गन्ना के कम महत्वपूर्ण रोगों की सूची | Here is a list of three less important diseases of sugarcane in Hindi language.

1. पोरी विगलन रोग:

यह रोग भी एक कवक रोग है । इस रोग की सर्वप्रथम जानकारी वेन्ट नामक वैज्ञानिक ने वर्ष 1893 में इन्डोनेशिया में दी थी । चूकि रोगी गन्ने से अनन्नास जैसी गंध निकलती है इसलिए इस बीमारी को गन्ने का अनन्नास रोग भी कहा जाता है । विश्व के लगभग 39 देशों में यह रोग पाया जाता है ।

भारत में पंजाब, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, गुजरात और महाराष्ट्र में यह रोग अधिक पाया जाता है । इधर कुछ समय से यह बीमारी उत्तर भारत में कही-कहीं देखी गयी है । इस बीमारी के कारण गन्ना बीज का जमाव कम होता है और लगभग 40 प्रतिशत आँखें अंकुरण के पूर्व या बाद में सड जाती हैं ।

जमाव में कमी आने के अलावा खड़ी फसल में इस बीमारी से चीनी की मात्रा में 7 से 13 प्रतिशत तक कमी हो जाती है तथा बीमार गन्ने से चीनी के दाने भी ठीक से नहीं बनते हैं । गन्ना बोने के बाद 15-20 दिन में गन्ना बीज के कटे हुए भाग से फफूँदी प्रवेश कर जाती है । रोगी गन्ने पहले लाल व बाद में भूरे लाल-काले हो जाते हैं । बाद में गन्ना बीज के टुकडे सडने लगते हैं और सडे हुए प्रभावित भाग से अनन्नास जैसी गंध आने लगती हैं ।

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रोगी गन्ने में ‘एथीलीन’ गैस बनती है जिसका जडों के विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पडता है और बीमार गन्ने का विकास रुक जाता है तथा गन्ना छोटा रह जाता है । यह रोग एक विशेष प्रकार की फफूँदी ‘सेरेटासिस्टिस पैराडाक्सा’ द्वारा जनित होती है । इस फफूँद में दो प्रकार के छोटे और बडे बीजाणु बनते है ।

फफूँदी मिट्टी में पडे गन्ने के छोटे-छोटे टुकडों या मिट्टी में ही मौजूद रहती है जो सिंचाई के पानी द्वारा नई जगहों तक पहुंच जाती है । क्षतिग्रस्त गन्ने में यह बीमारी शीघ्र प्रवेश कर जाती है । गन्ना बेधक कीटों का इस बीमारी को फैलाने में प्रमुख स्थान है । मक्खियाँ व भृंगकीट भी इस बीमारी को फैलाने में मदद करते हैं ।

इस रोग के नियंत्रण हेतु गन्ने के लंबे टुकडे बोने चाहिए, लंबे टुकडे बोने से रोग कारक आसानी से पूरे बीज को प्रभावित नहीं कर पाता । चार या पाँच आँख के टुकड़े बोने से फसल को इस रोग से बचाया जा सकता है । कवकनाशी रसायन, डिमोसान का उपयोग इस रोग के नियंत्रण में काफी सार्थक सिद्ध हुआ है ।

डिमोसान (0.1 प्रतिशत घोल) में बीज गन्ने को 15 मि. डुबोकर बोने से फफूँदी का प्रकोप समाप्त हो जाता है और जमाव अधिक होता है । परीक्षणों से पता चला है कि बीज गन्ने को 30 मिनट साधारण पानी में भिगोने के बाद 20 मिनट बेनोमिल रसायन में 52 से. – पर उपचारित करने पर रोग कारक पूर्णतया नष्ट हो जाता है । रोगरोधी प्रजातियों के बोने से भी इस रोग को कम किया जा सकता है । पानी निकासी का समुचित प्रबन्ध होने से कम लगती है ।

2. गन्ने का पीली पत्ती विषाणु रोग:

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इस बीमारी को सर्वप्रथम 1988 में ‘हवाई’ देश तथा फिर 1990 में ब्राज़ील में देखा गया था । तदुपरान्त विश्व के कई अन्य देशों में भी इस रोग के लक्षण पाये गये व मारीशस आदि देशों में इस रोग को 2000-2001 में पहचाना गया था । उत्तर प्रदेश, हरियाणा, महाराष्ट्र तथा तमिलनाडु में अनेक प्रजातियों में यह रोग पाया गया है ।

पत्तियों की मुख्य मध्य शिरा पीला पड जाती है । पत्तियों के अंतिम चोर से पीलापन प्रारम्भ होता है और अंततः नीचे तक फेल जाता है । इसके साथ-साथ पत्तियाँ ऊपर से सूखने लगती है । भीषण लक्षण उत्पन्न होने पर पीलापन पूरी पत्तियों में फैल जाता है और पत्तियाँ सूख जाती है । अक्टूबर-नवंबर से पौधों में पीलेपन के लक्षण दिखाई देना प्रारंभ होते है ।

यह रोग एक विशेष प्रकार के विषाणु द्वारा जनित होता है और रोग का फैलाव माहूया एफिड कीट (मेलनाफिस सेकराई, मेलनाफिस इन्डोसैकराई रोपैलासीइफम मेडिस) द्वारा होता है । बीमार पत्तियों के रगड से या रोग स्वस्थ पौधों में नहीं फैलता है । इस रोग के नियंत्रण के लिए बीज फसल से करना चाहिए । कीटनाशक रसायन छिडकने से रोगवाहक जाते हैं और फसल में रोग का फैलाव कम हो जाता है ।

3. पत्तियों के धब्बे रोग:

गन्ने की पत्तियों पर अनेक फफूँदियों से विभिन्न प्रकार के धब्बे रोग उत्पन्न होते है । सरकोस्पोरा के पीले धब्बे, आँखनुमा धब्बे, अंगूठीनुमा धब्बे, किट्ट रोग, पट्टीदार स्कलोरिसियल रोग आदि ये बीमारियाँ उपज में, हानि के दृष्टिकोण से अधिक महत्व की नहीं है । परंतु कभी-कभी ये रोग अनुकूल वातावरण वाले विभिन्न स्थानों/राज्यों में महामारी का रूप लेते हैं और तब अधिक हानि होती है ।

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इन रोगजनक कवकों के भिन्न-भिन्न तरह के असंख्य बीजाणु बनते हैं जो हवा या पानी द्वारा फैलकर दूसरे स्वस्थ पौधों की पत्तियों को रोगी कर देते हैं । इन बीमारियों से पत्तियाँ पीली पड जाती हैं और सूखने लगती हैं । पत्तियों में हरितपर्ण (क्लोरोफिल) कम हो जाता है जिससे गन्ने कमजोर हो जाते हैं और चीनी की मात्रा कम हो जाती है ।

इन रोगों का नियंत्रण फफूंदीनाशक रसायनों के छिडकाव से बहुत हद तक संभव है । इन रसायनों में कॉपर आक्सीक्लोराइड, डाईथेन एम-45, डाइथेन जैड-78, फरबाम, मैनकोजेव आदि काफी प्रभावी सिद्ध हुये हैं । रोगों के लगने पर कवकनाशी दवाओं का छिडकाव कम से कम दो बार जरूर करना चाहिए ।

ये अधिकांश रोग बीज द्वारा जनित होते हैं और फैलाव हवा, वर्षा एवं सिंचाई जल, खरपतवार, कीट एवं कृषि यंत्रों द्वारा होता है । इसलिए इन रोगों के प्रभावी नियंत्रण के लिए व्यक्तिगत उपचार विधियों की अपेक्षा समेकित प्रबंधन से अधिक लाभ होता है । समेकित प्रबंधन से एक साथ कई रोगों का नियंत्रण किया जा सकता है और गन्ने की उपज एवं चीनी की बढायी जा सकती है ।

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