क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक (आरआरबी): पूंजी और प्रगति | Read this article in Hindi to learn about:- 1. क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की पूँजी (Capital of Regional Rural Banks) 2. क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक के उद्देश्य एवं प्रबन्ध (Objectives and Management of Regional Rural Banks) 3. क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की प्रगति (Progress) 4. ग्रामीण बैंकों की कार्यप्रणाली में सुधार के प्रयास (Attempts for Developments in the Working).

भारत में आपातकालीन घोषणा के उपरान्त 1 जुलाई, 1975 को स्वर्गीय तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने 20 सूत्रीय कार्यक्रम देश के समक्ष प्रस्तुत किया । इस कार्यक्रम के अन्तर्गत ग्रामीण क्षेत्रों में आसान शर्तों पर भूमिहीन कृषकों, श्रमिकों एवं अन्य गरीब वर्ग के लोगों को सस्ती ब्याज दर पर ऋण उपलब्ध कराने की व्यवस्था थी ।

इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु भारत सरकार ने समूचे देश में क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक स्थापित करने का निर्णय लिया । तदुपरान्त 26, दिसम्बर, 1975 को राष्ट्रपति ने एक अध्यादेश- “The Rational Rural Bank Ordinance – 1975” जारी किया ।

क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की पूँजी (Capital of Regional Rural Banks):

अध्यादेश के अनुसार प्रत्येक ग्रामीण बैंक की पूँजी 1 करोड़ रु. रखी गई थी किन्तु जारी अथवा प्रदत्त पूँजी (Issued or Paid-Up Capital) केवल 25 लाख रुपए ही थी ।

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क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की शेयर पूँजी निम्न प्रकार एकत्र की जाती थी:

(अ) केन्द्रीय सरकार : 50 प्रतिशत

(ब) सम्बन्धित राज्य सरकार : 15 प्रतिशत

(स) प्रायोजित व्यापारिक बैंक : 35 प्रतिशत

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सभी प्रादेशिक या क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया एक्ट क दूसरी अनुसूची में सम्मलित किया गया है । इसके साथ ही रिजर्व बैंक ने इन्हें कुछ रियायते भी दी हैं ।

जैसे:

(i) अन्य अनुसूचित बैंकों के अपनी कुल जमाराशियों का 38 प्रतिशत तरल सम्पत्तियों के रूप में रखना पड़ता है, जबकि प्रादेशिक ग्रामीण बैंक के लिये यह प्रतिशत केवल 25 ही है ।

(ii) अनुसूचित बैंकों को अपनी कुल माँग एवं समय देयताओं का 15 प्रतिशत नकदी के रूप में रखना पड़ता है जबकि क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक अपनी देयताओं का केवल 3 प्रतिशत भाग ही नकदी रखते है । इसके साथ ही प्रादेशिक ग्रामीण बैंकों द्वारा कमाये गए ब्याज दर आय कर भी नहीं लगता ।

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रिजर्व बैंक इन बैंकों को पुनर्वित सुविधाएँ भी देता है । यह पूर्ववित्त इन्हें रियायत दर अर्थात बैंक दर से 3 प्रतिशत कम की दर पर दिया जाता है । 12 जुलाई, 1982 से इन बैंकों का नियंत्रण रिजर्व बैंक से हस्तान्तरित होकर कृषि एवं ग्रामीण विकास के राष्ट्रीय बैंक (नाबार्ड – Nabard) के पास आ गया ।

क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक के उद्देश्य एवं प्रबन्ध (Objectives and Management of Regional Rural Banks):

क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक के प्रमुख उद्देश्य दो है:

(अ) कृषि, व्यापार, वाणिज्य, उद्योगों तथा अन्य उत्पादक कार्यों के लिए वित्त व्यवस्था करके ग्रामीण अर्थव्यवस्था का विकास करना, और

(ब) छोटे-छोटे उद्यमियों, शिल्पकारों, कृषि श्रमिकों तथा छोटे एवं सीमान्त कृषकों के लिए साख एवं अन्य सुविधाएँ प्रदान कर उन्हें साहूकारों के चंगुल से बचाना ।

प्रबन्ध (Management of RRB):

प्रत्येक क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक सरकार द्वारा निर्धारित स्थानीय सीमाओं के भीतर ही कार्य करता है । इसका प्रबन्ध 9 सदस्यीय संचालक मण्डल द्वारा चलाया जाता है । संचालक मण्डल का अध्यक्ष सरकार द्वारा नियुक्त किया जाता है । क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों का प्रबन्धन संचालक मण्डत्न द्वारा व्यावसायिक सिद्धांतों एवं समय-समय पर सरकार द्वारा दिये गए आदेशों के अनुसार होता है ।

इन बैंकों को रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया की दूसरी अनुसूची में सम्मिलित किया गया है जिससे इन्हें अनुसूचित व्यापारिक बैंकों की श्रेणी में रखा जाता तथा रिजर्व बैंक का इन पर पूरा नियंत्रण रहता है । सन् 1982 से इनको नियंत्रित करने का दायित्व ‘नाबार्ड’ को सौंप दिया गया है । प्रारम्भ में (2 अक्टूबर, 1975) केवल 5 क्षेत्रीय बैंकों की स्थापना की गई थी ।

ये बैंकर्स- मुरादाबाद तथा गोरखपुर (उत्तरप्रदेश), शिवानी (हरियाणा), जयपुर (राजस्थान) तथा माल्वा (प. बंगाल) इन क्षेत्रीय बैंकों के प्रायोजित व्यापारिक बैंक क्रमशः थे- सिण्डीकेट बैंक, स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया, पंजाब नेशनल बैंक, यूनाइटेड कामर्शियल बैंक और यूनाइटेड बैंक ऑफ इण्डिया ।

क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की प्रगति (Progress of Regional Rural Banks):

क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की प्रगति का विस्तृत विवरण निम्न प्रकार रहा:

(1) बैंकों की स्थापना:

देश में सर्वप्रथम सन् 1975 में 5 क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की स्थापना की गई थी इसके बाद बैंकों की संख्या में क्रमशः वृद्धि हुई और यह संख्या मार्च 1981 में 163 जिलों में 100 और जून 2002 के अन्त में 451 जिलों में 196 क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक हो गई । जून, 1997 में क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की कुल शाखाएँ 14,405 थी जो बढकर जून 2007 में 15 हो गई ।

क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को सबसे अधिक शाखाएँ उत्तर प्रदेश में हैं, इसके बाद बिहार और मध्यप्रदेश का स्थान है । क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की शाखा विस्तार कार्यक्रम के अन्तर्गत यह मानदण्ड स्वीकार किया गया कि यदि क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक के पास केवल एक जिला है तो उसकी 25 शाखाएँ और एक से अधिक जिले होने पर 40 शाखाएँ हों ।

(2) जमा राशि तथा ऋण एवं अग्रिम:

मार्च, 2001 में क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की जमाराशि 37,027 करोड रु. थी जो कि पिछले वर्ष की तुलना में 23.2 प्रतिशत अधिक थी । कुल जमाराशि में से 6,499 करोड़ रु. या 17.5 प्रतिशत माँग जमाओ तथा शेष 30 करोड़ रु. या 82.5 प्रतिशत मियादी जमाओं का है ।

मार्च, 2001 के अन्त तक क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक द्वारा दिये गये ऋणों की राशि, 15,579 करोड रु. थी जो कि पिछले वर्ष की तुलना में 23.2 प्रतिशत अधिक थी । इन बैंकों का ऋण-जमा अनुपात 42.1 प्रतिशत रहा । क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों ने कुल ऋणों एवं अग्रिमों का 47.5 प्रतिशत भाग कृषि एवं कृषि से सम्बद्ध कार्यों के लिये दिया उपलब्ध आँक्सों के अनुसार मार्च, 2001 तक इन बैंकों के निवेश 7,546 करोड रु. के थे जिसमें से सरकारी प्रतिभूतियों में निवेश की राशि 1588 करोड़ रु. थी । इन बैंकों का निवेश जमा अनुपात 20.4 प्रतिशत था ।

(3) घाटे एवं लाभ की स्थिति:

प्रायः कहा जाता है कि घाटे के किटाणु जन्म के समय से ही क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों के शरीर में प्रवेश कर गये थे । सन् 1988 में किए गए एक अध्ययन से यह तथ्य सही सिद्ध होता है कि दिसम्बर, 1988 में कुल 196 क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों में से 151 घाटे में एवं शेष 45 बैंक लाभ का उपाह्वान कर रहे थे । घाटे में होने वाले बैंकों में से अनेक ऐसे बैंक थे जो कि 10 वर्षों से अधिक समय से कार्य कर रहे थे । घाटे के कारण 117 बैंकों की सम्पूर्ण अंश पूंजी डूब चुकी थी ।

वर्ष 1999-2000 तक यद्यपि घाटे की स्थिति में थोडा सुधार हुआ, तथापि स्थिति विशेष सन्तोषजनक नहीं थी । इस वर्ष कुल 196 बैंकों में से 34 बैंक घाटे वाले थे तथा शेष 162 बैंक लाभ अर्जित कर रहे थे । वर्ष 2000-01 में 25 बैंक घाटे वाले थे तथा शेष 162 बैंक लाभ अर्जित कर रहे थे । वर्ष 2000-01 में 25 बैंक घाटे में चज रहे थे तथा बैंकों को लाभ हो रहा था ।

इन बैंकों द्वारा अर्जित परिचालन लाभ 715 करोड रु. तथा निचला लाभ 589 करोड़ रु. था । कुल आस्तियों में परिचालन लाभ का अनुपात 1.47 प्रतिशत तथा निचला लाभ का अनुपात 1.21 प्रतिशत था । ये दोनों अनुपात पिछले वर्षों की तुलना में अधिक थे ।

क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को हो रहे घाटे के कुछ प्रमुख कारण निम्न प्रकार हैं:

(i) प्रतिशाखा औसतन व्यापार का कम होना,

(ii) दिये गये ऋणों की वसूली का कम होना,

(iii) अनार्थिक या अक्षम शाखाओं की अधिक संख्या,

(iv) व्यावसाय की तुलना में कर्मचारियों पर अधिक व्यय का होना,

(v) स्थानीय आधार होने के कारण अनियमितताएँ एवं भृष्टाचार आदि ।

(4) गैर-निष्पादक आस्तियाँ:

व्यापारिक बैंकों के समान ही क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की एक प्रमुख समस्या गैर-निष्पादक आस्तियों का होना है । यद्यपि पिछले कुल वर्षों में इनमें कमी आई है, तथापि अभी भी यह एक जटिल समस्या बना हुई है । उपलब्ध आकड़ों के अनुसार मार्च, 1996 में क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की गैर-निष्पादक आस्तियों (NPAs) का अनुपात 43.1 था, जो घट कर 1997 में 36.8 प्रतीशत, 2000 में 23.2 प्रतिशत एवं 2001 में 19.2 प्रतिशत रह गया ।

क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की कार्यप्रणाली में सुधार के प्रयास (Attempts for Developments in the Working of Regional Rural Banks):

अपनी स्थापना के समय से भी क्षेत्रीय ग्रामीण आलोचना में रहे हैं । सर्वप्रथम सन् 1977 में भारत सरकार के बैंकिंग विभाग ने इन बैंकों की उपयोगिता के प्रति कुछ सन्देह प्रकट किए थे । तर्क यह था कि चूँकि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक बड़े पैमाने पर पहले से ही ग्रामीण क्षेत्रों में साख प्रदान कर रहे है अतः ग्रामीण क्षेत्रीय बैंकों की कोई आवश्यकता नहीं है ।

किन्तु दन्तवाला समिति एवं जेम्स राज समिति ने इन बैंकों का पूरा समर्थन किया तथा इनके विचार पर बता दिया । इस सन्दर्भ में यह उल्लेखनीय है कि जेम्स राज समिति ने सन् 1978 में यह सुझाव दिया था कि क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को धीरे-धीरे व्यापारिक बैंकों की ग्रामीण शाखाओं को अपने प्रबन्ध में ले लेना चाहिए । 8 मार्च, 1979 को भारत सरकार ने क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों का सूचना नियंत्रण रिजर्व बैंक को हस्तान्तरित कर दिया ।

रिजर्व बैंक के मार्गदर्शन में क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों ने अपनी कार्यप्रणाली में सुधार करने का प्रयास किया । वर्ष 1979-80 के दौरान इन बैंकों ने अपनी ग्राहकों के लिए अन्य बैंकिंग सेवाएँ, जैसे- चेकों एवं बिलों की वसूली, बैंक ड्राफ्ट जारी करना आदि प्रारम्भ की । किन्तु, इससे भी क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की आर्थिक स्थिति में कोई विशेष सुधार नहीं हुआ । फलतः सन् 1986 में रिजर्व बैंक ने यह सुझाव दिया था कि इन क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों का इनके प्रायोजक बैंकों के साथ विलय कर देना चाहिए ।

सुझाव के समर्थन में रिजर्व बैंक ने निम्नलिखित तर्क दिये:

(अ) कुल 188 क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों में से 49 बैंकों का छोडकर (जो लाभ की स्थिति थी) शेष सभी ग्रामीण बैंक घाटे में चल रही है ।

(ब) कृषि एवं ग्रामीण विकास के राष्ट्रीय बैंक (नाबार्ड), जो इन बैंकों की अंशपूँजी का 50 प्रतिशत भाग देता है, ने यह इच्छा प्रकट की थी कि इन बैंकों की देखभाल करने के उत्तरदायित्व से उसे मुक्त कर दिया जाये ।

(स) क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों के कर्मचारियों एवं व्यापारिक बैंकों के कर्मचारियों के वेतनों, भत्तों एवं अन्य सेवा शर्तों में भारी असमानताएँ पायी जाती है । फलतः क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों के लिए योग्य एवं अनुभवी कर्मचारी प्राप्त नहीं होते ।

यद्यपि रिजर्व बैंक ने प्राथमिक अनुसूचित बैंकों में क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों के विलय की सिफारिश की थी, तथापि भारत सरकार ने इस सुझाव को अम्बीकार कर

दिया । यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि कर्नाटक सरकार ने रिजर्व बैंक की सिफारिश का विरोध करते हुए कहा था कि ”यह एक विपरीत गामी एवं निर्धन विरोधी कदम होगा ।”

26 नवम्बर, 1987 को लोकसभा में बोलते हुए तत्कालीन वित्तमंत्री ने कहा था कि इन बैंकों की कार्यशीलता में सुधार करके इनके संगठन को सुदृढ बनाया जाएगा जिससे कि ये बैंक, ग्रामीण समाज के कमजोर वर्गों की साख सम्बन्धी आवश्यकताएँ पूरी हो सकें ।

पुनः भारत सरकार के अनुरोध पर रिजर्व बैंक ने श्री ए.एम खुसरो की अध्यक्षता में भारत में ग्रामीण ऋणों के समग्र क्षेत्र की जाँच करने के नियुक्त समिति के क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों के बारे में ग्रामीण बैंकों के बारे में सुझाव देने के बारे में सुझाव देने को कहा इस समिति ने अगस्त, 1989 में अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत किया ।

इस समिति का मत था कि क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की कमजोरी स्थानीय है और अक्षमता उनकी स्थापना से विद्यमान । समिति का मत था कि क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक लक्ष्य के हितों को अपेक्षित ढंग से पूरा करने में समर्थ नहीं होंगे । अतः भविष्य में देश कि ग्रामीण प्रणाली में क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों के लिये कोई स्थान नहीं हो सकता । अतः उनका प्रयोजन व्यापारिक बैंकों के साथ विलयन किया जाना चाहिए ।

सरकार खसरों समिति के सुझावों से सहमत नहीं थी सरकार का विचार था कि क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक ग्रामीण क्षेत्री के विकास के लिये पर्याप्त मात्रा में वित्त उपलब्ध कराते है । अतः इनको समाप्त करने का प्रायोजन बैंकों के साथ इनका विलयन करने के स्थान पर इन्हें सक्षम बनाने तथा कारगर रूप से कार्य करने का प्रयास किया जाना चाहिए ।

फलतः क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की कार्यप्रणाली में सुधार करने और उन्हें आर्थिक दृष्टि से सक्षम बनाने के लिए अनेक नीतिमय उपाय किए गए । इन उपायों में हानि उठाने वाली शाखाओं के विलयन सहित साखाओं का उचित निर्धारण करने, सरकार द्वारा अतिरिक्त सहायता देकर क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों का पुनरुद्धार करने तथा बैंकों द्वारा जारी किये गये निवेशों से सम्बन्धित मानदण्डों में रियायत देने जैसे उपाय भी किए गए ।

क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की आलोचना का मुख्य बिन्दु शाखाओं को लेकर रहा है । फलतः सन् 1993 में रिजर्व बैंक ने नाबार्ड एवं भारत सरकार परामर्श करके क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की शाखाओं को युक्तियुक्त बनाने की घोषणा की ।

इस योजना में क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को युक्तियुक्त बनाने के लिए निम्नलिखित मार्गदर्शक सिद्धांत बनाए गए:

(i) जिन 70 क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों कि संवितरण राशि वर्ष 1992-93 में 2 करोड़ रु. कम रही थी उन्हें सेवा-क्षेत्र के दायित्वों से मुक्त करना,

(ii) वर्ष 1992-93 में दिये गये कुल ऋणों के 40 प्रतिशत के उनके गैर-लक्ष्य समूह के वित्त घोषणा को बढाकर 60 प्रतिशत करना,

(iii) क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को नुकसान पहुंचाने वाली मौजूदा शाखाओं का स्थान बदल कर उन्हें विकासखंड, जिला मुख्यालय, मण्डियों, कृषि उत्पादन केन्द्रों जैसी जगहों पर हस्तान्तरित करना,

(iv) क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को अपना व्यावसाय बढाने के लिये विस्तार काउंटर खोलने की अनुमति देना,

(v) क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों के कार्यकलापों में सुधार करना तथा गहराई लाना जिससे उनके व्यावसाय का विस्तार हो सके ।

इसके साथ ही नाबार्ड को यह दायित्व सौंपा गया कि वह क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की कार्य-प्रणाली में आवश्यक सुधार जाए । फलतः क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की वसूली की असन्तोषजनक स्थिति में सुधार लाने के लिये नाबार्ड ने उनके कामकाज के महत्वपूर्ण मानदण्डों, जैसे- उत्पादकता, नकदी प्रबन्धन, अग्रिम देना, वसूली के निष्पादन के तिमाही आधार पर निगरानी रखना प्रारम्भ किया ।

इसके साथ ही नाबार्ड क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को सभी क्षेत्रों में सुधार करने एवं आवश्यकतानुसार उपचारात्मक उपाय करने के लिए प्रेरित कर रहा है क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को विकास कार्य योजनाओं के माध्यम से पुनजीर्वित करने की प्रक्रिया अप्रैल, 1994 में आरम्भ गई, ताकि एक आवर्ती योजना की संकल्पना के आधार पर 5 वर्षों की अवधि में इनके योजनाबद्ध विकास के लिए व्यापक दृष्टिकोण सुनिश्चित किया जा सके ।

वर्तमान में क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को सुदृढ़ प्रभावी बनाने का कार्य स्वयं सरकार ने अपने हाथ में लिया है । सरकार का मुख्य उद्देश्य कमजोर एवं घाटे में चल रही क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की पुन संरचना करना, उनके तुलन-पत्रों को लाभदायक बनाना तथा उन्हें ग्रामीण क्षेत्रों की विकास प्रक्रिया से जोड़ना है ।

इस प्रयोजन के लिए प्रारम्भ में कुल 196 क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों में से 49 बैंकों का पता लगाया गया है । वर्ष 1994-95 में केन्द्र सरकार ने क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को सुदृढ़ बनाने के उद्देश्य से 6 चरणों में पूँजी उपलब्ध कराने की योजना बनाई और प्रथम चरण में 300 करोड़ की पूंजी उपलब्ध कराई गई ।

तदुपरान्त, वर्ष 1995-96 मैं इन बैंकों को 447 करोड रु. की पूँजी उपलब्ध कराई गई । क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों में नई पूँजी लगाने के उत्साहनजक परिणाम दिखाई दिए । फलतः सरकार ने वर्ष 1996-97 में 400 करोड रु. तथा 1997-98 में 90 क्षेत्रीय बैंकों को पुन 400 करोड रु. की पूँजी प्रदान की गई ।

इसी क्रम में सरकार ने वर्ष 1998-99 तथा 1999-2000 के बजटों के आवंटन में क्रमशः 152 करोड़ रु. एवं 168 करोड प्रदान किए । कुल मिलाकर, जनवरी, 200 तक घाटे वाले क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों के पुनपूंजीकरण के छ: चरणों में 196 में से 187 क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को अतिरिक्त पूँजी सहायता के रूप में 2188 करोड़ रु. उपलब्ध कराए गए ।

क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की स्थापना के बाद से आलोचना की जाती रही है तथा आलोचकों का यह सुझाव रहा है कि इन्हें प्रायोजक बैंकों को हस्तान्तरित कर दिया जाना चाहिए । सरकार ने हमेशा क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों का पक्ष लिया और उन्हें सुदृढ़ बनाने की घोषणा की । किन्तु स्थापना के 20 वर्ष बाद, यथा 1994-95 से ही 102 ठोस उपाय किए गए ।

केन्द्रीय सरकार ने 1994-95 से 2000-01 के वर्षों में जोवित्तीय सहायता इन बैंकों को दी है तथा नाबार्ड ने इनकी कार्यप्रणाली में सुधार के जो प्रयास किए, उससे उत्साह वर्धक परिणाम देखने में आए हैं । क्षेत्रीय ग्रामीण बको के पिछले 5 वर्षों के आँकड़ों से यह सकेत मिलता है कि मुनाफे एवं समग्र लाभ अनुपात में सुधार हुआ है ।

इन बैंकों के गैर-निष्पादक आस्तियों के अनुपात में भी कमी आयी है । किसानों की सुविधा के लिए क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों ने किसान क्रेडिट कार्ड शुरु किए है । निर्धन व्यक्तियों को निरन्तर आधार पर ऋण सुलभ कराने के लिये स्वयं सहायता समूहों को अपनाने के लिए क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को प्रोत्साहित किया गया है ।

किन्तु यह कहना अतिश्योक्ति होगा कि क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की कार्यप्रणाली में पूर्णतः सुधार हो गया है । अभी भी इनमें अनेक कमियों विद्यमान हैं । इनमें ऋण वसूली में कमी, बढ़ते-हुए अतिदेय, अनार्णक आस्तियों का उच्च स्तर, ऋण मूल्यांकन का क्षेत्रपूर्ण तरीका, अकुशल ऋण पर्यवेक्षण प्रमुख है । क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों से अभी अपने प्रायोजक व्यापारिक बैंकों से बहुत कुछ सीखना है ।

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