गत 10.56 लाख युवकों को कुल 4,606 करोड रु. के ऋण प्रदान किए गए ।

(6) बीमार औद्योगिक इकाइयों को प्रदत्त साख में वृद्धि (Increase in the Credit to Sick Industrial Units):

बीमार उद्योगों को पुन आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में भी व्यापारिक बैंकों ने महत्वपूर्ण कार्य किया है । वर्ष 1999-2000 में व्यापारिक बैंकों ने 1332 बड़ी बीमार औद्योगिक इकाइयों को 5379 करोड रु. के ऋण दिए । यद्यपि इससे बैंकों की लाभदायिकता में कमी हुई किन्तु इस सामाजिक दायित्व को भी पूरा किया ।

(7) क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों का विस्तार (Expansion of Regional Rural Banks):

भारत के ग्रामीण क्षेत्रों की विशेष समस्याएँ है । इन क्षेत्रों की आवश्यकताओं को पूरा करने के उद्देश्य से सर 1975 से सम्पूर्ण देश में क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की स्थापना की गई । 30 जून, 2004 को इन बैंकों की संख्या 14,507 थी ये बैंक छोटे एवं सीमान्त कृषकों कृषि श्रमिकों ग्रामीण शिल्पकारों तथा व्यापारियों को कम ब्याज दर पर ऋण देती है ।

(8) अग्रणी बैंक योजना (Lead Bank Scheme):

देश के विभिन्न भागो में बैंकिंग का क्रमबद्ध एवं समन्वित विकास करने के उद्देश्य से रिजर्व बैंक ने अग्रणी बैंक योजना लागू की है । इस योजना के अन्तर्गत देश के 338 जिलों को विभिन्न बैंकों में बाँटा गया है तथा प्रत्येक जिला एक अनुसूचित व्यापारिक बैंक को सौंपा गया है । उस बैंक को उस जिले की अग्रणी या लीड बैंक कहा जाता है ।

लीड बैंक का यह कर्तव्य है कि बैंकिंग विकास के दृष्टिकोण से वह उस जिले के साधनों एवं उसकी सम्भावनाओं का विस्तृत सर्वेक्षण करे और उसी सर्वेक्षण के आधार पर बैंकिंग विकास किया जाये । वर्तमान में देश में बैंकिंग विकास इन्हीं सर्वेक्षणों के आधार पर हो रहा है ।

(9) बैंकों का विविधीकरण (Diversification in Banking):

भारतीय व्यापारिक बैंकों ने अपने परम्परागत कार्यों के अलावा अनेक नये कार्य करना भी प्रारम्भ किया है ।

बैंकों द्वारा किये जाने वाले नये कार्य निम्न प्रकार है:

(i) मर्चेन्ट बैंकिंग (Merchant Banking):

अनेक व्यापारिक बैंकों ने अपनी मर्चेन्ट बैंकिंग से सम्बन्धित कार्यों में विस्तार किया है । अब व्यापारिक बैंक औद्योगिक कम्पनियों को वित्तीय साधन जुटाने, ऋण प्राप्त करने वित्तीय प्रबन्धन आदि क्षेत्रों में परामर्श देती है ।

(ii) म्यूचुअल फण्डों (Mutual Funds) की स्थापना:

अनेक व्यापारिक बैंकों ने छोटे निवेशकों की बचतों को म्यूचुअल फण्डों के माध्यम से संकलित किया है और उन्हें औद्योगिक निवेश हेतु उपलब्ध कराया है ।

(iii) पोर्टफोलियो प्रबन्धन (Portfolio Management):

अनेक व्यापारिक बैंकों ने अपने ग्राहकों को निवेशों की उचित व्यवस्था के लिए पोर्टफोलियो प्रबन्ध कार्यक्रम प्रारम्भ किया गया है । इसके बदले में बैंकों को एक निश्चित दर पर शुल्क प्राप्त होता है ।

(iv) उद्यमी पूंजी (Venture Capital):

इसके अन्तर्गत श्रेष्ठ तकनीकी तथा नयी वस्तुओं का उत्पादन करने वाली कम्पनियों के लिये व्यापारिक बैंक प्रारम्भिक पूँजी की व्यवस्था करते है ।

(v) क्रेडिट कार्ड (Credit Cards):

क्रेडिट कार्ड को चलन में लाकर बैंक अपने ग्राहकों को सुविधा उपलब्ध कराती है । इसी प्रकार ए.टी.एम कार्ड भी कई बैंकों द्वारा उपलब्ध कराए जाते है ।

(vi) आढ़तिया सेवा (Factoring):

इसके अन्तर्गत व्यापारिक बैंक माल के विक्रेताओं को प्राप्त होने वाली राशियाँ वसूल करते हैं । इससे विक्रेताओं को नकदी प्राप्त करने तथा कम जोखिम पर अधिक माल बेचने की सुविधा मिलती है ।

(vii) वर्तमान में प्रायः सभी व्यापारिक बैंक आवास वित्त (Housing Finance) प्रदान करती है । इसमें बैंकों को अच्छा लाभ हो रहा है ।

(viii) किराया खरीदी (Hire-Purchase) एवं उपकरण पट्टेदारी (Equipment Leasing) जैसे क्षेत्रों में भी व्यापारिक बैंकों द्वारा निवेश किये गये है ।

(ix) शेयरों एवं डिबेंचरी में निवेश करने वाले व्यक्तियों की सुविधा प्रदान करने के लिए व्यापारिक बैंकों ने स्टॉक-निवेश (Stock-Invest) योजना प्रारम्भ की है ।

(x) कुछ बैंकों ने जीवन बीमा, साधारण बीमा तथा बीमा उत्पाद क्षेत्र में पृथक से कम्पनियों स्थापित करने की योजनाएँ बनाई हैं ।

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि पिछले कुछ वर्षों में व्यापारिक बैंकों के व्यवसाय में तेजी से विस्तार हुआ है । इसके साथ ही अपने ग्राहकों को भी अनेक महत्वपूर्ण सुविधाएँ उपलब्ध कराई हैं ।

व्यापारिक बैंकों की कठिनाइयाँ एवं असफलताएं (Failure of Commercial Banks):

भारत में व्यापारिक बैंकों ने राष्ट्रीयकरण के बाद यद्यपि महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ अर्जित की है तथापि अनेक क्षेत्रों में ये बैंक असफल भी रही है । इसके साथ ही इन बैंकों के कार्यों में अनेक कठिनाइयाँ भी आ रही है ।

व्यापारिक बैंकों की कठिनाइयाँ एवं उनकी असफलताएँ निम्न प्रकार है:

(1) क्षेत्रीय विषमताएं:

जून, 2004 के अन्त में औसतन 15 जनसंख्या के लिए छ बैंक शाखा है, किन्तु असम, बिहार मध्यप्रदेश, मणिपुर, उड़ीसा एवं उत्तरप्रदेश में प्रति बैंक 19,000 से अधिक जनसंख्या है । एक ही राज्य में जहाँ कुछ जिलों में बैंक शाखाएँ अधिक है, वही अन्य जिलों में शाखाएँ बहुत कम हैं । अतः कहा जा सकता है कि देश मैं बैंक शाखाओं के विस्तार से क्षेत्रीय विषमताओं में वृद्धि हुई है ।

(2) ग्रामीण शाखाओं का कार्य सन्तोषजनक नहीं है:

व्यापारिक बैंकों की ग्रामीण शाखाएँ अनेक समस्याओं से ग्रसित हैं । इन शाखाओं को आमदनी की तुलना में व्यय का अत्यधिक बोझ उठाना पड रहा है । इसके कई कारण हैं ।

जैसे:

(i) छोटे ऋण खातों की अधिक संख्या,

(ii) ऋणों पर रियायती ब्याज दरें,

(iii) चालू जमा राशियों का कम अनुपात,

(iv) ऋणों की वसूली में कठिनाई आदि ।

इन कारणों से अनेक ग्रामीण शाखाएँ घाटे में चल रही है । इससे ग्रामीण शाखाओं की व्यवस्था एवं प्रबन्ध भी सन्तोषजनक नहीं है ।

(3) बैंकों का गिरता हुआ ऋण-जमा अनुपात:

व्यापारिक बैंकों के ऋण-जमा अनुपात का अध्ययन करने से यह स्पष्ट होता है कि इसमें क्रमशः गिरावट हो रही है । दूसरे शब्दों में, बैंकों को प्राप्त जमाओ का व्यावसायिक क्षेत्रों को दिये गये ऋणों का अनुपात घट गया है । उपलब्ध आँकडों के अनुसार जहाँ 1960-70 के दौरान ऋण-जमा अनुपात 77.8 प्रतिशत था, घटकर 1980-90 के दौरान 64.8 प्रतिशत एवं 2001 में 58.5 प्रतिशत रह गया । स्पष्ट है कि ऋण-जमा अनुपात में गिरावट से बैंक की लाभ प्रदता में भी कमी आई है । निश्चित ही यह बैंकिंग विकास की दिशा में शुभ सकेत नहीं है ।

(4) अनर्जक परिसम्पत्तियाँ:

अनर्जक परिसम्पत्तियाँ का ऊंचा अनुपात व्यापारिक बैंकों द्वारा दिये गये ऋणों की अदायगी यदि निर्धारित समय से 180 दिन से अधिक समय तक बकाया रहती है, तो इसे अनर्जक परिसम्पत्ति माना जाता है । उपलब्ध आँकडों के अनुसार व्यापारिक बैंकों की अनर्जक परिसम्पत्ति में क्रमशः वृद्धि हो रही है । बैंकों की गैर-निष्पादक अस्तियाँ मार्च, 1998 में 50,815 करोड रु. थी, जो बढकर मार्च, 2004 में 63,883 करोड रु. हो गयी ।

सार्वजनिक क्षेत्रों के बैंकों में अनर्जक परिसम्पतियाँ उनके इण्डियन बैंक में 21.76 प्रतिशत हैं । यह अनुपात देना बैंक में 25.31 प्रतिशत है । निश्चित ही यह स्थिति चिन्ताजनक है । अनुसूचित व्यावहारिक बैंकों की अनर्जक परिसम्पत्ति मार्च, 2004 में 64, करोड रुपए हो गई है ।

(5) बैंकों के संगठन, कार्य-प्रणाली एवं नीतियों में विशेष परिवर्तन नहीं:

बैंक सष्ट्रीयकरण का मुख्य उद्देश्य जन-साधारण की अल्प बचतों को संकलित करना और बैंकिंग सुविधाओं को उन तक पहुँचाना था । अभी तक इस दशा में बैंकों को विशेष सफलता नहीं मिली है । अभी भी बैंकों द्वारा दिये गये ऋणों अधिकांश भाग बडे एवं मध्यम आकार वाले उद्योगों को प्राप्त हो रहा है कृषि के क्षेत्र में भी बैंकों के ऋणों से छोटे एवं सीमान्त कृषकों की तुलना में बड़े कृषकों को अधिक लाभ हुआ है ।

प्रायः यह देखा जाता है कि सरकारी क्षेत्रों की बैंकों में सेवाओं का स्तर गिर गया है कार्यों में विलम्ब अधिक होता है और बैंक कर्मचारियों का व्यवहार सहयोगपूर्ण नहीं है । निजी क्षेत्रों के बैंकों से होने वाली प्रतियोगिता ने इन बैंकों की कमियों को उजागर कर दिया है ।

(6) शुद्ध लाभ में कमी:

अनुसूचित व्यापारिक बैंकों ने वर्ष 2003-04 में कुल परिचालन लाभ 52671 करोड रु. तथा शुद्ध लाभ 22271 करोड रु. दर्शाया था । यदि कुल अस्तियों के अनुपात के रूप में देखे तो परिचालन लाभ 27 प्रतिशत था शुद्ध लाभ केवल 11 प्रतिशत रहा । स्पष्ट है कि बैंकों की शुद्ध लाभ क्तई स्थिति दयनीय है । इसके कई कारण हैं, जैसे अलाभ पूर्ण निवेश, ऋणों की वसूली में शिथिलता, परिचालन व्यय की अधिकता, कार्यक्षमता का निम्न स्तर आदि । अतः इस दिशा में ध्यान दिया जाना आवश्यक है ।

(7) अनियमित कार्यों पर रोक:

सन् 1992 में नियुक्त की गई जानकीरामन समिति ने बैंकों के बारे में अनियमितताओं की जाँच की और निष्कर्ष दिये कि – (i) बैंकरों की रसीदों का अनुचित और अविवेकपूर्ण उपयोग, (ii) अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए दलालों द्वारा अपने ही लेखों में अधिकाधिक कारोबार किया जाना, (iii) समय-समय पर बैंकों द्वार निवेशों के मिलान में चूक, और (iv) आन्तरिक नियंत्रण व्यवस्था का अस्त-व्यस्त होना आदि के करण अनियमितताएँ होती है ।

अतः इस दिशा में प्रयास आवश्यक है जिसे अनियमितताओं के साथ-साथ धोखा-धडी के मामलों को रोका जा सके ।

(8) बैंकों की कार्यशील पूंजी का कम होना:

भारतीय बैंकों की कार्यशील पूँजी अन्य देशों की बैंकों में की तुलना में कम है । इसी प्रकार भारतीय बैकों के निक्षेप भी अन्य देशों के बैंकों मई तुलना में कम है । उदाहरणार्थ- भारत में प्रति-व्यक्ति निक्षेप केवल 321 रु. है, जबकि अमरीका में यह शशि 2,293 रु. है अतः भारतीय बैंकों को विश्व-स्तरीय बनाने के लिये कार्यशील पूँजी में विस्तार आवश्यक है ।

(9) समन्वय का अभाव:

भारतीय बैंकिंग व्यवस्था के दो मुख्य अंग है, यथा संगठित क्षेत्र और असंगठित क्षेत्र । संगठित क्षेत्र में जहाँ व्यापारिक बैंक, सहकारी बैंक विदेशी विनिमय बैंक, निजी क्षेत्र के बैंक हैं । असंगठित क्षेत्र में देशी बैंकर्स, महाजन, साहूकार आदि हैं, किन्तु इन दोनों क्षेत्रों में किसी भी प्रकार के सम्पर्क एवं परस्पर सम्बन्ध नहीं हैं । इस समन्वय की कमी से मौद्रिक नीति एवं साख नियंत्रण के अन्य उपायों का प्रभावी क्रियान्वयन नहीं हो पाता ।

(10) भारत में बिल बाजार का अभाव:

किसी भी देश के मुद्रा बाजार के लिए यह आवश्यक है कि वहाँ पर बिल बाजार हो, किन्तु भारत में अभी तक बिल बाजार का समुचित रूप से विकास नहीं हुआ है । इसके कारण भारतीय व्यापारी एवं उद्योगपति सस्ती साख की सुविधाओं से वंचित रह जाते है । व्यापारिक बैंकों के विस्तार के लिए भी बिल बाजार का विकास विशेष महत्वपूर्ण है ।

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