Read this article in Hindi to learn about:- 1. कीट  के सिर के भाग (Parts of Insect’s Head) 2. कीट  के सिर के सीवन (Head Sutures of Insects) 3. श्रृंगिकाएं (Antennae).

कीट  के सिर के भाग (Parts of Insect’s Head):

कीट की वयस्क अवस्था में सिर के अंदर किसी भी प्रकार के खंड नहीं पाये जाते हैं मगर भ्रूण अवस्था में सिर 6 सुस्पष्ट खंडों में विभक्त होता है ।

सिर के विभिन्न भाग निम्नानुसार हैं:

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सिर के भाग:

(i) लेब्रम:

ये स्वतन्त्र रूप से क्लाइपीयस के नीचले सिरे से जुड़ा होता है । यह मुखांग का एक भाग है अतः इसे ऊपरी होठ भी कहते हैं ।

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(ii) क्लाइपीयस:

फ्रांस के नीचे की ओर लगभग केन्द्र में जो चौड़ी पट्‌टी होती है, क्लाइपीयस कहलाती है । अगले सिरे पर एक पतली झिल्ली द्वारा लेब्रम से जुड़ा होता है जो कि इसके साथ ही घूमता है ।

(iii) फ्रोंस:

यह भाग वरटेक्स के नीचे सामने की ओर होता है । इसके मध्य में सामान्य नेत्रक पाये जाते हैं । इसका आकार उल्टे ‘Y’ के समान होता है एवं ये क्लाइपीयस तक लम्बा व दोनों संयुक्त नेत्रों तक चौड़ा होता है ।

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(iv) जीना:

ये दो होते है तथा संयुक्त नेत्रों के पीछे गाल पर स्थित होते हैं । सिर के पीछे स्थित जीना को पश्य जीना कहते हैं । इन दोनों के मध्य की सीवन को आक्सीपुट सूचर कहते हैं ।

(v) वरटेक्स:

फ्रोंस के ऊपर एवं दोनों संयुक्त नेत्रों के मध्य का ऊपरी भाग वरटेक्स कहलाता है । इसी भाग में श्रृंगिकायें व सामान्य नेत्रक उपस्थित रहते हैं ।

(vi) आक्सीपुट:

सिर के पीछे वरटेक्स तथा गर्दन के मध्य का भाग आक्सीपुट कहलाता है । यह भाग आक्सीपीटल सूचर द्वारा वारटेक्स से अलग रहता है ।

(vii) एपीक्रेनियम:
सिर के ऊपर का सम्पूर्ण हिस्सा जो कि फ्रोंस से लेकर आक्सीपुट सूचर तक स्थित होता है, एपीक्रोनयम कहलाता है । ये दो प्लैट्‌स में विभाजित होता है, जिन्हें पेराइटल कहते हैं । प्रत्येक प्लेट में एक-एक पर श्रृंगिका तथा संयुक्त नेत्र पाये जाते हैं ।

(viii) एन्टीनल स्कलेराइट:

श्रृंगिकाओं के चारों ओर एक सीवन होती है जिससे घिरे हुए भाग को एन्टीनल स्कलेराइट कहते हैं ।

कीट के सिर के सीवन (Head Sutures of Insects):

सिर के ऊपरी सतह पर उपस्थित विभिन्न स्कलेराइट्स के मध्य की संधि रेखाओं को सीवन (सूचर्स) कहते हैं ।

(i) एपीक्रेनियल सीवन:

यह सीवन सिर के सामने एवं ऊपर वाले भाग पर उल्टे ‘Y’ के आकार की होती है । इसका तना कोरोनल सूचर व दोनों भुजाएं फ्रन्टल सूचर कहलाती है । फ्रन्टल सूचर का फैलाव भूमिकाओं के आधार तक होता है । निर्मोचन के समय इसी स्थान से त्वचा फटती है जिससे पुरानी त्वचा आसानी से अलग हो जाती है ।

(ii) क्लाइपियो – लेब्रल सीवन:

क्लाइपीयस व लेब्रम जिस संधि रेखा पर जुड़े हुए होते हैं उसे क्लाइपियो-लेब्रल सीवन कहते हैं ।

(iii) क्लाइपियो-फ्रेन्टल सीवन:

क्लाइपीयस व फ्रान्स के मध्य का भाग होता है । इसे एपीस्टोमल सीवन भी कहते हैं ।

(iv) आक्सीपीटल सीवन:

ये सीवन सिर के पृष्ठ भाग में स्थित होती है तथा यह जीना व पश्च जीना को विभाजित करती है । आकार में ये सीवन घोड़े की नाल के समान होती है ।

(v) फ्रेन्टोजीनल सीवन:

सिर के प्रत्येक ओर पार्श्व में विकसित इस सीवन पर क्लाइपिओ-फ्रन्टल सीवन व सब जीनल सीवन का मिलन होता है । ये संयुक्त नेत्र के नीचे तक पायी जाती है ।

(vi) सबजीनल सीवन:

ये सीवन भी सिर के प्रत्येक पार्श्व में उपस्थित होती है ये दो भागों में विभक्त होती हैं जो हाइपोस्टोमल सीवन तथा प्लूरोस्टोमल सीवन कहलाते हैं ।

(vii) आक्यूलर सीवन:

ये सीवन संयुक्त नेत्र के चारों ओर गोलाई में पायी जाती है ।

(viii) एन्टीनल सीवन:

यह श्रृंगीकाओं के चारों ओर दबा हुआ भाग होता है ।

कीट  के सिर की श्रृंगिकाएं (Antennae of Insect’s Head):

सिर पर नेत्रों के आगे अथवा उनके मध्य एक जोड़ी सन्धित उपांग लगे होते हैं । इन्हें श्रृंगिकाएँ कहते हैं । ये अत्यन्त चलायमान होते हैं । सामान्य श्रृंगिकाएँ तन्तुरूपी और अनेकों खण्डों में विभक्त होती है ये खण्ड आकार में समान अथवा असमान हो सकते हैं । उच्च कीट गणों में भूमिकाओं के विभिन्न खण्डों में स्पष्ट विविधता देखी जाती है ।

श्रृंगिकाओं के इन खण्डों को मूलतः निम्नलिखित तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है:

(i) स्केप:

ये श्रृंगिकाओं का प्रथम अथवा आधार भाग होता है । यह अपने से आगे के हर खण्ड से लम्बा होता है ।

(ii) पेडिसल:

ये स्केप से अगला खण्ड है । यह स्केप से पतला एवं आकार में छोटा होता है । इस खण्ड में कुछ कीटों में संवेदी अंग पाये जाते हैं जो कि जोनसन अंग कहलाते हैं ।

(iii) फ्लेजीलम:

पेडिसल से जुड़ा श्रृंगिका का शेष भाग फ्लेजिलम कहलाता है । ये साधारणतः लम्बा व बहुखण्डीय होता है । विभिन्न कुलों के कीटों में वातावरण और स्वभाव के अनुरूप ढलते रहने के फलस्वरूप फ्लेजिलम के आकार भिन्न-भिन्न होते हैं ।

श्रृंगिकाओं के कार्य:

श्रृंगिकाओं का कार्य स्पर्श तथा स्थिति ज्ञान करना है, साथ ही कीटों को भोजन ढूँढने तथा रास्ता मालूम करने में भी इनसे सहायता मिलती है । श्रृंगिकाओं के कारण कीट को महत्वपूर्ण अप्रधान लैंगिक लक्षण प्राप्त होते हैं, साथ ही कुछ कीटों में ये अन्य कार्यों के लिये रूपान्तरित हो गयी हैं ।

श्रृंगिकाओं के रूपान्तरण:

श्रृंगिकाओं के कार्य एवं उपयोग की दृष्टि से विभिन्न रूपान्तरण निम्नलिखित हैं:

i. शूकाकार:

इस प्रकार की श्रृंगिकाओं में आधारखण्ड मोटा होता है एवं अगले खण्ड सिरे की ओर पतले होते चले जाते है तथा रोम के समान रचना बनाते हैं । अन्तिम खण्ड पतला तथा नुकीला होता है ।

उदाहरण – तिलचट्टा (कॉकरोच), ड्रेगन फ्लाई ।

ii. धागाकार:

इस प्रकार की श्रृंगिकाएँ अपेक्षाकृत पतली एवं अधिक लम्बी होती हैं । इनके सभी खण्ड समान मोटाई युक्त होते हैं एवं खण्डों के मध्य का जोड़ स्पष्ट नहीं होता है ।

iii. मुक्ताकार:

इस प्रकार की श्रृंगिकाओं में प्रत्येक खण्ड मोती के समान अथवा अण्डाकार होते हैं । ये खण्ड व्यास में नीचे से ऊपर तक लगभग एक जैसे ही होते हैं ।

उदाहरण – दीमक व भृंग ।

iv. दंताकार:

इसमें प्रत्येक खण्ड का किनारा आरी के समान दांत के रूप में उभरा होता हैं ।

उदाहरण – दाल की घुन ।

v. गदाकार:

इनके आधारीय खण्ड पतले तथा लम्बे होते हैं तथा ऊपर की ओर निरन्तर बड़े होते जाते हैं फलस्वरूप भूमिकाओं का आकार आधार की ओर पतला तथा सिर की ओर मोटा हो जाता है ।

उदाहरण – तितली ।

vi. घुण्डीदार:

ये दण्डाकार श्रृंगिकाओं का ही रूपान्तरण है । इसमें आधारीय खण्ड लम्बे एवं पतले होते हैं तथा अंतिम सिरे के 3-5 खण्ड एकदम आकार में बड़े होकर एक घुण्डी का रूप ले लेते हैं ।

उदाहरण – आटे का लाल भृंग ।

vii. कंधाकार:

इसमें प्रत्येक खण्ड से कंधाकार प्रवर्ध निकलते हैं अतः ये कंधे के समान दिखाई देती है ।

उदाहरण – शलभ ।

viii. द्विकंधाकार:

इसमें प्रत्येक खण्ड में दोनों ओर कंधाकार प्रवर्ध निकलते हैं जिससे इसकी रचना पूर्ण कंधी के समान होती है ।

उदाहरण – रेशम कीट का पतंगा ।

ix. पत्राकार:

इस प्रकार की श्रृंगिकाओं में सिर के अंतिम खण्ड आपस में मिलकर एक पत्ते का आकार धारण कर लेते हैं ।

उदाहरण : गुबरैला बिटल, व स्केरेबिडी कुल के भृंग ।

x. कोहनीदार:
इनमें स्केप काफी बड़ा होता है तथा पेडीसल बहुत ही छोटा व विभिन्न आकार लिये हुए होता है । फ्लेजिलम स्केप के साथ समकोण बनाता है ।

उदाहरण – चींटी, मधुमक्खी, ततैया, चावल की घुन ।

xi. पिच्छकी:

ये द्विकंधाकार श्रृंगिकाओं का ही रूपान्तरण है । इसमें प्रत्येक खण्ड से निकले हुए प्रवर्धन पतले तथा रेशेदार होते हैं फलस्वरूप ये पंखों के समान दिखाई देते हैं ।

उदाहरण – नर मच्छर ।

xii. चक्राकार:

इस तरह की श्रृंगिका के प्रत्येक खण्ड के जोड़ पर चारों ओर बालों के झुण्ड पाये जाते हैं ।

उदाहरण – आम की चूर्णी मुत्कुण का नर ।

xiii. पंखाकार:

ये कंधाकार श्रृंगिकाओं का ही रूप है जिनके प्रवर्धन काफी लम्बे चौड़े होते हैं और सभी मिलकर पंख का आकार धारण कर लेते हैं ।

उदाहरण – सीडार भृंग व स्ट्रेप्सीप्टेरा कीटों में पायी जाने वाली श्रृंगिकाएं ।

xiv. शूकधारी:

इस प्रकार की श्रृंगिकाओं के अन्तिम खण्ड पर एक मोटा बाल होता है जिसे एरिस्टा कहते हैं ।

उदाहरण – घरेलू मक्खी ।

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