कुकब्रिट फसलों के रोगों को नियंत्रित करना | Read this article in Hindi to learn about how to control diseases of cucurbit crops.

1. फल विगलन:

कारण:

यह रोग पिथियम अफैनीडर्मेटम फ्यूजेरियम, राहजोक्टोनिया और फाइटोफ्थोरा जाति के कवकों से होता है । प्रायः स्कलेरोशियम रोल्फसाई और ओजोनियम जाति के कवक भी मृतजीवी के रूप में सड़े हुए फलों पर पाये जाते हैं । जायद में होने वाली सभी कद्‌दूवर्गीय सब्जियों में इस रोग का आक्रमण देखा गया है-विशेषकर तोरई, चिचिंडा, परवल, खीरा, लौकी और करेले में ।

रोकथाम:

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(I) जहां तक संभव हो फलों को भूमि के सम्पर्क में आने से बचाया जाना चाहिए । लौकी तोरई खीरा करेला परवल चिचिंडा कुंदरू इत्यादि फसलों में लताओं को समुचित सहारा देने की व्यवस्था की जानी चाहिए । शेष फसलों में फल बनना आरम्भ होने पर जमीन पर सूखी घास रख देनी चाहिए ताकि फल भूमि के सम्पर्क में न आएं ।

(II) फसल में जल निकालने के लिए उचित व्यवस्था की जानी चाहिए । आवश्यकता से ज्यादा सिंचाई नहीं की जानी चाहिए ।

(III) डाइथेन-एम-45 नामक कवकनाशी का 0.25 प्रतिशत घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए । छिड़काव करने के एक सप्ताह बाद तक फल को नहीं तोड़ना चाहिए ।

(IV) उचित फसल चक्र अपनाना चाहिए ।

2. रोमिल फफूंद:

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कारण:

यह रोग स्युडोपेरीनोस्पोरा क्यूबेन्सिस नामक कवक से होता है उत्तरी भारत में यह तोरई एवं खरबूज में देखा गया है ।

रोकथाम:

I. प्रभावित पत्तियों को शीघ्रातिशीघ्र तोड़ देना चाहिए, ताकि रोग अन्य पत्तियों पर फैलने न पाए ।

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II. जैसे ही रोग का आक्रमण दिखाई दे डाइथेन एम-45 या ब्लीटॉक्स 0.25 प्रतिशत घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए । दूसरा छिड़काव 15 दिन के अन्तर पर किया जाता है ।

III. जल-निकास की उचित व्यवस्था की जाए और लताओं को सहारा दिया जाए ।

IV. उचित फसल चक्र अपनाएँ जाएँ ।

3. मूल-ग्रन्थि रोग:

कारण:

यह रोग मेलाइडोगाइन जावनिका में इंर्कोग्नटा और आरिनेरिया जीवाणुओं से होता है । लगातार उसी भूमि में कद्‌दूवर्गीय फसलें लेते रहने से यह रोग व्यापक रूप से आता है । इसके प्रभाव से पौधों की वृद्धि अच्छी नहीं होती है । फलों के आकार में घटोत्तरी होती है और बाद में पैदावार में भी भारी कमी आ जाती है ।

रोकथाम:

I. उचित फसल चक्र अपनाये जाने चाहिए ।

II. रोगरोधी किसे उगाई जानी चाहिए ।

III. इन फसलों के लिए नेमागोल 2.5 गैलन प्रति हैक्टर की दर से उपयोग किया जाना चाहिए ।

4. झुलसा:

कारण:

यह रोग आल्टरनेरिया प्रजाति के कवकों से होता है । कभी-कभी खरबूजे में झुलसा का भी प्रकोप देखा गया है । विशेषकर जब फसल आलू या मटर की फसल के बाद उसी खेत में ली जाती है ।

रोकथाम:

I. उचित फसल चक्र अपनाये जाने चाहिए ।

II. डाइथेन एम-45 का 0.25 प्रतिशत घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए ।

5. पर्णदाग:

कारण:

यह सरकोस्पोरा सिटूलीना व सरकोस्पोरा मिसोराडको से फैलता है । यह रोग गर्म अधिक देखा गया है । यदि उस समय आर्द्रता बढ जाती है तो इसका भारी प्रकोप होता है ।

रोकथाम:

I. उचित फसल चक्र अपनाये जाने चाहिए ।

II. जल विकास का अच्छा प्रबंध किया जाना चाहिए ।

III. डाईथेन 0-45 का 0.25 प्रतिशत घोल बनाकर छिडकाव करना चाहिए ।

6. चूर्णी फफूंद:

कारण:

यह रोग एरिसाइफी, सिकोरेसियेरम और स्फीरोधिका फ्‌यूलिजेना नामक कवकों से होता है । यह एक बहुत ही प्रचलित बीमारी है, जिसका प्रकोप पूरे देश में लगभग सभी कद्दूवर्गीय सब्जियों में होता है । कभी-कभी तो कृषकों को इसके कारण भारी हानि उठानी पड़ती है । उत्तरी भारत में खरबूजे व ककड़ी की फसल तो कभी-कभी पूरी नष्ट हो जाती हैं । लताओं के साथ-साथ इस बीमारी का प्रकोप फलों पर भी होता है ।

रोकथाम:

I. फसल में गंधक चूर्ण का बुरकाव किया जाए ।

II. कैरोथेन नामक रसायन इसके लिए उपयुक्त पाया गया है । इसका 0.05 प्रतिशत घोल बनाकर 15-15 दिन के अन्तर में छिड़काव किया जाता है ।

III. जल-निकास की उचित व्यवस्था होनी चाहिए ।

7. एन्थ्रेक्नोज:

कारण:

यह रोग भी काफी प्रचलित है । यह कोलिटोटाईकम लेजीनेरियम नामक कवक द्वारा उत्पन्न होता है । तरबूज, खरबूज, लौकी, खीरा ककडी इत्यादि फसल इस रोग से प्रभावित होते हैं ।

रोकथाम:

I. रोगग्रस्त पौधों से पत्तियाँ गिरकर भूमि में मिल जाती हैं । बाद में यदि फसल उसी खेत में बोई जाती है तो रोग का आक्रमण हो जाता है । इसलिए यह आवश्यक है कि जिस खेत में यह बीमारी आ गई हो उसमें दुबारा दो वर्ष की अवधि तक कद्‌दूवर्गीय सब्जियाँ न बोई जाएँ ।

II. फसल में जल निकास की उचित व्यवस्था की जाए, जिससे आर्द्रता न बढ़ने पाये ।

III. फसल पर जब भी रोग का प्रकोप दिखाई दे, डाईथेन एम-45 का 0.25 प्रतिशत घोल बनाकर छिड़काव किया जाए । यदि उपरोक्त कवकनाशी उपलब्ध नहीं है तो ब्लाइटाक्स क्यूप्रोसाइड फाइटोलान या बोर्डो मिश्रण का छिड़काव किया जाए ।

8. फ्यूजेरियम ग्लानि:

कारण:

यह रोग फ्यूजेरियम जाति के कवकों से फैलता है जब तापमान 27 डिग्री से 30 डिग्री सेग्रे. के बीच होता है तो इसका आक्रमण अधिक होता है । यह रोग पिछले लगभग 80 वर्ष से जाना जा रहा है । लेकिन भारत में सन 1955 में पहली बार यह महाराष्ट्र में पाया गया था । आजकल यह बीमारी प्रत्येक प्रान्त में कद्‌दूवर्गीय फसलों में पाई जाती है ।

रोकथाम:

I. उचित फसल चक्र अपनाये जाने चाहिए ।

II. बीजों को बैविस्टीन से उपचारित करके बोना चाहिए । एक किलोग्राम बीज में 25 ग्राम रसायन डालना चाहिए ।

III. रोगरोधी किस्मों को बोया जाना चाहिए ।

9. जीवाण्विक मृदु विगलन:

कारण:

यह रोग इरविनिया केरोटोवोरा नामक जीवाणु से होता है । यह रोग फलों में पाया जाता । जब फल बाजार ले जाए जाते हैं तो उन पर खरोच लग जाने से जीवाणु का आक्रमण हो जाता है । फलतः फलों पर धब्बे बन जाते है ।

रोकथाम:

फलों को तोड़ते समय किसी तरह की हानि नहीं पहुंचनी चाहिए ।

10. जीवाण्विक पर्णदाग:

कारण:

यह रोग जैथेमोनाज कंपैस्ट्रिस जीवाणु से होता है जब तापमान 30 डिग्री से. के लगभग होता है तो इसका प्रकोप अधिक होता है ।

रोकथाम:

मरक्यूरिक क्लोराइड से बीज को उपचारित करना चाहिए । एक किलो बीज में एक ग्राम रसायन डालना चाहिए ।

11. वायरस या विषाणु रोग:

कारण व लक्षण:

I. कुकुमिस वायरस:

यह विषाणु साधारणतः कद्‌दूगर्वीय सभी फसलों में पाया जाता है । यह 65 से 70 डिग्री से॰ग्रेड तापमान पर नष्ट हो जाता है । इसके आक्रमण से पत्तियाँ मुड़ना शुरू करती हैं । उनका आकार छोटा हो जाता है तथा फलों का आकार काफी छोटा रह जाता है ।

II. कुकुमिस वायरस (ख):

अन्य देशों में इसे वायरस- 3 व 4 के नामों से पुकारा जाता है । यह अच्छा मोजैक के लिए उत्तरदायी है । यह 95 से 98 से तापमान पर नष्ट हो जाता है ।

III. कुकुमिस वायरस (ग):

यह 54 से 56 से. तापमान पर नष्ट हो जाता है । येलोवेन मोजैक अथवा पीतशिरा मोजैक नामक मोजैक वायरस से होता है, जिसमें पत्तियाँ पीली पड़ जाती हैं ।

रोकथाम:

i. रोगग्रस्त पौधों को निकाल देना चाहिए ।

ii. उच्चकोटि के बीज का उपयोग करना चाहिए ।

iii. फसलों पर किसी उपयुक्त कीटनाशी का छिड़काव करते रहना चाहिए । जिससे एक स्थान से दूसरे स्थान पर रोग न फैलने पाये ।