ऑयस्टर मशरूम के रोगों को कैसे नियंत्रित करें? | Read this article in Hindi to learn about how to control diseases of oyster mushroom.

A. कवक बीमारियां:

1. काब वेब:

प्लूरोटस की विभिन्न प्रजातियों पर काब वेब पाया गया ।

लक्षण:

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क्रियाधार पर सफेद रूई के समान फफूँद की वृद्धि दिखाई देती है । तनों के सडने के कारण खराब गंध आती है ।

रोगकारक:

क्लेडोबॉट्रीयम एवीकुलेटम, क्ले. बर्टीसिलेटम, क्ले. वेरियोर्स्पमम ।

इसकी पूर्ण अवस्था हाइफोमाइसिस स्प. है । कवकजाल काचाभ, बीजाणुधर सीधे, काचाभ प्रायः वायवीय कवकजाल से निकलने वाले, अनियमित या वर्टीसिलेट शाखा वाले और सिरे पर नुकीले फाइलिड के समूह वाले होते हैं । बीजाणु (कोनिडिया) फिलोस्पोरा, काचाभ, प्राय: 2 कोशिका वाले, अण्डाकार या लंबे और चेन में या अनियमित रूप से जुडे रहते है ।

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नियंत्रण:

बेविस्टिन (50 पीपीएम) के छिडकाव से रोग पर नियंत्रण रख सकते हैं ।

2. भूरा सड़न:

लक्षण:

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क्रियाधार पर कवक पतला सफेद धब्बा बनाती है जो शीघ्र ही हरे रंग के बीजाणुओं से ढक जाता है । पिन हेड नरम, भूरे, स्पंज के समान होकर सडने लगते हैं और अन्त में मर जाते हैं । प्राथमिक अवस्था में रोग से बच जाने के बाद टोपी पर हल्का या गंदला सफेद धब्बा बनता है । ये धब्बे धँसे हुये होते हैं ।

रोगकारक:

ग्लीओक्लेडियम बाइरेन, ग्लीओ डिलिक्वीसेन्स ।

कवकजाल सफेद, कोनिडियोधर काचाभ, शीर्ष पर पेनिसिलेट शाखा के बनने से पेनीसीलियम के समान ठोस ब्रश बनाते हैं । कोनिडिया (फिलोस्पोर) काचाभ या समूह में, गहरे रंग के, एक कोशिका वाले, शीर्ष पर म्यूकस के समान अवपंकितल द्रव्य में लिप्त रहते हैं ।

रोगचक्र:

गीली व नमीयुक्त अवस्था में धब्बे बढ़ते जाते हैं ।

नियंत्रण:

1. पाश्चुरीकृत खाद को उपयोग करें व पर्याप्त हवा आने दें ।

2. इस रोग को नियंत्रित करने के लिये बेविस्टिन (100 पीपीएम) के घोल का छिडकाव करें ।

3. साइबेरीनिया रॉट:

लक्षण:

डंठल, गलफडे व कलियों पर सफेद वृद्धि दिखायी पड़ती है । नवजात खुंभी पर भूरे रंग के धब्बे दिखायी देते हैं । इसके कारण से खुंभी पर धसे हुये स्पंज के समान क्षेत्र दिखायी देते हैं ।

प्लूरोटस सेजोर काजू में यह धब्बे एक सेन्टी मीटर प्रति 24 घंटे की दर से बढ़ते हैं । अंदर के ऊतक लाल रंग के हो जाते हैं और फलनकाय स्वस्थ व रोगित भाग के मिलने वाली जगह से टूटने लगते हैं । कम नमी रहने पर धब्बे या गढढी का आकार नहीं बढता है । रोगजनक के कारण खुंभी के कवकजाल में 100 प्रतिशत तक संदंमन (इनहीबीशन) पाया जाता है ।

रोगकारक:

साइबेरीना फंजीकोला

रोगचक्र:

अधिक नमी में रखे जाने वाले थैली में यह रोगजनक अधिक लगता है । यह कार्बनिक कचरे में फैलता है ।

नियंत्रण:

पानी के छिड़काव के बाद प्रतिदिन 2-3 घंटा ताजी हवा का अंदर आना जरूरी है ।

4. आर्थोबोट्रायस प्लूरोली:

लक्षण:

क्रियाधार और खुंभी पर कवक की रूई के समान वृद्धि दिखायी पडती है । रोगित ऊतक पीले और पनियल हो जाते हैं और सडने लगते हैं ।

रोगकारक:

आर्थोंबोट्रॉयस प्लूरोली

कवकजाल काचाभ, कोनिडियमधर लंबे, बेलनाकार, साधारण, पटयुक्त, काचाभ व शिखर पर थोड़े फूले होते हैं । सिंपोडियल रूप से नये वृद्धि बिन्दु बनते हैं । कोनिडियम (सिंपोडुलो बीजाणु) काचाभ, असमान कोशिका वाला. अंडाकार या लंबाकर अंगुली के समान रचना या झुण्डों में लगे रहते हैं ।

नियंत्रण:

बेविस्टन (50 पीपीएम) के छिड़काव से इस रोग पर नियंत्रण पाया जा सकता है ।

5. सुखा बुलबुला रोग:

लक्षण:

कवक का संक्रमण जल्दी होने पर डंठलों के उतकों पर बुलबुले दिखायी देते हैं । बाद में संक्रमण होने पर टोपियाँ पर धसे हुये भूरे रंगे के धब्बे बन जाते हैं ।

रोगकारक:

वर्टीसीलियम फंजीकोला

कोनिडिया धर बेलनाकार, शाखित, कुछ शाखायें वर्टीसिलेट, कोनिडिया (फिलोबीजाणु) अण्डाकार या लंबे, काचाभ, एक कोशिका वाले, अकेले या शिखर पर छोटी बूंदों में लगते हैं ।

रोगचक्र:

इस रोग के संक्रमण का सबसे आम स्त्रोत फसल कक्ष के अहाते में रखी उपयोग की गयी खाद है । बीमारी का प्रसार मक्खियों, बरूथियों (माइटस), हवा, गंदे उपकरण, हाथ व कपडे के द्वारा होता है ।

नियंत्रण:

(1) उपयोग में लायी गयी खाद का निष्कासन, कीड़े सूत्रवृामि/बरुथियों का नियंत्रण और फार्म पर अत्याधिक स्वच्छता अपना कर प्राथमिक संक्रमण रोका जा सकता है ।

(2) टॉपसिन एम. क्लोरोथेलोनिल, प्रोक्लेरेज एवं डेकोनिल का छिडकाव सूखा बुलबला रोग के नियंत्रण के लिये बहुत प्रभावी पाया गया । बेंजिमिडेजोल कवकनाशी बहुत प्रभावी है पर इनके उपयोग से रोगजनक में शीघ्र ही रोगरोधिता उत्पन्न हो जाती है ।

(3) स्थानीय संक्रमण रोकने के लिये प्रभावित क्षेत्रों पर 2 प्रतिशत व्यवसायिक फार्मेलिन का छिडकाव प्रभावी पाया गया ।

B. जीवाणु जनित बीमारियाँ:

आयस्टर खुंभी के जीवाणु रोगों पर बहुत कम काम हुआ है । संसार के विभिन्न भागों से प्लूरोटस की प्रजातियों पर विभिन्न जीवाणु रोगों का उल्लेख है ।

भारत में आयस्टर खुंभी पर निम्नलिखित रोग पाये जाते हैं:

(1) जीवाणु सड़न (स्यूडोमोनास एल्केलीजन):

पश्चिम बंगाल में यह रोग प्लूरोटस सेजोर काजू के ऊपर उल्लेखित है ।

लक्षण:

नवजात बीजाणुधर के ऊपर जल सिक्त क्षेत्र एवं पीला भूरा विर्वणन पाया जाता है । पूर्ण विकसित फलनकाय में सडाव बीच से शुरू होकर, किनारे की तरफ फैलता है । छोटा कलिकाओं के संक्रमण के कारण से उनकी वृद्धि रूक जाती है और इसके बाद डंठल भूरा होकर सिकुड जाता है । गलफडों की निचली सतह पीली पड जाती हे । खुंभी सिकुड जाती है और ऊपर और अंदर की तरफ मुड जाती है ।

(2) भूरा दाग (स्यूडोमोनास एगेरिकी):

प्लूरोटस सेजोर-काजू के धान के पुआल के क्रियाधार के ऊपर पाया जाने वाला सामान्य मृतपजीवी स्यूडोमोनास स्टुटजेरी यह रोग उत्पन्न करता है ।

नियत्रंण:

क्रियाधार को 100 पीपीएम स्ट्रेप्टोसाविलीन एवं 25 पी.पी.एम. फार्मेलिन के घोल में डुबाने से इस जीवाणु को नियंत्रित किया जा सकता है ।

3. पीला धब्बा रोग (स्यूडोमोनास एगेरिकी):

लक्षण:

प्लूरोटस सेजोर-काजु पर यह रोग उल्लेखित है । अत्याधिक उग्र अवस्था में इसके कारण से पूरी फसल नष्ट हो जाती है । खुंभी की टोपी की सतह पर विभिन्न आकार के धसे हुये, पीले, भूरे या नारंगी दाग या धब्बे दिखायी देते हैं । जब रोग फसल की शुरुआत में लगता है तब पूरी फसल प्रभावित हो जाती है ।

तापमान व आर्द्रता अधिक रहने पर रोगित खुंभी सडने लगती है एवं इससे खराब गन्ध आने लगती है । इस रोग का विशिष्ट लक्षण रोगित खुंभी का अवपंक उदभव है ।

नियंत्रण:

आक्सीटेट्रासाइक्लिन (400 पीपीएम), स्ट्रेप्टोसाइक्लिन (400 पीपीएम) या सोडियम हाइपोक्लोराइड (400 पीपीएम) के छिडकाव द्वारा रोग का प्रभावी निंयत्रण हो जाता है ।

C. विषाणु रोग:

पूरे संसार में विभिन्न खुंभीयों पर विषाणु रोग उल्लेखित हैं परंतु भारत में प्लूरोट्‌स प्रजातियों पर बहुत कम काम हुआ है । प्लूरोटस पल्मोनेरी विषाणु (पीपीवी) के कारण से प्लूरोट्‌स पल्मोनेरियिस में विकृत खुंभी बनती हैं । इम्यूनो डिफ्यूजन एवं एलीसा टेस्ट के द्वारा प्लू. फ्लोरिडा पर अज्ञात विषाणु खोजा गया ।

लक्षण:

प्लू फ्लोरिडा में विषाणु संक्रमण के कारण से निम्न विकृतियां पायी जाती है:

i. टोपी ऊपर की तरफ मुड जाती है ।

ii. तना व डंठल फूल जाता है और खुंभी बहुत विकृत हो जाती है ।

iii. बीजाणु समय से पहले झड जाते हैं और तना लंबा हो जाता है ।

iv. प्लूरोटस की विभिन्न प्रजातियों पर विभिन्न आकृति एवं माप के अनेकों विषाणु पाये गये ।

v. भारत में खुंभीयों पर पाये जाने वाले विषाणुओं के आपतन एवं उनके द्वारा होने वाली हानियों के बारे में कुछ ज्ञात नहीं है ।

मशरूम विषाणुओं का प्रबंधन:

i. पूर्ण स्वच्छता एवं प्रमाणित, विषाणु रहित स्पान अनुशसित है ।

ii. ट्रे एवं दूसरे उपकरणों को सर्वप्रथम 4 प्रतिशत पेन्टाक्लोरोफीनेट में 0.5-1.0 प्रतिशत सोडियम कार्बोनेट मिलाकर छिड़काव करना चाहिये 1

iii. चार प्रतिशत फार्मेल्डिहाइड से दरवाजों, दीवार एवं फर्श को विसंक्रमित करना चाहिए ।

iv. कार्य स्थल के गलियारों में फार्मेल्डीहाइड छिडकना चाहिये । मशीन, फ्रिज एवं अन्य बर्तनों को फार्मेल्डीहाइड के घोल से विसंक्रमित करना चाहिये ।

D. अजैविक विकार:

आयस्टर खुंभी में कुछ कार्यकीय विकार पाये जाते हैं । फसल कक्ष में कम प्रकाश के कारण तना लंबा और मोटा हो जाता है और टोपी थोडी छोटी हो जाती है । अपर्याप्त वातायन (1-2 प्रतिशत कार्बन डाइ आक्साइड) और कम प्रकाश के कारण झुण्ड में लगी खुंभियों की वृद्धि कम हो जाती हैं ।

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