ऑयस्टर मशरूम कैसे खेती करें? | Read this article in Hindi to learn about how to cultivate oyster mushroom.

ढींगरी खुंभी लिग्निन सेल्युलोज वाले पौध अवशेष पर बढ़ने वाला कवक है, जो कि प्रकृति में शीतोष्ण और उष्णकटिबधीय जंगलों में मुख्यतः मृत और सडी गली लकडियों या कभी कभी क्षयमान/कार्बनिक पदार्थों पर उगती है ।

सारे संसार का लगभग आधा कृषि अवशेष भूसा, पत्तियों आदि के रूप में अनुपयोगी पडा रहता है । इन कृषि अवशेषों पर ढींगरी खुंभी आसानी से उगकर विटामिन, लवण और उच्च प्रोटीन वाला खाद्य बनाती है । आयस्टर खुंभी की खेती सबसे पहले जर्मनी में फ्लेंक (1917) ने पेडों, लकड़ी के गुट्‌ठों और तनों में निवेशन करके शुरू की ।

बाद में इसकी खेती के लिए ओटमील और लकड़ी के बुरादे के मिश्रण का उपयोग किया । भारत में बानो और श्रीवास्तव (1962) ने सी.एफ.टी.आर.आई मैसूर में प्लूरोटस फ्लेबिलेटस उगाने के लिए सबसे पहले धान का पुआल का उपयोग किया ।

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जांडिक और कपूर (1974) ने प्लूरोटस सेजोर काजू उगाने के लिए विभिन्न पदार्थों का उपयोग किया । धर (1976) ने कश्मीर में प्लूरोटस की व्यावसायिक खेती के लिए लकड़ी के बुरादे और लकड़ी के लट्‌ठों पर उगाने की तकनीक को मानकीकृत किया ।

चूंकि भारत में ऊष्णकटिबंधीय और उपोष्ण प्रदेशों में आयस्टर खुंभी की तापक्रम आवश्यकताएं (25-280 से.ग्रे.) इस प्रकार की है जिससे यह उष्णकटिबंधीय और उपोष्ण प्रदेशों में साल भर तक आसानी से उगाया जा सकता है ।

अतः भारत में इसकी खेती को सब जगह बढावा देना चाहिये । कृषि उपज बढने से कृषि अवशेष की अधिक से अधिक मात्रा उपलब्ध हैं । इनका सही प्रकार से पुन: चक्रण करके सारे संसार के लिए खाद्य पदार्थ की मांग का पूरा कर सकते हैं ।

आयस्टर खुंभी (प्लुरोटस स्प.) की विशेषता:

i. सरल खेती की तकनीक:

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यह खेती योग्य सबसे आसान खुंभी है क्योंकि इसे पैदा करने के लिए जटिल आधार नहीं बनाना पडता । इसमें क्रियाधर बनाने की विधि कम समय और कम श्रम वाली है । इसकी वृद्धि के लिए ताजा या आशिक रूप से किण्वीकृत पौध अवशेष उपयोगी है ।

ii. विभिन्न क्रियाधारों का उपयोग:

विभिन्न प्रकार की तकनीकों का उपयोग करके इसे विभिन्न प्रकार के कृषि अवशेषों पर उगाया जा सकता है । यह विभिन्न प्रकार के लिग्निन, सूल्यूलोज वाले पदार्थों को उपयोग करके उन्हें आसानी से पचने वाले प्रोटीन बहुल पदार्थ बनाती है, जो कि मनुष्यों के भोजन के काम आते हैं ।

प्लूरोटस विभिन्न प्रजातियों को बुरादे का मिश्रण, धान का पैरा, धान्य भूसा, कपास के अवशिष्ट, मक्के का तना, ज्वार का तना, गन्ने की खोई और दूसरे कृषि औद्योगिक अवशेष आदि पर उगाया जा सकता है ।

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उपरोक्त कृषि अवशिष्टों में लिग्निन, सेल्युलोज व हेमीसेल्युलोज नामक कार्बनिक पदार्थ बहुतायत में मौजूद रहते होते हैं, जिससे ऑयस्टर खुंभी अपने कार्बन स्रोतों की पूर्ति करता है । प्रत्येक प्रदेश में कृषि अवशेष की उपलब्धता के आधार पर क्रियाधार निर्भर करता है ।

iii. खेती योग्य प्रजातियाँ:

आयस्टर खुंभी की सबसे ज्यादा खेती योग्य प्रजातियों हैं जो कि मौसम व जलवायु के अनुकूल भारत के विभिन्न भागों में उगायी जाती हैं ।

ये निम्न है- प्लूरोटस सेजोर-काजू, प्लूरोटस फ्लोरिडा, प्लूरोटस ऑस्ट्रेटस, प्लूरोटस सेपिडस, प्लूरोटस इरिंजी, प्लूरोटस कोलूबिनस, प्लूरोटस कोर्नुकोपी, प्लूरोटस फ्लेबीलेट्स, प्लूरोटस ट्यूवरेन्जिम, प्लूरोटस फॉसुलेट्स, प्लूरोटस ओपुन्टी, प्लूरोटस सिट्रिनोपिलियेटस, प्लूरोटस मेम्ब्रेनीसियास, प्लूरोटस प्लेटीपस ।

iv. आसानी से अधिक सुखा कर रखना:

आयस्टर खुंभी को आसानी से धूप में सुखाकर भविष्य के उपयोग के लिए रखा जा सकता है । ताजी खुंभी को छिद्रदार पॉलीथीन की थैलियों में फ्रिज में 1-40 से.ग्रे. पर 7 से 10 दिन तक आसानी से संग्रहित किया जा सकता है ।

v. अधिक उत्पादन क्षमता:

अन्य खेती योग्य खुंभियों की तुलना में इसकी उत्पादन क्षमता सबसे अच्छी है । एक टन सूखे भूसे से कम से कम 500 किलोग्राम खुंभी की ताजी फसल ली जा सकती है ।

 

vi. तीव्रवृद्धि:

प्लूरोटस की प्रजातियों विभिन्न तापक्रम पर बहुत तेजी से बढती है, कम समय में क्रियाधार के ऊपर फैल जाती हैं और कार्बन डाई ऑक्साइड की अधिक मात्रा को आसानी से सहन कर लेती हैं जिसके कारण अन्य प्रतिस्पर्धी कवकों के विरूद्ध एक रक्षात्मक कवच बन जाता है ।

व्यावसायिक उत्पादन:

आयस्टर खुंभी की खेती के लिए गेहूँ की भूसी, धान का पैरा, मक्के का भुट्‌टा, सूखी जलकुंभी, गन्ने की खोई, केले की पत्ती, तना, कपास का अवशिष्ट या लकड़ी का बुरादा रागी, मक्का, बाजरा, कपास, सरसों का डंठल या पत्तियाँ, चाय, कॉफी या जूट के अवशिष्ट आदि पर इसे आसानी से उगाया जा सकता है । जिस किसी भी किस्म के भूसे का प्रयोग करना हो वह सूखा हो और उसमें किसी भी तरह के फफूंद का प्रकोप नहीं होना चाहिये ।

ढींगरी की खेती निम्न चार चरणों में पूरी की जाती है:

(I) माध्यम बनाना:

उपरोक्त क्रियाधारों में से किसी भी एक क्रियाधार का उसकी उपलब्धता और कीमत के आधार पर चयन किया जाता है । इसके लिए डंठल के छोटे-छोटे टुकडे (3-5 से.मी.) करके उन्हें पानी में भिगोते हैं । जिससे यह पानी अच्छी तरह सोख ले और इनका सतह क्षेत्र बढ जाये ।

कटे डंठल या भूसे को बोरी में भरकर पानी में रात भर भिगोते हैं जिससे मूसा पानी से संतृप्त हो जाये (70-75 प्रतिशत नमी) । भिगोते समय यह ध्यान देना चाहिये कि भूसे का प्रत्येक भाग गीला हो जाये, इसके लिए भिगोते समय इसे बार-बार पलटते हैं ।

बरसात में भीगे या अपरिपक्व, अपशिष्ट के ऊपर कई प्रकार की फफूँदे लग जाती है जिससे फसल खराब हो जाती है । डंठल पर लगभग 35 कवक उपस्थित रहती हैं । ये विभिन्न प्रकार के विषले पदार्थ स्त्रावित करती है जो कि स्पान के फैलाव और उपज को प्रभावित करती है । विभिन्न उपचारों द्वारा माध्यम की सतह पर उपस्थित कवकों को नष्ट किया जाता है जिससे कि खुंभी की वानस्पतिक बाद अच्छी तरह से हो सके ।

आयस्टर की व्यवसायिक खेती में अपाश्चरीकृत माध्यम का उपयोग करने से सफलता नहीं मिलती क्योंकि प्रतिस्पर्धी कवकों के कारण असंगत उपज प्राप्त होती है ।

अतः माध्यम के उपचार के लिये निम्न विधियाँ उपयोग में लायी जाती हैं:

(a) रासायनिक विधि:

बिना जंग वाले (जी आई चादर के बने) ड्रम या 200 लीटर क्षमता वाले सीमेंट की टंकी में 100 लीटर पानी लेकर इसमें 125 मि.ली. लीटर फार्मेलिन और 7.5 ग्राम कारबेन्डजिम मिलाकर घोल बना लेते हैं ।

इस घोल में 10 किलो सूखे भूसे को बोरी में भरकर रातभर पानी में डुबोते हैं । ड्रम या टकी को पॉलीथीन की चादर से ढककर व अच्छी तरह से बांधकर 8 घंटे तक छोड देते हैं । अगले दिन भूसे को घोल से निकालकर साफ पक्की ढालू जमीन पर रखते हैं जिससे पानी निथर जाये । भूसा इतना गीला चाहिये कि उसका लड्‌डू बन सके पर हाथ से दबाने पर उसमें पानी न निकले ।

(b) वाष्प पाश्चरीकरण विधि:

इस विधि को वही किसान अपना सकते है जिनके पास पाश्चरीकृत कमरा उपलब्ध है । पहले से गीले भूसे को पाश्चरीकृत कमरे में लकड़ी की ट्रे या ढेर बनाकर रखते हैं । इसे भाप द्वारा 75-800 सेन्टीग्रेड पर 2 घण्टे तक रखते हैं । इसके बाद कमरे को 24 घंटे में ठंडा करते हैं और बीजाई कर देते हैं ।

(c) गर्म जल उपचार विधि:

इस माध्यम को गर्म जल में 70-750 सेन्टीग्रेड पर 1 घंटे रखते हैं । तत्पश्चात ठंडा करके बीजाई करते हैं ।

(d) किण्वीकरण:

इस विधि में पहले से भीगे भूसे का 3-4 फीट ऊँचा और 5 फीट चौडा ढेर बनाकर 2-3 दिन के लिए छोड देते हैं । सूक्ष्मजीवी किण्वीकरण के कारण इस देर का तापक्रम बढने लगता है । इसे ठण्डा करके बीजाई कर देते हैं । कुछ दक्षिण पूर्वी कंपनियां रूपांतरित किण्वीकरण तकनीक को भी उपयोग में लाती है ।

इसमें गेहूँ या धान के भूसे में अमोनियम सल्फेट या यूरिया 0.5 से 1.0 प्रतिशत की दर से, चूना 1 प्रतिशत, मुर्गी या घोडे की खाद 10 प्रतिशत की दर से नाइट्रोजन खाद की जगह मिलाई जाती है । गीला करने के बाद इन सभी पदार्थो को 70-90 सेन्टीमीटर ऊंचा देर बनाकर दो दिन रखते हैं । इसके बाद पल्टाई देकर सुपर फॉस्फेट 1 प्रतिशत और चूना 0.5 प्रतिशत मिलाते है । ठंडा करने के पश्चात इस मिश्रण में बीजाई की जाती है ।

(II) बीजाई (स्पानिंग):

खाद में स्पान मिलाने की प्रक्रिया को स्पानिंग कहते है । स्पानिंग का तरीका खुंभी उगाने के तरीके पर निर्भर करता है ।

खुंभी की खाद में बीजाई कई प्रकार से की जाती है ये निम्न है:

(a) सम्पूर्ण बीजायी:

खाद को पॉलीथीन के थैली में भरने से पहले उपयुक्त मात्रा में बीज को मिलाते हैं ।

(b) परतदार बीजाई:

ट्रे. थैली या शेल्फ में खाद की संपूर्ण सतह पर दाना बीज एक समान फैला दिया जाता है । इस छिडकाव के ऊपर खाद की एक पतली परत डाल दी जाती है ।

इसे एक परत बीजाई कहते हैं ।

द्वि परत बीजाई में ट्रे या थैली को पहले आधा भरते हैं और इसकी सतह पर बीज को मिलाया जाता है । अब ट्रे या थैली को पूरा भरकर पहले की तरह बीज बिखेरकर खाद की सतह से (3-4 सेमी. मोटी) ढक देते हैं ।

(c) स्पॉट बीजाई:

इसमें थैली की क्षमता के अनुसार खाद भरकर उसे समतल कर देते हैं । कतार में सेन्टीमीटर की दूरी पर उंगलियों से 25-5 सेन्टीमीटर गहरा गड्‌ढा बना लिया जाता है । लगभग 5 ग्राम (एक चाय चम्मच) बीज को सुराखों में डालकर खाद से ढक देते हैं ।

संपूर्ण बीजाई और किनारे पर बीजाई की अपेक्षा पूरी तरह परतदार बीजाई में अधिक पैदावार मिलती है । स्पाट बीजाई का उपयोग खाद स्पान से बीजाई करते समय किया जाता है ।

बीजाई और ऊष्मायन के लिए विभिन्न प्रकार के बर्तनों का उपयोग किया जाता है । मिट्‌टी के बर्तन, लकड़ी की ट्रे, बांस की डलियाँ, बोरे और पॉलीथीन थैलियाँ साधारणतः उपयोग में लाये जाते हैं ।

इसमें पॉलीथीन की थैली या संघनित पॉली थैलियाँ सबसे अच्छी पायी गयी है क्योंकि इन थैलियों का सरलता से भंडारण किया जा सकता है, फार्मेलिन से जीवाणुविहीन किया जा सकता है और दुबारा उपयोग में लाया जा सकता है ।

स्पान को तैयार किये गये माध्यम के 3-15 प्रतिशत क्रियाधार के सूखे भार के अनुपात से मिला देते हैं लेकिन उपयुक्त मिश्रण में 10 प्रतिशत का अनुपात सबसे अच्छा पाया गया । साथ ही साथ यह भी देखा गया कि निवेश द्रव्य की मात्रा बढाने से पैदावार भी अधिक मिलती हैं ।

 

(III) न्यूनतापूर्ति (सप्लीमेन्टेशन):

 

आयस्टर खुंभी की उपज बढाने के लिए माध्यम में बीजाई के पहले कई प्रकार के पदार्थ न्यूनतापूर्ति के लिए मिलाये जाते हैं । प्लूरोटस सेजोर काजू और प्लूरोटस फ्लेबेलेट्स के लिए निर्जीवीकृत मुर्गी की खाद उपयोग में लायी जाती है । जई का आटा और अरहर की दाल पाउडर भी प्लूरोटस की उपज बढाते हैं ।

खुंभी की शैया पर कुल्थी (75 ग्राम प्रति किलोग्राम भूसा) बीज छिडकने के बाद उपयोग में लाने से अच्छी पैदावार मिलती है । इसके अलावा स्टार्च (10 ग्राम प्रति किलो माध्यम), गेहूँ का चोकर, कपास की खली, ब्रीवर दाने, लकडी का बुरादा और मुर्गी की बीट की खाद 14 प्रतिशत के स्तर पर धान की भूसी, धान के पैरा में कपास की खली, गेहूँ का चोकर और सोयाबीन का आटा, गेहूँ का चोकर और ब्रीवर दाने और धान की भूसी (4 प्रतिशत) के उपयोग से खुंभी की पैदावार बढ़ती है ।

(IV) फसल उत्पादन:

बीजाई की गई खाद की थैलियों को अँधेरे कमरे (उत्पादन कक्ष) में 10 से 15 दिन (विभिन्न प्लुरोटस प्रजातियों के लिए अलग-अलग) तक रखते हैं तब तक कवक जाल माध्यम की निचली सतह पर भेदकर पहुंच जाती हैं ।

कवकजाल की वृद्धि के कारण माध्यम सफेद दिखायी देता है । बीज के फैलाव के समय कमरे का तापक्रम 25-280 सेन्टीग्रेड, आपेक्षित आर्द्रता 75-80 प्रतिशत और अंधेरा होना चाहिये । इस समय सबसे कम वातायन रहना चाहिये जिससे तापक्रम में बदलाव न आये ।

जब माध्यम पर खुंभी का कवकजाल पूरी तरह फैल जाये तब पॉलीथीन थैलियों को या तो निकाल दिया जाता है या उसे तेज चाकू की सहायता से लम्बाई में काट देते है, जिससे फलनकाय का विकास उचित प्रकार से हो सके । किसी भी दशा में थैलियों को 16-18 दिन बाद ही खोलना चाहिये ।

कवकजाल के पूरी तरह फैलने के बाद थैलियों या माध्यम के ब्लॉक्स को छिद्रदार बास के फ्रेम या लोहे की अलमारी पर 10-15 इंच की दूरी पर रखते हैं । फसल उगाने का कक्ष पूर्णत: वातायित होना चाहिये । कमरे की खिडकियां व दरवाजे प्रतिदिन 2 घटे खुले रहना चाहिये, जिससे कार्बन डाय ऑक्साइड बाहर निकल जाये तथा ऑक्सीजन की उचित मात्रा कमरे में विद्यमान रहे ।

फलनकाय बनते समय तापक्रम 25± 20 सेन्टीग्रेड, आर्द्रता 80-90 प्रतिशत एवं हल्का वातायन रहना चाहिये । नमी बनाये रखने के लिए माध्यम पर पानी का छिडकाव किया जाता है । ज्यादा पानी देने से माध्यम में पानी जमा हो जायेगा जिसके कारण से माध्यम सडने लगेगा और खुंभी के बनने में बाधा आयेगा । पानी का छिडकाव हमेशा ढींगरी तोडने के बाद करना चाहिये ।

यदि कमरे के अंदर का तापमान 300 सेन्टीग्रेड से अधिक हो जाता है तो समय-समय पर कमरें में पानी का हल्का छिडकाव करने से तापक्रम में कमी आती है और खुंभी जल्दी निकलती है । रात के समय कमरे में ठण्डी हवा अंदर आने के लिए खिडकी और दरवाजे खोल दिये जाते हैं ।

थैली खोलने के 3-4 दिन बाद खुंभी के पिन हेड बनने लगेंगे । अगले 2-3 दिन में परिपक्व खुंभिया तोडने लायक हो जाती है । यदि माध्यम पर खुंभी का कवकजाल पूरी तरह नहीं फैला है तो फलनकाय देरी से बनते हैं । ढींगरी के फलनकाय बनने के लिए प्रकाश की आवश्यकता होती है, अंत: प्रतिदिन 4 से 5 घंटे टयूबलाइट अथवा बल्ब का प्रकाश देना चाहिये । फसल चक्र 50-70 दिन तक चलता है ।

अंतिम भाग से खुंभी तोडने के पश्चात माध्यम के मध्य भाग में लंबी दरारें बनायी जाती हैं जिससे और अधिक खुंभियां बन सके । जब तक माध्यम सफेद रहता है तब तक उपयुक्त वातावरण में खुंभियां बनती रहती हैं । जब यह रंगहीन और नरम हो जाता है तब थैलियों को कमरे से बाहर निकाल लिया जाता है ।

(V) तुड़ाई:

जब खुंभी का किनारा ऊपर की तरफ मुडने लगता है तब प्लूरोटस के फलनकाय को तोड़ लिया जाता है । खुंभी की तुड़ाई के बाद फलनकाय में धीरे-धीरे पानी और भार में कमी आने लगती है और यह नाजुक हो जाती है ।

पानी की कमी की दर निम्न कारणों पर निर्भर करती है:

i. खुंभी की रचना एवं अवस्था

ii. वातावरण की आपेक्षिक आर्द्रता एवं तापक्रम एवं

iii. खुंभी के ऊपर एवं पैकेज में हवा का बहाव

खुंभी की तुड़ाई के बाद पानी की कमी होने के साथ-साथ खुंभी गहरे रग की होने लगती है और इसके किनारे टूटने लगते हैं । खुंभी के फलनकाय चिपचिपे होने लगती हैं और बीजाणु झड जाते हैं जिसके कारण ये खुंभी का विशिष्ट रूप और सुगंध खराब हो जाते हैं ।

आयस्टर खुंभी को बीजाणु झडने के पहले ही तोड़ लेना चाहिये । खुंभी को तोडते समय इसे थोडा घुमाया जाता है, जिससे खुंभी का टूटा भाग सतह पर न रह जाये । इस टूटे भाग पर प्रायः जीवाणु संक्रमण हो जाता है और भूसा सडने लगता है । खुंभी को काटने के पश्चात डंठल को जड से काट देना चाहिये ।

प्लूरोटस स्पशीज में लगभग 5 बार तुड़ाई की जाती है । पहली फसल से सबसे अधिक पैदावार प्राप्त होती है और बाद की तुड़ाई में पैदावार क्रमशः घटती जाती ढींगरी के बीजाणु से कुछ लोगों को एलर्जी होती है अतः उत्पादन कक्ष में जाने से पहले नाक पर पतला कपड़ा बांध लेना चाहिये तथा खिडकिया व दरवाजे खोलने के दो घंटे बाद कमरों में प्रवेश करना चाहिये ।