वाणिज्यिक बैंकों की तरलता | Read this article in Hindi to learn about the liquidity of commercial banks.

वाणिज्यिक बैंकों की तरलता एक महत्वपूर्ण पहलू है । बैंकों के अस्तित्व के लिए यह आवश्यक है कि वे अपने पास पर्याप्त मात्रा में तरल आस्तियां रखें ताकि बैंक के जमाकर्ता अबाध रूप से नकद आहरण कर सकें । ऐसी आस्तियां जो नकद हों या जिन्हें तुरन्त नकदी में परिवर्तित किया जा सके, तरल आस्तियां कहलाती हैं ।

बैंक की तरल आस्तियों के प्रकार (Types of Liquid Assets of Banks):

रोकड़ सर्वाधिक तरल आस्ति है लेकिन यह बैंक के लिए लाभ अर्जन की दृष्टि से निरर्थक है । बैंक की अन्य तरल आस्तियों में उन आस्तियों को सम्मिलित किया जाता है जिन्हें बैंक बिना हानि उठाए मुद्रा बाजार में बेचकर अथवा देश के केन्द्रीय बैंक को बेचकर (पुनर्बट्टा कराकर) आसानी से नकदी में परिवर्तित कर सके ।

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इस दृष्टि से अल्प-सूचना ऋण (Call Money) सर्वाधिक तरल आस्ति है क्योंकि बैंक इन्हें अल्प-सूचना पर वापस माँग सकता है । कोषागार विपत्र (Treasury Bill), विनिमय बिल (Bill of Exchange) एवं सरकारी प्रतिभूतियां (Govt. Securities) भी बैंक की तरल आस्तियों में सम्मिलित की जाती हैं क्योंकि इनमें जोखिम कम होती है तथा इन्हें आसानी से मुद्रा बाजार में बेचा जा सकता है ।

बैंकों की तरलता के निर्धारक तत्व (Factors Determining Liquidity of Banks):

बैंक की तरलता को अनेक तत्व प्रभावित करते हैं । देश की व्यापारिक परिस्थितियाँ, केन्द्रीय बैंक की नीतियाँ, मुद्रा बाजार की परिस्थिति तथा बैंक के सर्वोच्च प्रबन्ध की नीति का बैंक की तरलता पर व्यापक प्रभाव पड़ता है ।

एक बैंक दारा कितनी तरल आस्तियां रखी जाए यह निम्नांकित तत्वों पर निर्भर करता है:

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(1) केन्द्रीय बैंक की नीति (Central Bank’s Policy):

प्रत्येक देश का केन्द्रीय बैंक बैंकों द्वारा रखी जाने वाली आस्तियों के सम्बन्ध में कोई न कोई निर्देश जारी करता है, अतः बैंकों को उसका पालन करना होता है । भारत में व्यापारिक बैंकों के लिए एक निश्चित सीमा तक तरल आस्तियां रखना एक वैधानिक अनिवार्यता है ।

भारतीय बैंकिंग अधिनियम (Indian Banking Regulation Act) 1949 की धारा 24 के अनुसार अनुसूचित बैंकों के लिए कुल जमाओं का कम से कम 20 प्रतिशत तरल रखना अनिवार्य किया गया था जिसे कालान्तर में क्रमशः बढ़ाकर 38.5 प्रतिशत कर दिया गया । वर्तमान में यह अनुपात 21.5 प्रतिशत है ।

(2) संगठित मुद्रा बाजार (Organized Money Market):

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यदि देश में संगठित मुद्रा बाजार हो तो बैंक प्रतिभूतियों को सरलता से नकदी में परिवर्तित किया जा सकता है । अतः बैंक कम मात्रा में तरल आस्तियां रखकर भी अपना कारोबार चला सकता है । यदि मुद्रा बाजार का पर्याप्त विकास नहीं हुआ हो तो बैंकों को अधिक मात्रा में तरल आस्तियां रखनी पड़ेगी ।

(3) जनता की बैंक आदत (Banking Habit of Public):

नकद कोषों की मात्रा जनता की बैंक आदत पर भी निर्भर करती है जबकि जनता की बैंक आदत अर्थव्यवस्था की प्रकृति पर निर्भर करती है । विकसित अर्थव्यवस्थाओं में जनता की बैंक आदत होती है । वहाँ लोग अधिकांश लेन-देन चैक के माध्यम से करते हैं जबकि विकासशील देशों में अधिकांश लेन-देन नकद होते है ।

अतः विकसित देशों में बैंक कम तरल आस्तियां रखकर अपना कारोबार संचालित कर सकते हैं जबकि विकासशील देशों में बैंकिंग आदत कम होने के फलस्वरूप बैंकों को अधिक मात्रा में तरल आस्तियां रखनी पड़ती है ।

(4) मौद्रिक लेन-देन (Monetary Transactions):

बैंकों की तरल आस्तियों का आकार देश में होने वाले मौद्रिक लेन-देनों की संख्या एवं परिमाण (Quantum) पर निर्भर करता है । भारत में व्यस्त समय (Busy Season) में (जो अक्टूबर से मार्च तक होता है) बैंकों में अधिक लेन-देन होता है । अतः बैंकों को व्यस्त समय में अधिक तरल आस्तियां रखनी पड़ती है जबकि मन्द समय (Slack Season) में कम तरल आस्तियों से काम चल जाता है ।

(5) व्यावसायिक परिस्थितियां (Business Circumstances):

देश में व्याप्त व्यावसायिक परिस्थितियाँ (तेजी-मंदी की स्थिति) भी तरल कोषों के आकार को प्रभावित करती हैं । तेजी के समय आशावाद की स्थिति होने के कारण कम मात्रा में तरल कोषों से कम चल जाता है जबकि मंदी के समय बैंकों को अधिक तरल कोष रखने पड़ते है । मंदी के समय प्रायः व्यापारीगण बैंकों से ऋण नहीं लेते जबकि बैंकों पर जमाकर्ताओं द्वारा आहरण का दबाव बना रहता है ।

(6) बैंकिंग प्रणाली (Banking System):

बैंक के तरल कोषों की मात्रा पर बैंकिंग प्रणाली का व्यापक प्रभाव पड़ता है । बैंकिंग प्रणाली दो प्रकार की होती है- शाखा बैंकिंग (Branch Banking) अथवा इकाई बैंकिंग (Unit Banking) । शाखा बैंकिंग प्रणाली के अन्तर्गत्, नकद कोष बैंक के केन्द्रीय कार्यालय में केन्द्रित हो सकते हैं, अतः बैंक की शाखाएँ जमाओं का अल्प-प्रतिशत नकद कोषों में रखकर काम चला सकती हैं । इसके विपरीत, इकाई बैंकिंग के अन्तर्गत् प्रत्येक बैंक एक स्वतंत्र इकाई होती है, अतः उसे अधिक मात्रा में तरल आस्तियां रखनी पड़ती है ।

बैंक कोषों के विनियोग को लाभदायकता के आधार पर दो भागों में बांटा जा सकता है:

(I) अलाभप्रद विनियोग (Non-Profitable Investment)

(II) लाभप्रद विनियोग (Profitable Investment)

(I) कोषों का अलाभप्रद विनियोग (Non-Profitable Investment):

बैंकों को अपने कोषों का एक भाग ऐसी आस्तियों में विनियोजित करना पड़ता है जिससे उन्हें या तो कोई लाभ नहीं होता या उन कोषों से जो आय प्राप्त होती है वह लागत से बहुत कम होती है । अतः इस प्रकार के विनियोग में अलाभप्रद विनियोग की संज्ञा दी जाती है ।

कोषों के अलाभप्रद विनियोग को अध्ययन की दृष्टि से निम्नलिखित तीन भागों में बांटा जा सकता है:

(i) रोकड़ शेष (Cash Reserves),

(ii) वैधानिक कोष (Statutory Reserves) तथा

(iii) मृत स्कन्ध (Dead Stock) ।

(i) रोकड़ शेष (Cash Reserves):

प्रत्येक बैंक को अपनी समस्त जमाओं का एक निश्चित भाग हमेशा शेकड़ के रूप में रखना पड़ता है क्योंकि इसके बिना बैंक अपनी नियमित गतिविधियों का संचालन नहीं कर पाता । बैंक के ग्राहक जो अपनी नकदी बैंकों में जमा कराते हैं वे कभी भी बैंक से इसे वापिस माँग सकते हैं ।

अतः जमाकर्ताओं की रोकड़ की माँग की पूर्ति के लिए बैंक को अपने पास नकद कोष रखने होते हैं । लेकिन बैंक अपने समस्त कोषों को रोकड़ के रूप में नहीं रख सकता क्योंकि बैंक को अपने ग्राहकों को ब्याज का भुगतान करना पड़ता है ।

बैंक अपना रोकड़ शेष स्वयं के पास अथवा भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) या भारतीय स्टेट बैंक के पास रखता है । भारत में प्रत्येक बैंक को अपनी जमाओं का एक निश्चित भाग वैधानिक रूप से नकद रखना पड़ता है । भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम, 1934 की धारा 42(1) में यह प्रावधान है कि प्रत्येक अनुसूचित बैंक को भारतीय रिजर्व बैंक के पास अपनी समस्त जमाओं (TD) का 2 प्रतिशत तथा माँग जमाओं का 5 प्रतिशत नकद कोषों के रूप में रखना पड़ेगा ।

भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम में वर्ष 1962 में किये गए एक संशोधन के अनुसार प्रत्येक अनुसूचित बैंक को अपनी जमाओं का 3 प्रतिशत भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) के पास जमा कराना अनिवार्य कर दिया गया । उक्त अधिनियम में यह भी संशोधन किया गया है कि RBI इसे 15 प्रतिशत तक बढा सकता है । भारतीय रिजर्व बैंक ने समय-समय पर नकद शेष अनुपात (Cash Reserve Ratio-CRR) में परिवर्तन किया है । वर्ष 2016 के प्रारंभ में यह दर 4 प्रतिशत है ।

27 अक्टूबर, 1996 तक भारत में व्यापारिक बैंकों को अपनी शुद्ध मांग एवं समय देयताओं (Net Demand and Time Liabilities) का 12 प्रतिशत नकद कोष के रूप में रखना होता था । लेकिन 19 अक्टूबर, 1996 को घोषित साख नीति में भारतीय रिजर्व बैंक ने इस अनुपात (CRR) को चार चरणों में 12 प्रतिशत से 2 प्रतिशत घटाकर 10 प्रतिशत लाने की घोषणा की ।

प्रत्येक चरण में 0.5 प्रतिशत की कमी की गई । अतः 18 जनवरी, 1997 से CRR 10 प्रतिशत कर दिया गया । इस प्रकार रोकड़ कोष अनुपात में 2 प्रतिशत की कमी से भारतीय बैंकों की उधार देय क्षमता (Lending Capacity) में 8550 करोड़ रुपये की वृद्धि हो गई । इससे भारतीय अर्थव्यवस्था की तरलता में काफी सुधार हुआ तथा बैंकों को अपनी आमदनी बढ़ाने का मौका मिला ।

वर्तमान में भारत में व्यापारिक बैंकों को वर्तमान में अपनी शुद्ध मांग एवं समय दायित्वों का 4 प्रतिशत नकद कोष के रूप में रखना होता है । इस कोष में और कमी की जानी चाहिए ताकि बैंकों के उधार देय कोषों में वृद्धि हो सके । इससे बैंकों को लाभदायकता में वृद्धि होगी ।

किसी बैंक की सफलता पर्याप्त नकद कोष रखने पर निर्भर करती है, ताकि ग्राहकों को बिना किसी बाधा के भुगतान किया जा सके । लेकिन व्यवहार में जमाकर्ताओं का बहुत कम प्रतिशत ही किसी समय विशेष पर अपनी जमाओं से रोकड़ निकालता है । दूसरे, यदि कुछ लोग बैंक से रोकड़ निकालते हैं तो उसी समय कुछ लोग जमा भी कराते है ।

बैंक को अपना कारोबार इस प्रकार समायोजित करना पड़ता है कि निकाली जाने वाली रोकड़ तथा जमा कराने वाली रोकड़ न केवल बराबर हो जाये बल्कि सुरक्षा की दृष्टि से कुछ अतिरिक्त रोकड़ भी रखी जा सके लेकिन बैंक को बहुत अधिक रोकड़ नहीं रखना चाहिए क्योंकि इससे उसकी लाभदायकता कम हो जायेगी ।

नकद कोष की मात्रा का निर्धारण (Determination of the Amount of Cash Reserve):

प्रत्येक बैंक के उच्च प्रबन्ध के समक्ष यह एक ज्वलन्त प्रश्न होता है कि बैंक को कितना धन नकद कोष के रूप में रखना चाहिए । बैंक को नकद कोष की मात्रा का निर्धारण करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि नकद कोष कही आवश्यकता से कम न रह जाये क्योंकि ऐसी स्थिति में ग्राहकों की मांग पूरी नहीं हो सकेगी ।

दूसरी ओर, बैंक को आवश्यकता से अधिक नकद कोष भी नहीं रखना चाहिए क्योंकि यह बैंकों का अलाभप्रद विनियोग है । अतः नकद कोष का निर्धारण करते समय बहुत सावधानी रखनी चाहिए ।

सामान्यतः बैंकों में नकद कोष की मात्रा का निर्धारण करते समय निम्नलिखित बातें ध्यान में रखनी चाहिए:

(1) कानूनी आवश्यकताएं (Legal Requirement):

बैंक को कितना कोष नकद रखना चाहिए इस सम्बन्ध में विभिन्न देशों की सरकार अथवा केन्द्रीय बैंकों द्वारा नियम बनाये गए हैं । अतः व्यापारिक बैंक को अपने देश की सरकार अथवा केन्द्रीय बैंक द्वारा निर्धारित रोकड़ कोष रखना चाहिए । भारत में प्रत्येक अनुसूचित व्यापारिक बैंक के लिए अपनी कुल जमाओं का 4 प्रतिशत नकद कोष रखना अनिवार्य है ।

(2) जनता की बैंकिंग सम्बन्धी आदतें (Banking Habits of Public):

देश की जनता में बैंकिंग की आदतें विकसित हुई हैं या नहीं, इसका भी बैंकों के नकद कोषों की मात्रा के निर्धारण पर प्रभाव पड़ता है । यदि जनता में बैंकिंग आदतों का पूर्ण विकास हो चुका है, तो नकद कोष की मात्रा कम होगी, इसके विपरीत नकद कोष की मात्रा अधिक होगी ।

(3) जमा खातों का प्रकार एवं आकार (The Type and Size of Deposit Accounts):

जमाओं का प्रकार (बचत, चालू, स्थायी खाता इत्यादि) तथा जमा खातों का औसत आकार भी नकद कोष की मात्रा के निर्धारण को प्रभावित करता है । एक बैंकर को स्थायी जमाओं के लिए अधिक नकद शेष रखने की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि उनके पुनर्भुगतान की तिथि निश्चित होती है ।

बचत खातों में से रकम आहरण नियमित एवं सीमित होता है । यदि जमा खाते संख्या में कम है लेकिन उनमें जमा राशि अधिक तो उसमें से अधिक राशि निकाले जाने की संभावना रहती है ।

(4) समाशोधन गृहों का विकास (Development of Clearing Houses):

यदि देश में बैंक समाशोधन गृहों (Bankers Clearing Houses) का पर्याप्त विकास हो चुका है तो नकद कोष की मात्रा कम होगी क्योंकि इससे बैंकों के मध्य चैकों का भुगतान केवल पुस्तक प्रविष्टियों के द्वारा ही हो जायेगा तथा बैंकों को अधिक मात्रा में नकद कोष नहीं रखना पड़ेगा । भारत में सभी शहरों में समाशोधन गृहों की स्थापना की जा चुकी है ।

(5) विनियोग की प्रकृति (Nature of Investment):

यदि बैंक अपने अधिकांश कोषों को तरल प्रतिभूतियों तथा अल्पकालीन ऋणों में विनियोजित करता है तो अधिक नकद कोष रखने की आवश्यकता नहीं होती । इसके विपरीत यदि बैंक अपने अधिकांश कोषों का विनियोजन गैर-तरल आस्तियों (Non-Liquid Assets) में करता है, तो अधिक मात्रा में नकद कोष रखने की आवश्यकता पड़ती है ।

(6) पुनर्वित्त सुविधा (Refinance Facility):

यदि देश में बैंकों को केन्द्रीय बैंक अथवा अन्य बृहत् वित्तीय संस्थाओं द्वारा पुनर्वित्त सुविधा उपलब्ध होती है तो बैंक के कम से कम मात्रा में नकद कोष रखने होंगे, इसके विपरीत स्थिति में अधिक मात्रा में नकद कोष रखने पड़ेंगे ।

(i) साख नीति (Credit Policy):

देश के केन्द्रीय बैंक तथा सरकार द्वारा अपनाई जाने वाली साख नीति का भी नकद कोषों की मात्रा के निर्धारण पर प्रभाव पड़ता है । यदि देश में सस्ती साख नीति (Cheap Credit Policy) अपनाई जाती है तो नकद कोष कम मात्रा में रखने पड़ेंगे । इसके विपरीत महंगी साख नीति (Dear Credit Policy) अपनाने पर प्रायः अधिक नकद कोष रखने पड़ते हैं ।

(ii) वैधानिक कोष (Statutory Reserves):

प्रत्येक देश का केन्द्रीय बैंक बैंकों द्वारा रखे जाने वाले तरल कोषों के सम्बन्ध में कोई न कोई निर्देश जारी करता है, अतः बैंकों को उसका पालन करना होता है । भारत में व्यापारिक बैंकों के लिए एक निश्चित सीमा तक तरल आस्तियां (Liquid Assets) रखना एक वैधानिक-अनिवार्यता (Statutory Compulsion) है ।

भारतीय बैंकिंग नियमन अधिनियम (Indian Banking Regulation Act) 1949 की धारा 24 के अनुसार अनुसूचित बैंकों के लिए अपनी कुल जमाओं का कम से कम 20 प्रतिशत तरल कोषों में रखना अनिवार्य किया गया था जिसे कलान्तर में क्रमशः बढ़ाकर 38.5 प्रतिशत कर दिया गया ।

वर्तमान में यह अनुपात 21.5 प्रतिशत है । यूरोप, जापान तथा अमेरिका की तुलना में यह अनुपात (तरल वैधानिक कोषानुपात) अधिक ऊँचा है । ऊँचे तरल वैधानिक कोषानुपात के कारण भारत में बैंकों की ऋण देने की क्षमता तथा लाभदायकता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है । अतः इस अनुपात में कमी करके इसे 20 प्रतिशत से 25 प्रतिशत के स्तर तक लाना चाहिए ।

(iii) मृत स्कन्ध (Dead Stock):

बैंकों के मृत स्कन्ध के अन्तर्गत बैंक इमारतों, फर्नीर्चिर, आलमारियों, तिजोरियों, विद्युत उपकरणों (पंखे, कूलर, एयर-कंडीशनर) इत्यादि को सम्मिलित किया जाता है । चूंकि इस प्रकार की आस्तियों को आसानी से बेचा नहीं जा सकता । अतः इन्हें मृत स्कन्ध की संज्ञा दी जाती है ।

लेकिन बैंक को अपना कारोबार चलाने तथा ख्याति बनाये रखने के लिए अपने कोषों का एक बडा भाग इन पर व्यय करना पड़ता है । मृत स्कन्ध बैंकों का एक ऐसा विनियोग होता है जिससे बैंकों को प्रत्यक्ष रूप से कोई लाभ नहीं प्राप्त होता ।

(II) लाभप्रद विनियोग (Profitable Investment):

प्रत्येक बैंक अपने अधिक से अधिक कोषों को लाभप्रद विनियोग में लगाना चाहता है । उदारीकरण तथा निजीकरण के वर्तमान माहौल में वही बैंक कलान्तर में सफल रह सकता है जो अपने कोषों को अधिक लाभप्रद विनियोग विकल्पों में लगाये ।

एक बैंक के लाभप्रद विनियोग के निम्नलिखित भागों में बाटा जा सकता है:

(i) याचना राशि अथवा अल्प-सूचना ऋण (Call Money or Short Period Loans):

ये बैंकों द्वारा दिये गये वे ऋण होते है जो बहुत कम समय के लिए दिये जाते हैं । ऐसे ऋणों को बैंक ऋणी को बिना पूर्व नोटिस दिये माँग सकता है । इन ऋणों की अवधि प्रायः कुछ घटे अथवा कुछ दिनों की होती है । इन ऋणों पर बैंकों को बहुत कम (1/4 प्रतिशत से 1/2 प्रतिशत) ब्याज प्राप्त होता है ।

लेकिन भारत में तरलता संकट (Liquidity Crunch) के समय बैको द्वार याचना राशि पर 48 प्रतिशत से 60 प्रतिशत तक ब्याज वसूल करने का उदाहरण भी मिलता है । अल्पकालीन प्रकृति के होने के कारण इन ऋणों में बैंक कोषों का विनियोग काफी सुरक्षित माना जाता है ।

इसके अलावा अल्प सूचना ऋणों में विनियोग के फलस्वरूप बैंक कम नकद कोषों से भी काम चला सकता है क्योंकि आवश्यकता पड़ने पर इन्हें तुरन्त नकदी में परिवर्तित किया जा सकता है । इस प्रकार के विनियोग का यह गुण है कि इससे एक ओर जहां सुरक्षा रहती है वहाँ दूसरी ओर इससे आय भी प्राप्त होती है । यूरोप, अमेरिका तथा जापान में इस प्रकार के विनियोग क काफी प्रचलन है । भारत में याचना राशि के ऋण प्रायः एक बैंक द्वारा दूसरे बैंक को ही दिये जाते है ।

(ii) विनिमय बिलों की कटौती अथवा खरीदना (Discounting or Purchasing of Bills of Exchange):

व्यापारिक बैंक अपने कोषों का विनियोजन विनिमय बिलो की कटौती या उनके क्रय में भी करते हैं । जब कोई व्यापारी विनिमय बिल से उसकी परिपक्वता (Maturity) से पूर्व भुनाना चाहता है तो बैंक एक निश्चित प्रतिशत काटकर व्यापारी को भुगतान कर देता है ।

कटौती की यह राशि बैंक की आय होती है । व्यापारिक बैंक अपने कोषों का अधिकांश भाग प्रथम श्रेणी की प्रतिभूतियों के क्रय में विनियोजित करते हैं । इनमें बैंकों के कोष पूर्णतः सुरक्षित रहते है तथा उन्हें पर्याप्त आय मिलती है । अतः इसे सुरक्षा की तीसरी पंक्ति (Third Line of Defence) कहते हैं ।

पश्चिमी देशों, अमेरिका तथा जापान कई तुलना में भारत में विनिमय बिलों में बैंकों द्वारा कम विनियोग किया जाता है । भारत में अभी संगठित बिल बाजार का पर्याप्त विकास नहीं होने के कारण बिलों की कटौती तथा क्रय-विक्रय में काफी कठिनाई होती है तथापि गत् कुछ वर्षों से भारतीय बैंकों द्वारा इस दिशा में काफी प्रयास किये गए हैं ।

व्यापारिक बैंक अपने कोषों का विनियोजन विनिमय बिलों तथा अन्य अल्प-आवधिक बिलों में निम्नांकित कारणों से करते हैं:

(a) विनिमय साध्य (Negotiable) होने के कारण इन्हें सरलता से खरीदा एवं बेचा जा सकता है । लन्दन, न्यूयॉर्क, टोकियो, मुम्बई जैसे बिल बाजारों में इनका आसानी से क्रय-विक्रय किया जा सकता है ।

(b) यदि बैंक को रोकड़ कोषों की आवश्यकता होती है तो वह इन बिलों की देश के केन्द्रीय बैंक (भारत में RBI) से पुर्नकटौती करा सकता है ।

(c) इन बिलों से बैंकों को ब्याज के रूप में अच्छी आय प्राप्त होती है ।

(d) ये बिल बैंक कोषों के विनियोजन की दो आवश्यक शर्तों-तरलता एवं लाभदायकता (Liquidity and Profitability) की पूर्ति करते है ।

(iii) ऋण तथा अग्रिम (Loans and Advances):

व्यापारिक बैंक अपने कोषों का सर्वाधिक भाग ऋण तथा अग्रिमों में विनियोजित करते हैं ।

ऋण तथा अग्रीम निम्नांकित तीन प्रकार के होते हैं:

(a) साधारण ऋण तथा अग्रिम,

(b) अधिविकर्ष तथा

(c) नकद साख ।

ऋण एवं अग्रिमों पर बैंकों द्वार ऊँची दर से ब्याज वसूल किया जाता है क्योंकि इनमें जोखिम अधिक होती है जबकि इनकी तरलता बहुत कम होती है । उदारीकरण के फलस्वरूप अब भारत में व्यापारिक बैंक उद्योगों तथा व्यवसायों के लिए दीर्घकालीन ऋण भी प्रदान करने लगे हैं । तथापि बैंकों द्वारा दिये जाने वाले अधिकांश ऋण एवं अग्रिम अल्पकालीन एवं मध्यकालीन अवधि के होते हैं ।

ऋण तथा अग्रिमों का विवर्तन भी कठिन होता है । बैंक कोषों के विनियोग की सुरक्षा एवं तरलता (Safety and Liquidity) की दृष्टि से ऋण एवं अग्रिमों को अच्छी आस्ति नहीं माना जाता । लेकिन इनसे प्राप्त होने वाली अधिक आय, इनसे पैदा होने वाली कठिनाइयों की क्षतिपूर्ति कर देती है । विनियोगों से ऊंची आय (Higher Income) प्राप्त होती है जबकि इनकी नीची तरलता (Lower Liquidity) होती है ।

(4) प्रतिभूतियों में विनियोग (Investment in Securities):

व्यापारिक बैंक अपने कोषों का एक बहुत बडा भाग प्रतिभूतियों में विनियोजित करते हैं ।

(5) सरकारी प्रतिभूतियां (Government Securities):

ये प्रतिभूतियां केन्द्र अथवा राज्य सरकारों द्वारा जारी की जाती है । इन प्रतिभूतियों के कई स्वरूप हो सकते हैं, जैसे कोषागार विपत्र (Treasury Bills) सरकारी ऋणपत्र, बॉण्ड, जमापत्र इत्यादि ।

(6) अर्द्ध-सरकारी प्रतिवृतियां (Semi-Government Securities):

ये प्रतिभूतियां अर्द्ध-सरकारी संस्थाओं जैसे नगर-निगमों, नगर-पालिकाओं, मण्डलों तथा वित्तीय संस्थाओं द्वारा जारी की जाती है ।

(7) निजी प्रतिभूतियां (Private Securities):

ये प्रतिभूतियां संयुक्त स्कन्ध कम्पनियों, सरकारी कम्पनियों, औद्योगिक संस्थाओं तथा व्यापारिक प्रमण्डलों द्वारा जारी की जाती है ।

व्यापारिक बैंक अपने कोषों का विनियोग करते समय प्रायः सरकारी तथा अर्द्ध-सरकारी प्रतिभूतियों को प्राथमिकता देते है क्योंकि इनमें सुरक्षा, उत्पादकता तथा तरलता का गुण पाया जाता है । लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं है कि व्यापारिक बैंक निजी प्रतिभूतियों में विनियोग करते ही नहीं । वस्तुतः अच्छी साख वाली औद्योगिक, वित्तीय एवं व्यापारिक संस्थाओं द्वारा जारी की गई प्रतिभूतियों में भी बैंकों द्वारा विनियोग किया जाता है ।

बैंकिंग क्षेत्र में बदलते हुए परिदृश्य (Changing Scenario of the Banking Sector) से दृष्टिगत् रखते हुए व्यापारिक बैंकों को अपने विनियोग के ढाँचे (Investment Pattern) में बदलाव लाना होगा । बैंकों को जहां अपनी प्रतिभूतियों की ‘ईल्ड कर्व’ (Yield Curve) पर गंभीरता पूर्वक विचार करना होगा वहीं बढ़ती हुई बाजार जोखिमों (Yield Risks) को ध्यान में रखते हुए प्रतिभूतियों का चुनाव करना होगा ।

भारत में रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया ने सरकारी प्रतिभूतियों पर बाजार आधारित ब्याज दर की नीति में अपनाया है । इस नीति ने बैंकों में विनियोग प्रबंध (Investment Management) की नई संभावनाओं को जन्म दिया है । इससे बैंकों के विनियोग के ढाँचे में व्यापक परिवर्तन आयेगा । अब बैंकों द्वारा किया जाने वाला विनियोग जोखिम-प्रतिफल बोध (Risk-Reward Perception) से प्रभावित होगा ।

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